सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat -20




द्रोणाचार्य को मारने के लिए क्या किया द्रुपद ने?

बकासुर का वध करने के बाद पाण्डव वेदाध्ययन करते हुए उसी ब्राह्मण के घर में रहने लगे। कुछ दिनों बाद उसी ब्राह्मण के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण आए। पाण्डवों ने उनका बड़ा सत्कार किया। उस ब्राह्मण ने बात ही बात में राजाओं को वर्णन करते हुए राजा द्रुपद की बात छेड़ दी और द्रोपदी के स्वयंवर की बात भी कही। उन्होंने बताया कि जब से द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के द्वारा द्रुपद को पराजित किया है तब से द्रुपद बदले की भावना में जल रहा है। वे द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिए श्रेष्ठ संतान की चाह से कई विद्वान संतों के पास गए। लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की। फिर एक दिन द्रुपद घुमते-घुमते कल्माषी नगर गए। वहां ब्राह्मण बस्ती में कश्यप गोत्र के दो ब्राह्मण याज व उपयाज रहते थे। द्रुपद सबसे पहले महात्मा उपयाज के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि आप कोई ऐसा यज्ञ कराईए जिससे मुझे द्रोणाचार्य को मारने वाली संतान प्राप्त हो। लेकिन उपयाज ने मना कर दिया। इसके बाद भी द्रुपद ने एक वर्ष तक उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा की। तब उन्होंने बताया कि उनके बड़े भाई याज यह यज्ञ करवा सकते हैं। तब द्रुपद महात्मा याज के पास पहुंचे और उनको पूरी बात बताई। यह भी कहा कि यज्ञ करवाने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गाए भी दूंगा। महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया।
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कैसे हुआ अर्जुन और चित्रांगदा का विवाह?

अर्जुन महेन्द्र पर्वत होकर समुद्र के किनारे चलते-चलते मणिपुर पहुंचे। वहां के राजा चित्रवाहन बहुत धर्मात्मा थे। उनकी सर्वांगसुन्दरी कन्या का नाम चित्रांगदा था। एक दिन अर्जुन की दृष्ठि उस पर पड़ गयी उन्होने समझ लिया कि यह यहां कि राजकुमारी है। और राजा चित्रवाहन के पास जाकर कहा राजन् मैं कुलीन क्षत्रीय हूं। आप मुझसे अपनी कन्या का विवाह कर दिजिए। 

चित्रवाहन  के पूछने पर अर्जुन ने बतलाया कि मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूं।  चित्रवाहन ने कहा कि हे वीर अर्जुन मेरे पूर्वजो में प्रभजन नाम के एक राजा हो गये हैं। उन्होंने संतान न होने पर उग्र तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। उन्होने वर दिया कि तुम्हारे वंश में सबको एक-एक संतान होती जाएगी। तब से हमारे वंश में ऐसा ही होता आया है। मेरे यह एक ही कन्या है इसे में पुत्र ही समझता हूं। इसका मैं पुत्रिकाधर्म अनुसार विवाह करूंगा, जिससे इसका पुत्र हो जाए और मेरा वंश प्रवर्तक बने। अर्जुन ने कहा ठीक है आपकी शर्त मुझे मंजुर है और इस तरह अर्जुन और चित्रांग्दा  का विवाह हुआ। उसके बाद अर्जुन राजा से अनुमति लेकर फिर तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े।
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जब नागकन्या उलूपी अर्जुन पर मोहित हो गई....

