सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat 8





घमंड करने का यही परिणाम होता है क्योंकि...


दम्भोद्धव नाम का एक राजा था। वह महारथी सम्राट था। वह सभी ब्राह्मण और क्षत्रियों से पूछा करता था कि क्या ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रो में कोई ऐसा शस्त्रधारी है जो युद्ध में मेरे समान या मुझसे बढ़कर हो? इस तरह कहते हुए वह राजा बहुत घमंड में पूरी पृथ्वी पर घूमता था।

राजा का ऐसा घमंड देखकर एक ब्राह्मण ने बोला इस पृथ्वी पर ऐसे दो ही सत्पुरुष है जो तुम्हे पराजित कर सकते हैं। उनका नाम नर और नारायण है। वे इस समय मनुष्य लोक में आए हुए हैं। राजा को यह बात सहन नहीं हुई।

वह उसी समय बड़ी भारी सेना सजाकर नर और नारायण के पास गया। मुनियों ने राजा को देख उनका आदर सत्कार किया पूछा- कहिए हम आपका क्या काम करें? राजा ने कहा इस समय मैं आपसे युद्ध करने के लिए आया हूं। मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा है, इसलिए इसे स्वीकार करके ही आप मेरा आतिथ्य कीजिए। नर और नारायण ने राजा को बहुत समझाया लेकिन जब वह उनकी बात नहीं समझ पाया तब भगवान नर ने एक मुट्ठी सींके लेकर कहा अच्छा तुम्हारी युद्ध की लालसा है तो शस्त्र उठा लो और अपनी सेना को तैयार करो। 

युद्ध शुरू हुआ। जब सैनिकों ने बाण वर्षा आरंभ की नर ने एक सींक को अमोघ अस्त्र के रूप में बदलकर छोड़ा। जिससे सभी वीरों के आंख, नाक और कान सीकों से भरा देखकर राजा दम्भोद्धव उनके  चरणों में गिर पड़ा और बोला मेरी रक्षा करो। तब दोनों मुनियों ने उसे समझाया तुम लोभ और अहंकार छोड़ दो। तुम किसी का अपमान मत करना। इसके बाद दम्भोद्धव उन दोनों मुनियों से माफी मांगकर नगर लौट आया।
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महाभारत से पहले कृष्ण ने पांडवों के ओर से ऐसे की थी शांति की पहल....


कृष्णजी ने आगे कहा मैं अब आपको पांडवों का संदेश सुनाता हूं। महाराज!पाण्डवों ने आपको प्रणाम कहा है और आपकी प्रसन्नता चाहते हुए, यह प्रार्थना की है कि हमने अपने साथियों के सहित आपकी आज्ञा से ही इतने दिनों तक दुख भोगा है। हम बाहर वर्ष तक वन में रहे हैं और फिर तेहरवां वर्ष जनसमूह में अज्ञातरूप से रहकर बिताया है। 

वनवास की शर्त होने के समय हमारा यही निश्चय था कि जब हम लौटेंगे तो आप हमारे ऊपर पिता की तरह रहेंगे। हमने उस शर्त का पूरी पालन किया है, इसलिए अब आप भी जैसा वादा था, वैसा ही निभाइए। हमें अब अपने राज्य का भाग मिल जाना चाहिए। आप धर्म और अर्थ का स्वरूप जानते हैं। इसलिए आपको हमारी रक्षा करनी चाहिए। गुरु के प्रति शिष्य का जैसा गौरवयुक्त व्यवहार होना चाहिए।

आपके साथ हमारा वैसा ही बर्ताव है। इसलिए आप भी हमारे प्रति गुरु का सा आचरण कीजिए। हम लोग यदि मार्गभ्रष्ट हो रहे हैं तो आप हमें ठीक रास्ते पर लाइए और खुद भी सन्मार्ग पर स्थित हो जाइए। इसके अलावा आपके उन पुत्रों ने सभासद् से कहलाया है कि जहां धर्मज्ञ सभासद् हों, वहां कोई अनुचित बात नहीं होनी चाहिए। यदि सभासदो के देखते हुए अधर्म से धर्म का और असत्य से सत्य का नाश हो तो उनका भी नाश हो जाता है। इस समय पांडव लोग धर्म पर दृष्टि लगाए बैठे हैं। उन्होंने धर्म के अनुसार सत्य और न्याययुक्त बात ही कही है। राजन् आप पाण्डवों को राज्य दे दीजिए- इसके सिवा आपसे और क्या कहा जा सकता है? इस सभा में जो राजालोग बैठे हैं। उन्हें कोई और बात कहनी हो तो कहें। यदि धर्म और अर्थ का विचार करके मैं सच्ची बात कहूं तो यही कहना होगा कि इन क्षत्रियों को आप मृत्यु के फंदे से छुड़ा दीजिए। ऐसा करके आप अपने पुत्रों के सहित आनन्द से भोग भोगिए। 

