सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat 9





जब परिवार के लोग ही आपस में लड़ते हैं तो ऐसा होता...

कर्ण के सभा से चले जाने के बाद  मंदमति दुर्योधन ने कहा-पितामह पांडव लोग और हम। अस्त्रविद्या, योद्धाओं के संग्रह और बल में समान ही हैं। मैं आप द्रोणाचार्य और कृपाचार्य तथा अन्य राजाओं के बल पर यह युद्ध नहीं ठान रहा हूं। पांचों पांडवों को तो मैं, कर्ण और भाई दु:शासन हम तीन ही अपने पैनें बाणों से मार डालेंगे। तब विदुर ने कहा-कोई व्यक्ति कितना ही महान न क्यों न हो? ईष्र्या और शोक उसके पास नहीं फटकना चाहिए। परिवार में लड़ाई के परिणाम हमेशा बुरे ही होते हैं।

हमारे बड़े लोग कह गए हैं किसी समय एक चिड़ीमार ने चिडिय़ों को फंसाने के लिए पृथ्वी पर जाल फैलाया। उस जाल में साथ-साथ रहने वाले दो पक्षी फंस गए। तब वे दोनों उस जाल को लेकर उड़ चले। चिड़ीमार उदास हो गया और जिधर-जिधर वे जाते, उधर-उधर ही उनके पीछे दौड़ रहा था। इतने में ही एक मुनि की उस पर दृष्टि पड़ी। मुनि ने उससे कहा अरे! व्याध मुझे तो यह बात बहुत ही विचित्र लग रही है, कि तू उड़ते पक्षियों के पीछे पृथ्वी पर भटक रहा है। 

व्याध ने कहा ये दोनों पक्षी आपस में मिल गए हैं इसलिए मेरे जाल को लिए जा रहे हैं। अब जहां इनमें झगड़ा होने लगेगा। वहीं ये मेरे वश में आ जाएंगे। थोड़ी ही देर में काल के वशीभूत हुए। उन पक्षियों में झगड़ा होने लगा और वे लड़ते-लड़ते पृथ्वी पर गिर गए। बस चिड़ीमार ने चुपचाप जाल के पास जाकर दोनों को पकड़ लिया।  इसी तरह जब दो कुटुंम्बियों का आपस में झगड़ा होता है तो वे शत्रुओं के चंगुल में फंस जाते हैं।
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महाभारत युद्ध से पहले कौरवों के लिए क्या संदेश भेजा श्रीकृष्ण ने और क्यों?

धृतराष्ट्र की युद्ध न करने की सम्मति देने के बाद दुर्योधन ने अपनी असहमति जताई। उसके बाद संजय ने श्रीकृष्ण का संदेश सुनाया- संजय बोले में बहुत सावधानी से हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के अंत:पुर में गया। उस स्थान में अभिमन्यु और नकुल-सहदेव भी नहीं जा सकते। वहां पहुंचने पर मैंने देखा कि श्रीकृष्ण अपने दोनों चरणों को अर्जुन की गोद में रखे हुए हैं। अर्जुन के चरण द्रोपदी व सत्यभामा की गोद में है। 

उन्होंने मेरा सत्कार किया उसके बाद आराम से बैठ जाने पर मैंने हाथ जोड़कर उन्हें आपका संदेश सुनाया। इस पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करके उसका उत्तर देने के लिए प्रार्थना की। तब भगवान बैठ गए और बोले- संजय बुद्धिमान, धृतराष्ट्र कुरुवृद्ध भीष्म और आचार्य द्रोण से तुम हमारी ओर से यह संदेश कहना। तुम बड़ों को हमारा प्रणाम कहना और छोटो की कुशल पूछकर उन्हें यह कहना कि तुम्हारे सिर पर बड़ा संकट आ गया है, इसलिए तुम अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करो, ब्राह्मणों को दान दो और स्त्री पुत्रों के साथ कुछ दिन आनंद भोग लो।

देखो, अपना चीर खींचे जाते समय द्रोपदी ने जो हे गोविन्द ऐसा कहकर मुझ द्वारकावासी को पुकारा था।उसका ऋण मेरे हृदय से दूर नहीं होता। भला जिसके साथ में हूं, उस अर्जुन से युद्ध करने की प्रार्थना! ऐसा कौन मनुष्य कर सकता है, मुझे तो ऐसी कोई रणभूमि दिखाई नहीं देती जो अर्जुन का सामना कर सके। विराटनगर में तो उसने अकेले ही कौरवों में भगदड़ मचा दी थी। वे इधर-उधर चंपत हो गए थे- यही इसका पर्याप्त प्रमाण है। बल, वीर्य, तेज अर्जुन के सिवा और किसी एक व्यक्ति में नहीं मिलते। इस प्रकार अर्जुन को उत्साहित करते हुए कृष्ण ने मेघ के समान गरजकर यह शब्द कहे थे।
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दुर्योधन हार का अनुमान होने पर भी क्यों लडऩा...

