सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat 15



रानी ने क्यों दिया मुसीबत से बचाने वाले को ही शाप?

दमयन्ती जब कुछ शांत हुई। व्याध ने पूछा सुन्दरी तुम कौन हो? किस कष्ट में पड़कर किस उद्देश्य से तुम यहां आई हो? दमयन्ती की सुन्दरता, बोल-चाल और  मनोहरता देखकर व्याध मोहित हो गया। वह दमयंती से मीठी-मीठी बातें करके उसे अपने बस में करने की 

कोशिश करने लगा। दमयन्ती उसके मन के भाव समझ गई। दमयंती ने उसके बलात्कार करने की चेष्टा को बहुत रोकना चाहा लेकिन जब वह किसी प्रकार नहीं माना तो उसने शाप दे दिया कि मैंने राजा नल के अलावा किसी और का चिंतन कभी नहीं किया हो तो यह व्याध मरकर गिर पड़े। दमयंती के इतना कहते ही व्याध के प्राण पखेरू उड़ गए। व्याध के मर जाने के बाद दमयंती एक निर्जन  और भयंकर वन में जा पहुंची। 

राजा नल का पता पूछती हुई वह उत्तर की ओर बढऩे लगी। तीन दिन रात दिन रात बीत जाने के बाद दमयंती ने देखा कि सामने ही एक बहुत सुन्दर तपोवन है। जहां बहुत से ऋषि निवास करते हैं। उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने दमयन्ती का सत्कार किया और उसे बैठने को कहा- दमयन्ती ने एक भद्र स्त्री के समान सभी के हालचाल पूछे।

फिर ऋषियों ने पूछा आप कौन है तब दमयंती ने अपना पूरा परिचय दिया और अपनी सारी कहानी ऋषियों को सुनाई। तब सारे तपस्वी उसे आर्शीवाद देते हैं कि थोड़े ही समय में निषध के राजा को उनका राज्य वापस मिल जाएगा। उसके शत्रु भयभीत होंगे व मित्र प्रसन्न होंगे और कुटुंबी आनंदित होंगे। इतना कहकर सभी ऋषि अंर्तध्यान हो गए।

क्रमश:
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...और मगर ने रानी को निगलने के लिए जकड़ लिया

थोड़ी देर बाद जब राजा नल का हृदय शांत हुआ ,तब वे फिर धर्मशाला में इधर-उधर घूमने लगे और सोचने लगे कि अब तक दमयन्ती परदे में रहती थी, इसे कोई छू भी नहीं सकता था। आज यह अनाथ के समान आधा वस्त्र पहने धूल में सो रही है। यह मेरे बिना दुखी होकर वन में कैसे रहेगी?  मैं तुम्हे छोड़कर जा रहा हूं सभी देवता तुम्हारी रक्षा करें। उस समय राजा नल का दिल दुख के मारे टुकड़े- टुकड़े हुआ जा रहा था। 

शरीर में कलियुग का प्रवेश होने के कारण उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी। इसीलिए वे अपनी पत्नी को वन में अकेली छोड़कर वहां से चले गए। जब दमयंती की नींद टूटी, तब उसने देखा कि राजा नल वहां नहीं है। यह देखकर वे चौंक गई और राजा नल को पुकारने लगी।

जब दमयंती को राजा नल बहुत देर तक नहीं दिखाई पड़ें तो वे विलाप करने लगी। वे भटकती हुई जंगल के बीच जा पहुंची। वहां अजगर दमयंती को निगलने लगा। दमयंती मदद के लिए चिल्लाने लगी तो एक व्याध के कान में पड़ी। वह उधर ही घूम रहा था। वह वहां दौड़कर आया और यह देखकर दमयंती को अजगर निगल रहा है। अपने तेज शस्त्र से उसने अजगर का मुंह चीर डाला। उसने दमयन्ती को छुड़ाकर नहलाया, आश्वासन देकर भोजन करवाया।  

क्रमश:
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राजा नल ने क्यों किया दमयंती को छोडऩे का फैसला?

