सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat 16 - 17






इसीलिए कहते हैं विनाशकाले विपरीत बुद्धि

द्रोणाचार्य की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा गुरुजी का कहना ठीक है। तुम पाण्डवों को लौटा लाओ। यदि वे लौटकर न आवें तो उनका शस्त्र, सेवक और रथ साथ में दे दो ताकि पाण्डव वन में सुखी रहे। यह कहकर वे एकान्त में चले गए। उन्हें चिन्ता सताने लगी उनकी सांसे चलने लगी। उसी समय संजय ने कहा आपने पाण्डवों का राजपाठ छिन लिया अब आप शोक क्यों मना रहे हैं? संजय ने धृतराष्ट्र से कहा पांडवों से वैर करके भी भला किसी को सुख मिल सकता है। अब यह निश्चित है कि कुल का नाश होगा ही, निरीह प्रजा भी न बचेगी। 

सभी ने आपके पुत्रों को बहुत रोका पर नहीं रोक पाए। विनाशकाल समीप आ जाने पर बुद्धि खराब हो जाती है। अन्याय भी न्याय के समान दिखने लगती है। वह बात दिल में बैठ जाती है कि मनुष्य अनर्थ को स्वार्थ और स्वार्थ को अनर्थ देखने लगता है तथा मर मिटता है। काल डंडा मारकर किसी का सिर नहीं तोड़ता। उसका बल इतना ही है कि वह बुद्धि को विपरित करके भले को बुरा व बुरे को भला दिखलाने लगता है। धृतराष्ट्र ने कहा मैं भी तो यही कहता हूं। 

द्रोपदी की दृष्टी से सारी पृथ्वी भस्म हो सकती है। हमारे पुत्रों में तो रख ही क्या है? उस समय धर्मचारिणी द्र्रोपदी को सभा में अपमानित होते देख सभी कुरुवंश की स्त्रियां गांधारी के पास आकर करुणकुंदन करने लगी। ब्राहण हमारे विरोधी हो गए। वे शाम को हवन नहीं करते हैं। मुझे तो पहले ही विदुर ने कहा था कि द्रोपदी के अपमान के कारण ही भरतवंश का नाश होगा। बहुत समझा बुझाकर विदुर ने हमारे कल्याण के लिए अंत में यह सम्मति दी कि आप सबके भले के लिए पाण्डवों से संधि कर लीजिए। संजय विदुर की बात धर्मसम्मत तो थी लेकिन मैंने पुत्र के मोह में पड़कर उसकी प्रसन्नता के लिए उनकी इस बात की उपेक्षा कर दी।

क्रमश:

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पाण्डवों के जाने के बाद नगर में क्या-क्या अपशकुन...

विदुरजी धृतराष्ट्र से बोले- पाण्डव को वन में जाते देख हस्तिनापुर के नागरिक बहुत दु:खी हो रहे हैं और कुरुकुल के वृद्धों को तथा पाण्डवों के साथ अन्याय करने वालों को धिक्कार रहे हैं। उधर पाण्डवों के वन में जाते ही आकाश में बिना बादल के ही बिजली चमकी, पृथ्वी थरथरा गई, बिना अमावस्या के ही सूर्यग्रहण लग गया। नगर की दाहिनी ओर उल्कापात हुआ। इन सभी घटनाओं का एक ही अर्थ है भरतवंश का विनाश। 

जब विदुरजी यह बात धृतराष्ट्र से कह रहे थे तभी वहां नारदजी अनेक ऋषियों के साथ आ गए और बोले- दुर्योधन के अपराध के फलस्वरूप आज से चौदहवें वर्ष भीमसेन और अर्जुन के हाथों कुरुवंश का विनाश हो जाएगा। यह सुनकर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने द्रोणाचार्य को ही अपना प्रधान आश्रय समझकर पाण्डवों का सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। तब द्रोणाचार्य ने कहा कि पाण्डव देवताओं की संतान हैं उन्हें कोई मार नहीं सकता। यदि तुम अपनी भलाई चाहते हैं तो बड़े-बड़े यज्ञ करो, ब्राह्मणों को दान दो। सभी सुख भोग लो क्योंकि चौदहवें वर्ष तुम्हें बड़े कष्ट सहना होंगे।

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वनवास जाते समय द्रौपदी ने क्या कहा?

राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों द्वारा पाण्डवों पर किए गए अत्याचार को देखकर परेशान हो गए और उन्होंने तुरंत विदुरजी को बुलाया और उनके पूछा कि पाण्डव किस वन में जा रहे हैं और वे इस समय क्या कर रहे हैं यह बताओ।विदुरजी ने धृतराष्ट्र को बताया कि छल से राज्य छिन जाने के बाद भी युधिष्ठिर आपके पुत्रों पर दया भाव रखते हैं। वे अपने नेत्रों को बंद किए हुए हैं क्योंकि कहीं उनकी आंखों के सामने पड़कर कौरव भस्म न हो जाएं। भीमसेन अपने बांह फैला-फैलाकर दिखाते जा रहे हैं कि समय आने पर मैं अपने बाहुबल का जौहर दिखाकर कौरव को समाप्त कर दूंगा। 

अर्जुन धूल उड़ाते हुए चल रहे हैं। वे बता रहे हैं कि युद्ध के समय शत्रुओं पर कैसी बाण वर्षा करेंगे। सहदेव ने अपने मुंह पर धूल मल रखी है। वे ये कहना चाह रहे हैं कि कोई मेरा मुंह ने देखे। नकुल ने तो अपने सारे शरीर पर ही धूल लगा ली है। उनका अभिप्राय है कि मेरा रूप देखकर कोई मुझ पर मोहित न हो। द्रौपदी अपने केश खोलकर रोते-रोते जा रही है। 

द्रौपदी ने कहा है कि जिनके कारण मेरी यह दुर्दशा हुई है, उनकी स्त्रियां भी आज से चौदहवे वर्ष अपने स्वजनों की मृत्यु से दु:खी होकर इसी प्रकार हस्तिनापुर में प्रवेश करेंगी। और इनसे आगे पुरोहित धौम्य चल रहे हैं।

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जुएं में हारकर क्या हुआ पाण्डवों के साथ ?

जब पाण्डव वन जाने लगे तो दुर्योधन हंस कर उन्हें चिढ़ाने लगे। तब भीम ने अपनी प्रतिज्ञा को फिर दोहराया। अर्जुन ने भी भीम की प्रतिज्ञा का समर्थन किया। इस तरह पाण्डव और भी प्रतिज्ञाएं करके राजा धृतराष्ट्र के पास गए और वन जाने के आज्ञा मांगने लगे। यह देखकर वहां उपस्थित भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विदुर आदि महात्माओं ने शर्म से सिर झुका लिए। तब विदुरजी ने युधिष्ठिर से कहा कि आपकी माता कुंती वृद्धा है इसलिए उनका वन में जाना उचित नहीं है। वे मेरी माता के समान है। मैं उनकी देख-भाल करुंगा। तब युधिष्ठिर ने विदुर की बात मान ली और माता कुंती को विदुरजी के संरक्षण में छोड़ दिया। 

तब युधिष्ठिर सभी से आज्ञा लेकर वन जान के लिए चल पड़े। जब द्रोपदी कुंती से जाने के लिए आज्ञा लेने गई तो कुंती को बहुत दु:ख हुआ। तब कुंती ने द्रोपदी को बहुत से आशीर्वाद दिए। पाण्डवों को वन में जाते देख कुंती विलाप कनरे लगी तो विदुरजी उन्हें समझाकर अपने घर ले आए। यह सब देखकर कौरव कुल की महिलाएं द्यूत सभा में द्रौपदी को ले जाना, उन्हें केश पकड़कर घसीटना आदि अत्याचार देखकर दुर्योधन आदि की निंदा करने लगी।
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...और भीम ने की भरी सभा में प्रतिज्ञा