यह सब सुनकर दुर्र्योधन ने कहा - महाराज आप डरे नहीं। हमारे विषय में कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। हम काफी शक्तिमान हैं शत्रुओं को संग्राम में परास्त कर सकते हैं। जिस समय इंद्रप्रस्थ से थोड़ी ही दूरी पर वनवासी पांडवों के पास बड़ी भारी सेना के साथ श्रीकृष्ण आए थे। कैकयराज, धृष्टकेतु, धृष्टद्युम्र, और पाण्डवों के साथी अन्याय महारथी वहां शामिल हुए थे।

वे लोग कुटुम्ब सहित आपका नाश करने पर तुले हुए थे। जब यह बात मेरे कानों पर पड़ी कि श्रीकृष्ण तो युधिष्ठिर को ही राजा बनाना चाहते हैं।

ऐसी स्थिति में बताइए, हम क्या करें? उनके आगे सिर झुका दें? डरकर भाग जाएं, या प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध में जूझे? युधिष्ठिर के साथ युद्ध करने में तो निश्चित ही हमारी पराजय होगी क्योंकि सारे राजा उन्हीं के पक्ष में हैं। मित्र लोग भी रूठे हुए हैं हमें खरी खोटी सुनाते हैं। मेरी यह बात सुनकर द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य ने कहा था डरो मत हम युद्ध लड़ेंगे। हममें से प्रत्येक अकेला ही सारे राजाओं को जीत सकता है। आवें तो सही हम अपने पैने बाणों से उनका सारा गर्व ठंडा कर देंगे।
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क्यों पांडवों से युद्ध नहीं करना चाहते थे...

अर्जुन का यह संदेश जब संजय ने सभी कौरवों को सुनाया, तो दुर्योधन आदि कौरव युद्ध के लिए उग्र हो गए। यह देखकर धृतराष्ट्र ने कहा एक ओर तुम सबको मिलकर समझो और दूसरी ओर अकेले भीम को। जैसे जंगल के जीव शैर से डरते हैं। वैसे ही मैं भी भीम से डरकर रातभर गर्म-गर्म सांसे लेता हुआ जागता रहता हूं। वह युद्ध करके तुम सबको मार डालेगा। उसकी याद आने पर मेरा दिल धड़कने लगता है। भीमसेन के बल को सिर्फ में ही नहीं बल्कि भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य भी अच्छी तरह जानते हैं। 

शोक तो मुझे उन लोगों के लिए है, जो पांडवों के साथ युद्ध करने पर तुले हुए हैं। विदुर ने आरम्भ में ही जो रोना रोया था, आज वही सामने आ गया। इस समय कौरवों पर विपत्ति आने वाली है। मैने ऐश्वर्य के लोभ से ही मैंने यह महापाप कर डाला था। मैं क्या करूं?और कहां जाऊं। मैं अपने सौ पुत्रों को मरते हुए देख। उनकी स्त्रियों का करुण कुंदन नहीं सुनना चाहता। युधिष्ठिर के मुंह से मैंने एक झूठी बात नहीं सुनी। अर्जुन जैसा वीर उनके पक्ष में है। रात-दिन विचार करने पर भी मुझे ऐसा कोई योद्धा दिखाई नहीं देता, जो रथयुद्ध में अर्जुन का सामना कर सके ।
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क्यों कहते हैं अर्जुन और कृष्ण अर्जुन को नर और...

संजय का भाषण समाप्त होने के बाद भीष्म ने दुर्योधन से कहा- एक समय बृहस्पति, शुक्राचार्य और इंद्र आदि देवगण ब्रह्माजी के पास गए। वहां पहुंचकर सभी देवता ब्रह्माजी को घेरकर बैठ गए। 

उसी समय दो प्राचीन ऋषि अपने तेज से सबके मन और तेज को हरते हुए सबको लांघकर चले गए। बृहस्पतिजी ने ब्रह्माजी से पूछा कि ये दोनों कौन हैं, जो आपकी उपासना किए बिना ही चले जा रहे हैं। तब ब्रह्माजी ने कहा ये  पराक्रमी महाबली नारायण व नर ऋषि हैं। जो अपने तेज से पृथ्वी और स्वर्ग को प्रकाशित कर रहे हैं। इन्होंने अपने कर्म से संपूर्ण लोकों के आनंद को बढ़ाया है। इन्होंने अभिन्न होते हुए भी असुरों का संहार करने के लिए दो शरीर धारण किए हैं। समस्त देवता और गंधर्व इनकी पूजा करते थे। 

