सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat 14




ऐसा करने से मिलता है तीर्थ यात्रा का सौ गुना फल

युधिष्ठिर नारदजी द्वारा तीर्थों की महिमा सुनने के बाद अपने भाइयों से सलाह की और उन सभी की सहमति से वे धौम्य ऋषि के यहां पहुंचे। युधिष्ठिर ने अपने पुरोहित धौम्य ऋषि से कहा अर्जुन तपस्या के लिए वन गया है। अर्जुन हम सब में सर्वश्रेष्ठ है। आप कृपा करके कोई ऐसा पवित्र और रमणीय वन बताइए। जहां सत्पुरूष रहते हों।तब धौम्य ऋषि ने कहा तीर्थो का महात्म्य सुनने से पुण्य मिलता है और उसके बाद उनकी यात्रा करने से सौ गुना फल की प्राप्ति होती है। उसके बाद धौम्य ऋषि ने कहा कि मैं आपको पूर्व दिशा के तीर्थों का महत्व व वर्णन सुनाता हूं। नैमिषारणाय नाम का एक तीर्थ हैं जहां गोमती नदी के तट पर अनेक देवता व ऋषि यज्ञ करते हैं। गया का नाम तो आपने सुना ही होगा।

गया के संबंध में प्राचीन विद्वानों का मत है कि मनुष्य का पुत्र अगर उसका पिण्डदान गया के किनारे करे तो उसका बहुत जल्दी उद्धार होता है। गया क्षेत्र में एक महानदी नाम का और गयशिर पाम का तीर्थ स्थान है। वहां एक अक्षयवट नाम का महावट है।जहां पिण्डदान करने पर अक्षय फल मिलता है। विश्वामित्र की तपस्या का स्थान कौशिकी नदी हैं जहां उन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। भागीरथी नदी भी पूर्व दिशा में ही बहती हैभागीरथी नदी जिसके तट पर राजा भागीरथ ने कई यज्ञ किए व दक्षिणाएं दी। प्रयाग भी पूर्व दिशा में ही है। अगस्त्य मुनि का आश्रम व अन्य कई ऋषियों की तपोभूमि भी पूर्व ही है।

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कलियुग में यहां आने वाले के खत्म हो जाएंगे सारे...

तीर्थराज पुष्कर के बारे में बताने के बाद पुलस्त्यजी ने प्रयाग की महिमा का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि प्रयाग में ब्रह्मा आदि देवता दिशाएं, दिक्पाल, लोकपाल साध्यपितर, सन्तकुमार आदि परमर्षि, अप्सरा, सुपर्ण आदि सभी रहते हैं। ब्रह्मा के साथ स्वयं विष्णुभगवान भी वहां निवास करते हैं। प्रयाग क्षेत्र में अग्रि के तीन कुंड है। उनके बीचों-बीच से श्री गंगाजी प्रवाहित होती है। तीर्थशिरोमणि सूर्यपुत्री यमुनाजी भी आती है। वहीं यमुनाजी का गंगाजी के साथ संगम हो रहा है।

गंगा और यमुना के बीच के भाग को पृथ्वी की जांघ समझना चाहिए। यहां बड़े-बड़े राजा यज्ञ करते हैं इसी से यह भूमि पवित्र हुई है। ऋषिलोग कहते हैं कि प्रयाग के नाम को याद करने से और वहंा कि मिट्टी स्पर्श करने से सारे पाप मुक्त हो जाते हैं। यह देवताओं की यज्ञ भूमि यहां स्नान करने से अश्चमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है। चार प्रकार कीविद्याओं के अध्ययन का व सच बोलने का जो पुण्य होता है। वहां देवनदी गंगा भी है इसीलिए यहां आने वाले के सैकड़ों पाप नष्ट हो जाते हैं। सतयुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते हैं। त्रेता में पुष्कर और द्वापर में कुरूक्षेत्र की विशेष महिमा है। कलियुग में तो एकमात्र गंगा का ही सबसे ज्यादा महत्व है। गंगाजी नामोच्चारण मात्र से पापों को धो बहाती है। दर्शनमात्र से क ल्याण करती है। स्नान और पान से सात पिढिय़ां तक पवित्र हो जाती है। जब तक मनुष्य की हड्डिया गंगा के जल में रहती हैं तो उसे स्वर्ग जैसा सम्मन मिलता है। इसीलिए कलियुग मे इस तीर्थ का विशेष महत्व रहेगा।क्रमश:
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इस तीर्थ की यात्रा से मिलते हैं सारे सुख

