रविवार, 9 दिसंबर 2012

दुर्योधन और भीम का युद्ध देख आया बलरामजी को गुस्सा



दुर्योधन और भीम का युद्ध देख आया बलरामजी को गुस्सा



अर्जुन श्रीकृष्ण का इशारा समझ गए। उन्होंने भीमसेन की ओर देखकर उनकी जंघाओं की तरफ इशारा किया। भीमसेन समझ गए। दोनों का युद्ध चलता रहा। दुर्योधन के थोड़ा कमजोर पडऩे पर भीमसेन ने उसकी जंघाओं पर प्रहार किया। लेकिन यह युद्ध के नियमों के खिलाफ था। जब बलराम ने यह देखा कि दुर्योधन  के साथ अधर्म किया जा रहा है तो वे अन्याय देखकर चुप न रह सके। उन्होंने कहा कि भीमसेन तुम्हे धित्कार है। बड़े अफसोस की बात है कि इस युद्ध के नियमों का पालन न करके आप नाभि के नीचे प्रहार कर रहे हें।

इसके बाद इन्होंने दुर्योधन की ओर दृष्टिपात किया, उसकी दशा देख उनकी आंखे क्रोध से लाल हो गई। वे कृष्ण से कहने लगे- कृष्ण दुर्योधन मेरे समान बलवान है इसकी समानता करने वाला कोई नहीं है। आज अन्याय करके दुर्योधन ही नहीं गिराया गया है बल्कि धर्म की अवहेलना हुई है ।  तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि जब दुर्योधन ने द्रोपदी के साथ दुर्व्यवहार किया था तब भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि वे अपनी गदाओं से दुर्योधन की जंघाओं को तोड़ देंगे। इसीलिए प्रतिज्ञा की पूर्ती के लिए उसकी जंघाओं पर वार किया गया है  |

अर्जुन के रथ का भस्म होना


अर्जुन के रथ का भस्म होना 

दुर्योधन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख पांडव व पांचालों को बड़ी प्रशंसा हुई। वे सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष टंकारा तो कोई शंख बजाने लगा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने कहा मरे हुए शत्रु को अपनी कठोर बातों से फिर मारना उचित नहीं है। कृष्ण बोले यह मर तो उसी दिन गया था जब इसने लज्जा को त्यागकर पापियों के समान काम करना शुरू कर दिया था। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब नरेश अपने-अपने शंख बजाते हुए शिविर को चले गए। सब लोग पहले दुर्योधन की छावनी में गए वहां कुछ बूढ़े मंत्री और किन्नर बैठे थे बाकि रानियों के साथ राजधानी चले गए थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- तुम स्वयं उतरकर अपने अक्षय तरकस व धनुष को भी रथ से उतार लो। इसके बाद में उतारूंगा यही करने में तुम्हारी भलाई है। अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर भगवान ने घोड़ों की बागडोर छोड़ दी और स्वयं भी रथ से उतर पड़े। जैसे ही कृष्ण रथ से उतरे ही उस रथ पर बैठा हुआ दिव्य कपि अंर्तध्यान हो गया।

उसके सारे उपकरण व धुरी लगाम, घोड़े जलकर नष्ट हो गए। यह देख सभी पांडवों को बहुत आश्चर्य हुआ। यह देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा हे प्रभु यह क्या आश्चर्य जनक घटना हो गई। एकाएक रथ क्यों जल गया? यदि मेरे सुनने योग्य हो तो इसका कारण बताइए। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन लड़ाई  में बहुत तरह के अस्त्रों के आघात से यह रथ तो पहले ही जल चुका था। सिर्फ बैठे रहने के कारण भस्म नहीं हुआ था। जब तुम्हारा सारा काम पूरा हो गया तब मैंने इस रथ को छोड़ा और यह भस्म हो गया ।

युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजना


युधिष्ठिर द्वारा  श्रीकृष्ण को  हस्तिनापुर भेजना 

उसके बाद सभी पांडव व  वीर जब दुर्योधन की छावनी में घुसकर खजाना, रत्नों की ढेरी व भंडार घर पर अधिकार कर लिया। चांदी, सोना, मोती, मणि अच्छे-अच्छे आभूषण बढिय़ा कंबल, मृगचर्म और राज्य के बहुत सारे सामान वहां से हाथ लगे। उस समय आपके अक्षय धन का भंडार पाकर पांडव खुशी के मारे उछल पड़े।