अर्जुन वनवास को चल दिए। वे एक दिन गंगा नदी में स्नान करने पहुंचे। गंगा नदी वे स्नान और तर्पण करके हवन करने के लिए बाहर निकलने ही वाले थे कि नागकन्या उलूपी उन पर मोहित हो गई। उसने कामासक्त होकर अर्जुन को जल के भीतर खींच लिया और अपने भवन में ले गई। अर्जुन ने देखा कि वहां यज्ञ की अग्रि प्रज्वलित हो रही है। उसने उसमें हवन किया और अग्रिदेव को प्रसन्न करके नागकन्या उलूपी से पूछा सुन्दरि तुम कौन हो? तुम ऐसा साहस करके मुझे किस देश लेकर आई होउलूपी ने कहा मैं ऐरावत वंश के नाग की कन्या उलूपी हूं। मैं आपसे प्रेम करती हूं। आपके अतिरिक्त मेरी कोई गति नहीं है। आप मेरी अभिलाषा पूर्ण किजिए। मुझे स्वीकार किजिए। अर्जुन ने कहा आप लोगों ने द्रोपदी के लिए जो मर्यादा बनाई है। उसे मैं जानती हूं। लेकिन इस लोक में उसका लोप नहीं होता। आप मुझे स्वीकार किजिए वरना मैं मर जाऊंगी। अर्जुन ने धर्म समझकर उलूपी की इच्छा पूर्ण की रातभर वही रहे। दूसरे दिन वहां से चले। चलते समय उलूपी ने उन्हे वर दिया कि तुम्हे किसी भी जलचर प्राणी से कभी कोई भय नहीं रहेगा।
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क्या हुआ, जब अर्जुन ने भंग किया...

पाण्डव द्रोपदी के पास नियमानुसार रहते। एक दिन की बात है लुटेरो ने किसी ब्राहा्रण की गाय लुट ली और उन्हे लेकर भागने लगे। ब्राहा्रण पाण्डवों के पास आया और अपना करूण रूदन करने लगा।ब्राहा्ण ने कहा कि पाण्डव तुम्हारे राज्य में मेरी गाय छीन ली गई है। अगर तुम अपनी प्रजा की रक्षा का प्रबंध नहीं कर सकते तो तुम नि:संदेह पापी हो। लेकिन उनके सामने अड़चन यह थी कि जिस कमरे में राजा युधिष्ठिर द्रोपदी के साथ बैठे हुए थे।उसी कमरे में उनके अस्त्र-शस्त्र थे। एक ओर कौटुम्बिक नियम और दुसरी तरफ ब्राहा्रण की करूण पुकार। तब अर्जुन ने प्रण किया की मुझे इस ब्राहा्रण की रक्षा करना है। चाहे फिर मुझे इसका प्रायश्चित क्यों ना करना पड़े? उसके बाद अर्जुन राजा युधिष्ठिर के घर में नि:संकोच चले गए। राजा से अनुमति लेकर धनुष उठाया और आकर ब्राहा्ण से बोले ब्राहा्रण देवता थोड़ी देर रूकिए में अभी आपकी गायों को आपको लौटादेता हूं। अर्जुन ने बाणों की बौछार से लुटेरों को मारकर गोएं ब्राहा्ण को सौंप दी। उसके बाद अर्जुन ने आकर युधिष्ठिर से कहा। मैंने एकांत ग्रह में अकार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी इसलिए मुझे वनवास पर जाने की आज्ञा दें। युधिष्ठिर ने कहा तुम  मुझ से छोटे हो और छोटे भाई यदि अपनी स्त्री के साथ एकांत में बैठा हो तो बड़े भाई के द्वारा उनका एकांत भंग करना अपराध है। लेकिन जब छोटा भाई यदि बड़े भाई का एकांत भंग करे तो वह क्षमा का पात्र है। अर्जुन ने कहा आप ही कहते हैं धर्म पालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिए। उसके बाद अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वनवास को चल पड़े। 

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द्रोपदी के साथ एकांत में एक भाई दूसरे को देख ले...

इन्द्रप्रस्थ में राज्य पाने के बाद पांडव जब वहां सुख से रहने लगे। उसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर अपनी पत्नी द्रोपदी के साथ इन्द्रप्रस्थ में सुखपूर्वक रहकर भाईयों के साथ प्रजा का पालन करने लगे। सारे शत्रु उनके वश में हो गये। एक दिन की बात है। सभी पाण्डव राज्यसभा में बहुमुल्य आसनों पर बैठकर काम कर रहे थे। उसी समय नारद वहां पहुंचे नारद की विधिपूर्वक पूजा की। द्रोपदी भी आई और नारद मुनि का आर्शीवाद लेकर उनकी आज्ञा से रानिवास चली गई। नारद ने पाण्डवों से कहा पाण्डवों आप पांच भाइयों के बीच मात्र एक पत्नी है, इसलिए तुम लोगों को ऐसा नियम बना लेना चाहिए ताकि आपस में कोई झगड़ा ना हो।

