जब भीम को आया गुस्सा तो...
एक बार की बात है धर्मराज के पास एक राक्षस आया और उसने धर्मराज से कहा मैं मंत्र विद्या में निपुण ब्राह्मण हूं। आपकी शरण में रहना चाहता हूं। ऐसा कहकर वह सर्वदा पाण्डवों के धनुष और तरकस द्रोपदी को उड़ा ले जाने की ताक में वही रहने लगी। उस राक्षस का नाम जटासुर था। एक बार भीम वन में गए। उस समय जटासुर भयानक रूप धारण कर लिया। तीनों पाण्डव द्रोपदी और सारे शास्त्रों को उठाकर चला गया। सहदेव जैसे-तैसे छूट गए और उस राक्षस से अपनी कौशिकी नाम की तलवार छीनकर जिस ओर भीमसेन गए थे। उस ओर आवाज लगाने लगे। फिर धर्मराज युधिष्ठिर ने उससे कहा मुर्र्ख ऐसी चोरी करने से तेरे धर्म का नाश हो रहा है। तुझे सब प्रकार धर्म का विचार करके ही काम करना चाहिए। जिसने तुम्हे अन्न खिलाया हो और जिन्होंने आश्रय दिया हो, उनसे द्रोह नहीं करना चाहिए।
ऐसा कहकर युधिष्ठिर उसके लिए भारी हो गए। उनके भार से दबकर उसकी गति तेज नहीं रही। तब धर्मराज नकुल से कहा तुम और द्रोपदी यहां से चले जाओ। यहां से थोड़ी दूर ही भीम होगा। बस अब वह आता ही होगा, फिर इस राक्षस का कही नाम निशान भी नहीं रहेगा। उस राक्षस को देखकर सहदेव ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा राजन् इस राक्षस से मुक्ति के लिए हमें इससे युद्ध करना होगा। फिर सहदेव ने उस राक्षस को ललकारा और कहा अरे ओ राक्षस तू मुझे मारकर द्रोपदी को ले जाना चाहता है। मैं तुझे ऐसा नहीं करने दूंगा तू ऐसा करे उससे पहले ही मैं तुझे मार डालूंगा। तभी सहदेव को दूर से आते हुए भीम दिखाई दिए। जब भीम ने द्रोपदी और अन्य पांडवों को परेशानी में देखा। यह देखकर उन्हें बहुत गुस्सा आया। उन्होंने अपनी गदा से उस राक्षस पर प्रहार किया। दोनों की बीच युद्ध हुआ। उस युद्ध में भीम ने जटासुर को अपनी कोहनी से चोट करके उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
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जब भीम ने हनुमानजी की पूंछ उठानी चाही तो....
हनुमानजी की पूंछ टंकार की प्रतिध्वनि जब सब ओर फैल गई। इस तरह की गर्जना से भीमसेन के रोएं खड़े हो गए। वे उसके कारण को ढूंढने लगे। ढूंढते हुए वे उनकी नजर उस बगीचे पर लेटे हुए वनराज हनुमान पर पड़ी। उनके ओंठ पतले थे। जीभ और मुंह लाल थे। कानों का रंग भी लाल-लाल था। उनका हर अंग मानों एक प्रज्वलित अग्रि के समान था। अपनी शहद के समान पीली आंखों से इधर-उधर देख रहे थे। उनका शरीर बहुत स्थूल था। वे स्वर्ग के रास्ते को रोककर हिमालय की तरह स्थिर थे। उस वन में हनुमानजी को अकेले लेटे देखकर महाबली भीमसेन निर्भय उनके पास चले गए। बिजली की कड़क के समान सिहंनाद करने लगे। भीमसेन की उस गर्जना से वन के सभी पशु-पक्षी आदि सभी डर गए।
महाबली हनुमानजी ने भी अपनी आंखें खोलकर भीमसेन की तरफ देखकर कहा मैं तो रोगी हूं यहां आनंद से सो रहा था। तुमने मुझे क्यों जगा दिया। तुम समझदार हो। तुम्हें जीवों पर दया करनी चाहिए। तुम्हारी प्रवृति धर्म के नाश की है। बताओ तो तुम हो कौन और इस वन में किस लिए आए हो। यहां कोई मनुष्य नहीं रह सकता है। आगे तुम्हे कहां तक जाना है? यहां से आगे तो यह पर्वत अगम्य है। इस पर कोई भी चढ़ नहीं सकता। तुम ये कंद मूल खाकर यहां विश्राम करो। आगे जाने का प्रयत्न करके अपने प्राण खतरे में क्यों डालते हो? हनुमानजी बोले मैं तो बंदर हूं, तुम इस मार्ग से जाना चाहते हो। सो मैं तुम्हे इधर नहीं जाने दूंगा। अच्छा है कि तुम यहां से लौट जाओ। नहीं तो मारे जाओगे।
भीमसेन ने कहा ज्ञान से जानने में आने वाले निर्गुण परमात्मा में आपका अपमान नहीं करूंगा। अगर मुझे भगवान के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता तो शायद में आपको भी उसी तरह लांघ जाता जिस तरह हनुमानजी समुद्र लांघ गए। हनुमानजी ने कहा ये हनुमानजी कौन थे जो समुद्र लांघ गए। तब भीमसेन ने कहा वे वानरप्रवर मेरे भाई हैं। रामायण में वे बहुत ही विख्यात हैं। वे सीताजी को बचाने के लिए सौ योजन का समुद्र लांघ गए थे। मैं भी बल में उन्ही के समान हूं। तब हनुमानजी ने कहा मैं तो बुढ़ा हूं इस कारण मुझमें तो उठने की शक्ति नहीं है। इसलिए कृपा करके मेरी पूंछ हटाकर निकल जाओ। तब भीम ने दोनों हाथों से उनकी पूंछ को उठाना चाहा पर असर्मथ रहे। उन्होंने अपना मुंह लाज से झूका लिया।
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तब हनुमानजी रास्ता रोक कर लेट गए....