पुष्कर तीर्थ बहुत ही प्रसिद्ध है। पुष्कर में करोड़ो तीर्थ निवास करते हैं। दित्य, वसु, रूद्र, साध्य, गंधर्व हमेशा वहां उपस्थित रहते हैं। जो उदार पुरुष मन से कभी पुष्कर का स्मरण करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस तीर्थ में जो स्नान करता है और देवता-पितरो को संतुष्ट करता है। उसे अश्चमेघ यज्ञ से भी दस गुना फल प्राप्त होता है।

जो पुष्करारण्य  तीर्थ में एक ब्राह्मण को भी भोजन कराता है। उसे इस लोक और परलोक में सुख मिलता है। मनुष्य जिस तरह का भोजन करता है उसी वस्तु के द्वारा श्रद्धा के साथ ब्राह्मण को भोजन करावे। किसी से भी ईष्र्या न करे। जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र परम पवित्र पुष्कर तीर्थ में स्नान करते हैं, उन्हें  जन्म नहीं ग्रहण करना पड़ता।

कार्तिक के महीने में पुष्कर तीर्थ का स्नान करने पर अक्षय लोकों की प्राप्ति होती है। जो सायं और सुबह दोनों हाथ जोड़कर पुष्कर क्षेत्र में आए हुए तीर्थों का स्मरण करता है, उसे सारे तीर्थों का पुण्य प्राप्त होता है। पुष्कर तीर्थ में स्नान करने मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं।  जैसे देवताओं में विष्णु प्रधान है वैसे ही तीर्थों में पुष्कर प्रधान है।
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किसे मिलता है तीर्थ यात्रा का फल?

नल दमयंती की कथा पुरी होने के बाद युधिष्ठिर ने बृहदश्व ऋषि वहां से चले गए। उनके जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ऋषि-मुनियों से अर्जुन की तपस्या के संबंध में बातचीत करने लगे। तब सभी पांडव भाइयों ने अर्जुन के बिना बड़ी वियोग व उदासी से दिन बिताए। वे दुख और शोक में डूबते रहते थे। उन्हीं दिनों नारद मुनि उनके पास आए। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा महाराज सभी लोग आपकी पूजा करते हैं।

जब आप हम पर प्रसन्न है तो हम लोग ऐसा अनुभव कर रहे हैं कि आपकी कृपा से हमारे सारे काम सिद्ध हो गए। आप कृपा करके हम लोगों को एक बात बताएं कि जो तीर्थ यात्रा का सेवन करता हुआ पृथ्वी की प्रदक्षिणा करता है उसे क्या फल मिलता है? तब उन्होंने कहा एक बार तुम्हारे पितामह भीष्म हरिद्वार के ऋषि और पितरों क ी तृप्ति के लिए कोई अनुष्ठान कर रहे थे। वहीं एक दिन पुलस्त्य ऋषि आए। भीष्म ने उनकी सेवा पूजा करके यही प्रश्र किया जो तुम मुझसे कर रहे हो। पुलत्स्य मुनि ने जो कुछ कहा वही मैं तुमको सुनाता हूं।

पुलस्त्य ऋषि ने भी भीष्म से कहा जिसके हाथ दान लेने व बुरे कर्म करने से अपवित्र होते हैं। जिसके पैर नियमपूर्वक पृथ्वी पर पड़ते हैं।  जीव जन्तुओं का अपने नीचे दबाकर दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए चलते हैं। जिसका मन दूसरों क अनिष्ट चिंतन से बचता हो। जिसकी विद्या, मारण, मोहन, उच्चाटन से युक्त व विवाद पैदा करने वाली ना हो, जिसकी तपस्या अंत:करण की शुद्धि और जनकल्याण के लिए हो,  जिसकी कृति और कीर्ति निष्कलंक हो, उसे तीर्थों का वह फल जिसका शास्त्रों में वर्णन मिलता है प्राप्त होता है।
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कोई भी कार्य शुरू करें तो ये जरूर ध्यान रखें...