इस समय आपने अर्थ को अनर्थ और अनर्थ को अर्थ मान रखा है। आपके पुत्रों पर लोभ ने अधिकार जमा रखा है।पाण्डव तो आपकी सेवा के लिए भी तैयार है। युद्ध करने के लिए भी तैयार हैं इन दिनों में आपको जो बात अधिक हितकर जान पड़े, उसी पर डट जाइए।  जब भगवान कृष्ण ने ये सब बातें कहीं तो सभी सभासदों को रोमांच हो आया और वे चकित से हो गए। वे मन ही मन तरह से तरह से विचार करने लगे। उनके मुंह से कोई भी उत्तर नहीं निकला। सब राजाओं को इस प्रकार मौन हुआ देख सभा में उपस्थित परशुरामजी कहने लगे। तुम सब प्रकार का संदेह छोड़कर मेरी एक सत्य सुनो...क्रमश:

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महाभारत से पहले श्रीकृष्ण ने ऐसे की थी युद्ध को रोकने की कोशिश...


दूसरे दिन सुबह उठकर श्रीकृष्ण ने स्नान, जप  और अग्रिहोत्र से निवृत होने के बाद सूर्य का पूजन किया आभूषण आदि धारण किए। उसके बाद वे राज्यसभा में पहुंचे। धृतराष्ट्र, भीष्म आदि भी सभा में आ गए। जब सभा में सभी राजा मौन होकर बैठ गए तो श्रीकृष्ण ने महाराज धृतराष्ट्र की तरह देखते हुए बड़ी गंभीर वाणी में कहा। मेरा यहां आने का उद्देश्य यह है कि क्षत्रिय वीरों का संहार हुए बिना ही कौरव और पांडवों में संधि हो जाए। इस समय राजाओं में कुरुवंश ही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। 

इसमें शास्त्र और सदाचार का सम्यक आदर है तथा अनेकों शुभ गुण है। राज्यवंशों की अपेक्षा कुरुवंशियों में कृपा, दया, करुणा, मृदुता, सरलता क्षमा और सत्य विशेष रूप से पाए जाते हैं। यदि कौरव गुप्त या प्रकटरूप से कोई असद्व्यवहार करते हैं तो उसे रोकना आप ही का काम है। दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थ की ओर से मुंह फेरकर क्रूर पुरुषों सा आचरण करते हैं। यह भयंकर आपत्ति इस समय कौरवों पर ही आई है। यदि इसकी उपेक्षा की गईं तो यह सारी पृथ्वी चौपट कर देगी। 

यदि आप अपने कुल को नाश से बचाना चाहें तो अब भी इसका निवारण किया जा सकता है। मेरे विचार से दोनों पक्षों में संधि होनी बहुत कठिन नहीं है। इस समय शांति और समझौता करवाना मेरे हाथों में है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखें में पांडवों को मैं नियम में रखूंगा। आपके पुत्रों को आपकी आज्ञा में रहना चाहिए। महाराज! आप पांडवों की रक्षा में रहकर धर्म का अनुष्ठान कीजिए।

आपको ऐसे रक्षक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिल सकते। कौरव और पांडवों के मिल जाने से आप समस्त लोकों का आधिपत्य प्राप्त कर सकेंगे। महाराज युद्ध करने में मुझे बहुत संहार दिखाई दे रहा है। इस प्रकार दोनों पक्षों का नाश कराने में आपको क्या धर्म दिखाई देता है। आप इस लोक की रक्षा कीजिए और ऐसा कीजिए, जिसमें आपकी प्रजा का नाश न हो। यदि आप सत्वगुण धारण कर लेंगे तो सबकी रक्षा हो जाएगी।

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श्रीकृष्ण क्यों नहीं बने दुर्योधन के मेहमान?

सुबह श्रीकृष्ण हस्तिनापुर पहुंचे। श्रीकृष्ण के सम्मान के लिए सारा नगर खूब सजाया गया था। श्रीकृष्ण ने भीड़ के बीच से राजभवन में प्रवेश किया। उन्हें लांघकर श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। अतिथि सत्कार हो जाने पर धर्मज्ञ विदुरजी ने भगवान से पांडवों की कुशल पूछी। विदुरजी पांडवों के प्रेमी तथा धर्म और अर्थ में तत्पर रहने वाले हैं। कृष्णजी ने कहा पांडव लोग जो भी बात कौरवों तक पहुंचाना चाहते थे। वे सब बातें उन्होंने विदुरजी को विस्तार से सुना दी। इसके बाद दोपहरी बीत जाने पर भगवान कृष्ण अपनी बुआ कुंती के पास गए।