अष्टवक्र की कथा सुनने के बाद गंधमादन की यात्रा के बाद पांडव बदरिकाश्रम पहुंचे। वहां छ: दिन तक पांडव अर्जुन का उस स्थान पर मिलने की इच्छा से इंतजार करते रहे। इतने ही में देवयोग से ईशानकोण की ओर से बहते हुई हवा से एक कमल उड़ आया। वह बड़ा दिव्य और साक्षात सूर्य के समान था। उसकी गंध बहुत ही अनूठी और मोहक थी। पृथ्वी पर गिरते ही उस पर द्रोपदी की निगाह पड़ी। वे उसके पास आयी और बहुत प्रसन्न होते हुए बोली आर्य मैं वह कमल धर्मराज को भेंट करूंगी। यदि आपका मेरे प्रति वास्तव में प्रेम है तो मेरे लिए ऐसे ही बहुत से पुष्प ले आइए। मैं उन्हें काम्यकवन में अपने आश्रम पर ले जाना चाहती हूं।
भीमसेन से ऐसा कहकर द्रोपदी उसी समय उस फूल को लेकर धर्मराज के पास चली गई। भीमसेन जहां से वो फूल लेकर आए थे। उसी ओर वो दूसरे फूल ले जाने के विचार से तेजी से चले। उन्होंने मार्ग के विघ्रों को हटाने के लिए बहुत तेज बाणों का उपयोग किया। उस शब्द से चौकन्ने होकर बाघ अपनी गुफाओं को छोड़कर भागने लगे। उस वन में महावीर हनुमानजी रहते थे। उन्हें अपने भाई भीमसेन के उधर आने का पता लग गया। उन्होंने सोचा कि भीमसेन का इधर होकर स्वर्ग में जाना उचित नहीं हैं। ऐसा करने से संभव है मार्ग से कोई उनका तिरस्कार कर दें। यह सोचकर वे केले के बगीचे से होकर जाने वाले सकड़े मार्ग को रोककर लेट गए। वहां पड़े-पड़े जब उन्हें नींद आने लगी। अपनी पूंछ फटकारते थे तो उसकी प्रतिध्वनि सब ओर फैल जाती थी।
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बड़ा बनने के लिए क्या जरूरी है?
अष्टावक्र की आयु बारह वर्ष की थी। एक बार वह उद्दालक की गोद में बैठा था। उसी समय श्रुतकेतु आये और उन्होंने पिता की गोद से अष्टावक्र को खींचा और कहा यह गोदी तेरे पिता की नहीं हैं। श्वेतकेतु की यह बात सुनकर अष्टावक्र को बहुत दुख हुआ।
उसने घर जाकर अपनी माता से पूछा मां मेरे पिता कहा गए हैं। इससे सुजाता को बहुत भय हुआ और उसने शाप के डर से सब बात बता दी। यह सब रहस्य सुनकर उन्होंने श्वेतकेतु से मिलकर यह सलाह की कि हम दोनों राजा जनक के यज्ञ में चलें। मैंने सुना है वह यज्ञ बहुत विचित्र है। वहां हम ब्राह्मणों के बड़े-बड़े शास्त्रार्थ सुनेंगे। ऐसी सलाह करके वे दोनों मामा-भानजे राजा जनक के समृद्धि सम्पन्न यज्ञ के लिए चल दिए। यज्ञशाला के दरवाजे पर पहुंचकर वे भीतर जाने लगे तो द्वारपाल ने कहा आप लोगों को प्रणाम है। राजा के आदेशनुसार हमारा निवेदन है उस पर ध्यान दें। इस यज्ञशला में बालकों को जाने की आज्ञा नहीं है, केवल वृद्ध और विद्वान ब्राह्मण ही इसमें प्रवेश कर सकते हैं।
तब अष्टावक्र ने द्वारपाल मनुष्य अधिक सालों की उम्र होने से, बाल पक जाने से या धन से बड़ा नहीं माना जाता। ब्राह्मण तो वही बड़ा है जो वेदों का वक्ता हो। ऋषियों ने ऐसा नियम बताया है। चाहो तो किसी भी विद्वान के साथ मुझसे शास्त्रार्थ करवा लो मैं उसे हराकर दिखाऊंगा। द्वारपाल बोला ठीक है मैं तुम्हे ले चलता हूं पर वहां जाकर तुम्हे विद्वान जैसा काम करके दिखाना होगा।
ऐसा कहकर द्वारपाल उन्हें राजा के पास ले गया। तब अष्टावक्र ने कहा राजन मैंने सुना है आपके यहां एक बंदी है। जो ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में पराजित कर देता है। वह बंदी कहा है मैं उससे मिलूंगा।तब राजा ने कहा आज तक कई लोग मेरे पास ये विचार लेकर आए पर उसे कोई नहीं हरा सका। उसके बाद बंदी और अष्टावक्र के बीच शास्त्रार्थ करवाया गया जिसमे अष्टावक्र विजय हुआ।
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इसलिए अष्टावक्र का शरीर टेड़ा हो गया...