श्रीकृष्ण ने कहा-आज की रात में हम लोगों को अपने मंगल के लिए छावनी के बाहर रहना चाहिए। बहुत अच्छा कहकर पांडव श्रीकृष्ण और सात्यकि के साथ छावनी से बाहर निकल गए। उन्होंने परम पवित्र ओघवती नदी के किनारे वह रात बिताई। उस समय राजा युधिष्ठिर ने  कर्तव्य विचार करके कहा- माधव एक बार क्रोध से भरी हुई गांधारी देवी को शांत करने के लिए आपको हस्तिनापुर जाना चाहिए यही उचित जान पड़ता है। 

धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर श्रीकृष्ण गांधारी के पास गए। जन्मजेय ने पूछा- धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को गांधारी के पास क्यों भेजा? जब पहले वे संधि कराने के लिए कौरवों के पास गए थे, उस समय तो उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई।

उन्होंने ही युद्ध करने पर पांडवों को मजबूर किया तो फिर भगवान श्रीकृष्ण को गांधारी को शांत करने क्यों जाना पड़ा? ये सुनकर वैशम्पायनजी ने कहा- राजा तुमने जो प्रश्न किया है वह बिल्कुल सही है। मैं इसका यार्थाथ कारण बताता हूं सुनो। भीमसेन ने गदायुद्ध के नियम का उल्लंघन करके दुर्योधन को मारा यह देखकर महाराज युधिष्ठिर को बड़ा भय हुआ। उन्हें यही लगा कि अपने पुत्र की अन्याय पूर्वक वध की बात सुनकर कहीं वे अपने मन से अग्रि प्रकट कर हमें भस्म न कर डालें इसीलिए उन्होंने श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजा।

गांधारी का क्रोध


गांधारी का क्रोध 


इसके बाद पांडव श्रीकृष्ण के साथ गांधारी के पास आए। पांडवों के प्रति गांधारी के मन में पाप है यह ताड़कर महर्षि व्यास पहले ही ताड़ गए थे। इसलिए वे बड़ी तेजी से वहां  आ पहुंचे। वे दिव्य दृष्टि से अपने मन की एकाग्रता से सभी प्राणियों के आंतरिक भाव समझ लेते थे। इसलिए गांधारी के पास जाकर उससे कहने लगे गांधारी तुम पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर क्रोध मत करो, शांत हो जाओ। तुम जो बात मुंह से निकालना चाहते हो उसे रोक लो और मेरी बात पर ध्यान दो। पिछले अठारह दिनों में तुम्हारा विजयभिलाषी पुत्र रोज ही तुम से यह प्रार्थना करता था कि मैं शत्रुओं के साथ संग्राम करने के लिए जा रहा हूं। माताजी! मेरे कल्याण के लिए आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर तुम हर बार यही कहती थी कि जहां धर्म है, वहीं विजय है।

इस प्रकार पहले तुम्हारे मुंह से जो सच्ची बात निकलती थी, वह मुझे याद आती है। गांधारी ने कहा भगवान पांडवों के प्रति मेरा कोई दुर्भाव नहीं है और मैं इनका नाश ही चाहती हूं।लेकिन पुत्रशोक के कारण मेरा मन जबरदस्ती व्याकुल सा हो रहा है। इन कुंतीपुत्रों की रक्षा करना जैसा कुंती का  कर्तव्य है वैसे ही महाराज का भी और मेरा भी। कौरवों ने अभिमानी बनकर युद्ध किया। लेकिन साहसी भीम ने दुर्योधन को गदायुद्ध के लिए बुलाकर फिर कृष्ण के सामने ही उसकी नाभि के नीचे गदा पर चोट की इस अनुचित कार्य ने मेरा क्रोध भड़का दिया। गांधारी की यह बात सुनकर भीमसेन ने बहुत डरते-डरते उससे विनयपूर्वक कहा माताजी यह धर्म हो अथवा अधर्म मैंने तो डरकर अपनी रक्षा के लिए ही ऐसा किया था सो अब आप क्षमा करें।