श्रीकृष्ण को आए देख वह उनके गले से लगकर अपने पुत्रों को याद कर रोने लगी। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाते हुए कहा आपकी पुत्रवधू द्रोपदी और सभी पांडव कुशल हैं, आप चिंता न करें। ऐसा दिलासा देकर श्रीकृष्ण दुर्योधन के महल को चले गए। श्रीकृष्ण के पहुंचते ही दुर्योधन अपने मंत्रियों सहित आसन पर खड़ा हो गया। भगवान दुर्योधन और उसके मंत्रियों से मिलकर फिर वहां एकत्रित हुए। सब राजाओं से उनकी आयु के अनुसार मिले। इसके बाद दुर्योधन ने उनसे भोजन ग्रहण करने कि प्रार्थना की। लेकिन कृष्ण ने उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया। 

तब दुर्योधन ने कहा मैं आपको अच्छी-अच्छी चीजें भेंट कर रहा हूं। आप स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं? आपने तो दोनों ही पक्षों की सहायता की है। इसके अलावा आप महाराज धृतराष्ट्र के भी प्रिय है। दुर्योधन के ऐसा पूछने पर कृष्णजी ने गंभीर वाणी में कहा- ऐसा नियम है कि दूत को उद्देश्य पूर्ण होने से पहले भोजन आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। जब मेरा काम पूरा हो जाएगा तब ही मैं कुछ ग्रहण करूंगा। जब मेरा काम पूरा हो जाए तब तुम भी मेरा और मेरे मंत्रियों का सत्कार करना।
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दुर्योधन श्रीकृष्ण को कैद क्यों कर लेना चाहता था?


सभी उनके स्वागत की तैयारियां पूरी करने में लग गए। दुर्योधन से सभी तैयारियां पूर्ण होने की सुचना मिलने पर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा श्रीकृष्ण कल सुबह हस्तिनापुर आ जाएंगे। तुम जानते हो की कृष्ण के दर्शन सैकड़ों सूर्य के दर्शन के समान है।इसलिए जितनी भी प्रजा है उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन करने चाहिए। विदुर ने कहा मैं श्रीकृष्ण की महिमा जानता हूं, उन्हे पांडवों से बहुत अनुराग है।

आप किसी भी तरह कृष्ण को अपनी ओर नहीं कर पाएंगे। दुर्योधन बोला- पिताजी विदुरजी ने जो कुछ कहा है ठीक ही कहा है। श्रीकृष्ण का पांडवों की प्रति बहुत प्रेम है। उन्हें उनके विपक्ष मे कोई नहीं ला सकता। इसलिए आपके सारे प्रयास व्यर्थ हैं। भीष्म बोले श्रीकृष्ण ने अपने मन में जो भी निर्णय ले लिया है। उसे आप और मैं कभी नहीं बदल सकते हैं। दुर्योधन ने कहा- पितामह जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं तब तक मैं इस राजलक्ष्मी को पांडवों के साथ बांटकर नही भोग सकता।

मैंने विचार किया है कि मैं पाण्डवों के पक्षपाती कृष्ण को कैद कर लूं। उन्हें कैद करने से समस्त यादव और सारी पृथ्वी के साथ ही पांडव भी मेरे अधीन हो जाएंगे। यह बात सुनकर धृतराष्ट्र और उनके मंत्रियों को भयंकर झटका लगा। उन्होंने दुर्योधन से कहा-बेटा तू अपने मुंह से ऐसी बातें ना निकाल। यह सनातन धर्म के विरूद्ध है। कृष्णजी यहां दूत बनकर आ रहे हैं और दूत को कैद नहीं किया जाता है।

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श्रीकृष्ण हस्तिनापुर जाने लगे तो कौन से शकुन व अपशकुन हुए?

श्रीकृष्ण बोलते हैं, मैं वहां जाकर ऐसी बात कहूंगा, जो धर्म के अनुकूल होगी और जिनसे हमारा और कौरवों का हित होगा। उसके बाद श्रीकृष्ण हस्तिनापुर जाने की तैयारी करने लगे। उस समय उन्होंने अपने पास बैठे सात्य से कहा कि तुम मेरे शंख, चक्र, गदा, तरकस आदि सब रथ में रख दो। कृष्ण का रथ सजाया गया। 