हमारे यहंा हर कार्य को शुरू करने के पहले भगवान को याद किया जाता है। कहा जाता है कि भगवान को याद करके यदि कोई काम शुरू किया जाए तो उस काम में किसी तरह की कोई रूकावट नहीं आती। यहां भागवत में जो प्रसंग चल रहा है उसमें भगवान कृष्ण की पूजा सर्वप्रथम की गई।

धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ के योग्य समय आने पर यज्ञ के कर्मों में निपुण वेदवादी ब्राह्मणों को ऋत्विज, आचार्य आदि के रूप में वरण किया।

पाण्डवों ने द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और विदुर आदि को भी बुलवाया। राजसूय यज्ञ का दर्शन करने के लिए देश के सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सब के सब वहां आए।राजा युधिष्ठिर का प्रताप चारों ओर फैल गया। उन्हें चक्रवर्ती सम्राट मान लिया गया। भगवान की ऐसी कृपा रही कि कहीं कोई विरोध भी नहीं कर सका। भगवान को आगे करके जब कोई कार्य किया जाए उसमें कोई समस्या नहीं आती, जो आती है उसे भगवान खुद निपटा देते हैं।

अब सब लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा अग्रपूजा होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा-यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं।

उस समय धर्मराज युधिष्ठिर की यज्ञसभा में जितने सत्पुरुष उपस्थित थे सब ने एक स्वर से बहुत ठीक-बहुत ठीक, कहकर सहदेव की बात का समर्थन किया।यह विचार पांचों पाण्डवों के मन में था लेकिन अपने बड़े-बूढ़ों के प्रभाव को भी वे कम नहीं करना चाहते थे। ऐसे में सबसे छोटे भाई की सलाह काम आई। सलाह हमेशा लेते रहना चाहिए। कभी-कभी छोटों की सलाह मानकर काम करना भी श्रेष्ठ होता है। जैसे ही सहदेव ने श्रीकृष्ण का नाम लिया लोग हर्षित हो उठे।

क्रमश:
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इस तरह हुआ अमर प्रेम कहानी का सुखद अंत

अब दमयंती की आशंका और बढ़ गई और दृढ़ होने लगी कि यही राजा नल है। उसने दासी से कहा तुम फिर बाहुक के पास जाओ और उसके पास बिना कुछ बोले खड़ी रहो। उसकी चेष्टाओं पर ध्यान दो। अब आग मांगे तो मत देना जल मांगे तो देर कर देना। उसका एक-एक चरित्र मुझे आकर बताओ।

फिर वह मनुष्यों और देवताओं से उसमें बहुत से चरित्र देखकर वह दमयंती के पास आई और बोली बाहुक ने हर तरह से अग्रि, जल व थल पर विजय प्राप्त कर ली है। मैंने आज तक ऐसा पुरुष नहीं देखा। तब दमयंती को विश्वास हो जाता है कि वह बाहुक ही राजा नल है।

अब दमयंती ने सारी बात अपनी माता को बताकर कहा कि अब मैं स्वयं उस बाहुक की परीक्षा लेना चाहती हूं। इसलिए आप बाहुक को मेरे महल में आने की आज्ञा दीजिए। आपकी इच्छा हो तो पिताजी को बता दीजिए। रानी ने अपने पति भीमक से अनुमति ली और बाहुक को रानीवास बुलवाने की आज्ञा दी। दमयंती ने बाहुक के सामने फिर सारी बात दोहराई। तब दमयंती के अंाखों से आंसू टपकते देखकर नल से रहा नहीं गया। नल ने कहा मैंने तुम्हे जानबुझकर नहीं छोड़ा। नहीं जूआ खेला यह सब कलियुग की करतूत है। दमयंती ने कहा कि मैं आपके चरणों को स्पर्श करके कहती हूं कि मैंने कभी मन से पर पुरुष का चिंतन नहीं किया हो तो मेरे प्राणों का नाश हो जाए।