उस समय नल के शरीर पर वस्त्र नहीं था। धरती पर बिछाने के लिए एक चटाई भी नहीं थी। शरीर पर धूल से लथपथ हो रहा था। भूख-प्यास से परेशान राजा नल जमीन पर ही सो गए। दमयन्ती भी उनके साथ ये सारे दुख झेल रही थी। राजा नल भी जमीन पर ही सो गए। दमयन्ती के सो जाने पर राजा नल की नींद टूटी। सच्ची बात तो यह थी कि वे दुख और शोक की   के कारण सुख की नींद सो भी नहीं सकते थे। वे सोचने लगे कि दमयंती मुझ से बड़ा प्रेम करती है। प्रेम के कारण ही उसे इतना दुख झेलना पड़ेगा। यदि मैं इसे छोड़कर चला जाऊं तो संभव है कि इसे सुख भी मिल जाए। अन्त में राजा नल ने यही निश्चय कि इसे सुख भी मिल जाए। 

दमयन्ती सच्ची पतिव्रता है। इसके सतीत्व को कोई भंग नहीं कर सकता। इस प्रकार त्यागने का निश्चय करके और सतीत्व की ओर से निश्चिन्त होकर राजा नल ने यह विचार किया कि मैं नंगा हूं और दमयन्ती के शरीर पर भी केवल एक वस्त्र है। फिर भी इसके वस्त्रों में से आधा फाड़ लेना ही श्रेयस्कर है लेकिन फांडू़ कैसे? शायद यह जाग जाए? राजा नल ने यह सोचकर दमयंती को धीरे से उठाकर उसके शरीर का आधा वस्त्र फाड़कर शरीर ढक लिया। दमयंती नींद में थी। राजा नल उसे छोड़कर निकल पड़े। थोड़ी देर बाद वे शांत हुए और वे फिर धर्मशाला लौट आए।

क्रमश:

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जूए में राजा नल सबकुछ हार गए तब...

कलयुग दूसरा रूप धारण करके वह पुष्कर बनकर उसकी बात स्वीकार करके वह पुष्कर के पास गया और बोला तुम नल के साथ जुआं खेलो मेरी सहायता करो। जूए में जीतकर निषध राज का राज्य प्राप्त कर लो। पुष्कर उसकी बात स्वीकार करके नल के के पास गया। द्वापर भी पासे का रूप धारण करके उसके साथ चला। जब पुष्कर ने राजा नल को जूआ खेलने का आग्रह किया। तब राजा नल दमयन्ती के सामने अपने भाई की बार - बार की ललकार सह ना सके। उन्होंने पासे खेलने का निश्चय किया। 

उस समय नल के शरीर में कलयुग घुसा हुआ था, इसीलिए नल जो कुछ भी जूए में लगाते हार जाते। प्रजा और मंत्रियों ने राजा को रोकना चाहा लेकिन जब वे नहीं माने तो मंत्रियों ने द्वारपाल को रानी दमयंती तक राजा को रोकने का संदेश पहुंचवाया। तब रानी नल दमयन्ती को बोली आपकी पूरी प्रजा आपके दुख के कारण अचेत हुई जा रही है। इतना कहकर दमयंती भी रोने लगी। लेकिन राजा नल कलयुग के प्रभाव में थे। 

इसीलिए जो पासे फेंकते वही उनके प्रतिकुल पड़ते। जब दमयंती ने यह सब देखा तो उसने धाय को बुलवाया और उसके द्वारा राजा नल के सारथि वाष्र्णेय को बुलवाया। उन्होंने ने उससे कहा सारथि तुम जानते हो कि महाराज बहुत संकट में है। अब यह बात तुम से छिपी नहीं है। तुम रथ जोड़ लो और मेरे बच्चों को रथ में बैठाकर कुंडिनगर ले जाओ। उसके बाद पुष्कर ने राजा नल का सारा धन ले लिया और बोला तुम्हारे पास दावं पर लगाने के लिए और कुछ है या नहीं। यदि तुम दमयंती को दावं पर लगाने के लायक समझो तो उसे लगा दो।क्रमश:
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...और कलयुग नल के शरीर में प्रवेश कर गया