इन्हें इस संसार में इन्द्र के सहित देवता और असुर भी नहीं जीत सकते। इनमें श्रीकृष्ण उन्हीं प्रचीन देवता नारायण व नर का रूप हैं। वस्तुत: नारायण और नर ये दो रूपों में एक ही वस्तु है। दुर्योधन जिस समय तुम शंख, चक्र व गदा धारण किए। श्रीकृष्ण को और अर्जुन को एक रथ में बैठा देखोगे तो उस समय तुम्हे मेरी बात याद आएगी। यदि तुम मेरी बात पर ध्यान नहीं दोगे तो समझ लेना कि कौरवों का अंत आ गया है। साथ ही तुम्हारा धर्म और बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।
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ऐसे ललकारा पांडवों ने कौरवों को महाभारत के लिए?

संजय के पांडवों के यहां से लौटने के बाद सुबह जब दुर्योधन की सभा सजी। तब ही द्वारपाल ने दुर्योधन को जाकर सूचना दी कि संजय सभा के द्वार पर आ गए। दुर्योधन ने संजय को सभा में बुलवाया। संजय सभा में पहुंचे। उन्होने कहा कौरवगण में पांडवों के पास से आ रहा हूं। 

पांडवों ने सभी को आयु के अनुसार प्रणाम किया है। संजय ने कहा वहां महाराज युधिष्ठिर की सम्मति से महात्मा अर्जुन ने जो शब्द कहे हैं दुर्योधन आप उन्हें सुन लें। उन्होंने कहा कि जो काल के गाल में जाने वाला है,मुझसे युद्ध करने की डींग हाकने वाले,उस कटुभाषी दुरात्मा कर्ण को सुनाकर कहना जिससे मंत्रियों के सहित राजा दुर्योधन उसे पूरा-पूरा सुन सके। गांडीवधारी अर्जुन युद्ध के लिए उत्सुक जान पड़ता था। 

उसने आंखे लाल करके कहा- अगर दुर्योधन महाराज युधिष्ठिर का राज्य  छोडऩे के लिए तैयार नहीं है तो अवश्य ही धृतराष्ट्र के पुत्रों का कोई ऐसा पापकर्म है, जिसका फल उन्हें भोगना बाकी है। साथ ही वह पांडवों के साथ युद्ध के लिए तैयार हो जाए। इससे तो पांडवों का सारा मनोरथ पूरा हो जाएगा। पांडव सभी गुणों से सम्पन्न हैं। वे बहुत दिनों से कष्ट उठाते रहने पर भी सत्य बोलते हैं और आप लोगों के कपट व्यवहार को सहन करते हैं। लेकिन जिस समय वे कौरवों पर क्रोध करेंगे तो उस समय कौरवों को युद्ध करने का जरुर पश्चाताप होगा।
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क्या किया धृतराष्ट्र ने पाण्डवों का गुस्सा शांत...


उसके बाद पांडव उपपलव्य नाम के स्थान पर पहुंचे। इधर पांडवों के उपपलव्य तक आ जाने की खबर सुनकर धृतराष्ट्र ने संजय को सभा में बुलाकर कहा संजय लोग कहते हैं पाण्डव उपपल्वय नामक स्थान में आकर रह रहे हैं। तुम भी वहां जाकर उनकी सुध लो।

अजातशत्रु युधिष्ठिर से आदरपूर्वक मिलकर कहना-बड़े आनंद की बात है कि आप लोग अब अपने स्थान पर आ रहे हैं। उन सब लोगों से हमारी कुशल कहना और उनकी पूछना। वे वनवास के योग्य कदापि नहीं थे। फि र भी वह कष्ट उन्हें भोगना ही पड़ा। इतने पर भी उनका हम लोगों पर क्रोध नहीं है। वे वास्तव में बहुत निष्कपट और उपकार करने वाले हैं। मैंने पाण्डवों को कभी बईमानी करते नहीं देखा।

इन्होंने अपने पराक्रम से लक्ष्मी प्राप्त कर सब मेरे ही अधीन कर दी थी। सभी पांडव अजेय, वीर और साहसी हैं। उन्होंने नियमानुसार ब्रह्मचर्य का पालन किया। अत: वे अपने मन में जो भी संकल्प करेंगे, वह पूरा होकर ही रहेगा। पाण्डव श्रीकृष्ण से बहुत प्रेम रखते हैं। वे यदि संधि के लिए कुछ भी कहेंगे तो युधिष्ठिर मान लेंगे वे उनकी बात नहीं टाल सकते। संजय तुम वहां मेरी ओर से पांडवों और श्रीकृष्ण व द्रोपदी के पांच पुत्रों की भी कुशल पूछना।  ऐसी बात करना जिससे भारतवंश का हित हो, परस्पर क्रोध या मनमुटाव न बढ़े तुम्हें उनसे ऐसी ही बात करनी चाहिए। राजा धृतराष्ट्र के वचन सुनकर संजय पांडवों से उपपल्वय गया।
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जानिए, कैसे मिली अर्जुन को अपनी पुत्रवधू?