उशीनर तीर्थ के बाद मुनि लोमेश ने कहा उद्दालक के पुत्र वेतकेतु इस पृथ्वी में मंत्रशास्त्र में पारंगत समझे जाते हैं। ये जो यह फल-फूलों से सम्पन्न आश्रम उन्ही का है। आप इसके दर्शन कीजिए। इस आश्रम में महर्षि वेतकेतु को साक्षात सरस्वती देवी के दर्शन हुए थे। उद्दालक मुनि का कहोड नाम से प्रसिद्ध एक शिष्य था। उसने अपने गुरू देव की बहुत सेवा की। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने बहुत जल्द सब वेद पढ़ा दिए। अपनी कन्या सुजाता का उसके साथ विवाह कर दिया। कुछ समय बीतने के बाद सुजाता गर्भवती हुई। वह गर्भ इंद्र के समान तेजस्वी था। एक दिन कहोड वेदपाठ कर रहे थे। उस समय वह बोला पिताजी आप रातभर वेद पाठ करते हैं लेकिन ठीक-ठाक नहीं होता।
शिष्यों के बीच में ही इस प्रकार का आक्षेप करने से पिता को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने उसे शाप दिया कि तू पेट से ही टेढ़ी-टेढ़ी बातें करता है। इसीलिए तू आठ जगह से टेढ़ा पैदा होगा। जब अष्टावक्र पेट में बढऩे लगे तो सुजाता को बहुत दुख हुआ। उसन एकान्त में अपने धनहीन पति को धन लाने की प्रार्थना की। तब अष्टावक्र से इसके विषय में कुछ मत कहना इसी कारण अष्टावक्र को पैदा होने के बाद कुछ भी पता न चला।
क्रमश:
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इसलिए बाज ने राजा से मांगा उनका मांस...
युधिष्ठिर व अन्य पांडव लोमेश मुनि के साथ कई तीर्थो की यात्रा करते हुए। उज्जानक तीर्थ पहुंचे। इसके पास ही यह कुशवान सरोवर है। यहीं राजा उशीनर इन्द्र से अधिक धार्मिक हो गए थे। इसीलिए अग्रि और इन्द्र दोनों उनकी परीक्षा लेने पहुंचे। इन्द्र ने बाज का रूप धारण किया और अग्रि ने कबूतर का। इस तरह वे उशीनर की यज्ञ शाला में पहुंचे।
तब बाज के डर से कबूतर अपनी रक्षा के लिए राजा की गोदी में जाकर छुप गया। तब बाज ने कहा राजन आप इस कबूतर को मुझे दे दीजिए। मैं भूख से मर रहा हूं। यह कबूतर मेरा आहार है। आप धर्म के लोभ से मेरा आहार ना छिने। तब राजा ने कहा यह मेरी शरण में आया है। इसने जान बचाने के लिए मेरा आश्रय लिया है। इसे तुम्हारे चंगुल में न पडऩे दूं तो यह अधर्म है। तब बाज बोला सब प्राणी आहार से ही उत्पन्न होते हैं। मैंने बहुत दिनों से भोजन नहीं किया है। यदि आज आपने मुझे भोजन से वंचित किया तो मैं मर जाऊंगा। तब राजा ने कहा आप ठीक कह रहे हैं। आप अच्छी बाते कह रही हैं, क्योंकि आप साक्षात गरुड़ का रूप है। धर्म के मर्म को अच्छी तरह समझते हैं।
लेकिन मैं मेरी शरण में आए इस पक्षी को त्याग नहीं सकता। अगर आपक ो इस कबूतर पर स्नेह है तो इसी के बराबर अपना मांस कबूतर पर स्नेह है तो इसी के बराबर अपना मांस काटकर तराजू में रख दीजिए। जब वह तौल में इस कबूतर के बराबर हो जाए तो वहीं मुझे दे दीजिए। उसी से मेरी तृप्ति हो जाएगी। तब राजा ने अपना मांस काटकर तौलना आरंभ किया। यह देखकर बाज बोला मैं इन्द्र हूं और ये अग्रिदेव हैं। हम आपकी धर्मनिष्ठा की परीक्षा लेने आए थे।
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...और राजा की कोख से हुआ पुत्र का जन्म
युधिष्ठिर ने पूछा युवानश्व के पुत्र मान्धाता तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे। उनका जन्म किस प्रकार हुआ है? लोमेश मुनि ने कहा राजा युवनाश्च इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुआ था। उसने एक सहस्त्र अश्वमेघ करके भी बहुत से यज्ञ किए और उन सभी में बहुत बड़ी-बड़ी दक्षिणाएं दी। अपने मंत्रियों को राज्य की बाघ डोर सौंपकर वे वन में रहने लगे। एक बार महर्षि भृगु ने पुत्र प्राप्त करने के लिए यज्ञ कराया। रात्रि के समय उपवास से गला सूख जाने के कारण राजा को बहुत प्यास लगी। उसने आश्रम के भीतर जाकर पानी मांगा।