ऐसा अद्भुत दृश्य देखकर राजा नल ने अपना संदेह छोड़ दिया और कार्कोटक नाग के दिए वस्त्र को अपने ऊपर ओढ़कर उसका स्मरण करके वे फिर असली रूप में आ गए। दोनों ने सबका आर्शीवाद लिया दमयंती के मायके से उन्हें खुब धन देकर विदा किया गया।  उसके बाद नल व दमयंती अपने राज्य में पहुंचे। राजा नल ने पुष्कर से फिर जूआं खेलने को कहा तो वह खुशी-खुशी तैयार हो गया और नल ने जूए की हर बाजी को जीत लिया। इस तरह नल व दमयंती को फिर से अपना राज्य व धन प्राप्त हो गया।

क्रमश:
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रानी ने राजा को पहचानने के लिए क्या किया?
                     

 कलियुग ने नल का पीछा छोड़ दिया था। लेकिन अभी उनका रूप नहीं बदला था। उन्होंने अपने रथ को जोर से हांका और शाम होते-होते वे विदर्भ देश में पहुंचे। राजा भीमक के पास समाचार भेजा गया। उन्होंने ऋतुपर्ण को अपने यहां बुला लिया ऋतुपर्ण के रथ की गुंज से दिशाएं गुंज उठी। दमयंती रथ की घरघराहट से समझ गई कि जरूर इसको हांकने वाले मेरे पति देव हैं।  यदि आज वे मेरे पास नहीं आएंगे तो मैं आग में कुद जाऊंगी।

उसके बाद अयोध्या नरेश ऋतुपर्ण जब राजा भीमक के दरबार में पहुंचे तो उनका बहुत आदर सत्कार हुआ। भीमक को इस बात का बिल्कुल पता नहीं था कि वे स्वयंवर का निमंत्रण पाकर यहां आए हैं।  जब ऋतुपर्ण ने स्वयंवर की कोई तैयारी नहीं देखी तो उन्होंने स्वयंवर की बात दबा दी और कहा मैं तो सिर्फ आपको प्रणाम करने चला आया। भीमक सोचने लगे कि सौ-योजन से अधिक दूर कोई प्रणाम कहने तो नहीं आ सकता। लेकिन वे यह सोच छोड़कर भीमक के सत्कार में लग गए। बाहुक वाष्र्णेय के साथ अश्वशाला में ठहरकर घोड़ो की सेवा में लग गया। दमयंती आकुल हो गई कि रथ कि ध्वनि तो सुनाई दे रही है पर कहीं भी

मेरे पति के दर्शन नहीं हो रहे। हो ना हो वाष्र्णेय ने उनसे रथ विद्या सीख ली होगी। तब उसने अपनी दासी से कहा हे दासी तु जा और इस बात का पता लगा कि यह कुरूप पुरुष कौन है? संभव है कि यही हमारे पतिदेव हों। मैंने ब्राह्मणों द्वारा जो संदेश भेजा था। वही उसे बतलाना और उसका उत्तर मुझसे कहना।  तब दासी ने बाहुक से जाकर पूछा राजा नल कहा है क्या तुम उन्हें जानते हो या तुम्हारा सारथि वाष्र्णेय जानता है? बाहुक ने कहा मुझे उसके संबंध में कुछ भी मालुम नहीं है सिर्फ इतना ही पता है कि  इस समय नल का रूप बदल गया है। वे छिपकर रहते हैं। उन्हें या तो दमयंती या स्वयं वे ही पहचान सकते हैं या उनकी पत्नी दमयंती क्योंकि वे अपने गुप्त चिन्हों को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करना चाहते हैं।

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इसलिए रानी ने फिर से रचाया स्वयंवर....

ब्राह्मण की बात सुनकर दमयंती की आंखों में आंसु भर आए। उसने अपनी माता को सारी बात बताई। तब उन्होंने कहा आप यह बात अब अपने पिताजी से ना कहे। मैं सुदैव ब्राह्मण को इस काम के लिए नियुक्त करती हूं। तब दमयंती ने सुदेव से कहा- ब्राह्मण देवता आप जल्दी से जल्दी अयोध्या नगरी पहुंचे। राजा ऋतुपर्ण से यह बात कहिए कि दमयंती ने फिर से स्वेच्छानुसार पति का चुनाव करना चाहती है।