प्राचीन समय की बात है। सुन्द और उपसुन्द दो असुर भाई थे। दोनों के बारे में ऐसा कहा जाता है दोनों दो जिस्म एक जान हैं। उन्होंने त्रिलोक जीतने की इच्छा से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करके तपस्या प्रारंभ की। कठोर तप के बाद ब्रहा्र जी प्रकट हुए। दोनों भाईयों ने अमर होने का वर मांगा। तब ब्रहा्र कहा वह अधिकार तो सिर्फ देवताओं को है। तुम कुछ और मांग लो। तब दोनों ने कहा कि हम दोनों को ऐसा वर दें कि हम सिर्फ एक- दुसरे के द्वारा मारे जाने पर ही मरें। ब्रह्रा जी ने दोनों को वरदान दे दिया। दोनों भाईयों ने वरदान पाने के बाद तीनों लोको में कोहराम मचा दिया। सभी देवता परेशान होकर ब्रहा्र की शरण में गए। तब ब्रहा्र जी ने विश्वकर्मा से एक ऐसी सुन्दर स्त्री बनाने के लिए कहा जिसे देखकर हर प्राणी मोहित हो जाए। उसके बाद एक दिन दोनों भाई एक पर्वत पर आमोद-प्रमोद कर रहे थे। तभी वहां तिलोतमा (विश्वकर्मा की सुन्दर रचना) कनेर के फूल तोडऩे लगी। दोनों भाई उस पर मोहित हो गए। दोनों में उसके कारण युद्ध हुआ। सुन्द और उपसुन्द दोनों मारे गए। 
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तब पांडव लौट गए हस्तिनापुर...

दुर्योधन का पाण्डवों के लिए षडयंत्र करना महात्मा विदुर रथ पर सवार होकर पाण्डवों के पास राजा द्रुपद की राजधानी में गये। वे पहले नियमानुसार राजा द्रुपद से मिले। विदुर जी द्रुपद, द्रोपदी, पाण्डव आदि के लिए कई उपहार अपने साथ लेकर गये। राजा द्रुपद ने विदुर का खूब आदर सत्कार किया। विदुर उसके बाद श्री कृष्ण और बलराम से मिले। उन्होंने विदुर की बहुत आवभगत की।

विदुर जी ने कृष्ण और पाण्डवों से उचित अवसर देखकर कहा। महाराज धृतराष्ट्र  ने आप लोगों के कुशल-मंगल पूछा है। आपके साथ विवाह संबंध होने से उन्हे बहुत प्रसन्नता हुई। पितामाह भीष्म और द्रोणाचार्य ने भी आपकी कुशलता का समाचार पूछा है। इस अवसर पर वे चाहते हैं कि अब आप पाण्डवों को हस्तिनापुर भेज दें। सभी कुरूवंश के लोग पाण्डवों को देखने के लिए लालायित हैं। पाण्डवों को अपने देश से चले बहुत दिन हो गये हैं।

अब आप इन लोगों को आज्ञा दें। आपकी आज्ञा होते ही मैं वहां संदेश भेज दूंगा।राजा द्रुपद ने कहा आपका कहना ठीक है। कुरूवंशियों से सम्बंध करके मुझे भी कम प्रसन्नता नहीं हुई है। लेकिन मैं अपनी जुबान से यह बात नहीं कह सकता। युधिष्ठिर ने कहा हम लोग आज्ञा होने पर ही यहां से जाएंगे। इस प्रकार सलाह करने के बाद पाण्डव विदा हो गए। पाण्डव हस्तिनापुर पहुंचे। सभी श्रेष्ठजन वहां उनकी अगवानी के लिए  पहुंचे। 

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किस्मत का लिखा कोई नहीं बदल सकता