जिस समय दमयंती के स्वयंवर से लौटकर इन्द्र व अन्य लोकपाल अपने-अपने लोकों को जा रहे थे। उस समय उनकी मार्ग में ही कलयुग और द्वापर से भेंट हो गई। इन्द्र ने पूछा कलयुग कहा जा रहे हो? कलियुग ने कहा-मैं दमयन्ती के स्वयंवर में उससे विवाह करने के लिए जा रहा हूं। इन्द्र ने कहा अरे स्वयंवर तो कब का पूरा हो गया। दमयन्ती ने राजा नल का वरण कर लिया है। 

हम लोग देखते ही रह गए। कलयुग ने क्रोध में भरकर कहा - तब तो यह अनर्थ हो गया। उसने देवताओं की उपेक्षा करके मनुष्य को अपनाया, इसलिए उसको दण्ड देना चाहिए। देवताओं ने कहा- दमयन्ती ने हमारी आज्ञा प्राप्त करके ही नल को वरण किया है। वास्तव में नल सर्वगुण सम्पन्न और उसके योग्य है। वे समस्त धर्मों के जानकार हैं। 

उन्होंने इतिहास पुराणों सहित वेदों का भी अध्ययन किया है। उनको शाप देना तो नरक में धधकती आग में गिरने के समान है। अब कलयुग ने द्वापर से कहा मैं अपने क्रोध को शान्त नहीं कर सकता। इसलिए मैं नल के शरीर में निवास करूंगा। मैं उसे राज्यच्युत कर दूंगा। तब वह दमयन्ती के साथ नहीं रह सकेगा। इसलिए तुम भी जूए के पासों में प्रवेश करके मेरी सहायता करना। 

द्वापर ने उसकी बात स्वीकार ली। द्वापर और कलयुग दोनों ही नल की राजधानी में आ बसे। बारह वर्ष तक वे इस बात की प्रतीक्षा में रहे कि नल में कोई दोष दिख जाए। एक दिन राजा नल संध्या के समय लघुशंका से निवृत होकर पैर धोए बिना ही आचमन करके संध्यावंदन करने बैठ गए। यह अपवित्र अवस्था देखकर कलियुग उनके शरीर में प्रवेश कर गया। 

क्रमश:
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दमयन्ती ने कैसे पहचाना असली राजा नल को?

स्वयंवर की घड़ी आई। राजा भीमक ने सभी को बुलवाया। शुभ मुहूर्त में स्वयंवर रखा। सब राजा अपने-अपने निवास स्थान से आकर स्वयंवर में यथास्थान बैठ गए। तभी दमयन्ती वहां आई। सभी राजाओं का परिचय दिया जाने लगा। दमयन्ती एक-एक को देखकर आगे बढऩे लगी। आगे एक ही स्थान पर नल के समान ही वेषभुषा वाले पांच राजकुमार खड़े दिखाई दिए। यह देखकर दमयन्ती को संदेह हो गया, वह जिसकी और देखती उन्हें सिर्फ राजा नल ही दिखाई देते। इसलिए विचार करने लगी कि मैं देवताओं को कैसे पहचानूं और ये राजा है यह कैसे जानूं? उसे बड़ा दुख हुआ। अन्त में दमयन्ती ने यही निश्चय किया कि देवताओं की शरण में जाना ही उचित है। हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक स्तुति करने लगी। देवताओं हंसों के मुंह से नल का वर्णन सुनकर मैंने उन्हें पतिरूपण से वरण कर लिया है।  