गांधारी ने कहा भैया तुम मेरे पुत्र की ऐसी प्रशंसा कर रहे हो , यह तो उसका वध नहीं कहा जा सकता। लेकिन तुमने संग्राम भूमि पर दु:शासन का खून पिया, उस काम की तो सभी सत्पुरुष निंदा करेंगे। ऐसा काम आर्यपुरुष कभी नहीं करते। भीमसेन बोले-माताजी आप चिंता न करें। वह खून मेरे दांत व ओंठो से आगे नहीं गया। इस बात को कर्ण जानता था। मैंने तो अपने हाथ खून में सान लिए थे। जब द्युतक्रीडा के समय दु:शासन ने द्रोपदी के केश पकड़े थे। उसी समय क्रोध में भरकर मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर चुका था। यदि मैं उसे पूरा न करता तो अनन्त वर्षों तक क्षात्रधर्म पतित समझा जाता। इसीलिए मैंने यह काम किया। गांधारी ने कहा भीम अब हम बूढ़े हो गए हैं। हमारा राज्य भी तुमने छिन लिया।

ऐसे में तुम हम दो अंधों के सहारे के लिए एक पुत्र को भी जीवित क्यों नहीं छोड़ा? यदि तुम मेरे एक पुत्र को भी छोड़ देते तो तुम्हारे कारण मैं इतना दुख न पाती, यही समझ लेती कि तुमने अपने धर्म का पालन किया।भीमसेन के  ऐसा कहने पर पुत्र-पुत्रों के नाश से पीडि़त गांधारी गुस्से से भरकर बोली-राजा युधिष्ठिर कहां है यह सुनते ही धर्मराज भय से कांपते हुए हाथ जोड़े उसके सामने आए और बहुत ही मीठी वाणी में बोले आपके पुत्रों का संहार करने वाला मैं क्रूरकर्मा युधिष्ठिर सामने खड़ा हूं। युधिष्ठिर ने गांधारी के पैरों में गिरकर माफी मांगी।

महाराज युधिष्ठिर गांधारी के पास खड़े हुए ये सब बातें कह गए। लेकिन गांधारी के मुंह से कोई बात नहीं निकली वह गहरी सांसे लेने लगी। वे झुककर उसके चरणों में गिरना ही चाहते थे कि दिर्घदर्शिनी गांधारी की दृष्टि पट्टी में से होकर उनके नाखुनों पर पड़ी। इससे उनके सुंदर नाखून उसी समय काले पड़ गए।

यह देखते ही अर्जुन तो श्रीकृष्ण के पीछे खसक गए और भाई भी इधर-उधर छिपने लगे। उन्हें इस प्रकार कसमसाते देखकर गांधारी का क्रोध ठंडा पड़ गया। उसने माता के सामान उन्हें धीरज दिया। फिर उसकी आज्ञा पाकर वे अपनी माता कुंती के पास गए। कुन्ती ने अपने पुत्रों को बहुत दिनों बाद देखा था। इसलिए उनके कष्टों का स्मरण करके उसका दिल भर आया और वह अंचल से मुंह ढंककर आंसू बहाने लगी।

उसके साथ पांडवों को आंखों में भी आंसू आ गए। उसने प्रत्येक पुत्र के अंगों पर बार-बार हाथ फेरकर देखा। सभी के शरीर शस्त्रों  की चोंट से घायल हो रहे थे। पुत्रहीन द्रोपदी को देखकर तो उसे बड़ा ही दुख हुआ। उसने देखा कि पांचालकुमारी पृथ्वी पर पड़ी हुई रो रही है। द्रोपदी कह रही थी आर्ये! अभिमन्यु सहित मेरे सभी पौत्र कहा चले गए जब मेरे बच्चे ही नहीं बचें तो मैं राज्य लेकर क्या करूंगी। तब कुंती ने उसे धैर्य बंधाया। इसे बाद वह शौकाकुल द्रोपदी को उठाकर अपने साथ ले गांधारी के पास आई। उसके साथ ही सभी पांडव भी वहां पहुंचे।