जब लोग रात के समय जागरण से थककर गहरी नींद में थे। किसी ने उनकी आवाज न सुनी। महर्षि ने एक बड़ा जल का कलश रख था। राजा ने उसे पी लिया क्योंकि कुछ देर में तपोधन भृगुपुत्र के सहित सब मुनिजन उठे और उन सभी ने उस घड़े को जल से खाली देखा। तब उन सभी ने आपसे में मिलकर पूछा कि यह किसका काम है। इस पर युवनाश्व सच-सच कह दिया कि मेरा है। यह सुनकर भृगपुत्र ने कहा राजन् - यह काम अच्छा नहीं हुआ। तुम्हारे एक महान् बलवान पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हो इसी उद्देश्य से ही मैंने यह जल अभिमंत्रित करके रखा है।
अब जो हो गया उसे भी पलटा नहीं जा सकता। अवश्य ही जो कुछ हुआ है वह दैवकी की ही प्रेरणा से हुआ है। तुमने प्यास के कारण अभिमंत्रित जल पिया है। इसीलिए अब तुम्हे ही प्रसव करना होगा। फिर सौ वर्ष बीतने के बाद राजा की बांयी कोख फाड़कर एक सूर्य जैसा ही तेजस्वी बालक निकला। ऐसा होने पर भी बहुत आश्चर्य हुआ कि इससे राजा की मौत नहीं हुई। इस पर बालक को देखने के लिए खुद इंद्र आए। उनसे देवताओं ने पूछा यह बालक क्या पीएगा। तब इन्द्र ने उसके मुंह में अंगुली डालकर कहा मेरी अंगुली पिएगा। इसीलिए उसका नाम मांधाता होगा।
क्रमश:
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इन्द्र उन्हें सोमपान से रोकना चाहता था क्योंकि...
ऋषि च्यवन ने अश्विनीकुमारों से कहा मैं वृद्ध था तुमने जो यौवन मुझे दिया। मैं इसलिए तुम्हे सोमपान का अधिकार दिलवाऊंगा।
यह सुनकर अश्विनीकुमार प्रसन्न होकर स्वर्ग को चले गए। च्यवन और सुकन्या उस आश्रम में देवताओं के समान विहार करने लगे। जब शर्याति ने सुना कि च्यवन मुनि युवा हो गए हैं तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वह अपनी सेना सहित आश्रम पहुंचे। राजा और रानी को ऐसा लगा मानों उन्हें पूरी पृथ्वी का राज्य मिल गया हो। फिर च्यवन मुनि ने राजा से कहा मैं आपसे यज्ञ करवाऊंगा। आप सारी सामग्री तैयार करवाइए। राजा ने बहुत प्रसन्नता से उनकी बात मान ली। जब यज्ञ का दिन आया। ें महर्षि च्यवन ने यज्ञ की शुरूआत की। उन्होंने अपनी यज्ञ का कुछ भाग अश्विनी कुमारों को दे दिया। तब इन्द्र ने उन्हें रोकते हुए। ये चिकित्साकार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण कर मृत्युलोक में भी विचरते रहते हैं। इन्हें सोमपान का अधिकार कैसे हो सकता है। जब च्यवन ऋषि देखा कि देवराज बार-बार उसी बात पर जोर दे रहे हैं। उन्होंने उनकी उपेक्षा कर अश्विनीकुमारों को देने के लिए उत्तम सोमरस लिया। उन्हें इस प्रकार अश्विनीकुमारों के लिए सोमरस लेते देख इन्द्र को भयंकर क्रोध आया। इन्द्र उन पर वज्र छोडऩे को उद्धत हुआ। वो जैसे ही प्रहार करने लगे कि च्यवन ने उनकी भुजाओं को स्तंभित कर दिया। उन्होंने अपने तपोबल से मद नामक एक राक्षस उत्पन्न किया। इससे इन्द्र को बड़ा ही दुख हुआ। उसके बाद अश्विनीकुमारों ने सोमपान किया। उसके बाद इन्द्र ने च्यवन मुनि से क्षमा मांगी। उसके बाद च्यवन मुनि का कोप शांत हुआ।
क्रमश:
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...और वे बुढ़े से हो गए जवान
यह बात सुनकर राजा शर्याति ने बिना विचारे च्यवन ऋषि को अपनी कन्या दे दी। उस कन्या को पाकर च्यवन मुनि प्रसन्न हो गए। सती सुकन्या भी अपने तप के नियमों का पालन करते हुए। प्रेमपूर्वक तपस्वी की परिचर्चा करने लगे। एक दिन सुकन्या स्नान करके अपने आश्रम में खड़ी थी। उस समय उस पर अश्विनी कुमारों की दृष्टी पड़ी। वह साक्षात देवराज की कन्या के समान अंगो वाली थी। तब अश्चिनीकुमारों ने उसके समीप जाकर कहा तुम किसकी पुत्री हो और किसकी पत्नी हो इस वन में क्या करती हो?