मैंने नल की आराधना के लिए ही यह व्रत शुरू कर लिया है। आप लोग अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे में राजा नल को पहचान लूं। देवताओं ने दमयन्ती की बात सुनकर उसके दृढ़-निश्चय को देखकर उन्होंने उसे ऐसी शक्ति दी जिससे वह देवता और मनुष्य में अंतर कर सके। दमयन्ती ने देखा कि शरीर पर पसीना नहीं है। पलके गिरती नहीं हैं। माला कुम्हलाई नहीं है। शरीर स्थिर है। शरीर पर धूल व पसीना भी नहीं है। दमयन्ती ने इन लक्षणों को देखकर ही राजा नल को पहचान लिया।
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दमयन्ती की खुशी का ठिकाना ना रहा जब...

 राजा नल ने दमयन्ती से कहा- जब बड़े-बड़े लोकपाल तुमसे शादी करना चाहते हैं फिर तुम मुझ मनुष्य से क्यों शादी करना चाहती हो। मैं तो उन देवताओं के चरणों की धूल के बराबर भी नहीं हूं। तुम अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं का अप्रिय करने पर इंसान की मृत्यु हो सकती है। तुम मेरी रक्षा करो और उनको वरण कर लो। नल की बात सुनकर दमयन्ती घबरा गई। उसकी आंखों में आंसु छलक आए। उस समय दमयन्ती का शरीर कांप रहा था हाथ जुड़े हुए थे। उसने कहा मैं आपको वचन देती हूं कि मैं आपको ही पति के रूप में वरण करूंगी। 

राजा नल ने कहा-अच्छा तब तो  तुम ऐसा ही करो परंतु यह बतलाओ कि मैं यहां उनका दूत बनकर आया हूं। अगर इस समय मैं अपने स्वार्थ की बात करने लगूं तो यह कितनी बुरी बात है। मैं तो अपना स्वार्थ तभी बना सकता हूं जब वह धर्म के विरूद्ध ना हो। तब दमयन्ती ने गदगद कण्ठ से कहा राजा इसके लिए एक निर्दोष उपाय है। उसके अनुसार काम करने पर आपको दोष नहीं लगेगा।

वह यह उपाय है कि आप सभी लोकपालों के साथ स्वयंवर मंडप में आए। मैं आपको वर लुंगी। तब आपको दोष भी नहीं लगेगा। देवताओं के पूछने पर उन्होंने कहा मैं दमयन्ती के पास गया तो मुझे देखकर वे और उनकी सखियां सभी मुझ पर मोहित हो गई और आप लोगों के प्रस्ताव को उनके सामने रखने के बाद भी वे मुझे ही वरण करने पर तुली हैं।

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...और राजकुमारी ने कह दी अपने दिल की बात

इन्द्र की आज्ञा से नल ने राजमहल में बिना रोक टोक के प्रवेश किया। दमयन्ती और उसकी सहेलियां भी उसे देखकर मुग्ध हो गयी और लज्जित होकर कुछ बोल न सकी। तुम देखने में बड़े सुंदर और निर्दोष जान पड़ते हो। पहले यहां आते समय द्वारपालों ने तुम्हे देखा क्यों नहीं? उनसे तनिक भी चूक हो जाने पर मेरे पिता बहुत कड़ा दण्ड देते हैं। नल ने कहा- मैं नल हूं। लोकपालों का दूत बनकर तुम्हारे पास आया हूं। 

सुन्दरी ये देवता तुम्हारे साथ विवाह करना चाहते हैं। तुम इनमें से किसी एक देवता के साथ विवाह कर लो। यही संदेश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूं। उन देवताओं के प्रभाव से जब मैंने तुम्हारे महल में प्रवेश किया तो मुझे कोई देख नहीं पाया। मैंने तुमसे देवताओं का संदेश कह दिया है अब जो कहना है कह दो। अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो। 

दमयन्ती ने बड़ी श्रृद्धा के साथ देवताओं को प्रणाम करके मन्द मुस्कान के साथ कहा स्वामी मैं तो आपको ही अपना सर्वस्व मानकर अपने आप को आपके चरणों में सौंपना चाहती हूं। जिस दिन से मैंने हंसों की बात सुनी तभी से मैं आपके लिए व्याकुल हूं। आपके लिए ही मैंने राजाओं की भीड़ इकट्ठी की है। यदि आप मुझ दासी की प्रार्थना अस्वीकार कर देंगे तो मैं जहर खाकर मर जाऊंगी।

क्रमश:
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कहते हैं कलयुग में जरूर सुनना चाहिए ये कहानी....