गांधारी द्वारा श्रीकृष्ण को शाप


गांधारी द्वारा श्रीकृष्ण को शाप

दुर्योधन को मरा हुआ देखते ही गांधारी जमीन पर गिर  पड़ी। होश आने पर जब उसने दुर्योधन को खून में लथपथ हुए पृथ्वी पर पड़ा देखा तो वह उससे लिपटकर रोने लगी। फिर गांधारी रोते हुए श्रीकृष्ण से कहने लगी जब यह बंधुओं का विध्वंस करने वाला संग्राम शुरु हो गया था। तब दुर्योधन ने मुझसे कहा था माता मुझे आशीर्वाद दो कि उस में मेरी विजय हो। तब मैंने यही कहा था कि जय तो वहीं रहती है जहां धर्म रहता है। देखो तो जो दुर्योधन सब राजाओं से आगे चलता था वही आज मरा पड़ा है।

आज उसके भी बाल बिखरे हुए हैं। श्रीकृष्ण तुम मेरी यह पुत्रवधु व लक्ष्मण की माता की दशा तो देखो। कुछ भी हो यदि वेद व शास्त्र सच्चे हैं तो दुर्योधन ने अवश्य ही अपने बाहुबल व प्रताप से अविनाशी लोक को प्राप्त किया है। देखो इधर मेरे सौ पुत्र पड़े हैं। इन सबको भीमसेन ने अपनी गदा से पछाड़ा है। मुझे तो इसी कारण अधिक दुख होता है। इस तरह सभी वीरों के बारें में विलाप करते हुए गांधारी क्रोध से भर गई। उसने श्रीकृष्ण से कहा माधव तुम चाहते तो इस युद्ध को रोक सकते थे। मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुमने कौरव और पांडवों दोनों भाइयों के आपस में प्रहार करते समय उपेक्षा कर दी थी। इसीलिए तुम भी अपने बंधु व बांधवों का वध करोगे। आज से छतीसवे वर्ष में तुम्हारे भी बंधुओं और पुत्रों का नाश हो जाएगा। तुम साधारण कारण से एक अनाथ की तरह मारे जाओगे।

श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा मैं तो जानता था कि यह बात इसी प्रकार होनी है। तुमने जो कुछ होना था। उसी के लिए शाप दिया है। इसमें संदेह नहीं, वृष्णिवंशियों का नाश दैवी कौप से ही होगा। इनका नाश करने में भी मेरे सिवा और कोई समर्थ नहीं है। मनुष्य तो क्या, देवता या असुर भी इनका संहार नहीं कर सकते। इसलिए ये यदुवंशी आपस के कलह से ही नष्ट होंगे। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर पाण्डवों को बहुत डर लगा। वे बहुत व्याकुल हो गए। उन्हें अपने जीवन की आशा भी नहीं रही।

श्रीकृष्ण कहने लगे- गांधारी उठो, उठो, मन में शोक मत करो। इन कौरवों का संहार तो तुम्हारे ही अपराध से हुआ है। तुम अपने दुष्ट पुत्रों को बड़ा साधु समझती थी। दुर्योधन जो कि बहुत ही आज्ञा का उल्लंघन करने वाला था, उसी दुर्योधन को तुमने सिर पर चढ़ा रखा था। फिर अपने किए हुए अपराध को तुम मेरे माथे क्यों मढ़ती हो? वैशम्पायनजी कहते हैं- श्रीकृष्ण के ये अप्रिय वचन सुनकर गांधारी चुप रह गई। फिर धर्म को जानने वाले राजर्षि धृतराष्ट्र ने अपने अज्ञानजनित मोह को दबाकर धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा-युधिष्ठिर इस युद्ध में जो सेना मारी गई। उसके परिणामस्वरूप का तुम्हे पता हो तो हमें बताओ। युधिष्ठिर ने कहा-महाराज इस युद्ध में एक अरब छाछट करोड़ वीर मारे गए हैं। इनके सिवा चौदह हजार योद्धा अज्ञात हैं और दस हजार एक सौ पैंसठ वीरों का और भी पता नहीं है। धृतराष्ट्र ने कहा महाबाहो मैं तुम्हे सर्वज्ञ मानता हूं। इसलिए यह बताओ उन सबकी गति क्या होगी। युधिष्ठिर बोले जिन्होंने अपने शरीर को होषपूर्वक होमा है, वे तो इन्द्र के समान ही पुण्यलोंको को प्राप्त हुए हैं।