जूए में हारकर पाण्डवों ने कृष्णमृगचर्म धारण किया और वन में जाने के लिए तैयार हो गए। उनकी ऐसी स्थिति देखकर दु:शासन कहने लगा कि धन्य है धन्य है। अब महाराज दुर्योधन का शासन प्रारंभ हो गया। पाण्डव मुश्किल में पड़ गए। राजा द्रुपद तो बड़े बुद्धिमान हैं। फिर उन्होंने अपनी कन्या की शादी पांडवों से क्यों कर दी? अरे द्रोपदी ये पांडव गरीबी के साथ वन में अपना जीवन बितायेंगे, तू अब उनके प्रति प्रेम कैसे रखेगी? अब किसी मनचाहे पुरुष से विवाह क्यों नहीं कर लेती। दु:शासन की बात सुनकर भीम को बहुत गुस्सा आया। भीम ने उसे ललकारा और कहा तूने हमें अपने बाहुबल से नहीं जीता। तू अपने छल पर शेखी कैसे बघार सकता है। 

ऐसी बात केवल पापी ही कह सकते हैं। तू अभी मेरे घावों को कुरेद कर मुझे परेशान कर ले। मैं मेरा दर्द रणभूमि में तेरे हाथ पैर काटकर तुझे याद दिलाऊंगा। इस समय भीमसेन मर्गचरम धारण किए खड़े थे। धर्म के अनुसार वे दु:शासन जैसे शत्रु का भी नाश नहीं कर सकते हैं। भीमसेन के ऐसा कहने पर पर दु:शासन ने भीम को अपशब्द कहे और भरी सभा में उन्हें बेइज्जत किया। तब भीम गुस्से से भर जाता है और कहता है यदि यह भीम कुन्ती की कोख से जन्मा है तो रणभूमि में यह तेरा कलेजा चीरकर खुन पीएगा। अगर मैं ऐसा ना करूं तो मुझे पुण्यलोक ना मिले। मैं सब के सामने ही धृतराष्ट्र के सारे पुत्रों का सहार करके शांति प्राप्त करूंगा।

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दोस्त वही जो समय पर सावधान कर दे

कहते हैं सच्चे दोस्त बहुत मुश्किल से मिलते हैं और जब मिलते हैं तो कई बार हम उन्हें पहचान नहीं पाते हैं। सच्चे दोस्त की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वह आपको कोई मुसीबत आने से पहले या आपके दुश्मनों से उनकी निती से पहले ही सावधान कर दे।महाभारत में अब तक आपने पढ़ा..पाण्डवों का दुबारा जूआ खेलने के लिए हस्तिनापुर आना अब आगे.... 

 जब पांडव वापस आए तो शकुनि ने कहा हमारे वृद्ध महाराज ने आपकी धनराशि आपके पास ही छोड़ दी है। इससे हमें प्रसन्नता हुई। अब हम एक दांव और लगाना चाहते हैं। अगर हम जूए में हार जाएं तो मृगचर्म धारण करके बारह वर्ष तक वन में रहेंगे और तेहरवे वर्ष में किसी वन में अज्ञात रूप से रहेंगे। यदि उस समय भी कोई पहचान ले तो बारह वर्ष तक वन में रहेंगे और यदि आप लोग हार गए तो आपको भी यही करना होगा। शकुनि की बात सुनकर सभी सभासद् खिन्न हो गए। 

वे कहने लगे अंधे धृतराष्ट्र तुम जूए के कारण आने वाले भय को देख रहे हो या नहीं लेकिन इनके मित्र तो धित्कारने योग्य हैं क्योंकि वे इन्हें समय पर सावधान नहीं कर रहे हैं। सभा में बैठे लोगों की यह बात युधिष्ठिर सुन रहे थे। वे ये भी समझ रहे थे कि इस जूए के दुष्परिणाम क्या होगा। फिर भी उन्होंने यह सोचकर की पांडवों का विनाशकाल करीब है, जूआ खेलना स्वीकार कर लिया। जूए में हारकर पाण्डवों ने कृष्णमृगचर्म धारण किया।
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बिना विचारे काम करना नुकसान पहुंचा सकता है