दमयन्ती के पिता ने सभी देशों के राजा को स्वयंवर के लिए निमंत्रण पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया। सभी देश के राजा हाथी व घोड़ों के रथों से वहां पहुंचने लगे। नारद और पर्वत से सभी देवताओं को भी दमयन्ती के स्वयंवर का समाचार मिल गया। इन्द्र और सभी लोकपाल भी अपने वाहनों सहित रवाना हुए। राजा नल को भी संदेश मिला तो वे भी दमयन्ती से स्वयंवर के लिए वहां पहुंचे। नल के रूप को देखकर इंद्र ने रास्ते में अपने विमान को खड़ा कर दिया और नीचे उतरकर कहा कि राजा नल आप बहुत सत्यव्रती हैं।

आप हम लोगों के दूत बन जाइए। नल ने प्रतिज्ञा कर ली और कहा कि करूंगा। फिर पूछा कि आप कौन है तो इन्द्र ने कहा हम लोग देवता है। हम लोग दमयन्ती के लिए यहां आएं हैं। आप हमारे दूत बनकर दमयन्ती के पास जाइए और कहिए कि इन्द्र, वरुण, अग्रि और यमदेवता तुम्हारे पास आकर तुमसे विवाह करना चाहते हैं। इनमें से तुम चाहो उस देवता को अपना पति स्वीकार कर लो। 

नल ने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि देवराज वहां आप लोगों का और मेरे जाने का एक ही प्रायोजन है। इसलिए आप मुझे वहांं दूत बनाकर भेजे यह उचित नहीं है। जिसकी किसी स्त्री को पत्नी के रूप में पाने की इच्छा हो चुकी हो वह भला उसको कैसे छोड़ सकता है और उसके पास जाकर ऐसी बात कह ही कैसे सकता है? आप लोग कृपया इस विषय में मुझे क्षमा कीजिए। देवताओं ने कहा नल तुम पहले हम लोगों से प्रतिज्ञा कर चुके हो कि मैं तुम्हारा काम करूंगा। अब प्रतिज्ञा मत तोड़ो। अविलम्ब वहां चले जाओ। नल ने कहा- राजमहल में निरंतर कड़ा पहरा रहता है मैं कैसे जा सकुंगा।
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जरा गौर से सुनिए! क्योंकि ये है एक अमर प्रेम...

वे सब हंस उड़कर राजकुमारी दमयन्ती के  पास गए। दमयन्ती उन्हें देखकर बहुत खुश हुई। हंसों को पकडऩे के लिए दौडऩे लगी। दमयन्ती जिस हंस को पकड़कर दौड़ती। वही हंस बोल उठता- रानी दमयन्ती निषध देश का एक नल नाम का राजा है। वह राजा बहुत सुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुंदर और कोई नहीं है। वह मानो साक्षात कामदेव का स्वरूप है।  यदि तुम उसकी पत्नी बन जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनों सफल हो जाए।  

वह अश्विनीकु मार के समानसुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुंदर और कोई नहीं है। जैसे तुम स्त्रियों में रत्न हो, वैसे ही नल पुरुषों को भूषण है। तुम दोनों की जोड़ी बहुत सुंदर है। दमयन्ती ने कहा- हंस तुम नल से भी ऐसी ही बात कहना। हंस ने  लौटकर राजा नल को उनका संदेश दिया। दमयन्ती हंस के मुंह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। 

उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गई कि वह रात दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वे कमजोर सी दिखने लगी। सहेलियों ने दमयन्ती के मन के भाव जानकर राजा से निवेदन किया कि आपकी पुत्री अस्वस्थ्य हो गई हैं। राजा ने बहुत विचार किया और अंत में इस निर्णय पर पहुंचा कि मेरी पुत्री विवाह योग्य हो गई है।

क्रमश:
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हंस ने राजा से क्या वादा किया?

