सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat


Mahabharat

उसके बाद युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय मुनि से पूछा मुनिवर द्रोपदी के लिए मुझे जैसा शोक होता है वैसा न तो अपने लिए होता है। न ही किसी कन्या के लिए और न राज्य छिन जाने के लिए। यह जैसी पतिव्रता है, वैसी क्या कोई दूसरी नारी भी आपने पहले कभी कहीं देखी सुनी है। 

तब मार्कण्डेयजी ने कहा राजकन्या सावित्री ने  यह कुल कामिनियों का परम सौभाग्यरूप पतिव्रत्य का सुयश प्राप्त कर लिया था। वह मैं कहता हूं सुनो मद्रदेश के अश्वपतिनाम का एक बड़ा ही धार्मिक राजा था। जिसकी पुत्री का नाम सावित्री था। सावित्री जब विवाह योग्य हो गई। तब महाराज उसके विवाह के लिए बहुत चिंतित थे। उन्होंने सावित्री से कहाबेटी अब तू विवाह के योग्य हो गयी है। इसलिए स्वयं ही अपने योग्य वर चुनकर उससे विवाह कर लें। धर्मशास्त्र में ऐसी आज्ञा है कि विवाह योग्य हो जाने पर जो पिता कन्यादान नहीं करता, वह पिता निंदनीय है। ऋतुकाल में जो स्त्री से समागम नहीं करता वह पति निंदा का पात्र है। पति के मर जाने पर उस विधवा माता का जो पालन नहीं करता । वह पुत्र निंदनीय है।

तब सावित्री शीघ्र ही वर की खोज करने के लिए चल दी। वह राजर्षियों के रमणीय तपोवन में गई।  कुछ दिन तक वह वर की तलाश में घुमती रही। एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे हुए देवर्षि बातें कर रहे थे। उसी समय मंत्रियों के सहित सावित्री समस्त वापस लौटी। तब राजा की सभा में नारदजी भी उपस्थित थे। नारदजी ने जब राजकुमारी के बारे में राजा से पूछा तो राजा ने कहा कि वे अपने वर की तलाश में गई हैं। जब राजकुमारी दरबार पहुंची तो और राजा ने उनसे वर के चुनाव के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने शाल्वदेश के राजा के पुत्र जो जंगल में पले-बढ़े हैं उन्हें पति रूप में स्वीकार किया है। 

उनका नाम सत्यवान है। तब नारदमुनि बोले राजेन्द्र ये तो बहुत खेद की बात है क्योंकि इस वर में एक दोष है तब राजा ने पूछा वो क्या तो उन्होंने कहा जो वर सावित्री ने चुना है उसकी आयु कम है। वह सिर्फ एक वर्ष के बाद मरने वाला है। उसके बाद वह अपना देहत्याग देगा। तब सावित्री ने कहा पिताजी कन्यादान एकबार ही किया जाता है जिसे मैंने एक बार वरण कर लिया है। मैं उसी से विवाह करूंगी आप उसे कन्यादान कर दें। उसके बाद सावित्री के द्वारा चुने हुए वर सत्यवान से धुमधाम और पूरे विधि-विधान से विवाह करवा दिया गया। 

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त्रिजटा का ये सपना सुन सीता समझ गई रावण की मौत...

 त्रिजटा बोली एक बार रावण ने नलकु बेर की स्त्री रंभा का स्पर्श किया था, इसी से उसको शाप हुआ कि परस्त्री को विवश करके उस पर बलात्कार नहीं कर सकता।  तुम्हारे स्वामी रामचंद्रजी लक्ष्मण को साथ लेकर शीघ्र ही यहां आने वाले हैं। उस समय सुग्रीव उनकी रक्षा में रहेंगे। भगवान राम अवश्य ही तुम्हे यहां से छुड़ा ले जाएंगे। मैंने भी अनिष्ट की सूचना देने वाले सपने देखें हैं। जिनसे रावण का विनाशकाल निकट जान पड़ता है। सपने में देखा है कि रावण का सिर मूढ़ दिया गया है। उसके सारे शरीर पर तेल लगा है। 

वह कीचड़ में डूब रहा है। यह भी देखने में आया कि गधों से जुते हुए रथ पर खड़ा होकर वह बारंबार नाच रहा है। उसके साथ ही ये कुं भकर्ण आदि भी मूंढ़-मूढ़ाए लाल-चंदन लगाए हुए हैं। लाल-लाल फूलों की माला पहने नंगे होकर दक्षिण दिशा को जा रहे हैं। केवल विभीषण श्वेत पर्वत के ऊपर खड़े हुए हैं। विभीषण के चार मंत्री भी उनके साथ उन्हीं के वेष में देखे गए हैं। ये लोग उस आने वाले महान डर से मुक्त हो जाएंगे। स्वप्र में यह भी देखा कि भगवान राम के बाणों से समुद्र सहित सम्पूर्ण पृथ्वी आच्छादित हो गई है। यह निश्चय है कि तुम्हारे पति का सुयश सारी पृथ्वी पर फैल जाएगा। त्रिजटा की यह बात सुनकर सीता के मन में बड़ी आशा बंध गई की पतिदेव से भेंट होगी। उसकी बात समाप्त होते ही सभी राक्षसियां सीता के पास आ गई। 