जब भाग्य साथ होता है या कहे भगवान साथ होता है तो कोई कितना ही षडयंत्र कर ले। आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है क्योंकि जाको राखे साइया मार सके ना कोए। जो आपकी किस्मत में लिखा है उसे परमात्मा के अलावा कोई नहीं बदल सकता है। लाक्ष्यग्रह में कौरवों के पूरे षडयंत्र के बाद भी पांडवों का जीवित रहना इस ही बात का इशारा करता है सभी राजाओं को अपने गुप्तचरों से मालूम हो गया कि द्रोपदी का विवाह पांडवों के साथ हुआ है। लक्ष्य वेदन करने वाला और कोई नही बल्कि अर्जुन है। 

जब दुर्योधन को यह समाचार मिला तो उसे बड़ा दुख हुआ। दुर्योधन से धीमे स्वर में दु:शासन बोला भाई जी अब मुझे समझ आ गया है कि भाग्य ही बलवान है। उनके हस्तिनापुर पहुंचने पर वहां का सब समाचार सुनकर विदुरजी को बड़ी प्रसन्नता हुई।वे उसी समय धृतराष्ट्र के पास जाकर बोले महाराज धन्य है धन्य। कुरूवंश की वृद्धि हो रही है। यह सुनकर धृतराष्ट्र को लगा कि द्रोपदी मेरे पुत्र दुर्योधन को मिल गई। विदुर ने उन्हे बताया कि उसका विवाह पांडवों से हुआ है। तब धृतराष्ट्र ने कहा पाण्डवों को तो मैं अपने पुत्रों से अधिक स्नेह करता हूं। उनका विवाह हो गया इससे अधिक प्रसन्नता का विषय मेरे लिए क्या हो सकता है।

जब विदुर वहां से चले गये तब दुर्योधन और कर्ण ने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा विदुर के सामने हम आप से कुछ भी नहीं कह सकते हैं। आप उन शत्रुओं की विजय पर हर्ष कैसे जता सकते हैं। दुर्योधन ने कहा पिताजी मेरा विचार है कि कुछ विश्वासी गुप्तचर और ब्राह्मणों को भेजकर पाण्डव पुत्रों में फूट डलवा दी जाए। हमें द्रुपद को भी अपने साथ मिला लेना चाहिए। कर्ण ने कहा दुर्योधन तुम्हारी क्या राय है कर्ण ने कहा मुझे तो तुम्हारे द्वारा बतलाए गए उपायों से पाण्डवों  का वश में होना सम्भव नहीं लगता। 

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तब पांचों पाण्डवों से हुआ द्रोपदी का विवाह

वेदव्यास जी ने द्रुपद के साथ युधिष्ठिर के पास जाकर कहा आज ही विवाह के लिए शुभ दिन व शुभ मुहूर्त है। आज चन्द्रमा पुष्यनक्षत्र पर है। इसलिए आज तुम द्रोपदी के साथ पाणिग्रहण करो। यह निर्णय होते ही द्रोपदी ने आवश्यक सामग्री जुटाई। द्रोपदी को श्रृंगारित कर मंडप में लाया गया। उस समय विवाह मण्डप का सौन्दर्य अवर्णीय था। पांचों पांडव भी सजधजकर मंडप में पहुंचे। 

पांचों ने एक-एक दिन द्रोपदी से पाणिग्रहण किया।इस अवसर पर सबसे विलक्षण बात यह हुई कि देवर्षि नारद के कथानुसार द्रोपदी प्रतिदिन कन्या भाव को प्राप्त हो जाया करती थी। विवाह में राजा द्रुपद ने दहेज में बहुत से रत्न, धन, और गहनों के साथ ही हाथी, घोड़े भी दिए। इस प्रकार पांडव अपार सम्पति और स्त्री रत्न आदि प्राप्त कर पाण्डव वहां सुख से रहने लगे। द्रुपद की रानियों ने कुन्ती के पास आकर उनके पैरों पर सिर रखकर प्रणाम किया। कुन्ती ने द्रोपदी को आर्शीवाद दिया। भगवान श्री कृष्ण ने भी पांडवों का विवाह हो जाने पर भेंट के रूप में अनेक उपहार दिए। 

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द्रोपदी को क्यों मिले पांच पति?

धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर द्रुपद प्रसन्न हो गए। उसके बाद द्रुपद ज्यो त्यों करके अपने आप को सम्भाला फिर युधिष्ठिर से वरणावत नगर से लाक्ष्या भवन तक की कहानी सुनने के बाद द्रुपद ने युधिष्ठिर से कहा अब आप अर्जुन को पाणिग्रहण की आज्ञा दें। द्रुपद से युधिष्ठिर ने कहा राजन विवाह तो मुझे भी करना ही है। द्रुपद बोले यह तो अच्छी बात है। आप द्रोपदी से विवाह कर लें। युधिष्ठिर ने कहा राजन राजकुमारी द्रोपदी हम सभी की पटरानी होगी।

राजा द्रुपद बोले कुरूवंश भूषण आप यह कैसी बात कर रहे हैं। एक राजा के बहुत सी रानियां तो हो सकती है परन्तु एक स्त्री के बहुत से पति हो ऐसा सुनने में नहीं आया है। युधिष्ठिर आप तो धार्मिक और पवित्र विचारों वाले हैं। तुम्हे तो धर्म के विपरित बात सोचनी भी नहीं चाहिए।युधिष्ठिर के साथ द्रुपद इस बात पर विचार कर ही रहे थे। तभी वहां वेदव्यास जी आए उन्होंने राजा द्रुपद को एकांत में ले जाकर समझाया। 

व्यास जी द्रुपद को द्रोपदी के पूर्व जन्म की कथा सुनाने लगे। उन्होंने यह बतलाया कि द्रोपदी ने पिछले जन्म में बहुत सुन्दर युवती थी। सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण उसे योग्य वर नहीं मिल रहा था। इसलिए उसने शंकर जी की तपस्या की और जब भगवान शंकर प्रकट हुए। उस समय द्रोपदी ने हड़बडाहट में पांच बार वर मांगे। इसलिए उसे शिव जी के वरदान के कारण इस जन्म में पांच पति प्राप्त होंगे। साथ ही वेदव्यास जी ने उन्हे पाण्डवों के पिछले जन्म के द्विव्य रूप के दर्शन भी करवाए। यह सब देखकर द्रुपद व्यास जी से बोले जब तक मैंने द्रोपदी के पूर्व जन्म की कथा नहीं सुनी थी। तब तक मुझे आपकी बात धर्मानुकूल नहीं लग रही थी। भगवान शंकर ने जैसा वर दिया था वैसा ही होना चाहिए। फिर चाहे वह धर्म हो या अधर्म अब उसमें मेरा कोई अपराध नहीं समझा जाएगा।

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रूप बदलने से नहीं बदलता स्वभाव

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा कहते हैं इंसान कितने ही आवरण पहन ले लेकिन उसकी मूल प्रवृति कभी नहीं बदलती है। मतलब इंसान का जो मूल स्वभाव है वह उसके अंदर हमेशा रहता है चाहे वह बाहर से कितने ही आवरण ओड़ ले। इसलिए यही अच्छा है कि जो आप है वही रहें।

ध्रष्टद्युम्र के द्वारा पांडवों का पीछा करना और वहा हुई घटनाओं को आकर द्रुपद को सुनाना अब आगे... धृष्टद्युम्र की बात सुनकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होने उनका परिचय प्राप्त करने के लिए अपने पुरोहित के पास भेज दिया। युधिष्ठिर की आज्ञा से भीम ने उनके पुरोहित का बड़ा आदर सत्कार किया। युधिष्ठिर ने कहा पुरोहित से कहा द्रुपद से कहिएगा कि उन्हे पछताने की आवश्कता नहीं है। इस विवाह के द्वारा उनकी चिरकालीन अभिलाषा पूर्ण हो सकती है। जिस समय युधिष्ठिर यह कह रहे थे। तभी उन्हे दरबार से बुलावा आया। राजा द्रुपद ने पांडवों की परिक्षा लेने के उद्देश्य से उनको महल बुलवाया।उन्होंने तीन अलग-अलग कमरों को भिन्न प्रकार की वस्तुओं से सजवाया। उन्होंने पहले पांडवों को अच्छे से भोजन करवाया उनकी खुब अच्छे से आवभगत की। 