यह सुनकर सुकन्या ने सहज भाव से कहा मैं महाराज शर्याति की कन्या और महर्षि च्यवन की पत्नी हूं। तब अश्विनी कुमार बोले हम देवताओं के वैद्य हैं तुम्हारे पति को युवा और रूपवान कर सकते हैं। यह बात अपने पति से जाकर कहो उनकी यह बात उनकी पत्नी ने जाकर उन्हें बताई। मुनि ने अपनी स्वीकृति दे दी। तब उसने अश्विनी कुमारों से वैसा करने के लिए कहा अश्विनीकुमारों ने कहा मुनि इस सरोवर में प्रवेश करें। महर्षि च्यवन रूपवान होने को उत्सुक थे। उन्होंने तुरंत जल में प्रवेश किया। उनके साथ अश्विनीकुमारों ने भी उनमें गोता लगाया। फिर एक मुहूर्त बीतने पर वे तीनों उस सरोवर से बाहर निकले तो वे सभी युवा, दिव्यरूपधारी आकृति वाले थे। उन तीनों को ही देखकर अनुराग में वृद्धि होती थी।
उन तीनों ने ही कहा सुन्दरि हम तीनों में से एक को वर लो। सुकन्या एक बार तो सहम गई उसके मन से निश्चय करके उसने अपने पति को पहचान लिया। इस प्रकार अपनी पत्नी और मनमाना रूप व यौवन पाकर च्यवन मुनि बहुत प्रसन्न हुए। अश्चिनीकुमारों से बोले में वृद्ध था, तुमने मुझे रूप और यौवन दिया है। इसलिए मैं भी तुम्हे सौमपान का अधिकार दिलवाऊंगा। यह सुनकर अश्विनी कुमार प्रसन्न होकर स्वर्ग को चले गए। च्यवन और सुकन्या आश्रम में देवताओं के समान विहार करने लगे।
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राजकुमारी ने अनजाने में ऋषि च्यवन की आंखें फोड़...
इस तरह उस तीर्थ की कहानी सुनने के बाद पांडव शर्याति यज्ञ स्थान पर पहुंचे। लोमेश मुनि ने एक स्थान कि ओर संकेत करते हुए युधिष्ठिर से कहा महाराज यह शर्याति यज्ञ स्थान है। यहां कौशिक मुनि ने अश्विनीकुमार सहित सौमपान किया था। इसी स्थान पर महर्षि च्यवन ने इन्द्र को स्तब्ध कर दिया था। यहीं उन्हें राजकुमारी सुकन्या प्राप्त हुई थी। तब युधिष्ठिर ने पूछा च्यवनमुनि को क्रोध क्यों हुआ? उन्होंने इन्द्र को स्तब्ध क्यों किया? अश्विनीकुमारों को उन्होंने सोमपान का अधिकारी कैसे बनाया?