कृष्णजी ने अपने चार घोड़ों शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प  और बलाहक इन सभी को नहला-धुलाकर रथ में जोता। उस रथ की ध्वजा पर गरुड़ विराजमान हुए। तब उन्होंने हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया।  श्रीकृष्ण जब हस्तिनापुर के लिए चले तब पूर्व दिशा की ओर बहने वाली छ: नदियां और समुद्र- ये उल्टे बहने लगे। सब दिशाएं ऐसी अनिश्चित हो गई कि कुछ पता ही न लगता था। मार्ग में जहां श्रीकृष्ण चलते थे। वहां बड़ा सुखप्रद वायु चलती। शकुन भी अच्छे ही होते थे। 

इस तरह वे अनेक राष्ट्रो को लांघते हुए शालियवन नामक स्थान पर पहुंचे। इधर जब दूतों के द्वारा राजा धृतराष्ट्र को पता लगा कि श्रीकृष्ण आ रहे हैं तो उन्होंने मंत्रियों और भीष्म, द्रोण, संजय और दुर्योधन से कहा-पाण्डवों के काम से हमसे मिलने के लिए श्रीकृष्ण आ रहे हैं। उनके सत्कार की तैयारी की जाए। तुम उनके स्वागत सत्कार की जमकर तैयारियां करो। रास्ते में सब प्रकार की आवश्यक सामग्री से सम्पन्न विश्राम स्थान बनाओ।

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द्रोपदी के आंसुओं को देखकर श्रीकृष्ण ने क्या प्रतिज्ञा की?

इसके बाद द्रोपदी अपने बालों को बाएं हाथ में लिए कृष्ण के पास आई। नेत्रों में जल भरकर उनसे कहने लगी- कमलनयन श्रीकृष्ण! शत्रुओं से संधि करने की तो इच्छा है, लेकिन अपने इस सारे प्रयत्न में आप दु:शासन के हाथों से खींचे हुए इन बालों को याद रखें। अगर भीम और अर्जुन और कायर होकर आज की संधि के लिए ही उत्सुक हैं तो अपने महारथी सहित मेरे वृद्ध पिता और पुत्र कौरवों से संग्राम करेंगे। मैंने दु:शासन को अगर मरते न देखा तो मेरी छाती ठंडी कैसे होगी। इतना कहते हुए द्रोपदी का गला भर आया। तब श्रीकृष्ण ने कहा तुम शीघ्र ही कौरव की स्त्रियों को रुदन करते देखोगी। आज जिन पर तुम्हारा क्रोध है। उनकी स्त्रियां भी इसी तरह रोएंगी।

महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेव के सहित मैं भी ऐसा ही काम करुंगा। यदि काल के वश में पड़े धृतराष्ट्रपुत्र मेरी बात नहीं सुनेंगे तो निश्चय ही मानों की चाहे प्रलय आ जाए लेकिन मेरी कोई बात झूठी नहीं हो सकती। तुम अपने आसुंओं को रोको, मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं अगर धृतराष्ट्र ने मेरी बात नहीं मानी तो तुम शीघ्र ही शत्रुओं के मारे जाने से अपने पतियों को श्री सम्पन्न देखोगी। अर्जुन ने कहा- श्रीकृष्ण इस समय सभी कुरूवंशियों के आप ही सबसे बड़े सहृदय हैं। आप दोनों ही पक्षों के संबंधी और प्रिय हैं। इसलिए पांडवों के साथ कौरवों की संधि आप ही करा सकते हैं।

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द्रोपदी भी चाहती थी महाभारत का युद्ध हो क्योंकि....

अर्जुन ने कहा श्रीकृष्ण,जो कुछ कहना था वह तो महाराज युधिष्ठिर कह चुके हैं। लेकिन आपकी बातें सुनकर मुझे ऐसा लग रहा है कि धृतराष्ट्र के लोभ और मोह के कारण आप संधि होना सहज नहीं समझते। लेकिन यदि कोई काम ठीक रीति से किया जाता है तो सफल भी हुआ जा सकता है। इसलिए आप कुछ ऐसा करें कि शत्रुओं से संधि हो जाए। 

आप जो उचित समझें और जिसमें पाण्डवों का हित हो, वही काम जल्दी आरंभ कर दीजिए। हमें आगे जो कुछ करना हो, वह भी बता दें। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन तुम जो कुछ कह रहे हो ठीक है। मैं भी वही काम करूंगा। दुर्योधन धर्म और लोक दोनों ही को तिलांजली देकर स्वेच्छाचारी हो गया है। ऐसे कर्मों से उसे पश्चाताप भी नहीं होता। उसके सलाहकार भी कुमति को बढ़ावा देने वाले हैं। नकुल ने कहा- धर्मराज ने आपसे कई बातें कहीं हैं। वे सब आपने सुन ही ली हैं।