उन्हें यथोचित सम्मान दिया। उसके बाद द्रुपद उन्हें महल दिखाने ले गये। उन्होनें जो तीन कमरें सजवाए थे। उसमें पहला कमरा रत्न और आभुषणों से सजा था। दूसरा कमरा फल, फूल व रस्सियों से सजा था। तीसरा कमरा हथियारों से सजाया गया था। तीनों कमरों में से पाण्डवों ने सबसे पहले शस्त्रों से सजे कमरे में प्रवेश किया और वहां रखे हथियारों को देखने लगे। यह देख द्रुपद समझ गए कि ये लोग वैश्य या शुद्र नहीं बल्कि क्षत्रीय हैं।जब उन्हे मन में यह विश्वास हो गया तो उन्होने युधिष्ठिर को अलग बुलाकर कहा कहीं आप लोग देवता तो नहीं जो मेरी पुत्री से विवाह करने के लिए आए हैं। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा आपकी अभिलाषा पूर्ण हुई राजेन्द्र में पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर हूं और वे चारों मेरे भाई हैं।

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द्रोपदी के भाई ने पाण्डवों का पीछा किया और...

ध्रष्टद्युम्र पाण्डवों का पीछा करते हुए कुम्हार के घर पहुंचता है। वह पांडवों के घर के निकट एक ऐसे स्थान पर बैठा था जहां से वह पांडवों की बातें तो सुन ही रहा था और द्रोपदी को देख भी रहा था। उसने पांडवों के हर काम को बड़े गौर से देखा। चारों भाइयों ने भिक्षा लाकर बड़े भाई युधिष्ठिर के सामने रख दी। कुन्ती ने द्रोपदी से कहा पहले तुम भिक्षा में से देवताओं, आश्रितो का भाग निकालो, ब्राम्हणों को भिक्षा दो। बचे अन्न का आधा हिस्सा भीम को और शेष भाग के छ: हिस्से करके हम लोग खा लें। वहां कि सारी बातें देख सुनकर द्रुपद के पास पहुंचा। 

द्रुपद उस समय चिंतित हो रहे थे।उन्होने अपने पुत्र यानी द्रोपदी के भाई से पूछा बेटा द्रोपदी कहा है? उसे ले जाने वाला कौन है? कितना अच्छा होता यदि मेरी पुत्री का विवाह अर्जुन से हुआ होता।ध्रष्टद्युम्र ने कहा जिस युवक ने लक्ष्य भेदन किया द्रोपदी को ले जाते समय उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। उसका कोईं भी राजा बाल तक बांका नहीं कर पाया। उनके साथ जो पुरुष था। उसने वृक्ष उखाड़ दिया था। वे दोनों मेरी बहन को कुम्हार के घर लेकर गए थे। वहां एक तेजस्वी स्त्री बैठी थी। 

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द्रोपदी को बिना देखे कुंती ने कहा पांचों भाई आपस...

अर्जुन को धनुष चढ़ाने के लिए तैयार देखकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए। सभी ब्राह्मण अर्जुन को देखकर अनेक तरह की बातें करने लगी। अभी लोगों की आंखें अर्जुन पर ठीक से टीक भी नहीं पाई थी कि उन्होने धनुष को आसानी से उठाकर पांच बण उठाकर उनमें से एक लक्ष्य पर चलाया और वह यंत्र के छिद्र में हो गर जमीन पर गिर पड़ा। चारों तरफ शोर होने लगा पुष्पवर्षा होने लगी। द्रुपद की प्रसन्नता की सीमा ना रही। द्रोपदी प्रसन्नता के साथ अर्जुन के पास गई और उसके गले में वरमाला डाल दी। 

जब राजाओं ने देखा कि द्रुपद अपनी कन्या का विवाह एक ब्राह्मण के साथ करना चाहते हैं तो वे क्रोधित हुए। राजाओं ने अपने शस्त्र उठा लिए और द्रुपद को मारने के लिए दौड़े। राजाओं को आक्रमण करते देख भीम और अर्जुन बीच में आ गए। अर्जुन और कर्ण का आमना-सामना हुआ। अर्जुन ने उनकी वीरता देखकर कहा आप ब्राह्मण पुत्र होकर भी इतने वीर हैं। दोनों आपस में युद्ध करने लगे। श्री कृष्ण पहचान चुके थे कि ये तो पांडव है इसलिए उन्होंने सभी राजाओं को समझाया उसके बाद सब कुछ शांत हो गया धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी। भिक्षा लेकर लौटने का समय बीच चुका था। माता कुंती पुत्रों का इंतजार करते हुए चिंतित थी। इतने में अर्जुन ने कुम्हार के घर में प्रवेश करते हुए कहा मां हम भिक्षा लाएं है यह सुनकर माता कुंती ने कहा बेटा पांचों भाई बांट लो।
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तब युधिष्ठिर ने कहा द्रोपदी पांचो भाइयों की...