पाण्डवों को धृतराष्ट्र सारा धन लौटा देते हैं। उसके बाद दुर्योधन और दु:शासन के समझाने पर वे पाडण्वों को दुबारा बुलाने को तैयार हो जाते हैं अब आगे... जब धृतराष्ट्र ने दुबारा पाण्डवो को जूआ खेलने बुलाने का प्रस्ताव रखा तो सभा में उपस्थित सभी वरिष्ठजनों ने कहा जूआ मत खेलो आप लोग शांति रखो लेकिन धृतराष्ट्र मजबूर थे। उन्होंने सभी लोगों की सलाह को ठुकरा दिया। उसने पाण्डवों को जूआ खेलने के लिए बुलवाया। यह सब देख सुनकर धर्मपरायण गांधारी बहुत शोक में थी। उन्होंने अपने पति धृतराष्ट्र से कहा स्वामी दुर्योधन जन्म लेते ही गीदड़ के समान रोने लगा था। इसलिए उसी समय विदुर जी ने कहा कि इस पुत्र का त्याग कर दो। मुझे तो यही लगता है कि यह कुरुवंश का नाश कर देगा। आप इसका पक्ष लेकर मुश्किल में पड़ सकते हैं आप बंधे हुए पूल को मत तोडि़ए। शांति, धर्म और मन्त्रियों की सलाह से ही काम कीजिए। इस तरह बिना विचार किए काम करना आपको नुकसान पहुंचा सकता है। तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि गांधारी अगर कुल का नाश होता है तो होने दो। मैं उसे नहीं रोक सकता हूं। अब तो दुर्योधन और दु:शासन जो चाहे वही होना चाहिए। पाण्डवों को लौट आने दो। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से प्रतिकामी पाण्डवों के पास पहुंचा। उसने उनसे जाकर कहा आप फिर चलिए और जूआ खेलिए। तब धर्मराज और पांचों भाई कौरवों के बुलाने पर पुन: हस्तिनापुर चले आते हैं। क्रमश:
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पांडव अपना धन वापस ले जाने लगे तो क्या किया...

धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को अपनी धनराशि ले जाने की अनुमति दे दी,यह सुनते ही दु:शासन अपने बड़े भाई दुर्योधन के पास गए और बड़े दुख के साथ कहा भैया हमने अपना सारा पांडवों से मुश्किल से जीता धन खो दिया। सब धन हमारे दुश्मनों के हाथ में चला गया। 

अभी कुछ सोच-विचार करना हो तो कर लो। यह सुनते ही दुर्योधन ने कर्ण और शकुनि ने आपस में सलाह की और सभी एक साथ धृतराष्ट्र के पास गए। उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा हे राजन हम इस समय पांडवों से धन पाकर ही राजाओं को खुश कर लेते तो हमारा क्या नुकसान था। देखिए डसने के लिए तैयार सांपो को छोडऩा बेवकूफी है। इस समय पांडव भी सांपों के समान ही है। 

वे जिस समय रथ में बैठकर शस्त्रों पर सुसज्जित होकर हम पर हमला कर देंगे तो हम में से किसी को नहीं छोड़ेंगे। अब वे सेना एकत्रित करने में लग गए हैं। द्रोपदी की भरी सभा में जो बेइज्जती हुई है। उसे पांडव भूला नहीं पाएंगे। इसलिए हम वनवास की शर्त पर पांडव के साथ फिर से जूआ खेलेंगे। इस तरह वो हमारे वश में हो जाएंगे। जूए में जो भी हार जाए, हम या वे बारह वर्ष तक मृग चर्म पहनकर वन में रहे। किसी को पता ना चले की वे पांडव हैं। यदि पता चल जाए कि ये कौरव या पांडव हैं तो फिर बारह वर्षो तक वन में रहें। इस शर्त पर आप जूआ खेलने की आज्ञा दें। पासे डालने की विद्या में हमारे मामा शकुनि निपूण है। अगर पांडव यह शर्त पूरी कर लेंगे तो भी इतने समय में बहुत से राजाओं को अपना दोस्त बना लेंगें। धृतराष्ट्र ने हामी भर दी। उन्होंने कहा बेटा अगर पांडव दूर चले गए हों तब भी उन्हें दूत भेजकर बुलवा लो।
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...और दु:शासन द्रोपदी के वस्त्र खींचने लगा