उनके आने पर युधिष्ठिर ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया। उनके  विश्राम कर लेने पर युधिष्ठिर अपना वृतांत सुनाने लगे। उन्होंने कहा कि महाराज कौरवो ने कपट बुद्धि से मुझे बुलाकर छल के साथ जूआ खेला और मुझ अनजान को हराकर मुझसे सब कुछ छीन लिया। इतना ही नहीं उन्होंने मेरी पत्नी द्रोपदी को घसीटकर भरी सभा में अपमानित किया। 

तब बृहदश्व ने कहा आपका यह कहना ठीक नहीं है कि आपके जैसा दुखी राजा और कोई नहीं हुआ। यदि आप आज्ञा दें तो मैं आपको नल राजा की कहानी सुनाता हूं।  

तब युधिष्ठिर ने कहा महाराज मुझे उनकी कथा सुनाकर धन्य कीजिए।निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम के एक राजा थे। बहुत सुन्दर और गुणवान थे। वे सभी तरह की अस्त्र विद्या में भी बहुत निपुण थे। उन्हें जूआ खेलने का भी थोड़ा शोक था। उन्हीं दिनों विदभग् देश में भीमक नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे भी नल के समान ही सर्वगुण सम्पन्न थे। उन्होंने दमन ऋषि को प्रसन्न करके उनके वरदान से चार संतान प्राप्त की थी- तीन पुत्र और एक कन्या । पुत्रों के नाम थे दम,दान्त व दमन  पुत्री का नाम था दमयन्ती। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवन्ती थी। बड़ी-बड़ी आंखे थी। उस समय देवताओं और यक्षों मे कोई भी कन्या इतनी रूपवती नहीं थी।

उन दिनों कितने ही लोग उस देश में आते और राजा नल से दमयन्ती के गुणों का बखान करते। एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंसे को पकड़ लिया। हंस ने कहा आप मुझे छोड़ दीजिए तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको जरूर वर लेगी।

क्रमश:
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...बाद में पछताने से क्या फायदा?

अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों से किसी तरह की गलती होने पर उनसे दो तरह का व्यवहार करते हैं या तो वे अपने बच्चों को समझाने के लिए उन्हें मारते पीटते हैं या फि र उनकी गलत बात पर भी उन्हें नहीं टोकते और मोह के कारण उन्हें अपना लेते हैं। 

महाभारत का यह दृश्य हमें यही सीख देता है कि दोनों तरह का व्यवहार ही आपके और आपकी संतान के लिए बुरा हो सकता है इसलिए जब आपकी संतान किसी ऐसी बात के लिए जिद करे जो उसके आने वाले कल को प्रभावित कर सकती है तो ऐसे में उसके मोह में अंधे ना हो बल्कि उसे समझाएं व उचित मार्गदर्शन करें वरना बाद में पछताने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता।

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...

अर्जुन इन्द्र के आधे आसन पर बैठ गए। लोमेश मुनि मन ही मन सोचने लगे कि अर्जुन को यह आसन कैसे मिल गया। इसने कौन सा ऐसा पुण्य किया है। किन देशों को जीता है। जिससे इसे इंद्रासन प्राप्त हो। इन्द्र ने लोमेश मुनि के मन जान ली।  उन्होंने कहा मुनि श्री आपके मन में जो यह विचार उत्पन्न हुआ है उसका उत्तर मैं आपको देता हूं। अर्जुन केवल मनुष्य नहीं है। यह मनुष्यरूपधारी देवता है। मनुष्यों में तो इसका अवतार हुआ है। यह सनातन ऋषि नर है। इसने इस समय पृथ्वी पर अवतार लिया है। वे वरदान पाकर अपने आपको भूल गए हैं।

अब आगे...