उसके बाद सभी ने राजकुमार उत्तर के नगर आगमन पर उनका धुम-धाम से स्वागत किया। ये सब होने के बाद तीसरे दिन पांचों पांडवों ने श्वेत वस्त्र धारण किए अपने आभुषण सहित सभाभवन में प्रवेश किया। इसके बाद राजकार्य देखने के लिए स्वयं राजा विराट वहां पधारे। जब उन्होंने पांडवों को राजासन पर बैठे देखा तो वो क्रोध से आगबबूला हो गए। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा मैंने तुम्हे पासे जमाने के लिए नियुक्त किया था। आज तुम राजाओं की तरह सजसंवरकर सिहांसन पर कैसे बैठ गए? 

राजा के मुंह पर परिहास का भाव देखकर अर्जुन ने कहा-राजन तुम्हारे सिंहासन की तो बात ही क्या ये तो इंद्र के भी आधे सिहांसन के हकदार हैं। ये स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर हैं। तब विराट ने कहा अगर ये कुरुवंशी है इनका भाई अर्जुन कहा है भीम, नकुल, सहदेव, व द्रोपदी कहा हैं। तब अर्जुन बोले मैं ही अर्जुन हूं। आपका रसोइया बलशाली भीमसेन है। यह नकुल है जो अब तक आपके यहां घोड़ों का प्रबंध करता है। यह तो सहदेव है जो गौओं की संभाल रखता आ रहा है। यह सुंदरी जो सौरंध्री के रूप में है द्रोपदी है। 

अर्जुन की बात समाप्त होने पर राजकुमार उत्तर ने भी उनका परिचय करवाया। यह सुनकर राजा विराट ने कहा-उत्तर हमें पांडवों को प्रसन्न करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। तुम्हारी राय हो तो मैं अर्जुन से कुमारी उत्तरा का ब्याह कर दूं। उत्तर बोला पाण्डव लोग सम्मान व पूजन के योग्य है हमें मौका मिला है तो इनकी सेवा जरूर करनी चाहिए। उसके बाद राजा विराट ने अर्जुन से कहा आप मेरी पुत्री उत्तरा का पाणिग्रहण करें, ये सर्वथा उसके स्वामी होने के योग्य है। विराट के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन की ओर देखा। तब अर्जुन ने मत्स्यराज से कहा- राजन मैं आपकी कन्या को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूं। मत्स्य और भरतवंश का यह सबंध उचित है।
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अर्जुन ने उत्तरा से विवाह क्यों नहीं किया?

 अर्जुन की बात सुनकर राजा विराट ने कहा- पाण्डव श्रेष्ठ! मैं स्वयं तुम्हें अपनी कन्या दे रहा हूं। फिर तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार क्यों नहीं करते? अर्जुन ने कहा- राजन मैं बहुत समय तक आपकी क न्या को एकांत में पुत्रीभाव से देखता आया हूं। उसने भी मुझ पर पिता की तरह ही विश्वास किया। मैं नाचता था और संगीत का जानकार भी हूं। इसलिए वह मुझसे प्रेम तो बहुत करती है। सदा मुझे गुरु मानती आई है। लेकिन वह वयस्क हो गई है और उसके साथ मुझे एक वर्ष तक रहना पड़ा।

इस कारण तुम्हे या और किसी को हम पर कोई संदेह न हो। इसलिए उसे मैं अपनी पुत्रवधू के रूप में ही वरण करता हूं। ऐसा करके ही मैं शुद्ध भाव व मन को वश में रखने वाला हो सकूंगा। इससे आपकी कन्या का चरित्र भी शुद्ध समझा जाएगा। मैं निंदा और मिथ्या से डरता हूं। इसलिए उत्तरा को पुत्रवधू के ही रूप में ग्रहण करूंगा। मेरा पुत्र भी देवकुमार के समान है। वह भगवान श्रीकृष्ण का भानजा है। वह हर तरह से अस्त्रविद्या में निपुण है और तुम्हारी कन्या का पति होने के सर्वथा योग्य है।

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विराट नगर के राजा ने क्यों किया युधिष्ठिर का ऐसा...