द्रोपदी ने सभा में आकर कहा इन सभी ने धर्मराज को धोखे से बुलाकर उनका सर्वस्व जीत लिया। उन्होंने पहले अपने भाइयों को हराकर मुझे दावं पर लगाया। अब उन्हें मुझे दावं पर लगाकर हारने का हक था या नहीं ये यहां बैठे कुरुवंशी बताएंगे। तब धृतराष्ट्र के पुत्र विकर्ण ने कहा जूआ, शराब, स्त्री ये सब आसक्ति है। इनमें संलग्र होने पर राजा युधिष्ठिर ने आकर जूए की आसक्ति के कारण द्रोपदी को दावं लगाना पड़ा। 

द्रोपदी केवल युधिष्ठिर की ही पत्नी नहीं पांचो पांडवों का उस पर बराबर अधिकार है। इसलिए मेरे विचार में यह बात ध्यान देने योग्य है कि युधिष्ठिर ने अपने को हारने के बाद द्रोपदी को दावं पर लगा दिया। इन सब बातों से मैं निश्चय पर पहुंचता हूं कि द्रोपदी जूए में नहीं हारी गयी। द्रोपदी के बार-बार पूछने पर भी किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर बाद कर्ण बोला विकर्ण तू दुर्योधन का छोटा भाई है। तुझे धर्म का ज्ञान नहीं है। 

युधिष्ठिर ने अपना सर्वस्व दावं पर लगा दिया और द्रोपदी भी उसके सर्वस्व में है। अब यह सब देखकर दु:शासन बोला विकर्ण तू बालक होकर बूढों सी बात मत कर। इसकी बात पर कोई ध्यान मत दो। पांडवों और द्रोपदी के सारे वस्त्र उतार लो।जिस समय दु:शासन द्रोपदी के वस्त्र खींचने लगा तब द्रोपदी मन ही मन प्रार्थना करने लगी। श्रीकृष्ण का ध्यान करके वह मुंह ढककर रोने लगी। तब उसकी पुकार सुनकर कृष्ण वहां पहुंचे और दु:शासन जब द्रोपदी के चीर खींचने लगा तो वस्त्रों का ढेर लग गए उन्होंने द्रोपदी की रक्षा की।
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क्या कहा द्रोपदी ने जब दु:शासन उसे घसीटता हुआ सभा...

जब प्रतिकामी द्रोपदी को बिना लिए सभा में पहुंचता है तो दुर्योधन क्रोधित होकर बोला कि जाओ प्रतिकामी तुम जाकर द्रोपदी को यही लेआओ। उसके इस प्रश्र का उत्तर उसे यहीं दे दिया जाएगा। प्रतिकामी द्रोपदी के क्रोध से डरता था। उसने दुर्योधन की बात टालकर सभा में बैठक सभी लोगों से फिर पूछा कि मैं द्रोपदी से क्या कहूं। दुर्योधन को यह बात बुरी लगी। 

उसने प्रतिकामी को घुर कर देखा और अपने छोटे भाई दु:शासन  से बोला भाई तुम जाओ और द्रोपदी को पकड़ लाओ। ये हारे हुए पाण्डव हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते हैं। बड़े भाई की आज्ञा सुनते ही दु:शासन  गुस्से में सभा से चल पड़ा। वह पाण्डवों के महल में जाकर बोला कृष्णे चल तुझे हमने जीत लिया है। अब तुम शर्माना छोड़कर हमारे साथ चलो।  जब द्रोपदी चलने के लिए तैयार नहीं हुई। तब दुशासन ने द्रोपदी के घुंघराले बाल पकड़कर ।उसे घसीटता हुआ सभा तक ले गया। दुशासन की बात सुनकर द्रोपदी दुखी हुई।उसने गुस्से में कहा अरे दुष्ट दु:शासन सभा में कई वरिष्टजन बैठे है। 