महर्षि भृगु का च्यवन नामक एक बड़ा ही तेजस्वी पुत्र था। वह इस सरोवर के तट पर तपस्या करने लगा। वह मुनिकुमार बहुत समय तक वृक्ष के समान निश्चल रहकर एक ही स्थान पर वीरासन में बैठा रहा। धीरे -धीरे अधिक समय बीतने पर उसका शरीर घास और लताओं से ढक लिया। उनके शरीर पर चीटियों ने अड्डा जमा लिया। वे चारों तरफ से देखने पर केवल मिट्टी का एक पिंड जान पड़ते थे। इस तरह बहुत समय बीत गया। एक दिन राजा शर्याति इस सरोवर पर क्रीडा करने के लिए आया। उसकी चार सुन्दरी रानियां और एक सुंदर कन्या थी। उसका नाम सुकन्या थी। वह कन्या अपनी सहेलियों के साथ टहलती हुई च्यवन मुनि के उस बांबी के पास आ गई उसमें से च्यवन मुनि की चमकती आंखे देखकर उसे कौतुहल हुआ। फिर उसने बुद्धि भ्रमित हो जाने से उसे कांटे से छेद दिया। इस प्रकार आंखे फूट जाने के कारण उन्हें बहुत दुख हुआ और उन्होंने शर्याति की सेना के मल-मूत्र बंद कर दिए।
सेना कि यह दशा देखकर राजा ने पूछा यहां च्यवनऋषि रहते हैं। वे स्वभाव के बहुत क्रोधी हैं। उनका जाने-अनजाने में किसने अपमान किया है। यह बात जब सुकन्या को मालूम हुई तो उसने कहा मैं घूमती-घूमती बांबी के पास आ गई। वहां मैंने उस बांबी में जुगनू से चमकते हुए जीव को छेद दिया। यह सुनकर शर्याति तुरंत ही बांबी के पास गए। वहां उन्हें च्यवन ऋषि दिखाई दिए। राजा ने उनसे क्षमा मांगी। तब उन्होंने कहा इस गर्वीली कन्या जिसने मेरी आंखें फोड़ी हैं। मैं इसे पाकर ही क्षमा कर सकता हूं।
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...तो परशुरामजी ने सारे क्षत्रियों को मार डाला
एक बार इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गए थे। उसी समय अनूप देश का राजा कार्तवीर्य अर्जुन उनके आश्रम आ गया। जिस समय वह आश्रम आया। मुनिपत्नी रेणुका ने उसका आतिथ्य स्वीकार किया। उसने सत्कार की कुछ कीमत न करके आश्रम की होमधेनु के डकारते रहने पर भी उसके बछड़े को हर लिया। वहां के पेड़ आदि भी तोड़ दिए। जब परशुरामजी आश्रम में आए तो स्वयं जमदग्नि जी ने उनसे सारी बात कहीं। उन्होंने होम की गाय को भी रोते देखा। यह सुनकर और देखकर वे बहुत दुखी हुए। वे सहस्त्रार्जुन के पास आए और उसकी सैकड़ो भुजाओं को काट दिया और उसे काल के हवाले कर दिया। इससे सहस्त्रार्जुन के पुत्रों को बहुत दुख हुआ।
उन्होंने एक दिन परशुरामजी की अनुपस्थिति में जमदग्रि के आश्रम पर हमला बोल दिया। जब वे उनकी हत्या करके चले गए। उसके कुछ देर बाद परशुरामजी समिधा लेकर आश्रम पहुंचे। वहां अपने पिताजी को मरे हुए देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ। वे फूट-फूटकर रोने लगे। कुछ समय तक करूणा पूर्वक विलाप करते रहे, फिर उन्होंने अपने पिता का अग्रि संस्कार किया और प्रतिज्ञा की में सारे क्षत्रियों का संहार कर दूंगा। उन्होंने अकेले ही कार्तवीर्य के सब पुत्रों को मार डाला। उन्होंने पूरी पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया।
क्रमश:
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... इसलिए परशुराम ने अपनी मां का ही सिर काट दिया
उसके बाद जमदग्रि ने वेदाध्यन आरंभ किया और नियम से स्वाध्याय करने लगे। फिर उन्होंने राजा प्रसेनजित के पास जाकर उनकी पुत्री रेणुका के लिए याचना की और राजा ने जमदग्रि से अपनी बेटी का विवाह कर दिया। रेणुका का आचरण सब प्रकार से अपने पति के अनुकूल था। उनके साथ आश्रम में रहकर वह भी तपस्या करने लगी। उनके चार पुत्र हुए। इसके बाद परशुराम पैदा हुआ जो इनका पांचवा पुत्र था। एक बाद जब सब पुत्र फल लेने चले गए। जब रेणुका स्नान करने को गई। तब उन्होंने देखा कि राजा चित्ररथ जलक्रीड़ा कर रहे हैं। राजा को जलक्रीड़ा करते देख। रेणुका उन पर मोहित हो गई। उसके बाद वे आश्रम लौटी। वहां उन्हें मानसिक रूप से थका हुआ देखकर मुनि ने अपनी दिव्य शक्तियों से जान लिया। इसके बाद उन्होंने तुरंत अपने पुत्रों से कहा तुम अपनी मां को तुरंत मार डालो। वे सभी हक्के-बक्के हो गए और कुछ नहीं बोल सके । तब मुनि ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दिया।
जिससे उनकी विचारशक्ति नष्ट हो गई। उन सबके पीछे परशुरामजी आए। उनसे मुनि जमदग्रि ने कहा बेटा अपनी इस पापिनी मां को मार डालो। इसके लिए मन किसी तरह का खेद मत कर। सुनकर परशुरामजी ने अपनी माता का मस्तक काट डाला। उसके बाद जमदिग्र का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर अपने बेटे से कहा तुम्हारी जो जो कामना है सब मांग लो। तब उन्होंने कहा पिताजी मेरी माता जीवित हो जाएं। उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने के बात याद ना रहे। मेरे चारों भाई स्वस्थ्य हो जाएं, युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोइ ना हो, मैं लंबी आयु प्राप्त करूं।
ब्राह्मण होकर भी क्षत्रिय की तरह क्यों थे...