राजा धृतराष्ट्र को अर्जुन के स्वर्ग में निवास करने का समाचार वेदव्यास जी से मिला। उनके  जाने के बाद धृतराष्ट्र ने संजय से कहा- संजय मैंने अर्जुन के स्वर्ग में रहने का समाचार सुना। क्या तुम्हे इस बात का पता है? मेरे पुत्र दुर्योधन की बुद्धि मन्द है। इसी से वह बुरे कामों में लगा रहता है। वह अपनी दुष्टता के कारण राज्य का नाश कर देगा। युधिष्ठिर बहुत धर्मात्मा है। वे साधारण बात में भी कभी झूठ नहीं बोलते है। उन्हें अर्जुन जैसा भाई मिला है। वे चाहें तो तीनो लोकों पर राज कर सकते हैं। 

जिस समय अर्जुन अपने बाणों का उपयोग करेगा। उस समय भला उसके सामने कौन खड़ा होगा। संजय ने कहा- महाराज आपने दुर्योधन के बारे में जो बात कही है वह सच है। अर्जुन के संबंध में मैंने यह सुना है कि उन्होंने युद्ध में अपने धनुष का बल दिखाकर भगवान शंकर को प्रसन्न कर लिया है। 

अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए भगवान शंकर स्वयं भील का वेष धारण करके उनके पास आए उनसे युद्ध किया था। उन्होंने युद्ध में प्रसन्न होकर अर्जुन को दिव्य अस्त्र दिया। अर्जुन की तपस्या से खुश होकर सभी लोकपालों ने भी उसे दिव्य अस्त्र व शस्त्र दिए। ऐसा अर्जुन के सिवा और कौन है? अर्जुन का बल अपार है उनकी शक्ति अपरिमित है। धृतराष्ट्र ने कहा संजय मेरे पुत्रों ने पांडवों को बहुत कष्ट दिया है। 

उनका बहुत अपमान किया है। हमारे पक्ष में ऐसा कोई भी योद्धा नहीं है जो पांडवों से ज्यादा योग्य हो। मैंने दुर्योधन की बात में आकर अपने हितैषी लोगों की बात नहीं मानी। अब लगता है कि मुझे बहुत पछताना पड़ेगा। संजय ने कहा महाराज आप सब कर सकते थे लेकिन आप अपने पुत्र के मोह के कारण उसे बुरे काम करने से नहीं रोक पाएं। 

क्रमश:


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जब अर्जुन उर्वशी का शाप सुनकर घबरा गए तो...

उसके बाद अर्जुन जल्दी से चित्रसेन के पास गए और उर्वशी ने जो कुछ कहा था, वह सब कह सुनाया। चित्रसेन ने सारी बातें इन्द्र से कहीं। इन्द्र ने अर्जुन को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझाया और हंसते हुए कहा अर्जुन तुम्हारे जैसा पुत्र पाकर कुंती सचमुच पुत्रवती हुई। तुमने अपने धैर्य से ऋषियों को भी जीत लिया है। उर्वशी ने तुम्हे शाप दिया है उससे तुम्हारा बहुत काम बनेगा। जिस समय तुम तेहरवे वर्ष का गुप्तवास करोगे उस समय तुम एक वर्ष तक नपुसंक के रूप में एक महीने तक छूपकर रहोगे। फिर तुम्हे पुरुषत्व की प्राप्ति हो जाएगी। उनकी चिंता मिट गयी। वे गंधर्वराज चित्रसेन के साथ रहकर स्वर्ग के सुख लूटने लगे। 