सीता एक शिला पर बैठी पति की याद में रो रही थी। 

इतने में ही रावण ने आकर उन्हें देखा। काम बाण से पीडि़त होकर सीता के पास पहुंचा। रावण कहने लगा सीते आजतक तुमने अपने पति पर अनुग्रह दिखाया। यह बहुत हुआ अब मुझ पर कृपा करो। रावण के ऐसा कहने पर सीता ने मुंह फेर लिया। उनकी आंखों में आंसु की झड़ी लग गई। राक्षसराज तुमने बहुत बार ऐसी बातें कहीं है जिससे मुझे तकलीफ पहुंची हैं। मैं परायी स्त्री हूं। पतिव्रता हूं तुम किसी तरह भी मुझे पा नहीं सकते। यह कहकर सीता आंचल से अपना मुंह छुपाकर रोने लगी। उसका ऐसा उत्तर पाकर रावण अंतरध्यान हो गया।

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रावण सीताजी से दूर रहता था क्योंकि उसे मिला था...

 काम के वश में होकर जब रावण सीता को लंका ले गया। उसने उसे सुंदर भवन में ठहराया। जो अशोक वाटिका के निकट था। सीता तप्स्विनी के वेष में वहां ही रहती और तप उपवास किया करती थी। वह इसी कारण दुबली हो गई।रावण ने सीता की रक्षा के लिए राक्षसियों को नियुक्त कर दिया जो बहुत भयानक दिखाई पड़ती थी। वे सब के सब सीता को सब ओर से घेरकर बहुत ही सावधानी के साथ रात-दिन सेवा करती थी। 

वे बहुत ही कठोर तरीके से उन्हें धमकाती ओर कहती थीं। आओ हम सब मिलकर इसको काट डालें और तिल जैसे छोटे-छोटे टूकड़े करके खा जाएं। उनकी बातें सुनकर सीता ने कहा-तुम लोग मुझे जल्दी खा जाओ। मुझे अपने जीवन का थोड़ा भी लालच नहीं है। मैं अपने प्राण दे दूंगी लेकिन रामजी के अलावा कोई परपुरुष मुझे छू भी नहीं सकता। अगर ऐसा हुआ तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी। सीता की बात सुनकर एक राक्षसी रावण को सुचना देने चली गई।

उनके चले जाने पर एक त्रिजटा नाम की राक्षसी वहां रह गई। वह धर्म को जानने वाली और प्रिय वचन बोलने वाली थी। उसने सीता को संात्वना देते हुए कहा सखी तुम चिमा मत करो। यहां एक श्रेष्ठ राक्षस रहता है जिसका नाम अविंध्य है। उसने तुमसे कहने के लिए यह संदेश दिया है कि तुम्हारे स्वामी भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ कुशल पूर्वक हैं। वे इंद्र के समान तेजस्वी वनराज सुग्रीव के साथ मित्रता करके तुम्हे छुड़वाने की कोशिश कर रहे हैं। अब रावण से तुम्हें नहीं डरना चाहिए क्योंकि रावण ने नल कूबेर की पत्नी रंभा को छुआ था तो उसे शाप मिला था कि वह किसी पराई स्त्री के साथ उस  इच्छा बिना संबंध नहीं बना पाएगा और अगर ऐसा किया तो वह भस्म हो जाएगा।
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ऐसी गलतफहमी होती है सबसे बुरी

 सीताहरण के दुख से व्याकुल रामचंद्रजी पम्पा सरोवर पर आए। उसके जल में स्नान करके उन्होंने पितरों का तर्पण किया। उसके बाद दोनों भाई पर्वत पर चढऩे लगे। उस समय पर्वत की चोटी पर उन्हें पांच वानर दिखाई पड़े। सुग्रीव ने जब दोनों को आते देखा तो उन्होंने अपने बुद्धिमान मंत्री हनुमान को भेजा। हनुमान से दोनों की बातचीत हो जाने पर दोनों ने सुग्रीव से मित्रता की। 

उसके बाद रामजी ने सुग्रीव से बाली की रक्षा की प्रतिज्ञा की। सुग्रीव ने उन्हें सीता को ढंूढने में मदद करने का विश्वास दिलाया।  फिर सब मिलकर युद्ध की इच्छा से किष्किंधा पहुंचे। वहां जाकर  सुग्रीव ने जिस प्रकार सिंहनाद कर रहा उससे मालूम होता है कि इसे कोई सहायक मिल गया है लेकिन बाली नहीं रूका वह बिना उसके बल की परवाह करते हुए। युद्ध करने जा पहुंचा। उसके बाद सुग्रीव और बाली में लंबा युद्ध चला। जब रामजी ने बाली को तीर मारना चाहा तो उन्हें सुग्रीव और बाली के बीच अंतर समझ नहीं आ रहा था। 

तब हनुमानजी ने सुग्रीव के गले में फूलों का हार डाल दिया और रामजी ने बाली को पहचानकर उसका वध किया। इस कथा से यही बात समझ आती है कि दुश्मन चाहे कितना ही कमजोर हो उसे कमजोर नहीं समझकर और चौकन्ने रहकर उसका सामना करना चाहिए कभी भी ये गलतफहमी ना पाले की कोई आपसे कमजोर है।

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ऐसे तैयार किया रावण ने मारीच को हिरण बनने के लिए....