भीमसेन ने भी संधि के लिए कहकर फिर अपना बाहुबल भी आपको सुना दिया। श्रीकृष्ण ये तो हम और आप दोनों ही जानते हैं कि वनवास और अज्ञातवास के समय हमारा विचार दूसरा था और अब दूसरा है। वन में रहते समय हमारा राज्य में अनुराग नहीं था। आप कौरवों की सभा में जाकर पहले तो संधि की ही बात करें, फिर युद्ध की धमकी दें। मुझे लगता है आपके कहने पर भीष्म और विदुर आदि दुष्ट दुर्योधन को ये बात समझा पाएंगे कि संधि कर लेना ही उसके लिए अच्छा है।

सहदेव ने कहा- महाराज ने जो बात कही है, वह तो सनातन धर्म ही है, लेकिन आप तो ऐसा प्रयत्न करें जिससे युद्ध ही हो। यदि कौरव लोग संधि करना चाहें तो भी आप उनके साथ युद्ध होने का ही रास्ता निकालें। सात्य ने कहा- महामति सहदेव ने बहु्रत ठीक कहा है इनका और मेरा कोप तो दुर्योधन का वध करके ही शांत होगा। सात्य कि के ऐसा कहते ही वहां बैठे हुए सब योद्धा भयंकर सिंहनाद करने लगे। 

तभी द्रोपदी ने सहदेव और सात्य की प्रशंसा कर रोते हुए कहा- धर्मज्ञ मधुसूदन! दुर्योधन ने जिस क्रुरता से पांडवों को राजसुख से वंचित किया है वह तो आपको मालूम ही है। संजय को राजा धृतराष्ट्र ने एकांत में आपको जो अपना विचार सुनाया है वो भी आप अच्छी तरह जानते हैं। पांडव लोग दुर्योधन का रण में ही अच्छे से मुकाबला कर सकते हैं।

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क्यों कहा कृष्ण ने मैं बनूंगा अर्जुन का सारथि?

यह सुनकर भीमसेन ने कहा-वासुदेव मैं तो कुछ और ही कहना चाहता हूं, किंतु आप दुसरी ही बात समझ गए। मेरा बल दूसरे पुरुषों से समानता नहीं रखता।लेकिन आपने मेरे पुरुषार्थ  की निंदा की है। इसलिए मुझे अपने बल का वर्णन करना ही पड़ेगा।उसके बाद भीमसेन ने अपने बल का वर्णन किया। श्रीकृष्ण ने कहा मैंने भी तुम्हारा भाव जानने के लिए प्रेम से ही ये बातें कहीं हैं। 

मैं तुम्हारे प्रभाव और पराक्रम को अच्छे से जानता हूं। इसलिए तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर सकता। अब कल धृतराष्ट्र के पास जाकर आप लोगों के बीच संधि का प्रयास करूंगा। ऐसा करने से आप लोगों का काम हो जाएगा और उन लोगों का हम पर बड़ा भारी उपकार होगा। लेकिन अगर उन्होंने अभिमानवश मेरी बात नहीं मानी तो हमें फिर युद्ध जैसा भयंकर कर्म करना ही होगा।  भीमसेन इस युद्ध का सारा भार तुम्हारे ही ऊपर रहेगा या लोग तुम्हारी आज्ञा में रहेंगे। युद्ध हुआ तो मैं अर्जुन का सारथि बनूंगा। अर्जुन की भी ऐसी ही इच्छा है।

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भीम महाभारत का युद्ध नहीं लडऩा चाहते थे क्योंकि...


भीमसेन ने कहा आप कौरवों से ही बातें करें, ताकि वे संधि करने को तैयार हो जाएं, उन्हें युद्ध की बात सुनाकर भयभीत न करें। दुर्योधन बड़ा ही असहनशील और क्रोधी है। वह मर जाएगा लेकिन अपने घुटने नहीं टेकेगा। इस समय हम कुरुवंशियों के संहार का समय आया है। इसी से काल की गति पापात्मा दुर्योधन उत्पन्न हुआ है। इसलिए आप जो कुछ कहें, मधुर और कोमल वाणी में धर्म और अर्थ हित की ही बात कहें। हम सब तो दुर्योधन के नीचे रहकर बड़ी विनम्र्रतापूर्वक उसका अनुसरण करने को भी तैयार हैं, हम नहीं चाहते कि हमारे कारण भरतवंश का नाश हो। 

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन भीमसेन के मुख से भी किसी ने नम्रता बाते नहीं सुनी थी। इसलिए  उनकी ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण हंस पड़े।  भीमसेन को उतेजित करते हुए कहने लगे तुम पहले तो धृतराष्ट्रपुत्रों को कुचलने की इच्छा मन में हमेशा रखते थे। तुमने भाइयों के बीच गदा उठाकर प्रतिज्ञा भी की। लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि तुम इस युद्ध को जीतने से पहले ही हार गए हो।

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इसलिए कृष्ण ने किया कौरवों के पास जाने का फैसला.....