बड़े-बड़े राजा और राजकुमार जा रहे हैं। स्वयंवर की तिथि कल ही है। इसलिए यदि आप पहुंच सकें तो वहां जाइए। नल के जीने अथवा मरने का किसी को पता नहीं है, इसलिए वह इसीलिए कल वे सूर्योदय पूर्व ही पति वरण करेंगी। दमयंती की बात सुनकर सुदेव अयोध्या गए और उन्होंने राजा ऋतुपर्ण से सब बातें कह दी। सुदेव की बातें सुनाकर बाहुक को बुलाया और कहा बाहुक कल दमयंती का स्वयंवर है और हमें जल्दी से जल्दी वहां पहुंचना है। यदि तुम मुझे जल्दी वहंा पहुंच जाना संभव समझो तभी मैं वहां जाऊंगा।

ऋतुपर्ण की बात सुनकर नल का कलेजा फटने लगा। सोचा कि दमयंती ने दुखी और अचेत होकर ही ऐसा किया होगा। संभव है वह ऐसा करना चाहती हो। नल ने शीघ्रगामी रथ में चार श्रेष्ठ घोड़े जोत लिए। राजा ऋतुपर्ण रथ पर सवार हो गए। रास्ते में ऋतुपर्ण ने उसे पासें पर वशीकरण की विद्या सिखाई क्योंकि उसे घोड़ों की विद्या सीखने का लालच था। जिस समय राजा नल ने यह विद्या सीखी उसी समय कलियुग राजा नल के शरीर से बाहर आ गया।                                      

क्रमश:
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...तब खत्म हुई रानी की खोज

अपने पिता के घर एक दिन विश्राम करके दमयंती अपनी माता से कहा कि मां मैं आपसे सच कहती हूं। यदि आप मुझे जीवित रखना चाहती हैं तो आप मेरे पतिदेव को ढूंढवा दीजिए। रानी ने उनकी बात सुनकर नल को ढूंढवाने के लिए ब्राह्मणों को नियुक्त किया। ब्राह्मणों से दमयंती ने कहा आप लोग जहां भी जाए वहां भीड़ में जाकर यह कहे कि मेरे प्यारे छलिया, तुम मेरी साड़ी में से आधी फाड़कर अपनी दासी को उसी अवस्था में आधी साड़ी में आपका इंतजार कर रही है। मेरी दशा का वर्णन कर दीजिएगा और ऐसी बात कहिएगा।

जिससे वे प्रसन्न हो और मुझ पर कृपा करे। बहुत दिनों के बाद एक ब्राह्मण वापस आया। उसने दमयंती से कहा मैंने राजा ऋतुपर्ण के पास जाकर भरी सभा में आपकी बात दोहराई तो किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया। जब मैं चलने लगा तब बाहुक नाम के सारथि ने मुझे एकान्त में बुलाया उसके हाथ छोटे व शरीर कुरूप है। वह लम्बी सांस लेकर रोता हुआ मुझसे कहने लगा।

उच्च कुल की स्त्रियों के पति उन्हें छोड़ भी देते हैं तो भी वे अपने शील की रक्षा करती हैं। त्याग करने वाला पुरुष विपत्ति के कारण दुखी और अचेत हो रहा था। इसीलिए उस पर क्रोध करना उचित नहीं है। लेकिन वह उस समय बहुत परेशान था।जब वह अपनी प्राणरक्षा  के लिए जीविका चाह रहा था। तब पक्षी उसके वस्त्र लेकर उड़ गए। जब ब्राह्मण ने यह बात बताई तो दमयंती समझ गई कि वे राजा नल ही हैं।

क्रमश:
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राजमाता ने कैसे पहचाना रानी को?