शूर्पणखा ने जाकर रावण को सारी बात बताई। रावण ने उसे संात्वना दी। उसके बाद रावण  ने महासागर पार किया, फिर  ऊपर ही ऊपर गोकर्ण तीर्थ में पहुंचा। वहां आकर रावण अपने भूतपूर्व मंत्री मारिच से मिला। जो रामचंद्रजी के ही डर से वहां छिपा तपस्या कर रहा था। रावण को आया देखकर उसने उनका सत्कार किया। उसके बाद उसने कहा मुझसे यदि आपका कोई कठिन से कठिन कार्य भी होने वाला हो तो उसे नि:संकोच बताएं। राक्षसराज ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी जो आपको मेरे पास आना पड़ा।

तब रावण गुस्से से भरा हुआ था उसने बताया की राम व लक्ष्मण ने शूपर्णखा के नाक-कान काट दिए। मारीच ने कहा- रावण श्रीरामचंद्रजी के पास जाने से तुम्हारा कोई लाभ नहीं है। मैं उनका पराक्रम जानता हूं। भला इस जगत में ऐसा कौन है। जो उनके बाणों के वेग को सह पाए। उसकी बात सुनकर रावण का गुस्सा सांतवे आसमान पर था।  उसने मारीच को डांटते हुए कहा तू मेरी बात नहीं मानेगा तो निश्चय ही तुझे अभी मौत के घाट उतार दूंगा। मारीच ने मन ही मन सोचा- यदि मृत्यु निश्चित है तो श्रेष्ठ पुुरुष के ही हाथ से मरना अच्छा होगा। 

फिर उसने पूछा अच्छा बताओं मुझे तुम्हारी क्या सहायता करनी होगी। रावण ने कहा तुम एक सुंदर हिरण का रूप बनाओ। जिसके सिंग रत्नमय प्रतीत हो। शरीर भी चित्र-विचित्र रत्नों वाला ही प्रतीत हो। ऐसा रूप बनाओं की सीता मोहित हो जाए। अगर वो मोहित हो गई तो जरूर वो राम को तुम्हें पकडऩे भेजेगी। मैं उसे हरकर ले जाऊं गा और रामचंद्र अपनी प्यारी स्त्री के वियोग में बेसुध होकर अपनी जान दे देंगे।

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इसलिए काट दिए लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक कान

कैकयी ने भरत को बुलवाया कहा- राजा स्वर्गवासी हो गए । राम-लक्ष्मण वन में है अब यह विशाल सम्राज्य निष्कंठक हो गया है। तुम इसे ग्रहण करो। भरत बड़े धर्मात्मा थे। वे माता की बात सुनकर बोले कुलघातिनी- धन के लालच में तूने कितनी क्रुरता का काम किया है। पति की हत्या की और इस वंश का नाश कर डाला। मेरे माथे पर कलंक का टीका लगा दिया। यह कहकर वे फूट-फूटकर रोने लगे। उन्होंने सारी प्रजा के निकट अपनी सफाई दी। इस षडयंत्र में मेरा बिल्कुल हाथ नहीं है। फिर वे रामजी को लौटाने की इच्छा से कौसल्या, सुमित्रा, और कैकयी को आगे करके वन चले गए। चित्रकूट पर्वत पर जाकर भरत ने लक्ष्मणसहित राम को धनुष हाथ में लिए तपस्वी वेष में देखा।  भरत के अनुनय-विनय करने पर भी रामजी लौटने को राजी न हुए। पिता की आज्ञा का पालन करना था। इसलिए उन्होंने भरत को समझा-बुझाकर वापस कर दिया। भरतजी अयोध्या में न जाकर नंदीग्राम में रहने में लगे। राम ने सोचा यदि यहां रहूंगा तो नगर और प्रांत के लोग बराबर आते जाते रहेंगे। इसलिए वे शरभंग मुनि के आश्रम के पास घने जंगल में चले गए। शरभंग ने उनका आदर सत्कार किया। वहां से पास ही जनस्थान नामक वन का एक भाग था। जहां खर राक्षस रहता था। शूर्पणखा के कारण राम का उसके साथ वैर हो गया। रामचंद्रजी ने वहां के तपस्वियों की रक्षा के लिए चौदह हजार राक्षसों का संहार किया।

महाबलवान खर और दूषण का वध करके राम ने पूरे जंगल को निर्भय बना दिया। शूर्पणखा के नाक और होंठ काट लिए गए थे। इसी के कारण ये सारा विवाद हुआ। बाद में दुख के कारण शूर्पणखा लंका में गई। दुख से व्याकुल होकर रावण के चरणों में गिर पड़ी। उसके मुख पर अब भी लहू के दाग बने हुए थे जो सूख गए थे। अपनी बहिन को इस विकृत दशा में देखकर रावण क्रोध से विह्ल हो उठा और दांत कटकटाता हुआ सिंहासन से कूद पड़ा।

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ऐसे मिली रावण को सोने की लंका...