उसके बाद जब धृतराष्ट्र के सब पुत्र युद्ध में हारकर इधर-उधर अलग अलग दिशाओं में भाग गए। उसी समय बहुत से कौरवों के सैनिक जो घने जंगल में छिपे हुए थे। उन्होंने प्रणाम करके अर्जुन से कहा- कुंतीनंदन हमलोग आपकी किस आज्ञा का पालन करें? 

अर्जुन ने कहा- तुम लोगों का कल्याण हो। डरो मत, अपने देश को लौट जाओ। मैं संकट में पड़े हुए को नहीं मारना चाहता। इस बात के लिए तुम लोगों को पूरा विश्वास दिलाता हूं। उसके बाद राजकुमार उत्तर व अर्जुन विराटनगर लौट गए। तब तक विराटनगर के राजा को यह नहीं पता था कि कुमार उत्तर युद्ध के लिए गए हैं। 

 राजा विराट ने जब सुना कि उनका पुत्र अकेला बृहनला को सारथि बनाकर केवल एक रथ साथ में ले कौरवों से युद्ध करने गया है, वे मन ही मन घबरा रहे थे। मंत्रियों ने कहा- जिसका सारथी किन्नर है, उसके अब तक जीवित रहने की तो संभावना ही नहीं है। राजा विराट को दुखी देखकर युधिष्ठिर ने हंसकर कहा- राजन यदि बृहनला सारथि है, तो विश्वास कीजिए।

आपका पुत्र सभी को युद्ध में जीत सकता है। तीनों लोकों में उसे कोई पराजित नहीं कर पाएगा। इतने में उत्तर के भेजे हुए दूत विराटनगर में आ पहुंचे और उन्होंने उत्तरकुमार की विजयी का समाचार सुनाया। युधिष्ठिर बोले- यह बड़े सौभाग्य की बात है कि गौएं जीतकर वापस लायी गई। कौरव हारकर भाग गए। इसमें आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है।  जिसका सारथि ब़ृहन्नला हो, उसकी विजय तो निश्चित है। 

राजा ने हर्षित होकर युधिष्ठिर से कहा कंकजी पासे मंगवाइए। हम बहुत हर्षित हैं हमें पासे खेलने की इच्छा है। तब युधिष्ठिर ने कहा मैंने सुना है कि हर्ष से भरे हुए चालाक खिलाड़ी के साथ जुआं नहीं खेलना चाहिए। इसलिए आपके साथ जुआं खेलने का साहस नहीं होता। तब राजा ने कहा क्यों न खेले हम जुआं आखिर हमारे बेटे ने कौरवों पर विजय हासिल की है।

तब युधिष्ठिर ने कहा बृहनला जिसका सारथी हो वह भला, युद्ध क्यों नहीं जीतता। तब राजा बहुत क्रोधित हो गया बोला- तू मेरे बेटे की प्रशंसा एक हिजड़े के साथ कर रहा है। राजा विराट चिढ़ गया और युधिष्ठिर पर पासा उठाकर जोर से फेंक दिया। युधिष्ठिर की नाक से खून निकलने लगा। फिर उसने युधिष्ठिर को डांटते हुए कहा अब ऐसा न करना। 
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क्या किया द्रोपदी ने भरी सभा में हुए अपमान का...


कीचक से भरी सभा में अपमानित होने के बाद से द्रोपदी बहुत दुखी थी। वह कीचक के वध के बारे में सोचा करती थी। इस काम को कैसे किया जाए।  द्रोपदी को उस पर विचार करते हुए भीमसेन की याद आई। वह आधी रात को ही भीम के पास भोजनशाला पहुंची। वहां जाकर उसने भीम को नींद से उठाया। भीम चौंक कर नींद से उठे। उन्होंने द्रोपदी से पूछा क्या हुआ प्रिये। द्रोपदी बोली जब से भरी सभा में कीचक ने मेरा अपमान किया है।

सभी के सामने उसने मुझे स्पर्श किया है। मुझे चैन नहीं आ रहा है। आप कैसे पति हैं? अपनी पत्नी को भरी सभा में अपमानित होता देख भी आपको क्रोध नहीं आया। अर्जुन जैसे वीर और आपके जैसा बलशाली वीर मेरे साथ है लेकिन फिर भी वह पापी कीचक जीवित है। उसके बाद द्रोपदी ने उसके साथ महल में इससे पूर्व में घटी घटना के बारे में भी भीमसेन को बताया। भीमसेन का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया। 

उन्होंने द्रोपदी से कहा युधिष्ठिर के रोक देने के कारण मैं सभा में रूक गया नहीं तो वही उसका वध कर देता। कल्याणी! द्रोपदी तुम दुखी हो तो मैं खुश कैसे हो सकता हूं? ऐसा कहने के बाद भीम ने कहा नाट्यगृह में जहां अर्जुन सुन्दरियों को नृत्य सीखाता है। वह रात के समय सुनसान रहती है। तुम किसी तरह उसे वहां बुला लो तो मैं उसे खत्म कर दूंगा। उसके बाद जब दूसरे दिन कीचक ने द्रोपदी से फिर प्रणय निवेदन किया। तब द्रोपदी ने उसे रात के समय नाट्यगृह बुलाया।
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जानिए, कुंती ने क्यों दिया कर्ण को जन्म और क्या...