तब उन्होंने सुदेव नाम के एक  ब्राह्मण को नल-दमयंती का पता लगाने के लिए चेदिनरेश के राज्य में भेजा। उसने एक दिन राज महल में दमयंती को देख लिया। उस समय राजा के महल में पुण्याहवाचन हो रहा था। दमयंती- सुनन्दा एक साथ बैठकर ही वह कार्यक्रम देख रही थी। सुदेव ब्राह्मण ने दमयंती को देखकर सोचा कि वास्तव में यही भीमक नन्दिनी है। मैंने इसका जैसा रूप पहले देखा था। वैसा अब भी देख रहा हूं। बड़ा अच्छा हुआ, इसे देख लेने से मेरी पुरी यात्रा सफल हो गई। सुदेव दमयंती के पास गया और उससे बोला दमयंती मैं तुम्हारे भाई का मित्र सुदेव हूं। मैं तुम्हारी भाई की आज्ञा से तुम्हे ढ़ूढने यहां आया हूं। दमयंती ने ब्राह्मण को पहचान लिया। वह सबका कुशल-मंगल पूछने लगी और पूछते ही पूछते रो पड़ी।

सुनन्दा दमयंती को रोता देख घबरा गई। उसने अपनी माता के पास जाकर उन्हें सारी बात बताई। राज माता तुरंत अपने महल से बाहर निकल कर आयी। ब्राह्मण के पास जाकर पूछने लगी महाराज ये किसकी पत्नी है? किसकी पुत्री है? अपने घर वालों से कैसे बिछुड़ गए? तब सुदेव ने उनका पूरा परिचय उसे दिया। सुनन्दा ने अपने हाथों से दमयंती का ललाट धो दिया। जिससे उसकी भौहों के बीच का लाल चिन्ह चन्द्रमा के समान प्रकट हो गया। उसके ललाट का वह तिल देखकर सुनन्दा व राजमाता दोनों ही रो पड़े। राजमाता ने कहा मैंने इस तिल को देखकर पहचान लिया कि तुम मेरी बहन की पुत्री हो। उसके बाद दमयंती अपने पिता के घर चली गई।

क्रमश:
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...और राजा बन गया सारथी

राजा नल वहां से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण की राजधानी अयोध्या में पहुंच गए। यह कहकर कर्कोटक ने दो दिव्य वस्त्र दिए और वह अंर्तध्यान हो गया। राजा नल वहां से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण की राजधानी अयोध्या में पहुंच गया। उन्होंने वहां राजदरबार में निवेदन किया कि मेरा नाम बाहुक है। मैं घोड़ों को हांकने और उन्हें तरह-तरह की चालें सिखाने का काम करता हूं।

घोड़ो की विद्या मेरे जैसा निपुण इस समय पृथ्वी पर कोई नहीं है। रसोई बनाने में भी में बहुत चतुर हूं, हस्तकौशल के सभी काम और दूसरे कठिन काम करने की चेष्ठा करूंगा।

आप मेरी आजीविका निश्चित करके मुझे रख लीजिए। उसकी सारी बात सुनकर राजा ऋतुपर्ण ने कहा बाहुक मैं सारा काम तुम्हें सौंपता हूं। लेकिन मैं शीघ्रगामी सवारी को विशेष पसंद करता हूं। तुम्हे हर महीने सोने की दस हजार मुहरें मिला करेंगी। लेकिन तुम कुछ ऐसा करो कि मेरे घोड़ों कि चाल तेज हो जाए। इसके अलावा तुम्हारे साथ वाष्र्णेय और जीवल हमेशा उपस्थित रहेंगें।

राजा नल रोज दमयन्ती को याद करते और दुखी होते कि दमयन्ती भूख-प्यास से परेशान ना जाने किस स्थिति में होगी। इसी तरह राजा नल ने दमयंती के बारे में सोचते हुए कई दिन बिता दिए। ऋतुपर्ण के पास रहते हुए उन्हें कोई ना पहचान सका। जब राजा विदर्भ को यह समाचार मिला कि मेरे दामाद नल और पुत्री राज पाठ विहिन होकर वन में चले गए हैं।

क्रमश:
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....और अर्जुन ने जीत लिया स्वयंवर

पाण्डव बहुत नाराज होते, उन लोगों ने हमको जलाने की कोशिश की, आज आदेश करें, तो कुन्ती बोलती हैं कि न तो हमारे पास सेना है, न समर्थन है। पंाच तुम हो और ये कौरव, पितामह भीष्म और गुरूदेव  द्रोण उनके साथ हैं उन्होंने हमें जलाकर मारने की कोशिश की थी। कुंती को तो आशा थी कि आएगा एक दिन कभी, मां के कहने थे। पांचों पाण्डव पहुंच गए।