रविवार, 25 नवंबर 2012

यज्ञ

धर्मग्रंथों में यज्ञ की महिमा खूब गाई गई है। यज्ञ वेद का प्रमुख विषय है। क्योंकि यज्ञ एक ऐसा विज्ञानमय विधान है जिससे मनुष्य का भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से उत्कर्ष होता है।यज्ञ से भगवान प्रसन्न होते हैं, ऐसा धर्मग्रंथो में कहा गया है। ब्रह्म ने मनुष्य के साथ ही यज्ञ की भी रचना की और मनुष्य से कहा इस यज्ञ के द्वारा ही तुम्हारी उन्नति होगी। यज्ञ तुम्हारी इच्छित कामनाओं, आवश्यकताओं को पूर्ण करेगा। तुम यज्ञ के द्वारा देवताओं को पुष्ट करो, वे तुम्हारी उन्नति करेंगे।राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ कर चार पुत्र पाए। भगवान राम ने अश्वमेघ यज्ञ किया। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा कसे पांडवों ने राजसूय यज्ञ कराया था। राजा नल ने यज्ञों के द्वारा स्वर्ग जाकर इंद्रासन को प्राप्त किया था। शोधार्थियों ने यज्ञ को अग्नि पूजा कहा है। ईरानी आर्य (पारसी) अग्नि की उपासना करते हैं। कर्मों के प्रायश्चित स्वरूप, अनिष्ट और प्रारब्धजन्य दुर्योगों की शांति के लिए, किसी अभाव की पूर्ति के लिए , कोई सुयोग या सौभाग्य प्राप्त करने के लिए, रोग-व्याधि, देवताओं को प्रसन्न करने हेतु, धन-धान्य की अधिक उपज के लिए, अमृतमयी वर्षा के लिये , वायुमंडल के शुद्धिकरण हेतु हवन किए जाते थे। साधनाओं में हवन अनिवार्य है। जितने भी जप, पाठ, पुनश्चरण किए जाते हैं, उनमें किसी न किसी रूप में हवन अवश्य करना पड़ता है। गायत्री उपासना में भी हवन आवश्यक है। गायत्री को माता और यज्ञ को पिता कहा गया है। इन्हीं के संयोग से मनुष्य का आध्यात्मिक जन्म होता है।

यजन, पूजन, सम्मिलित विचार, वस्तुओं का वितरण। बदले के कार्य, आहुति, बलि, चढ़ावा, अर्पण आदि के अर्थ में भी यह शब्द उपयोग होता है। यज्ञ, तप का ही एक रूप है। विशेष सिद्धियों या उद्देश्यों के लिए यज्ञ किए जाते हैं। चार वेदों में यजुर्वेद यज्ञ के मंत्रों से भरा है। इसके अलावा वेद आधारित अन्य शास्त्र, ब्राह्मण ग्रंथों और श्रोत सूत्रों में यज्ञ विधि का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है। वैदिक कालिन कार्यों एवं विधानों में यज्ञ का प्रधान धार्मिक कार्य माना गया है।वैज्ञानिक विद्या: यह इस संसार तथा स्वर्ग दोनों में दृश्य तथा अदृश्य पर, चेतन तथा अचेतन वस्तुओं पर अधिकार पाने का प्रमाणिक मार्ग या साधन है। यज्ञ एक वैज्ञानिक विद्या है जो 100 प्रतिशत कारगर एवं प्रामाणिक है। यज्ञ को पूरी तरह शास्त्र सम्मत एवं विधिविधान से करने पर इसके अद्भुत परिणाम प्राप्त होते हैं। यज्ञ से आसपास का वातावरण शुद्ध, पवित्र एवं दिव्य ऊर्जा से संपन्न होता है। आसपास के वातावरण में विभिन्न प्रकार की बीमारियों के कीटाणु यज्ञ की धूम और मंत्रों की ध्वनि तरंगों से नष्ट हो जाते हैं। इतना ही नहीं पर्यावरण के संतुलन एवं संतुलित वर्षा में यज्ञ का महत्वपूर्ण योगदान है। यज्ञ की उपयोगिता एवं सफलता के तीन प्रमुख आधार है। 1. मंत्रों की ध्वनि का विज्ञान।2. दिव्य जड़ी-बूटियों एवं वनस्पतियां। 3. साधक की एकाग्रता एवं मनोबल।यज्ञ को एक प्रकार का ऐसा यंत्र समझना चाहिए जिसके सभी पूर्जे ठीक-ठीक एवं उचित स्थान पर संलग्न हो। जो यज्ञ का ठीक प्रयोग जानते हैं तथा पूर्णत: एवं वर्चस्वी निश्चित रूप से होते हैं। यज्ञ की विधा एक ऐसी विद्या है जो अति प्राचीन काल से चली आ रही है। यहां तक की सृष्टि की उत्पत्ति यज्ञ का फल कही जाती है। सृष्टि की रचना से पूर्व स्वयं शक्ति अर्जित करने के लिए यज्ञ किया एवं शक्ति प्राप्त की।