 ब्राह्मण देवता के चले जाने के बाद एक दिन कुंती महल पर खड़ी हुई उदय होते हुए सूर्य की ओर देख रही थी। उस समय उन्हें सूर्य के  कवच कुंडलधारी स्वरूप के दर्शन हुए। सूर्य का वह रूप बहुत सुंदर था। उसी समय ब्राह्मण के द्वारा दिए गए मंत्रों का जप करने का कौतुहल कुंती के मन में उठा। उसने उन मंत्रों की परीक्षा करने के लिए मंत्रों से सूर्यदेव का आवाह्न किया। तभी सूर्य भगवान वहां प्रकट हुए और बोले तुम्हे क्या चाहिए। तब घबराकर कुं ती बोली मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। 

मैं तो सिर्फ जिज्ञासा के कारण आपका आवाह्न किया था। तब सूर्यदेव ने कहा तू मुझसे जाने को कहती है तो मैं चला तो जाऊंगा लेकिन देवता का आवाह्न किया है तो तुझे मुझे इस तरह से वापस नहीं लौटाना चाहिए। सूर्य बोला तू बालिका है, इसलिए मैं तेरी खुशामद कर रहा हूं, किसी स्त्री का विनय नहीं करता, तू मुझे अपना शरीर दान कर दे, इससे तुझे शांति मिलेगी। 

तब कुंती बोली मेरे माता-पिता जब तक मेरा दान नहीं करते तब तक मैं अपने धर्म का पालन करूंगी। सूर्य ने कहा ऐसा करने तेरा आचरण अधर्ममय नहीं माना जाएगा। भला लोकों के हित की दृष्टी से में अधर्म का आचरण कैसे कर सकता हूं। तब कुंती बोली यदि ऐसी बात है और मुझसे आप जो पुत्र उत्पन्न करें वह जन्म से ही कवच व कुंडल हो तो मेरे साथ आपका समागम हो सकता है। सूर्य ने उनकी बात मान ली। कुंती बोली- आप जैसा कह रहें अगर ऐसा हो जाए तो मैं आपसे पुत्र उत्पन्न करना चाहूंगी।  

तब भगवान भास्कर से उन्हें गर्भ स्थापित हुआ। उसके बाद कुंती ने एक धाय की उपस्थित में गर्भ का समय पूरा होने पर एक पुत्र को जन्म दिया। फिर उसे पिटारी में रखकर सूर्य देव से प्रार्थना कर नदी में बहा दिया। वही पिटारी तैरती-तैरती अश्वनदी से चंबल नदी तक गई फिर वह यमुना नदी तक पहुंची। उसके बाद  यमुना बहती-बहती वह गंगाजी में चली गई। जहां अधिरथ सूत रहता था। उस चम्पापुरी में आ गई। उसे कोई पुत्र नहीं था। जब गंगा के किनारे उसने उस पिटारी को देखा तो कोतुहल के कारण जल से बाहर निकलवाया। जब उसे औजारों से खुलवाया। तब उसमें से उन्हें वह कवच कुण्डल पहने हुए दिव्य बालक मिला। जिसे उसने और उसकी पत्नी ने विधिवत ग्रहण किया। उसका नाम कवच और कुंडल के कारण वसुषेण रखा गया। वसुषेण या वृष नाम से विख्यात हुआ। उसे ही सुत पुत्र कर्ण भी कहा गया।
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कैसे लगती थी, कुंती रिश्ते में कृष्ण की बुआ?


जन्मेजय ने पूछा मुनि सूर्यदेव जो गुप्त बात कर्ण को नहीं बताई वह क्या थी? तथा कर्ण के पास जो कवच कुंडल थे। वे कैसे थे और उसे कहां से प्राप्त हुए थे। वैशम्पायन बोले- मैं तुम्हे वह सुर्यदेव की गुप्त बात बताता हूं। यह भी सुनाता हूं कि वे कवच और कुंडल कैसे थे। पुरानी बात है, एक बार राजा    कुंतीभोज के पास एक महान तेजस्वी ब्राह्मण आया। वह राजा से बोला मैं आपके घर भिक्षा मांगने आया हूं। लेकिन आपको या आपके सेवकों को मेरा कोई अपराध नहीं करना होगा यदि आपकी रूचि हो तो इस प्रकार मैं आपके यहां रहूंगा और इच्छानुसार आता जाता रहूंगा। 