अर्जुन इन्द्र के आधे आसन पर बैठ गए। लोमेश मुनि मन ही मन सोचने लगे कि अर्जुन को यह आसन कैसे मिल गया। इसने कौन सा ऐसा पुण्य किया है। किन देशों को जीता है। जिससे इसे इंद्रासन प्राप्त हो। इन्द्र ने लोमेश मुनि के मन जान ली।  उन्होंने कहा मुनि श्री आपके मन में जो यह विचार उत्पन्न हुआ है उसका उत्तर मैं आपको देता हूं। अर्जुन केवल मनुष्य नहीं है। यह मनुष्यरूपधारी देवता है। मनुष्यों में तो इसका अवतार हुआ है। यह सनातन ऋषि नर है। इसने इस समय पृथ्वी पर अवतार लिया है। वे वरदान पाकर अपने आपको भूल गए हैं। 

क्रमश:
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क्यों दिया उर्वशी ने अर्जुन को नपुंसक होने का शाप?

देवसभा में मैंने तुम्हे देखा था तो मेरे मन में कोई बुरा भाव नहीं था। मैं यही सोच रहा था कि पुरुवंश की यही आनन्दमयी माता है तुम्हे पहचानते ही ही मेरी आंखे  से खिल उठी। इसी से मैं तुम को देख रहा था। मेरे संबंध में आपको कोई और बात नहीं सोचना चाहिए। उर्वशी ने कहा अर्जुन अप्सराओं का किसी के साथ विवाह नहीं होता। 

हम स्वतंत्र हैं इसलिए मुझे गुरुजन की पदवी पर बैठाना उचित नहीं है। आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइए।  मैं काम वेग में जल रही हूं।आप मेरा दुख मिटाइए। अर्जुन ने कहा मैं तुमसे सच कह रहा हूं। दिशा और विदिशाएं अपने अधिदेवताओं के साथ मेरी सुन ले। जैसे कुन्ती, माद्री, और इन्द्रपत्नी शचि मेरी माताएं है। वैसे ही तुम पुरुवंश की जननी होने के कारण मेरी पुज्यनीय माता हो।

मैं तुम्हारे चरणों में झुककर प्रणाम करता हूं। अर्जुन की बात सुनकर उर्वशी क्रोध के मारे कांपने लगी। उसने अर्जुन को शाप दिया- उर्वशी ने कहा मैं तुम्हारे पिता इन्द्र की आज्ञा से ही तुम्हारे पास आई थी फिर भी तुम मेरी इच्छा पूरी नहीं कर रहे हो। इसलिए जाओ तुम्हे स्त्रियों के नर्तक होकर रहना पड़ेगा और सम्मानरहित होकर तुम नपुसंक नाम से प्रसिद्ध होओगे। इतना कहकर वह अपने निवास स्थान लौट चली।
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तब अर्जुन शर्म के कारण जमीन में गड़ से गए...

इस तरह उर्वशी जब अर्जुन के पास पहुंची और अर्जुन ने उर्वशी को देखा तो वे मन ही मन कई तरह की शंका करने लगे। उन्होंने संकोचवश आंखें बंद कर ली। गुरुजन के समान उसका आदरसत्कार किया और बोले मैं तुम्हे सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं। मैं तुम्हारा सेवक हूं मुझे आज्ञा करों। उर्वशी अचेत सी हो गई। उसने देवराज से कहा इन्द्र की आज्ञा से चित्रसेन मेरे पास आया था।  

उसने मेरे पास आकर आपके गुणों का वर्णन किया। आपके पास आने की प्रेरणा दी इसलिए मैं आपके पास आई हूं। केवल आज्ञा की ही बात नहीं है जब से मैंने आपको देखा है और आपके गुणों के बारे में सुना है तब से मेरा मन आप पर लग गया। मैं काम के वश मैं हूं। बहुत दिनों से मैं यह चाहती थी कि आप मुझे स्वीकार करें। उर्वशी की बात सुनकर मारे संकोच के अर्जुन जमीन में गड़ गए। उन्होंने अपने हाथों से अपने कान बंद कर लिए और कहा आप मेरे लिए मेरी गुरुपत्नी के समान है।

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