रामायण

रामायण जीवन मूल्यों और आदर्शों की कहानी है। भगवान राम के जीवनकाल पर आधारित यह कहानी हमें अमूल्य आदर्शों की शिक्षा देती है। राम के ही जीवन काल में उनके समकालीन ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ने इस कथा की रचना की थी। यह कथा बताती है कि हमारे आदर्श कैसे हों। आदर्श पिता-माता, पत्नी, भ्राता, इतना ही नहीं महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामकथा में संपूर्ण भारतीय सभ्यता की प्रतिष्ठा गृहस्थाश्रम में स्थापित की है। यह संपूर्ण गृहस्थी और परिवार का ग्रंथ है। रामायण को आदिकाव्य तथा महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि की संज्ञा दी गई है। रामायण सात अध्यायों में है। इसके अध्यायों को कांड की संज्ञा दी गई है। इन कांडों के नाम बाल कांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड, युद्ध कांड और उत्तरकांड हैं। इसमें राम के जन्म से लेकर उनके महाप्रयाण तक की संपूर्ण कथा है।

इस रामकथा को सात कांडों में विभक्त किया गया है। इन सात कांडों में राम का संपूर्ण जीवन है। 1. बालकांड: इस कांड में वाल्मीकि को रामकथा के लिए ब्रह्मा की आज्ञा, दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ, राम जन्म, राम विवाह आदि।2. अयोध्या कांड: राम का वनगमन, चित्रकूट यात्रा, दशरथ मरण, भरत की चित्रकूट यात्रा, राम का चित्रकूट से प्रस्थान।3. अरण्यकांड: दण्डकारण्य प्रवेश, शूर्पणखा का विरूपीकरण, सीताहरण, जटायुवध, सीताखोज, शबरी प्रसंग।4. किष्किंधाकांड: सुग्रीव से मैत्री, बालिवध, वानरों का प्रेषण, वानरों की खोज।5. सुंदरकांड: लंका में हनुमान का प्रवेश, रावण-सीता संवाद, हनुमान-सीता संवाद, लंका दहन, हनुमान का प्रत्यावर्तन।6. युद्धकांड: लंका का अभियान, विभीषण की शरणागति, सेतुबंध, कुंभकरणवध, लंका दहन, रावण वध, अग्नि परीक्षा, अयोध्या प्रवेश।7. उत्तरकांड: सीता त्याग, अश्वमेद्य यज्ञ का आयोजन, स्वर्गगमन।यह जीवन के सिद्धांतों पर आधारित काव्य है। मानव जीवन बालू की भीत के समान शीघ्र ही ढहकर गिर जाने वाली वस्तु नहीं है। इसमें स्थायित्व है तथा आने वाली पीढिय़ों को राह दिखाने की क्षमता है।

रामायण की उत्पत्ति के विषय में एक घटना प्रसिद्ध है। इसमें 24 हजार श्लोक हैं। एक समय महर्षि वाल्मीकि तमसा नदी पर स्नान करने गए। उसी समय एक व्याध ने काम से मोहित मिथुनभाव से स्वतंत्र विचरण करने वाले क्रौञ्च-क्रोञ्ची के जोड़े में से एक को मार दिया। क्रौञ्ची के उस करुण विलाप को सुनकर महर्षि वाल्मीकि का (शोक: श्लोकत्वं आगत:) शोक श्लोक के रूप में परिणित हो गया तथा उसी समय उन्होंने उस व्याध को शाप दिया कि- हे व्याध तूने काम से मोहित हो कौञ्च को मारा है। अत: तुम सदा के लिए प्रतिष्ठा को प्राप्त न करो।महर्षि की इस करुणामयी वाणी को सुनकर ब्रह्मा स्वयं उपस्थित हुए और उन्होंने उन्हें रामकथा पर आधारित काव्य लिखने के लिए प्रेरित किया। रामायण इसी प्रेरणा का फल है।