 तब राजा कुन्तीभोज ने प्रेमपूर्वक उनसे कहा - ब्राह्मण देवता मेरी पृथा नाम की एक कन्या है। वह बड़ी सुशील और सदाचारिणी है। वह आपकी सेवा करेगी। उसके बाद राजा ने पृथा को आज्ञा दी और कहा बेटी तुम मेरी बात को झूठी मत होने देना ब्राह्मण देवता की खूब मन लगाकर सेवा करना। तू वसुदेवजी की बहन है और मेरी संतानों में सबसे श्रेष्ठ है। राजा शूरसेन ने ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि अपनी प्रथम संतान मैं आपको दूंगा। उस प्रतिज्ञा के अनुसार ही उनके देने से तू मेरी पुत्री हुई।

इस पर कुंती ने कहा मैं बहुत सावधान होकर इनकी सेवा करूंगी। कुंती के ऐसा कहने पर राजा निश्चिंत हो गए। उसके बाद वे ब्राह्मण से बोले यह मेरी बहुत ही सुख में पली हुई कन्या है। अगर इससे कोई गलती हो तो इसे क्षमा करें। कुंती लगातार ब्राह्मण देवता की सेवा करने लगी। वे देवता भी बहुत अजीब थे। वे भी कभी समय से आते तो कभी नहीं आते। लेकिन कुंती उनकी सेवा में हमेशा तत्पर रहती। जब इस तरह एक वर्ष बीत गया तब ब्राह्मण  देवता ने कुन्ती को वरदान देने की इच्छा जताई।

उनके एक बार ऐसा कहने पर तो कुंती ने मना कर दिया। लेकिन दुबारा ऐसा कहने पर पृथा ने  शाप के भय से मना नहीं किया। तब उन्होंने उसे अर्थववेद के कुछ मंत्रों का उपदेश दिया और उसे वरदान दिया कहा इस मंत्र से तू जिस देवता का आवाह्न करेगी, वही तेरे अधीन हो जाएगा। उसकी इच्छा हो या न हो, इस मंत्र के प्रभाव से वह तेरे अधीन हो जाएगा।

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जानिए, कर्ण से क्यों डरते थे पाण्डव?


जन्मेजय ने पूछा लोमेशजी ने इन्द्र के वचनानुसार पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर से जो यह महत्वपूर्ण वाक्य कहा था कि तुम्हें जो बड़ा भारी भय लगा रहता है और जिसकी तुम किसी के सामने चर्चा भी नहीं करते, उसे भी अर्जुन के स्वर्ग में आने पर मैं दूर कर दूंगा। वैशम्पायनजी धर्मात्मा महाराज युधिष्ठिर को कर्ण से वह कौन सा भारी भय था। जिसकी वह किसी के आगे बात भी नहीं चलाते थे?

 तब वैशम्पायनजी कहते हैं भरतश्रेष्ठ राजा जन्मेजय! तुम पूछ रहे हो अत: मैं तुम्हें वह कथा सुनाता हूं। सावधानी से मेरी बात सुनो। जब पांडवों के वनवास के बारह वर्ष बीत गए तब इंद्र कर्ण से उनके कवच व कुंडल मांगने को तैयार हुए। जब सूर्यदेव को इन्द्र का ऐसा विचार मालूम हुआ तो वे कर्ण के पास आए और सपने में ब्राह्मण का रूप बनाकर कर्ण से बोले - हे कर्ण में स्नेहवश तुम्हारे पास आया हूं। इसलिए मैं जो कह रहा हूं। उस पर ध्यान दो। देखो पाण्डवों का हित करने की इच्छा से इंद्र तुम्हारे पास कवच और कुंडल मांगने के लिए आएंगे। उन्हें तुम्हारे इस नियम का पता है कि किसी सत्पुरुष के मांगने पर तुम अपनी कोई भी वस्तु उसे दे सकते हो। अगर तुम जन्म के साथ ही तुम्हे प्राप्त कवच और कुंडल उन्हें दे दोगे तो तुम्हारी आयु क्षीण हो जाएगी। इसलिए तुम्हे इनकी रक्षा करना चाहिए। तब कर्ण ने पूछा आप मेरे प्रति बहुत स्नेह दिखाते हुए मुझे उपदेश कर रहे हैं। यदि इच्छा हो तो बताइए इस ब्राह्मणवेष में आप कौन हैं?