जब कुन्ती ने देखा कि यह तो साधारण भिक्षा नहीं, राजकुमारी द्रोपदी है तब तो उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे हाथ पकड़कर युधिष्ठिर के पास ले गई और बोलीं- बेटा मैने आज तक कोई बात झूठ नहीं कही है। अब तुम कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे द्रोपदी को तो अधर्म ना हो और मेरी बात झूठी भी ना हो। युधिष्ठिर ने कुछ देर विचार किया और अर्जुन को कहा भाई तुमने मर्यादा के अनुसार द्रोपदी को प्राप्त किया है। अब तुम विधि पूर्वक अग्रि प्रज्वलित करके उसका पाणिग्रहण करो।अर्जुन ने कहा आप मुझे अधर्म का भागी मत बनाइये। सत्पुरूषों ने कभी ऐसा आचरण नहीं किया। पहले आप, तब भीमसेन फिर मैं और फिर नकुल व सहदेव विवाह करें। इसलिए इस राजकुमारी का विवाह तो आप ही के साथ होना चाहिए।सभी पाण्डव अर्जुन का वचन सुनकर द्रोपदी की तरफ देखने लगे। उस समय द्रोपदी भी उन्ही लोगों की ओर देख रही थी। द्रोपदी के सौन्दर्य, माधुर्य और सौशील्य से मुग्ध होकर पांचो भाई एक-दूसरे को देखने लगे। तब युधिष्ठिर ने सभी भाइयों के मन भाव जानकर और महर्षि व्यास के वचनों को स्मरण कर कहा द्रोपदी हम सभी भाइयों की पत्नी होगी।उसके बाद श्री कृष्ण और बलराम उनके निवास स्थान पर पहुंचे। धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों को स्पर्श किया अपने नाम बताये। उसके बाद पांडवों ने उनका बड़े अच्छे से स्वागत सत्कार किया। उसके बाद थोड़ी देर बाद उन्होने कहा अब हमें चलना चाहिए नहीं तो लोगों को पता चला जाएगा। 

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द्रोपदी ने कर्ण को देखा तो बोल पड़ी...

गंधर्व से कल्माषपद की और वशिष्ठ की महिमा सुनने के बाद सभी पांडवों ने धौम्य ऋषि को अपना पुरोहित बनाया और अपनी माता को लेकर द्रुपद श्रेष्ठ के देश उनके पुत्री द्रोपदी के विवाह को देखने चल पड़े। पांडव द्रुपद देश की ओर चलने लगे। रास्ते में उन्होने वेद व्यास के दर्शन किए। जब पाण्डवों ने देखा कि द्रुपद नगर निकट आ गया है तो उन्होने एक कुम्हार के घर डेरा डाल दिया और ब्राम्हा्रणों के समान भिक्षावृति करके अपना जीवन बिताने लगे। राजा द्रुपद के मन में भी इस बात की बड़ी लालसा था कि वे अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन से किया। इसलिए अर्जुन को पहचानने के लिए उन्होंने एक ऐसा धनुष बनवाया जो कोई ओर ना तोड़ पाए। इसके अलावा उन्होंने एक ऐसा यंत्र टंगवा दिया जो चक्कर काटता रहे। द्रुपद ने यह घोषणा कर दी कि जो धनुष पर डोरी चढ़ाकर लक्ष्य का भेदन करेगा, वही मेरी पुत्री को प्राप्त करेगा। 

युधिष्ठिर आदि राजा द्रुपद आदि उनका वैभव देखते हुए वहां आए और उन्हीं के पास बैठ गए।