एक दिन कुबेर महान समृद्धि से युक्त हो पिता के साथ बैठे थे। रावण आदि ने जब उनका वह वैभव देखा तो रावण के मन में भी कुबेर की तरह समृद्ध बनने की चाह पैदा हुई। तब रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा ये दोनों तपस्या में लगे हुए अपने भाइयों की प्रसन्न चित्त से सेवा करते थे। एक हजार वर्ष पूर्व  होने पर रावण ने अपने मस्तक काट-काटकर अग्रि में आहूति दे दी। उसके इस अद्भुत कर्म से ब्रह्मजी बहुत संतुष्ट हुए उन्होंने स्वयं जाकर उन सबको तपस्या करने से रोका। सबको पृथक-पृथक वरदान का लोभ दिखाते हुए कहा पुत्रों मैं तुम सब प्रसन्न हूं। वर मांगों और तप से निवृत हो जाओ। एक अमरत्व छोड़कर जो जिसकी इच्छा हो मांग लो। तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। तुमने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने की इ'छा से जिन सिरों की आहूति दी है वे सब तुम्हारे शरीर में जुड़ जाएंगे। तुम इ'छानुसार रूप धारण कर सकोगे। रावण ने कहा हम युद्ध में शत्रुओं पर विजयी होंगे-इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। गंधर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्नर और भूतों से मेरी कभी पराजय न हो। तुमने जिन लोगों का नाम लिया। इनमें से किसी से भी तुम्हे भय नहीं होगा।केवल मनुष्य से हो सकता है।

उनके ऐसा कहने पर रावण बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा-मनुष्य मेरा क्या कर लेंगे, मैं तो उनका भक्षण करने वाला हूं। इसके बाद ब्रह्मजी ने कुंभकर्ण से वरदान मांगने को कहा। उसकी बुद्धि मोह से ग्रस्त थी। इसलिए उसने अधिक कालतक नींद लेने का वरदान मांगा। विभीषण ने बोला मेरे मन में कोई पाप विचार न उठे तथा बिना सीखे ही मेरे हृदय में ब्रम्हास्त्र के प्रयोग विधि स्फुरित हो जाए। राक्षस योनि में जन्म लेकर भी तुम्हारा मन अधर्म में नहीं लग रहा है। इसलिए तुम्हें अमर होने का भी वर दे रहा हूं। इस तरह वरदान प्राप्त कर लेने पर रावण ने सबसे पहले लंका पर ही चढ़ाई की और कुबेर से युद्ध जीतकर लंका को कुबेर से बाहर दिया।
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जानिए, कैसे हुआ रावण का जन्म?

 द्रोपदी को छुड़ा लेने के बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी से कहा आप हमे रामचंद्रजी का चरित्र कुछ विस्तार के साथ सुनना चाहता हूं। अत: आप बताइए कि रामजी किस वंश में प्रकट हुए, उनका बल और पराक्रम कैसा था। साथ ही रावण के बारे में भी बताइए। तब मार्कण्डेयजी सुनाने लगे। दशरथ के धर्म और अर्थ को जानने वाले पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और श्त्रुघ्न। राम की पत्नी का नाम सीता था। अब रावण के जन्म की कथा सुनो। ब्रह्मजी रावण के पितामह थे। उनके पुत्र पुलस्त्यजी थे। उपकी पत्नी का नाम गौ था।

उससे कुबेर नाम का पुत्र हुआ वह अपने पितामह की सेवा में अधिक रहने लगा। ये देखकर पुलस्त्य मुनि को यह देख बहुत क्रोध हुआ। उन्होंने अपने आपको ही दूसरे शरीर से प्रकट किया। इस प्रकार आधे शरीर से रूपांतर धारण कर पुलत्स्यजी विश्रवा नाम से विख्यात हुए। पुलत्स्य के आधे देह से जो विश्रवा नामक मुनि प्रकट हुए थे। वे कुबेर कुपित दृष्टि से देखने लगे। राक्षसों के स्वामी कुबेर को यह बात जब पता चली के उनके पिता उन पर क्रोधित हैं तो उन्होंने उनके पास तीन राक्षस कन्याएं जिनका नाम पुष्पोत्कटा, राका और मालिनी। मुनि उनकी सेवाओं से प्रसन्न हो गए। उन्होंने पुष्पोत्कटा के दो पुत्र रावण के दो पुत्र हुए रावण और कुंभकर्ण। इस पृथ्वी पर इनके समान बलवान दूसरा कोई नहीं था। मालिनी से एक पुत्र विभीषण का जन्म हुआ। राका के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्र का नाम  खर था और पुत्री का नाम शूर्पणखा। विभीषण इन सब में अधिक सुंदर, भाग्यशाली, धर्मरक्षक, और सत्कर्मकुशल था। रावण के दस मुख थे। 
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जब जयद्रथ पर भीम का गुस्सा फूट पड़ा तो ....