 ब्राह्मण ने कहा मैं तुम्हारा पिता सूर्य हूं। मैं स्नेहवश ही तुम्हे ऐसी सम्मति दे रहा हूं। तुम मेरी बात मानकर ऐसा ही करो। इसी में तुम्हारा विशेष कल्याण है। जब स्वयं भगवान सूर्य ही मुझे मेरे हित की इच्छा से उपदेश कर रहे हैं तो मेरा परम कल्याण तो निश्चित ही हैं किंतु आप मेरी यह प्रार्थना सुनने कृपा करें। मैं अपना नियम नहीं तोड़ सकता हूं। अगर इंद्र ब्राह्मण का रूप बनाकर आए तो मैं अपने कवच और कुंडल जरूर दान दे दूंगा। मेरे जैसे लोगों को यश की रक्षा करनी चाहिए प्राणों की नहीं।

कर्ण तुम देवताओं की गुप्त बातें नहीं जान सकते। इसलिए इसमें जो रहस्य है, वह मैं तुम्हें नहीं बताना चाहता। समय आने पर तुम्हें वह स्वयं पता चल जाएगा। कर्ण ने कहा- सूर्य देव आपके प्रति मेरी जैसी भक्ति है। वह आप जानते ही हैं। यह बात भी आपसे छिपी नहीं है कि मेरे लिए अदेय कुछ भी नहीं है। तब सूर्य बोले  अगर तुम उन्हें अपने कवच और कुंडल दो तो उनसे प्रार्थना करना कि वे अपनी शत्रुओं का संहार करने की अमोघ शक्ति तुम्हे दे दें। इंद्र की वह शक्ति बहुत प्रबल है। वह सैकड़ो-हजारों शत्रुओं का संहार करे बिना हाथ में लौटकर नहीं जाती। ऐसा कहकर भगवान सूर्य अंर्तध्यान हो गए।
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जिद करके ही बदली जा सकती है दुनिया क्योंकि.....


सत्यवान व सावित्री के विवाह को बहुत समय बीत गया। जिस दिन सत्यवान मरने वाला था वह करीब था। सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थी। उसके दिल में नारदजी वचन सदा ही बना रहता था। जब उसने देखा कि अब इन्हें चौथे दिन मरना है। उसने तीन दिन व्रत धारण किया। जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने गया तो सावित्री ने उससे कहा कि मैं भी साथ चलुंगी। तब सत्यवान ने सावित्री से कहा तुम व्रत के कारण कमजोर हो रही हो। जंगल का रास्ता बहुत कठिन और परेशानियों भरा है। इसलिए आप यहीं रहें। लेकिन सावित्री नहीं मानी उसने जिद पकड़ ली और सत्यवान के साथ जंगल की ओर चल दी। 

सत्यवान जब लकड़ी काटने लगा तो अचानक उसकी तबीयत बिगडऩे लगी। वह सावित्री से बोला मैं स्वस्थ महसूस नही कर रहा हूं सावित्री मुझमें यहा बैठने की भी हिम्मत नहीं है। तब सावित्री ने सत्यवान का सिर अपनी गोद में रख लिया। फिर वह नारदजी की बात याद करके दिन व समय का विचार करने लगी। इतने में ही उसे वहां एक बहुत भयानक पुरुष दिखाई दिया। जिसके हाथ में पाश था। वे यमराज थे। उन्होंने सावित्री से कहा तू पतिव्रता स्त्री है। इसलिए मैं तुझसे संभाषण कर लूंगा। सावित्री ने कहा आप कौन है तब यमराज ने कहा मैं यमराज हूं। इसके बाद यमराज सत्यवान के शरीर में से प्राण निकालकर उसे पाश में बांधकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। सावित्री बोली मेरे पतिदेव को जहां भी ले जाया जाएगा मैं भी वहां जाऊंगी। तब यमराज ने उसे समझाते हुए कहा मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता तू मनचाहा वर मांग ले।

 तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर के आंखे मांग ली। यमराज ने कहा तथास्तु लेकिन वह फिर उनके पीछे चलने लगी। तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए। उसके बाद तीसरा वर मांगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों। यमराज ने फिर कहा सावित्री तुम वापस लौट जाओ चाहो तो मुझसे कोई और वर मांग लो। तब सावित्री ने कहा मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों। यमराज ने कहा तथास्तु। यमराज फिर सत्यवान के प्राणों को अपने पाश में जकड़े आगे बढऩे लगे। सावित्री ने फिर भी हार नहीं मानी तब यमराज ने कहा तुम वापस लौट जाओ तो सावित्री ने कहा मैं कैसे वापस लौट जाऊं । आपने ही मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र उत्पन्न करने का आर्शीवाद दिया है। तब यमराज ने सत्यवान को पुन: जीवित कर दिया। उसके बाद सावित्री सत्यवान के शव के पास पहुंची और थोड़ी ही देर में सत्यवान के शव में चेतना आ गई।

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