वेदों से ही सारे ग्रंथों की रचना


वेद मानव जीवन की प्रगति के प्रमाण तो हैं ही, मोक्ष का मार्ग बताने वाले ग्रंथ भी हैं।तीनों प्रमुख वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) मुक्ति के तीन मार्ग बताते हैं।उनके मंत्रों में भक्ति, कर्म और ज्ञान की बातें हैं। भारतीय मनीषियों का मानना है कि जीवन में मुक्ति यानी मोक्ष के लिए केवल तीन ही मार्ग हैं कर्म, उपासना और ज्ञान। ये तीनों मार्ग ही आदमी को मोक्ष की ओर ले जाते हैं। मोक्ष का मतलब स्वर्ग-नर्क से नहीं है, यह तो उस अवस्था का नाम है जब मनुष्य कर्मों के बंधन से मुक्त होकर जन्म के फेर से छूट जाता है। तीन वेद, इन तीन मार्गों के प्रतीक हैं। ऋग्वेद में ज्ञान, यजुर्वेद में कर्म (कर्मकांड) और सामवेद उपासना का ग्रंथ है। तीनों ही मार्ग मोक्ष की ओर जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वेदों में एक लाख मंत्र हैं, उनमें से करीब अस्सी हजार कर्मकांड के, सोलह हजार उपासना के और शेष चार हजार मंत्र ज्ञान से जुड़े हैं। विद्वान मानते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का सबसे श्रेष्ठ मार्ग है। इन वेदों की शाखाओं के विलुप्त होने से ही मंत्र कम रह गए और अब ये काफी संक्षिप्त रूप में हमारे सामने हैं। अब ये एक लाख मंत्र उपलब्ध नहीं है। इन वेदों के सहायक ग्रंथों में इनके प्रमाण मिलते हैं। चौथेवेद, अथर्ववेद में सभी अपराशक्तियों (आलौकिक शक्तियों) के प्रमाण हैं, जैसे जादू, चमात्कार, आयुर्वेद और यज्ञ।

चार वेद : चार ग्रंथ, चार पुरुषार्थ, चार देव, चार तत्व

वेद केवल धर्म की किताबें भर नहीं है। इनके पीछे छिपा दर्शन बहुत गहरा और जीवन के अर्थों को समेटे हुए है। ये केवल मंत्रों से भरे ग्रंथ नहीं हैं। संपूर्ण मानव जीवन का सार इनमें है। 

मानव जीवन में चार प्रमुख पुरुषार्थ हैं अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष। चारों वेद इन चार पुरुषार्थों का प्रतीक हैं। इन चार वेदों के चार प्रमुख देवता हैं अग्रि, वायु, सूर्य और सोम (चंद्र)। ऋग्वेद के देवता अग्रि को माना जाता है, यजुर्वेद के देवता पवन यानी वायु, सामवेद के देवता सूर्य और अथर्ववेद के देवता सोम माने गए हैं। ये चारों देवता और चारों वेद इन चार पुरुषार्थों के प्रतीक हैं। 

ऋग्वेद : चार पुरुषार्थों में पहला अर्थ है, शास्त्रों का मानना है कि गृहस्थ का सबसे पहला धर्म है, जीवनयापन के लिए आवश्यक साधन जुटाए। ऋग्वेद अर्थ का ग्रंथ है जिसमें जीवन के लिए आवश्यक अनुशासन और ज्ञान की बातें हैं। अर्थ के लिए श्रम की जरूरी है और श्रम के लिए ऊर्जा यानी शक्ति। अग्रि ऊर्जा और शक्ति के प्रतीक हैं, इसलिए ऋग्वेद के प्रमुख देवता माने गए हैं। अर्थ के लिए परिश्रम करना होता है लेकिन यह परिश्रम भी अनुशासन के तहत हो, अधर्म के मार्ग से प्राप्त किया गया अर्थ पुरुषार्थ नहीं है। 