तु मेरे साथ जो व्यवहार कर रहा है कि यदि इन्द्र के साथ सारे देवता तेरी सहायता करें तो भी पाण्डवों के हाथ से तुझे छूटकारा न होगा। धर्मराज अपने धर्म पर अटल रहे। वे सुक्ष्म धर्म का मर्म जानते हैं। मुझे तो उनमें गुण ही गुण नजर आते हैं। धित्कार हे तुम जैसे क्षत्रियों पर कौरवों जिन्होंने अपने कुल की मर्यादा का नाश कर दिया। द्रोपदी जब ये बातें कह रही थी तो ऐसा लग रहा था मानो उसके  शरीर से क्रोधाग्रि धधक रही हो।

क्रमश:
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सबसे पहले द्रोपदी को लेने के लिए दुर्योधन ने...

दुर्योधन ने विदुर जी को कहा तुम यहां आओ। तुम जाकर पाण्डवों की पत्नी द्रोपदी को जल्दी ले आओ। वह अभागिन यहां आकर हमारे महल की झाड़ू निकाले। हमारे महल की दासियों के साथ रहे। तब विदुर जी ने कहा दुर्योधन तुझे पता नहीं है कि तू फांसी पर लटक रहा है और मरने वाला है। तभी तो तेरे मुंह से ऐसी बात निकल रही है। अरे तुने शेर के मुंह में हाथ डाला है। तेरे सिर पर सांप फैलाकर फुफकार रहे है। तू उनसे छेडख़ानी करके यमपुरी मत जा।

द्रोपदी कभी तुम्हारी दासी नहीं हो सकती है। दुर्योधन ने प्रतिकामी से कहा युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगाया है तुम इसी समय जाकर द्रोपदी को ले आओ। पाण्डवों से डरने की कोई बात नहीं है। प्रतिकामी दुर्योधन की आज्ञा के अनुसार द्रोपदी के पास गया। द्रोपदी से कहा महाराज युधिष्ठिर जूए में सब धन के साथ आपको भी हार गए हैं। जब दावं पर लगाने के लिए कुछ नहीं रहा तो उन्होंने आपको ही दावं पर लगा दिया। आप भी दुर्योधन की जीती हुई वस्तुओं में से है इसलिए आप मेरे साथ सभा में चलिए। तब द्रोपदी बोली जगत में धर्म सबसे बड़ी वस्तु है। मैं धर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहती। तुम सभा में जाकर धर्मावलंबियों से पूछो की मुझे क्या करना चाहिए?

क्रमश:
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क्यों युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगा दिया?

शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा अब तक तुम बहुत सा धन हार चुके हो। अगर तुम्हारे पास कुछ बचा हो तो दांव पर रखो। युधिष्ठिर ने कहा शकुनि मेरे पास बहुत धन है। उसे मै जानता हूं। तुम पूछने वाले कौन? मेरे पास बहुत धन है। मैं सब का सब दावं पर लगाता हूं। शकुनि ने पासा फेंकते हुए कहा यह लो जीत लिया मैंने। युधिष्ठिर ने कहा ब्राह्मण को दान की गई सम्पति को छोड़कर मैं सारी सम्पति दावं पर लगाता हूं। 

शकुनि ने कहा लो यह दावं भी मेरा रहा। अब युधिष्ठिर ने कहा मेरे जिस भाई के कन्धे सिंह के समान है। जिनका रंग श्याम है और रूप बहुत सुन्दर है मैं अपने नकुल को दावं पर लगाता हूं। शकुनि ने कहा लो यह भी मेरा रहा। उसके बाद युधिष्ठिर ने सहदेव को दावं पर लगाया। शकुनि ने सहदेव को भी जीत लिया। युधिष्ठिर उसके बाद अर्जुन और भीम को भी दावं पर लगा दिया। युधिष्ठिर ने कहा कि मैं सबका प्यारा हूं। 