अर्जुन ने धनुष उठाया एक तीर साधा और सीधा निशाने पर। जय-जयकार हो गई। द्रौपदी चली माला पहनाने, तो राजा लोग खड़े हो गए। दुर्योधन, कर्ण, जरासंध, शिशुपाल ने कहा यह कैसे हो सकता है। पहले तो इसका परिचय दो और दूसरा क्षत्रियों के स्वयंवर में ब्राह्मण को अनुमति नहीं मिल सकती। मार डालो इस ब्राह्मण को और लोग मारने के लिए चले। बलराम भी खड़े हो गए।

बलराम को यह नहीं पता कि किस ओर से लडऩा है पर कहीं भी लड़ाई होती तो वे एकदम से उत्साह में आ जाते थे। बलराम एकदम से खड़े हुए तो कृष्ण ने कहा-दाऊ बैठ जाओ। दाऊ ने कहा- यहां हाहाकार हो रहा है। कृष्ण ने कहा-पांडव जीवित हैं मैं बहुत प्रसन्न हूं। वो अर्जुन है सब निपटा लेगा चुपचाप बैठो दाऊ। कृष्ण मन ही मन प्रसन्न थे कि इस मछली को विश्व में दो ही लोग भेद सकते थे या तो कर्ण या अर्जुन। कर्ण बाहर हो चुका है तो यह शत-प्रतिशत अर्जुन है।अर्जुन आज एक युद्ध लडऩे जा रहे थे, कृष्ण सामने थे दोनों का वही वार्तालाप मन ही मन हो चुका था जो भविष्य में गीता के रूप में आएगा।

क्रमश:
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जैसे ही राजा ने कहा दश, सांप ने डंस लिया...

जिस समय राजा नल दमयन्ती को सोती छोड़कर आगे बढ़े, उस समय वन में आग लग रही थी। तभी नल को आवाज आई। राजा नल शीघ्र दौड़ो। मुझे बचाओ। नागराज कुंडली बांधकर पड़ा हुआ था। उसने नल से कहा- राजन मैं कर्कोटक नाम का सर्प हूं। मैंने नारद मुनि को धोखा दिया था।

उन्होंने शाप दिया कि जब तक राजा नल तुम्हें न उठावें, तब तक यहीं पड़े रहना। उनके उठाने पर तू शाप से छूट जाएगा। उनके शाप के कारण मैं यहां से एक भी कदम आगे नहीं बढ़ सकता। तुम इस शाप से मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हे हित की बात बताऊंगा और तुम्हारा मित्र बन जाऊंगा। मेरे भार से डरो मत मैं अभी हल्का हो जाता हूं वह अंगूठे के बराबर हो गया।

नल उसे उठाकर दावानल (जंगल की आग) से बाहर ले आए। कर्कोटक ने कहा तुम अभी मुझे जमीन पर मत डालो। कुछ कदम गिनकर चलो। राजा नल ने ज्यों ही पृथ्वी पर दसवां कदम चला और उन्होंने कहा दश (दस) तो ही कर्कोटक ने उन्हें डस लिया। उसका नियम था कि जब कोई बोले दश तभी वह डंसता था।

आश्चर्य चकित नल से उसने कहा महाराज तुम्हे कोई पहचान ना सके इसलिए मैंने डस के तुम्हारा रूप बदल दिया है। कलियुग ने तुम्हे बहुत दुख दिया है। अब मेरे विष से वह तुम्हारे शरीर में बहुत दुखी रहेगा। तुमने मेरी रक्षा की है। अब तुम्हे हिंसक पशु-पक्षी या शत्रु का कोई भय नहीं रहेगा। अब तुम पर किसी भी विष का प्रभाव नहीं होगा और युद्ध में हमेशा तुम्हारी जीत होगी।

क्रमश:
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रानी ने मुश्किल समय में भी रख दी शर्त क्योंकि...