वैशम्पायनजी कहते हैं जन्मेजय उस सरोवर में स्नान करके महाराज युधिष्ठिर कौशि की नदी के किनारे होते हुए सभी तीर्थ स्थान में गए। उन्होंने समुद्र तट पर पहुंचकर गंगाजी के स्थान में मिली हुई पांच सौ नदियों की धारा से स्नान किया। इसके बाद वे समुद्र के किनारे-किनारे अपने भाइयों सहित कलिंग देश आए। वहां लोमेश जी कहने लगे यह कलिंगदेश है। यहां वैतरणी नदी बहती है। इस स्थान पर देवताओं का आश्रय लेकर खुद धर्मराज ने यज्ञ किया था। पाण्डवों ने द्रोपदी सहित वैतरणी नदी में उतरकर पितृतर्पण किया। इसके बाद वे महेन्द्रपर्वत पर गए। वहां एक रात निवास किया।वहां रहने वाले तपस्वीयों ने उनका बहुत सत्कार किया। लोमेश मुनि ने उन सभी ऋषियों का परिचय युधिष्ठिर को दिया। वीरवर ने परशुराम से पूछा भगवान परशुराम इन तपस्वीयों को किस समय दर्शन देंगे।
तपस्वीयों को उनका दर्शन चतुर्दशी और अष्टमी को होता है। आज की रात बीतने पर कल चर्तुदशी होगी तब आप भी उनके दर्शन कर लेना। युधिष्ठिर ने पूछा- आप परशुरामजी के सेवक है।उन्होंने पहले जो-जो कार्य किए थे वे सभी आपने प्रत्यक्ष देखे हैं। जिस प्रकार उन्होंने क्षत्रियों को परास्त किया था। तब अकृतव्रण ने कहा मैं तुम्हे परशुरामजी का चरित्र सुनाता हूं। उन्होंने है हद्यवंश के अर्जुन का वध किया था। तब उसके एक हजार भुजाएं थी। दतात्रेय की कृ पा से उन्हें एक सोने का विमान मिला था। उसकी गति को पृथ्वी पर कोई रोक नहीं सकता था। किसी समय कन्नौज नामक नगर में गाधि नाम का एक बलवान राजा था। वह वन में जाकर रहने लगा। वहां उसके एक कन्या उत्पन्न हुई। जो अप्सरा के समान सुंदर लगी थी। उसका नाम था सत्यवती। ऋचीक मुनि ने राजा के पास जाकर याचना की। राजा गाधि ने ऋचीक मुनि के साथ सत्यवती का ब्याह कर दिया। विवाहकार्य सम्पन्न हो जाने पर अपने पुत्र को पत्नी के साथ देखकर भृगु ऋषि बहुत खुश हुए। तब उन्होंने अपने पुत्रवधु को वर मांगने को कहा। तब उसने ससुरजी को प्रसन्न देखकर अपने और अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब भृगुजी ने कहा तुम और तुम्हारी माता दोनों ऋतुस्नान के बाद अलग-अलग वृक्षों से आलिंगन करना। वह पीपल का और तुम गुलर का आलिंगन करना।
इसके अलावा मैंने ये दो चरू तैयार किए हैं इनमें रखा पदार्थ तुम सावधानी पूर्वक खा लेना। जब बहुत दिन बाद वे लौटे तो उन्होंने जाना कि सत्यवती ने गलत वृक्ष का आलिंगन किया व गलत चरू की सामग्री का सेवन किया। यह देखकर उन्होंने कहा सत्यवती तुम्हारा पुत्र इसीलिए ब्राह्मण होकर भी क्षत्रिय के समान व्यवहार करेगा। तब सत्यवती ने बार-बार प्रार्थना की ओर कहा कि मेरा पुत्र ऐसा ना हो भले ही पौत्र ऐसे स्वभाव वाला हो जाए।
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उसका ऐसा रूप देखकर मुनि हैरान हो गए!