धृतराष्ट्र बोले -संजय जो लोग अपने नेत्रों से भगवान के तेजोमय दिव्य विग्रह के दर्शन करते हैं। उन आंख वाले लोगों जैसे भाग्य की मुझे भी लालसा होती है। जिन्होंने तीनों लोकों की रचना की, जो देवता, असुर, नाग और राक्षस सभी की उत्पति करने वाले हैं। मैं उन भगवान श्रीकृष्ण की शरण में हूं।

 इधर संजय के चले जाने पर राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- कृष्ण मुझे आपके अलावा कोई ऐसा नहीं दिखाई देता जो हमें आपत्ति से बाहर निकाल सके। आपके भरोसे ही हम बिल्कुल निर्भय हैं, और दुर्योधन से अपना भाग मांगना चाहते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा- राजन मैं तो आपकी सेवा में उपस्थित ही हूं। आप जो कुछ कहना चाहें, वह कहिए। आप जो-जो आज्ञा करेंगे, वह सब मैं पूर्ण करूंगा।

युधिष्ठिर ने कहा- राजा धृतराष्ट्र और उनके पुत्र जो कुछ करना चाहते हैं, वह तो आपने सुन ही लिया। संजय ने हमसे जो कुछ कहा है वह सब उन्हीं का मत है। राजा धृतराष्ट्र को राज्य का बड़ा लोभ है। वे धर्म का कुछ भी विचार नहीं कर रहे हैं। अपने मुर्ख पुत्र के मोहपाश में फंसे होने के कारण उसी की आज्ञा बजाना चाहते हैं। हमारे साथ तो उनका बिल्कुल बनावटी बर्ताव है। जरा सोचिए तो, इससे बढ़कर दुख की क्या बात होगी कि मैं न तो माता की सेवा कर सकता हूं और न सगे संबंधियों की। वे लोग जन्म से ही निर्धन है। उन्हें उतना कष्ट नहीं जान पड़ता जितना कि लक्ष्मी पाकर सुख में पले हुए लोगों का धन का नाश होने पर होता है। महाराज युधिष्ठिर की पूरी बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा मैं दोनों पक्षों के हित के लिए कौरवों की सभा में जाऊंगा और यदि वहां आपके लाभ में किसी तरह की बाधा न पहुंचाते हुए संधि करा सकूंगा तो समझूंगा मैंने बहुत पुण्य का काम कर दिया।

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जानिए, कृष्ण के कुछ ऐसे नाम और उनके अर्थ जो आपको...


 व्यासजी ने धृतराष्ट्र से कहा तुम मेरी बात सुनो। तुम श्रीकृष्ण के प्यारे हो। तुम्हारा संजय जैसा दूत है। जो तुम्हे कल्याण के मार्ग पर ले जाएगा। यदि तुम संजय की बात सुनोगे तो यह तुम्हे जन्म-मरण सबके भय से मुक्ति दिलवाएगा। तुम्हे क ल्याण और स्वर्ग के मार्ग पर ले जाएगा। जो लोग कामनाओं में अंधे के समान अपने कर्मों के अनुसार बार-बार मृत्यु के मुख में जाते हैं। तब धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा- तुम मुझे कोई निर्भय मार्ग बताओ, जिससे चलकर मैं श्रीकृष्ण को पा सकूं और मुझे परमपद पाप्त हो जाए। संजय ने कहा-अजितेन्द्रिय भगवान को प्राप्त करने के लिए इंद्रियों पर जीत जरूरी है। इन्द्रियों पर निश्चल रूप से काबू रखना इसी को विद्वान लोग ज्ञान कहते हैं। 