भीम और अर्जुन दोनों भाइयों का अपने वध के लिए तुले हुए देख जयद्रथ बहुत दुखी हुआ और घबराहट छोड़कर जान बचाने की इच्छा से बहुत तेजी से भागने लगा। उसे भागते देख भीम अपने रथ से कूद पड़े। वेगपूर्वक दौड़कर उसकी चोटी पकड़ ली। फिर क्रोध में भरे हुए भीम भी रथ से कूद पड़े और वेगपूर्वक दौड़कर उसकी चोटी पकड़ ली। फिर क्रोध में भरे हुए भीम ने उसे ऊपर उठाकर जमीन पर पटक दिया। उन्होंने उसका सिर पकड़कर कई चपत लगाई। जब उसने पुन: उठने की कोशिश की तो भी भीमसेन दोनों घुटने टेककर उसकी छाती पर लात जमा दी। वह बहुत रोने चिल्लाने लगा तो भी भीमसेन दोनों घुटने टेककर उसकी छाती पर चढ़ गए। इस प्रकार बड़े जोर की मार पडऩे से जयद्रथ उसकी पीड़ा सह न सका और अचेत हो गया। फिर भी भीम का क्र ोध अभी शंात नहीं हुआ। तब अर्जुन ने उन्हें रोका।

 तब भीम ने कहा इस नीच ने द्रोपदी को कष्ट पहुंचाया है। मैं इसे नहीं छोडं़ुगा। तब उसके बाल पकड़कर भीम ने कहा अरे मूढ़ यदि तू जीवित रहना चाहता है तो मेरी बात सुन। तू राजाओं की सभा में हमेशा अपने को दास बताया कर यह शर्त स्वीकार हो तो तुझे जीवनदान दे सकता हूं। जयद्रथ ने स्वीकार किया। वह धूल में लथपथ अचेत सा हो गया। उस समय द्रोपदी ने युधिष्ठिर की ओर देखकर भीमसेन से कहा - आपने इसका सिर मुड़कर पांच चोंटिया रख दी।

उसने दुखी होकर राजा युधिष्ठिर ने पूछा दयालु राजा ने उसकी ओर देखकर कहा जा तुझे दासभावना से मुक्त कर दिया। फिर कभी ऐसा न करना। तू स्वयं तो नीच है ही। तेरे साथी भी वैसे ही नीच है। तूने परायी स्त्री अपनाने की इच्छा की। धिक्कार है तुझे  भला तेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य इतना अधम होगा जो ऐसा खोट कर्म करे। जा चला जा  अपने रथ, घोड़े और पैदल सब साथ लिए जा। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर जयद्रथ बहुत लज्जित हुआ वह चुपचाप नीचे मुंह करके चल दिया। पाण्डवों से पराजित और अपमानित होने के कारण दुखी होकर उसने भगवान शंकर की कठोर तपस्या की। भगवान शंकर बोले ऐसा नहीं हो सकता है। केवल एक दिन तुम अर्जुन को छोड़ शेष चार पांडवों को युद्ध में पीछे हटा सकता है। 
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जब पांडवों ने द्रोपदी को जयद्रथ के रथ पर बैठे...

जब पांडव वन में से आश्रम की ओर लौट रहे थे। उस समय एक गीदड़ बहुत जोर से रोता हुआ वाम भाग से निकल गया। पापी कौरवों ने यहां आकर कोई महान उपद्रव किया है। इस प्रकार बातें करते हुए। जब वे आश्रम पर आए तो देखते हैं कि उनकी प्रिय द्रोपदी की दासी धात्रेयिका रो रही है। उसे उस अवस्था में देख इंद्रसेन सारथि रथ से उतर पड़ा और दौड़ते हुए उसके पास जाकर बोला तू इस तरह धरती पर पड़ी-पड़ी क्यों रो रही है? तेरा मुंह सुृखा हुआ है। दीन हो रहा है। उन निर्दयी और पापी कौरवों ने यहां आकर राजकुमारी  दूर नहीं गई होगी। जल्दी रथ लौटाओ और जयद्रथ पीछा करो। अब यहां आकर राजकुमारी द्रोपदी को कोई कष्ट तो नहीं दिया। 

दांयी बोली- इन्द्र के समान पराक्रमी इन पांचों पांडवों का अपमान करके जयद्रथ द्रोपदी को हर ले गया हैं। देखो, अभी उसके रथ के निशान हैं अभी राजकु मारी दूर नहीं गई होगी। जल्दी रथ लौटाओ जयद्रथ का पीछा करो। अब यहां अधिक देर नहीं होनी चाहिए। पांडव अने धनुष की टंकार करते हुए उसी मार्ग से चले। पांडवों ने भी मुनि को भी देखा जो भीम के पुकार रहे थे। तभी पांडवों को घोड़े के टापों से उड़ती हुई आवाज सुनाई पड़ी। पांडवों ने मुनि को कहा अब आप सुख पूर्वक चलिए। पांडवों ने जब देखा कि जो भीम को पुकार रहे थे। पांडवों ने मुनि को आश्चासन दिया। जब उन्होंने एक ही दूर जाने पर जयद्रथ की फौज के घोड़ों की टापों से उड़ती हुई धुल दिखाई दी। जब उन्होंने एक ही रथ में अपनी प्रियतमा द्रोपदी और जयद्रथ को बैठे देखा तो उनकी क्रोधाग्रि जल उठी।