उस वैश्या ने मुनि की आश्रम पहुंचकर उनके दर्शन किए। उसने मुनि का आशीर्वाद लिया। ऋषिश्रृंग ने कहा आप की कांति साक्षात तेज पुंज के समान है। मैं आपको पैर धोने के लिए जल दूंगा। अपने धर्म के अनुसार कुछ फल भेट करूंगा। यह कृष्णचर्म से ढ़का हुआ आसन है। इस पर विराज जाइए। आपका आश्रम कहा है? आप किस नाम पसंद है। तब वैश्या बोली मेरा आश्रम यहां से तीन योजन की दूरी पर है। मेरा ऐसा नियम है कि मैं किसी के पैर नहीं छूता और नहीं किसी को छूने देता हूं।
तब ऋषि ने उसे कु छ फल दिए और कहा आप इसमें से रूचि अनुसार ग्रहण करे। उस वैश्या की लड़की ने उन सब फलों को त्यागकर अपने पास से कुछ स्वादिष्ट फल निकालकर व कुछ रसीले पदार्थ व शर्बत निकालकर मुनि को दिए। उसके बाद तो जैसे ऋषिश्रृंग का ध्यान भटकने लगा था। उसके बाद वो वैश्या वहां से चली गई। ऋषि श्रृंग उस वैश्या को पहचान नहीं पाएं क्योंकि वे स्त्री जाति से ही अनजान थे।जब ऋषिश्रृंग के पिता लौटकर आए तब उन्होंने उनसे कहा पिताजी आपके जाने के बाद एक जटाधारी ब्रह्मचारी आश्रम आए थे। वह सोने के समान काया वाले थे। उनके शरीर पर बिल्कुल रोम नहीं थे। गले के नीचे दो मासपिंड थे। वह चलता था तो अजीब सी झनकार होती थी। उसे देखकर मेरे मन में उसके प्रति बहुत प्रिति और आसक्ति उत्पन्न हो रही थी। उसने मुझे बहुत स्वादिष्ट फल और कुछ पदार्थ पिलाया जिसे पीकर मुझे बहुत आनंद हुआ। ऋषिश्रृंग की बात सुनकर विभांडक मुनि बोले बेटा ये तो राक्षस है।
ये ऐसे ही विचित्र और दर्शनीय रूप में घूमते रहते हैं। ये बहुत पराक्रमी होते हैं। बेटा ये तुम्हारी तपस्या में विघ्र डालना चाहते हैं। यह कहकर राक्षस ने उन्हें रोक दिया और खुद विभांडक मुनि उस वैश्या को ढंूढने लगे। जब तीन दिन तक कुछ पता नहीं चला तब वे आश्रम लौट आए। जब विभांडक मुनि आश्रम से बाहर गए तो वैश्या अपनी युक्ति से उन्हें ले गई और जैसे ही वे राजा लोमपाद के राज्य में पहुंचे तो वहां जल ही जल हो गया।
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राजा ने ब्राह्मण को दान से मना किया तो...
इसी समय अंगदेश में महाराज दशरथ के मित्र राजा लोमपाद राज्य करते थे। हमने ऐसा सुना था कि उन्होंने किसी ब्राह्मण को कोई चीज देने की प्रतिज्ञा करने के बाद उसे मना कर दिया था। इसीलिए ब्राह्मणों ने उनको त्याग दिया। इससे उनके राज्य में वर्षा होनी बंद हो गई। प्रजा में हाहाकार मच गया।तब उन्होंने ब्राह्मणों से उपाय पूछा कि आप ही लोग बताइये। सभी उपाय सोचने में लग गए। वे सब अपना मत प्रकट करने लगे। तब उनमें से एक ने कहा राजा ब्राह्मण आप पर कुपित है। इसका आप प्रयाश्चित कीजिए।
ऋषिश्रृंग नाम के एक मुनिकुमार है। वे वन में ही रहते हैं और बहुत सरल स्वभाव के हैं। उन्हें स्त्री जाति के बारे में तो पता ही नहीं है। उन्हें आप अपने देश में बुला लीजिए। वे यदि यहां आ गए तो तुरंत वर्षा होने लगेगी। यह सुनकर राजा ने लोमपाद ने अपने अपराध का प्रायश्चित करवाया। उनके प्रसन्न होने पर उन्होंने अपने राज्य के मंत्रियों की सलाह से राज्य की प्रधान वैश्याओं को बुलवाया और कहा सुन्दरियों तुम जाओ और किसी तरह मोहित करके ऋषि श्रृंग को मेरे राज्य में ले आओ।
तब वैश्या ने राजा से कहा मैं अपने तपोधन से ऋषिश्रृंग को लाने का प्रयत्न करुंगी। उसके बाद उस वृद्धा ने अपनी बुद्धि के अनुसार नौका पर एक आश्रम तैयार किया। उस आश्रम को उसने बनावटी फूल व फल से सजाया। उसने विभाण्डक मुनि के आश्रम से कुछ दूरी पर जाकर गुप्तचरों को बोला जाओ पता लगाकर आओ मुनि विभाण्डक किस समय आश्रम से बाहर जाते हैं। उसके बाद उसने अपनी पुत्री वैश्या को सब बात समझाकर ऋषिश्रृंग के पास भेजा।
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