दमयंती रोती हुई एक अशोक के वृक्ष के पास पहुंचकर बोली तू मेरा शोक मिटा दे। शोक रहित अशोक तू मेरा शोक मिटा दे। क्या कहीं तूने राजा नल को शोकरहित देखा है। तू अपने शोकनाशक नाम को सार्थक कर।दमयन्ती ने अशोक की परिक्रमा की और वह आगे बढ़ी। उसके बाद आगे बड़ी तो बहुत दूर निकल गई। वहां उसने देखा कि हाथी घोड़ों और रथों के साथ व्यापारियों का एक झुंड आगे बढ़ रहा है। व्यापारियों के प्रधान से बातचीत करके दमयंती को जब यह पता चला कि वे सभी चेदीदेश जा रहे हैं तो वह भी उनके साथ हो गई। कई दिनों तक चलने के बाद वे व्यापारी एक भयंकर वन में पहुंचे। वहा एक बहुत सुंदर सरोवर था। लंबी यात्रा के कारण वे लोग थक चुके थे। इसलिए उन लोगों ने वहीं पड़ाव डाल दिया। रात के समय जंगली हाथियों का झुंड आया। आवाज सुनकर दमयंती की नींद टूट गई। वह इस मांसाहार के दृश्य को देखकर समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे? वे सभी व्यापारी मर गए वो वहां से भाग निकली और दमयंती भागकर उन ब्राह्मणों के पास पहुंची और उनके साथ चलने लगी शाम के समय वह राजा सुबाहु के यहां जा पहुंची। वहां उसे सब बावली समझ रहे थे। उसे बच्चे परेशान कर रहे थे।

उस समय राज माता महल के बाहर खिड़की से देख रही थी उन्होंने अपनी दासी से कहा देखो तो वह स्त्री बहुत दुखी मालुम होती है। तुम जाओ और मेरे पास ले आओ। दासी दमयंती को रानी के पास ले गई। रानी ने दमयंती स पूछा तुम्हे डर नहीं लगता ऐसे घुमते हुए। तब दमयंती ने बोला में एक पतिव्रता स्त्री हूं। मैं हूं तो कुलीन पर दासी का काम करती हूं। तब रानी ने बोला ठीक है तुम महल में ही रह जाओ। तब दमयंती कहती है कि मैं यहां रह तो जाऊंगी पर मेरी तीन शर्त है मैं झूठा नहीं खाऊंगी, पैर नहीं धोऊंगी और परपुरुष से बात नहीं करुंगी। रानी ने कहा ठीक है हमें आपकी शर्ते मंजुर है।

क्रमश:
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पाण्डवों को कृष्ण क्यों पसंद करते थे?

उद्धवजी ने कहा-भगवन देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिए। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्यकर्तव्य है। पाण्डवों के यज्ञ और शरणागतों की रक्षा दोनों कामों के लिए जरासन्ध को जीतना आवश्यक है।

प्रभो! जरासन्ध का वध स्वयं ही बहुत से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं। इसलिए पहले आप वहीं पधारिए।

उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिए आज्ञा दी।

हस्तिनापुर जाना -भगवान् को सूचना मिली और भगवान बहुत दुखी हो गए। सूचना यह थी कि कौरवों ने छल से पाण्डवों को लाक्ष्यागृह में भेजा और पांडव और कुंती जलकर मर गए। यह सूचना जब कृष्णजी को मिली तो कृष्णजी बहुत चिंतित हो गए, लेकिन उनको विश्वास नहीं हुआ। कुछ उदास भी हुए।

पाण्डव भगवान् को क्यों पसंद थे समझ लें। कर्म करने से अनुभव होता है। पवित्र कर्म से धर्ममय अनुभव होते हैं।

श्रीकृष्ण संकेत देते हैं कि अध्यात्म शक्ति की जागृति, प्रत्यक् चेतना छिगम् अर्थात् अन्तर्गुरु ईश्वर की चेतन सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव। साधन (कर्म) के तीन स्तर होते हैं। प्रथम स्तर पर साधक अपने कत्र्तत्याभिमान से युक्त रहता है। (मैं साधन कर रहा हूं, कर्म कर रहा हूं, सेवा कर रहा हूं आदि) दूसरे स्तर पर ईश्वर की शरण में रहता है और अपनी प्रगति को ईश्वर की अनुकम्पा के अधीन अनुभव करता है। तीसरे स्तर पर ब्रम्हभाव में रत रहता हुआ जीवन सफल करता है।
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