 फिर तो भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव सबने जयद्रथ को ललकारा। पांडवों को आया देख शत्रुओं के होश उड़ गए। पैदल सेना तो बहुत डर गई, हाथ जोडऩे लगी। पांडवों ने उसे तो छोड़ दिया। किंतु शेष जो सेना थी, उसे सब ओर से घेरकर इतनी बाण वर्षा की कि अंधकार सा छा गया। उसे उस अवस्था में देख इंद्रसेन सारथि रथ से उतर पड़ा और दौड़ते हुए। उसके पास जाकर बोला- तू इस तरह धरती पर पड़ी-पड़ी क्यों रो रही है? तेरा मुंह सूखा हुआ है। उन निर्दयी और पापी कौरवों ने यहां आकर राजकुमारी द्रोपदी को कष्ट तो नहीं दिया। दायी बोली इंद्र के समान पराक्रमी इन पांचों पांडवों का अपमान करके जयद्रथ द्रोपदी को हर ले गया है।
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सफलता के लिए जरूरी है ऐसा संकल्प

व्यासजी जब पांडवों के यहां पहुंचे और उन्हें दान का महत्व समझाने लगे तब युधिष्ठिर ने पूछा महात्मा मुदगल नामक ऋषि रहते थे। वे बहुत ही धर्मात्मा थे। हमेशा सच बोलते हुए किसी की भी निंदा नहीं करते थे। आप उनकी कहानी सुनाईए तब मुनि बोले उन्होंनेअतिथियों की सेवा का उन्होंने व्रत ले रखा था। घर में स्त्री थी, पुत्र था और वे स्वयं थे। तीनों एक पक्ष में एक ही दिन भोजन करते थे। उनका प्रभाव ऐसा था। प्रत्येक पर्व के दिन  देवराज इन्द्र देवताओं के सहित उनके यज्ञ में साक्षात उपस्थित होकर अपना भाग लेते थे। इस प्रकार मुनिवृति से रहना और प्रसन्न चित से अतिथियों को अन्न देना। यही उनके जीवन का व्रत था। किसी के प्रति द्वेष न रखकर बड़े शुद्धभाव से वे दान करते थे। इसलिए वह एक द्रोण अन्न पंद्रह दिन के भीतर कभी घटता नहीं था। बराबर बढ़ता रहता था। दरवाजे पर अतिथि देखकर उस अन्न में अवश्य वृद्धि हो जाती थी। सैकड़ो ब्राह्मण और विद्वान उसमें से भोजन पाते, पर कमी नहीं आती। मुनि इस व्रत की ख्याति बहुत दूर तक फैली हुई थी।

 एक दिन उनके बारे में दुर्वासा मुनि के कानों में पड़ी। वे पागलों का सा वेष बनाकर कटु वचन बोलते हुए वे वहां पहुंचे। वहां जाकर बोले विप्रवर आपको मालूम होना चाहिए कि मैं यहां भोजन की इच्छा से आया हूं। मुदगल ने कहा मैं आपका स्वागत करता हूं। मुदगल ने अपने भूखे अतिथियों को बहुत श्रद्धा से भोजन परोसकर जिमाया। दुर्वासा मुनि सारा भोजन चट करने के बाद अन्त में जब उठने लगे तो जो कुछ जूठा  बचा था। उसे अपने शरीर में लपेट लिया और जिधर से आए थे। उधर ही निकल गए। इसी प्रकार दूसरे पर्र्व पर भी आए और भोजन करके चले गए। मुदगल मुनि को परिवारसहित भूख रह जाना पड़ा। फिर वे अन्न के दानों का संग्रह करने लगे। 

ऐसा उन्होंने छ: बार किया। लेकिन कभी भी मुदगल ऋषि के मन में कोई विकार नहीं आया। यह देखकर दुर्वासा मुनि बहुत खुश हुए  और उन्होंने कहा कि भूख बड़े-बड़े धार्मिक विचारों के विचार हिला देती है। तुमसे मिलकर में बहुत खुश हूं। अपनी इन्द्रियों पर काबु रखकर कमाए गए धन को शुद्ध हृदय से दान करना बहुत कठिन है। यह सब कुछ तुमने सिद्ध कर लिया। तुमसे मिलकर मैं बहुत प्रसन्न हूं। तुम्हारा अपने ऊपर अनुग्रह मानता हूं। दुर्वासा मुनि इस तरह की बात कर ही रहे थे तभी उन्हें लेने वहां देवताओं का विमान आया।
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जब दुर्योधन के लिए कर्ण ने जीत लिया पूरा भारत...