यजुर्वेद : यजुर्वेद काम का ग्रंथ है, यहां काम का अर्थ केवल विषय भोग से नहीं है। काम में कर्म, कामनाएं और मन तीनों शामिल है। यह कर्मकांड प्रमुख वेद है। इसमें यज्ञ का महत्व है, जो कर्म का प्रतीक भी है। यजुर्वेद के प्रमुख देवता वायु को माना गया है। वायु मन का प्रतीक है, मन वायु की तरह ही तेज चलता है और अस्थिर है। कर्म में श्रेष्ठता के लिए मन को साधना जरूरी है। मन को साधने से ही उसमें कामनाओं का लोप होता है। मन सद्कर्मों और शक्ति, धर्म के संचय में लगता है। कामनाओं का लोप होने के बाद ही हम किसी भी कार्य को एकाग्रता से कम सकते हैं। 

सामवेद : साम वेद उपासना का वेद है, धर्म का ग्रंथ है। धर्म के लिए भक्ति यानी उपासना का होना आवश्यक है। जब अर्थ और काम दोनों का साध लिया जाए यानी सांस्कृतिक और धार्मिक अनुशासन से इन्हें जीवन में उतारा जाए तब धर्म का प्रवेश होता है, जीवन में भक्ति आती है। भक्ति और ज्ञान प्रकाश के प्रतीक हैं, इसलिए सामवेद के देवता सूर्य माने गए हैं। जीवन में ज्ञान और भक्ति का बहुत महत्व है। इनको साधने से ही धर्म आता है।   

अथर्ववेद : यह ग्रंथ परमशक्तियों या पराशक्तियों का है। जब अर्थ, काम और धर्म तीनों जीवन में उतरते हैं तब मोक्ष का मार्ग खुलता है। मोक्ष कर्म और जन्म के फेर से मुक्ति है, यह मुक्ति ज्ञान से आती है, इसे ब्रह्म ज्ञान कहते हैं। अथर्ववेद ऐसे ही ज्ञान का वेद है। मुक्ति का ज्ञान हमें सारे संकटों से राहत देता है, यानी शीतलता देता है। इसलिए इस ग्रंथ के देवता चंद्र यानी सोम माने गए हैं, जो शीतलता देते हैं।

वेदों से ही सारे ग्रंथों की रचना हुई है। वेद - ग्रंथों के मूल विचार हैं, उनसे ही सारे ग्रंथों का विकास हुआ है। संहिता, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद ये चारों वेदों के ही अंग है। इन्हें वेदांत भी कहा जाता है।दरअसल वेदों में आए विचारों और सूत्रों को आधार बनाकर विभिन्न विद्वानों और ऋषि-मुनियों ने ये ग्रंथ लिखें हैं।इनमें संहिताएँ और उपनिषदों की संख्या सबसे ज्यादा हैं। इन्हें विचारों की शुद्धि का ग्रंथ भी माना जाता है। भक्ति, ज्ञान की गूढ़ बातें इन वेदों में है, इन्हीं के आधार पर अन्य ग्रंथों की रचना मानी गई है।

हिंदू संस्कृति और सभ्यता को लेकर जितने भी सवाल उठाए जाते हैं,  समाजिक व्यवस्था, कर्मकांड और यज्ञों, आलौकिक शक्तियों पर उठने वाले सवालों जवाब इन वेदों में दिए गए हैं। भृगुसंहिता, गर्गसंहिता, पाराशरसंहिता जैसे ग्रंथ वेदों को आधार बना कर ही लिखे गए हैं। इसमें सामाजिक व्यवस्थाओं, जीवन की मर्यादाओं के साथ ही ज्ञान का भंडार है। उपनिषदों को वेदों का विस्तार माना गया है।

विद्वानों का कहना है कि वेदों की कई शाखाएँ थीं, जिनमें से अधिकतर अब अनुपलब्ध है। चार वेदों की करीब 1131 शाखाएँ थीं, जिनमें से अब मात्र 12 ही मिल पाई हैं।शेष शाखाएँ अब लगभग लुप्त हो गई हैं।इस कारण वेदों की कई विद्याएँ अब केवल कहानियों में ही हैं, जैसे यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद अब विलुप्त हो गया है।इस वेद में प्राचीन काल के महान अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान था जो उस काल में मिसाइल के समान थे।