धृष्टद्युम्र ने द्रोपदी के पास खड़े होकर मधुर वाणी में कहा यह धनुष है, यह और आप लोगों के सामने लक्ष्य है। आप लोग घूमते हुए यन्त्र में अधिक से अधिक पांच बाणों में  जो भी लक्ष्य भेदन  कर देगा द्रोपदी का विवाह उसी से होगा। ध्रष्टद्युम्र की बात सुनकर दुर्योधन, शाल्व, शल्य राजा और राजकुमारों ने अपने बल के अनुसार धनुष चढ़ाने की कोशिश की लेकिन ऐसा झटका लगा कि वे बेहोश हो गए और इसके कारण उनका उत्साह टूट गया। इन सभी को निराश देखकर धर्नुधर शिरोमणी कर्ण उठा। 

उसने धनुष को उठाया और देखते ही देखते डोरी चढ़ा दी। उसे लक्ष्य वेधन करता देख द्रोपदी जोर से बोली मैं सुत पुत्र से विवाह नहीं करूंगी। कर्ण ने ईष्र्या भरी हंसी के साथ सूर्य को देखा और धनुष को नीचे रख दिया।उसके बाद शिशुपाल ने भी यही प्रयत्न और जरासन्ध ने  भी प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाए। उसी समय अर्जुन ने चित्त में संकल्प उठा कि मैं लक्ष्यवेधन करूं ।
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क्षमा करना सीखें वसिष्ठ से

महाभारत के इस दृष्टांत से हमें सीख मिलती है कि क्षमा करने वाला हमेशा श्रेष्ठ होता है इसलिए क्षमा करना और कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य रखने की सीख महर्षि वसिष्ठ से मिलती है।मुनि वसिष्ठ की नंदिनी से विश्वामित्र के संघर्ष के बाद अब गंधर्वराज अर्जुन से कहते हैं हे!अर्जुन राजा इक्ष्वाकु के कुल में एक कल्माषपाद नाम का एक राजा हुआ। राजा एक दिन शिकार खेलने वन में गया। वापस आते समय वह एक ऐसे रास्ते से लौट रहा था। जिस रास्ते पर से एक समय में केवल एक ही आदमी गुजर सकता था। उसी रास्ते पर मुनि वसिष्ठ के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शक्तिमुनि उसे आते दिखाई दिये। राजा ने कहा तुम हट जाओ मेरा रास्ता छोड़ दो तो कल्माषपाद ने कहा आप मेरे लिए मार्ग छोड़े दोनों में विवाद हुआ तो शक्तिमुनि ने इसे राजा का अन्याय समझकर उसे राक्षस बनने का शाप दे दिया। उसने कहा तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है ऐसा कहकर वह शक्तिमुनि को ही खा जाता है।

शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण का कारण भी उसकी राक्षसीवृति ही थी। इसके अलावा विश्वामित्र ने किंकर नाम के राक्षस को भी कल्माषपाद में प्रवेश करने की आज्ञा दी। जिसके कारण वह ऐसे नीच कर्म करने लगा। लेकिन इतना होने पर भी महर्षि वसिष्ठ उसे क्षमा करते रहे। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है।

वसिष्ठ बोले कौन है तो आवाज आई मैं आपकह पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती हूं। आपका पौत्र मेरे गर्भ में है वह बारह वर्षो से गर्भ में वेदपाठ कर रहा है वे यह सुनकर सोचने लगे कि अच्छी बात है मेरे वंश की परम्परा नहीं टूटी। तभी वन में उनकी भेट कल्माषपाद से हुई वह वसिष्ठ मुनि को खाने के लिए दौड़ा। उन्होने अपनी पुत्रवधु से कहा बेटी डरो मत यह राक्षस नहीं यह कल्माषपाद है। इतना कहकर हाथ मे जल लेकर अभिमंत्रित कर उन्होने उस पर छिड़क दिया और कल्माषपाद शाप से मुक्त हो गया। वसिष्ठ ने उसे आज्ञा दी की तुम अब कभी किसी ब्राम्हण का अपमान मत करना। महर्षि वसिष्ठ राजा के साथ अयोध्या आए और उसे पुत्रवान बनाया।
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