गंधर्वों से युद्ध में पांडवों द्वारा बचाए जाने के बाद दुर्योधन हस्तिनापुर लौट गया। पितामाह भीष्म ने उसे कहा जब तुम द्वेतवन को जाने के लिए तैयार हुए थे। उसी समय मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हार द्वैतवन जाना उचित नहीं। वहां तुम्हे शत्रुओं ने बंधक बनाया। पांडवों ने तुम्हे छुड़वाया। यह सब कर्ण केे कारण हुआ है। यह दुष्टबुद्धि कर्ण धर्म और युद्धकौशल दोनों में ही पाण्डवों के बराबर नहीं है। अत: इस कुल की वृद्धि के लिए पाण्डवों से संधि करना ही बेहतर है। 

भीष्म के इस तरह कहने पर दुर्योधन हंसकर शकुनि के साथ चल दिया। उन्हें जाते देख कर्ण और दु:शासन आदि भी उनके पीछे हो लिए। उन्हें अपनी बात सुने बिना जाते देख भीष्म अपने महल चले गए।उनके जाने पर धृतराष्ट्र और राजा दुर्योधन फिर उसी जगह आकर अपने मंत्रियों से सलाह करने लगा कि हमारा हित किस प्रकार हो और अब हमें मिथ्या करना चाहिए। उस समय कर्र्ण ने कहा-राजन सुनिए मैं आपसे एक बात कहता हूं। भीष्म सदा ही हमारी निंदा करते रहते हैं। आपसे द्वेष करने के कारण वो मुझसे भी द्वेष करते हैं। आपके आगे वे मेरी तरह-तरह से निंदा करते रहते हैं। आप मुझे सेवक सेना और सवारी देकर पृथ्वी विजय करने की आज्ञा दीजिए। 

कर्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने कहा- वीर कर्ण तुम सदा ही मेरा हित करने के लिए उद्यत रहते हो। यदि तुम्हारा निश्चय है कि मैं अपने सारे शत्रुओं को परास्त कर दूंगा तो तुम जाओ और मेरे मन को शांत करो। दुर्योधन के ऐसा कहने पर कर्ण ने अपनी दिग्विजय यात्रा के लिए सभी आवश्यक चीजे तैयार करने की आज्ञा दी।  फिर अच्छा मुहूर्त देखकर मांगलिक द्रव्यों से स्नान कर कुच किया। उसके बाद कर्ण ने एक के बाद एक चारों और अपनी दिग्विजय का परचम लहराया और फिर हस्तिनापुर लौट आया तो सभी ने अगवानी कर विधिवत उसका स्वागत किया। दुर्योधन ने हर्षित होकर कर्ण से कहा मैंने पाण्डवों के यहां राजसूय यज्ञ देखा था। वह मैं भी करना चाहता हूं। परन्तु ब्राह्मणों से सलाह करने पर उन्होंने कहा कि आप राजसूयज्ञ नहीं कर सकते। लेकिन वैष्णव यज्ञ कर सकते हैं। 
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परिवार सुखी तभी बना रहेगा जब....

 कोई परवा नहीं वहां देवताओं के सहित स्वयं इंद्र ही क्रीड़ा क्यों न करता हो। योद्धा कमर कसकर तैयार हो गए और गंधर्वों को मार-पीटकर उस वन में घुसे। गंधर्वों ने यह सब समाचार अपने स्वामी चित्रसेन को जाकर सुनाया। तब उसने उन्हें आज्ञा दी कि जाओ इन नीच कौरवों की अच्छी तरह से सबक सिखाओ। उसके बाद एक-एक कौरव वीर को दस-दस गंधर्वों ने घेर लिया। उनकी मार से पीडि़त होकर वे रणभूमि से प्राण लेकर भागे। इस प्रकार कौरवों की सारी सेना तितर-बितर हो गई। अकेला कर्ण ही पर्वत के समान अपने स्थान पर अचल खड़ा रहा। दुर्योधन कर्ण और शकुनि तीनों घायल हो गए तो भी उन्होंने गंधर्वों के आगे पीठ नहीं दिखाई। वे बराबर मैदान में डटे रहे।जब दुर्योधन ने देखा कि गंधर्वों की सेना उसी की तरफ बढ़ रही है तो उसने उसका जवाब देने के लिए भीषण बाणवर्षा की। 

उस बाणवर्षा की कुछ भी परवा न कर गंधर्वों ने उसे मार दिया। उन्होंने अपने बाणों से उसके रथ को चूर-चूर कर दिया। तब दुर्योधन को गंधर्वों सं छुड़वाने के लिए आतुर हुए। उन मंत्रियों को रो-रोकर धर्मराज से कहा महाराज दुर्योधन को गंधर्व पकड़कर ले गए हैं। 

आप उनकी रक्षा कीजिए। तब युधिष्ठिर ने कहा  कुल में या परिवार में झगड़े होते ही रहते हैं। लेकिन कोई बाहर का व्यक्ति कुल पर आक्रमण करता है तो उसे हमारे आपस में कितने ही झगड़े हों हमें अपनों का साथ देना चाहिए। हमेशा इंसान को किसी व्यक्ति विशेष के बारे में न सोचते हुए अपने कुल के बारे में सोचना चाहिए। कुल के नाम को प्राथमिकता देना चाहिए।
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तब भड़क उठी दुर्योधन के मन में बदले की आग....