धृतराष्ट्र ने कहा- संजय तुम एक बार फिर श्रीकृष्णचंद्र के स्वरूप वर्णन करो, जिससे कि उनके नाम और कर्मों का रहस्य जानकर मैं उन्हें प्राप्त कर सकूं। संजय ने कहा- मैंने श्रीकृष्ण के कुछ नामों की व्युत्पति सुनी है। उसमें से जितना मुझे स्मरण है। वह सुनाता हूं। श्रीकृष्ण तो वास्तव में किसी प्रमाण के विषय नहीं है। समस्त प्राणियों को अपनी माया से आवृत किए रहने और देवताओं के जन्मस्थान होने के  कारण वे वासुदेव हैं। व्यापक तथा महान होने के कारण माधव है। मधु दैत्य का वध होने के कारण उसे मधुसूदन कहते हैं। कृष धातु का अर्थ सत्ता है और ण आनंद का वाचक है। इन दोनों भावों से युक्त होने के कारण यदुकुल में अवर्तीण हुए श्रीविष्णु कृष्ण कहे जाते हैं। आपका नित्य आलय और अविनाशी परमस्थान हैं, इसलिए पुण्डरीकाक्ष कहे जाते हैं। दुष्टों के दमन के कारा जनार्दन है। इनमें कभी सत्व की कमी नही होती इसलिए सातत्व  हैं। उपनिषदों से प्रकाशित होने के कारण आप आर्षभ हैं। वेद ही आपके नेत्र हैं इसलिए आप वृषभक्षेण हैं। आप किसी भी उत्पन्न होने वाले प्राणी से उत्पन्न नहीं होते इसलिए अज है। उदर- इंद्रियोके स्वयं प्रकाशक और दाम -उनका दमन करने वाले होने से आप दामोदर है। हृषीक, वृतिसुख और स्वरूपसुख भी कहलाते हैं। 

ईश होने से आप हृषीकेश कहलाते है। अपनी भुजाओं से पृथ्वी और आकाश को धारण करने वाले होने से आप दामोदर है। अपनी भुजाओं से पृथ्वी और आकाश को धारण करने वाले होने से आप महाबाहु हैं।आप कभी अध: क्षीण नहीं होते, इसलिए अधोक्षज है। नरो के अयन यानी आश्रय होने के कारण उन्हें नारायण कहा जाता है। जो सबसे पूर्ण और सबका आश्रय हो, उसे पुरुष कहते है। उनमें श्रेष्ठ होने से उत्पति को पुरुषोत्तम हैं। आप सत और असत सबकी उत्पति और ल के स्थान हैं तथा सर्वदा उन सबको जानते हैं, इसलिए सर्व हैं। श्रीकृ ष्ण सत्य में प्रतिष्ठित हैं और सत्य से भी सत्य है। वे पूरे विश्व में प्याप्त है इसलिए विष्णु हैं, जय करने के कारण विष्णु हैं नित्य होने के कारण अनंत हैं और गो इंद्रियो के ज्ञाता होने से गोविंद है।


महाभारत से पहले गांधारी और धृतराष्ट्र दुर्योधन...

श्रीकृष्ण और अर्जुन की इन बातों का दुर्योधन ने कुछ भी आदर नहीं किया। सब लोग चुप ही रहे। फिर वहां जो देश-देशान्तर नरेश बैठे थे, वे उठकर अपने-अपने डेरों को चले गए। इस एकांत के समय धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा तुम्हें तो दोनों पक्षों के बल का ज्ञान है, यूं भी तुम धर्म और अर्थ का रहस्य अच्छी तरह जानते हो और किसी भी बात का परिणाम तुमसे छिपा नहीं है इसलिए तुम ठीक-ठीक बताओ कि इन दोनों पक्षों में कौन सबल है और कौन निर्बल ? संजय ने कहा मैं आपको कोई भी बात बताना नहीं चाहता, क्योंकि इससे आपका दिल दुखेगा। 

आप भगवान व्यास और महारानी गांधारी को भी बुला लीजिए। उन दोनों के सामने मैं आपको श्रीकृष्ण और अर्जुन का पूरा-पूरा विचार सुना दूंगा। संजय के इस तरह कहने पर गांधारी और व्यासजी को बुलाया गया और विदुरजी तुरंत ही उन्हें सभा में ले आए। तब गांधारी ने कहा महामुनि व्यासजी राजा धृतराष्ट्र तुम से प्रश्र कर रहे हैं। इनकी आज्ञा के अनुसार तुम श्रीकृष्ण और अर्जुन के विषय में जो कुछ जानते हों, वह सब ज्यों का त्यों सुना दो। तब संजय ने कहा श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही बहुत सम्मानित धनुर्धर हैं। श्रीकृष्ण का चक्र का भीतर का भाग पांच हाथ चौड़ा है और वे उसका इच्छानुसार प्रयोग कर सकते हैं। नरकासुर, शंबर, कंस और शिशुपाल ये बड़े भयंकर वीर थे। भगवान कृष्ण ने इन्हें खेल ही में मार दिया। मैं सच कहता हूं एकमात्र वे काल, मृत्यु और सम्पूर्ण जगत के स्वामी है।

धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय श्रीकृष्ण समस्त लोकों के स्वामी हैं ये तुम कैसे जानते हो ? तब संजय ने कहा आपको ज्ञान नहीं है। मेरी ज्ञान की दृष्टि कभी मंद नहीं पड़ती। जो पुरुष ज्ञानहीन है, वह श्रीकृष्ण के वास्तवीक स्वरूप को नहीं जान सकता। यह बातें सुनकर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन से कहा संजय हमारे हितैषी और विश्वासपात्र है। इसलिए तुम इनकी बात मान लो। तब दुर्योधन ने कहा भगवान श्रीकृष्ण भले ही तीनों लोकों का संहार कर डालें, किंतु जब वे अपने को अर्जुन का सखा घोषित कर चुके हैं तो मैं उनकी शरण में नहीं जा सकता। तब धृतराष्ट्र ने गांधारी से कहा देखो तुम्हारा अभिमानी पुत्र ईष्र्या के कारण सत्पुरुषों की बात नहीं मान रहा है।गांधारी ने कहा दुर्योधन तू बड़ा ही दुष्ट बुद्धि और मुर्ख है। तू ऐश्वर्य के लोभ में फंसकर अपने बड़ो की आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। मालूम होता है अब तू अपने ऐश्वर्य,जीवन, पिता, सभी से हाथ धो लेगा।

कैसे दी अर्जुन ने कौरवों को महाभारत युद्ध की...

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा....व्याध ने कहा ये दोनों पक्षी आपस में मिल गए हैं इसलिए मेरे जाल को लिए जा रहे हैं। अब जहां इनमें झगड़ा होने लगेगा। वहीं ये मेरे वश में आ जाएंगे। थोड़ी ही देर में काल के वशीभूत हुए। उन पक्षियों में झगड़ा होने लगा और वे लड़ते-लड़ते पृथ्वी पर गिर गए। बस चिड़ीमार ने चुपचाप जाल के पास जाकर दोनों को पकड़ लिया।  इसी तरह जब दो कुटुंम्बियों का आपस में झगड़ा होता है तो वे शत्रुओं के चंगुल में फंस जाते हैं। इसीलिए कुटुंबियों को आपस में नहीं लडऩा चाहिए अब आगे....

 विदुर की बात खत्म होने के बाद धृतराष्ट्र ने कहा-दुर्योधन मैं तुमसे जो कुछ कहता हूं, उस पर ध्यान दो। तुम अनजान के समान इस समय कुर्माग को ही सुमार्ग समझ रहे हो। इसीलिए तुम पांचों पांडवों के तेज को दबाने का विचार कर रहे हो। लेकिन याद रखो, उन्हें जीतने का विचार करना अपनी जान को संकट में डालना ही है। श्रीकृष्ण अपने देह, गेह, स्त्री, कुटुंबी और राज्य को एक ओर तथा अर्जुन दूसरी ओर समझते हैं। उसके लिए वे इन सभी को त्याग सकते हैं। जहां अर्जुन रहता है, वहीं श्रीकृष्ण रहते हैं। जिस सेना में स्वयं श्रीकृष्ण रहते हैं। उसका वेग तो पृथ्वी के लिए भी असहनीय होगा।  मैं भी कौरवों के ही हित की बात सोचता हूं, तुम्हें मेरी बात भी सुननी चाहिए और द्रोण, कृप, विकर्ण की बात पर भी ध्यान देना चाहिए। अत: तुम तुम पांडवों को अपने सगे भाई समझकर उन्हें आधा राज्य दे दो। दुर्योधन से ऐसा कहने के बाद धृतराष्ट्र ने संजय से कहा अब जो बात सुनानी रह गई हैं वह भी कह दो। श्रीकृष्ण के बाद अर्जुन ने तुमसे क्या कहा था? उसे सुनने के लिए मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है।

संजय ने कहा- श्रीकृष्ण की बात सुनकर कुंतीपुत्र अर्जुन ने उनके सामने ही कहा-संजय तुम पितामह भीष्म, महाराज धृतराष्ट्र द्रोणाचार्य, कृ पाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, सोमदत, शकुनि, दु:शासन, विकर्ण और वहां उपस्थित समस्त राजाओं से मेरा यथायोग्य अभिवादन कहना। मेरी ओर से उनकी कुशल पूछना और पापात्मा दुर्योधन उसके मंत्री और वहां आए हुए सब राजाओं को श्रीकृष्ण का समाधानयुक्त संदेश सुनाकर मेरी ओर से भी इतना कहना कि महाराज युधिष्ठिर जो अपना भाग लेना चाहते हैं, वह यदि तुम नहीं दोगे तो मैं अपने तीखे तीरों से तुम्हारे घोड़े, हाथी और पैदल सेना के सहित तुम्हे यमपुरी भेज दूंगा महाराज इसके बाद मैं अर्जुन से विदा होकर और श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनका गौरवपूर्ण संदेश आपको सुनाने के लिए तुरंत ही यहां चला आया।


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