 दुर्योधन गायों की गिनती के बाद द्वैतवन सरोवर पहुंचा। उस समय उसका ठाठ बाद बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वहां उस सरोवर के तट पर ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर कुटी बनाकर रहते थे। वे महारानी द्रोपदी के सहित इस समय दिव्य विधि से एक दिन में समाप्त होने वाला कोई यज्ञ कर रहे थे। तभी दुर्योधन ने अपने सहस्त्रों सेवकों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही यहां क्रीडा भवन तैयार करो। जब वे वन के दरवाजे में घुसने लगे तो उनके मुखिया को गंधर्वों ने रोक दिया, क्योंकि उनके पहुंचने से पहले ही वहां गंधर्वराज चित्रसेन जलक्रीड़ा करने के विचार से अपने सेवक, देवता और अप्सराओं के सहित आया हुआ था। उसी ने उस सरोवर को घेर रखा था। 

इस प्रकार सरोवर को घिरा हुआ देख वे सब दुर्योधन के पास लौट आए। उनकी बात सुनकर दुर्योधन ने उन्हें आज्ञा दी। उन्होंने वहां जाकर गंधर्वों से कहा इस समय धृतराष्ट्र  के पुत्र महाबली महाराज दुर्योधन भी यहां हैं और वे यहां एक क्रीड़ा भवन बनवाना चाहते हैं। तब गंर्धव ने कहा दुर्योधन बहुत ही मंद बुद्धि है। उसे कुछ भी होश नहीं है इसीलिए हम देवताओं पर इस तरह हुकूमत चलाता है। तुम तो अपने राजा के पास लौट जाओ, नहीं तो इसी समय यमराज के घर हवा खोओगे। तब वे सब योद्धा  दुर्योधन के पास आए और गंधर्वों ने जो-जो बातें कही थी। वे सब दुर्योधन को सुना दी। इससे दुर्योधन का गुस्सा भड़क उठा। उसने अपने सेनापतियों को आज्ञा दी। मेरे अपमान करने वाले इन लोगों को जरा मचा तो चखा दो। युद्ध के लिए कौरव तैयार हो गए।
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कर्ण कहता है दुर्योधन को जाओं पांडवों के पास...

 इस प्रकार वन में रहकर जाड़ा, गर्मी, से पांडवों के शरीर धूप से झुलस गए। पाण्डव वन में कुटी बनाकर रहते थे। जब वे सभी इसी तरह रहने लगे। उनके पास अनेकों ब्राह्मण आते। एक दिन एक ब्राह्मण आया उनसे मिलकर वह कौरवों से मिला। फिर धृतराष्ट्र के पास पहुंचा। वृद्ध कुरुराज ने आसन देकर उसका यथोचित सत्कार किया। ब्राह्मण ने कहा कि इस समय युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, और नकुल व सहदेव बहुत परेशानी झेल रहे हैं। द्रोपदी का हाल भी मत पूछिए, वह वीरपत्नी होकर भी अनाथा सी हो रही है। सब ओर से दुखों से दबी हुई है।

उसकी बातें सुनकर राजा धृतराष्ट्र को बहुत दुख हुआ। जब उन्होंने सुना कि राजा के पुत्र और पौत्र होकर भी पाण्डव लोग इस प्रकार दुख की नदी में पड़े हुए हैं।  वे लंबी-लंबी सांसे लेकर कहने लगे। धर्मपुत्र युधिष्ठिर तो मेरे अपराध पर ध्यान नहीं देंगे। अर्जुन भी उन्हीं का अनुसरण करेगा। इस वनवास से भीम का कोप तो उसी प्रकार बढ़ रहा है। जैसे हवा लगने से आग सुलगती रहती है। इन्होंने जो राज्य जुए से छीना है, उसे ये बहुत अच्छा मानते है। अनेकों अर्जुन अद्वितीय धर्नुधर है। उसका गाण्डीव धनुष बहुत वेगवाला है।

अब उसके सिवा उसने और भी दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिए हैं। ऐसा यहां कौन है जो इन तीनों का तेज को सहन कर सके। धृतराष्ट्र की ये सब बातें शकुनि ने सुनी और फिर कर्ण के साथ एकान्त में बैठे हुए। दुर्योधन के पास जाकर उसे सुनाई। उस समय दुर्योधन उदास हो गया। कर्ण ने उससे कहा अपने पराक्रम से तुमने पाण्डवों को यहां से निकाला है। अब तुम अकेले ही पृथ्वी  का उपयोग इस प्रकार करो जैसे इंद्र स्वर्ग भोगता है। मैंने सुना है कि आजकल पांडव किसी वन में ब्राह्मणों के साथ रहते हैं। तुम भी उनके पास जाओ और अपने ठाठ-बाट के सूर्य से तेज से पांडवों को संतप्त करो। दुर्योधन से ऐसा कहकर कर्ण शकुनि चुप हो गए। तब राजा दुर्योधन ने कहा कर्ण तुम जो कुछ कहते हो वह बात मेरे मन में बसी है। पांडवों को मृगचर्म में देखकर मुझे जो खुशी होगी वैसी इस सारी पृथ्वी का राज्य पाकर भी नहीं होगी।


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