मैं अपने आप को दांव लगता हूं। यदि मैं हार जाऊंगा तो तुम्हारा काम करूंगा। शकुनि ने कहा यह मारा और पासे फेंककर अपनी जीत घोषित कर दी। तुमने अपने को जूए में हराकर बड़ा अन्याय है क्योंकि अपने पास कोई चीज बाकि हो तब तक अपने आप को दावं पर लगाना ठीक नहीं। अभी तो तुम्हारे पास द्रोपदी है उसे दांव पर लगाकर अबकि बार दावं जीत लो। तब युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगा दिया।
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इसीलिए कहते हैं लालच बुरी बला है

युधिष्ठिर और शकुनि के बीच जूए का खेल शुरु होता है। पहला दावं शकुनि मामा जीतते हैं तभी वहां विदुरजी आ जाते हैं अब आगे...वे धृतराष्ट्र से कहते हैं ये पापी दुर्योधन जब अपनी माता के गर्भ से बाहर आया था। तब यह गीदड़ के समान चिल्लाने लगा था। यही कुरुवंश के नाश के कारण बनेगा। यह आपके घर में ही रहता है। आप अपने मोह के कारण उसकी गलतियों को देख नहीं पा रहे हैं। मैं आपको नीति की बात बताता हूं। जब शराबी शराब के नशे में रहता है तो उसे यह भी नहीं ध्यान रहता है कि वह कितनी पी रहा है।

नशा होने पर वह पानी में डूब मरता है या धरती पर गिर जाता है। वैसे ही दुर्योधन जूए के नशे में द्युत हो रहा है। पाण्डवों के साथ इस तरह छल करने का फल अच्छा नहीं होगा। आप अर्जुन को आज्ञा दें ताकि वह दुर्योधन को दंड दे सके। इसे दंड देने पर कुरूवंशी हजारों सालों तक सुखी रह सकता है। आपको किसी तरह का दुख ना हो उसका यही तरीका है। शास्त्रों में सपष्ट रूप से कहा गया है कि कुल की रक्षा के लिए एक पुरुष को, गांव की रक्षा के लिए कुल को, देश की रक्षा के लिए एक गांव को और आत्मा की रक्षा के लिए देश भी छोड़ दें। 

सर्वज्ञ महर्षि शुक्राचार्य ने जम्भ दैत्य के परित्याग के समय असुरों को एक बहुत अच्छी कहानी सुनाई। उसे में आपको सुनाता हूं। एक जंगल में बहुत से पक्षी रहा करते थे। वे सब के सब सोना उगलते थे। उस देश का राजा बहुत लालची और मुर्ख था। उसने लालच के कारण बहुत सा सोना पाने के लिए उन पक्षियों को मरवा डाला, जबकि वे अपने घोसलों में बैठे हुए थे। इस पाप का फल क्या हुआ? यही कि उसे ना तो सोना नहीं मिला, आगे का रास्ता भी बंद हो गया मैं सपष्ट रूप से कह देता हूं कि पांडवों का धन पाने के लालच में आप उनके साथ धोखा ना करें।

क्रमश:
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... और तब जूए का खेल शुरू हुआ

दूसरे दिन सुबह धृतराष्ट्र और सभी पांडव नई सभा को देखने गए। जूए में खिलाडिय़ों ने वहां सबका स्वागत किया। पांडवों ने सभा में पहुंचकर सभी से मिले। इसके बाद सभी लोग अपनी उम्र के हिसाब से अपने-अपने आसनों पर बैठे। मामा शकुनि ने सभी के सामने प्रस्ताव प्रस्तुत किया। उसने कहा धर्मराज यह सभा आपका ही इंतजार कर रही थी। अब पासे डालकर खेल शुरू करना चाहिए। युधिष्ठिर ने कहा राजन् जूआ खेलना पाप है। इसमें न तो वीरता के प्रदर्शन का अवसर है और न तो इसकी कोई निश्चित नीति है। संसार का कोई भी व्यक्ति जुआंरियों की तारिफ नहीं करता है।आप जूए के लिए क्यों उतावले हो रहे हैं? 

आपको बुरे रास्ते पर चलाकर हमें हराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। शकुनि ने कहा युधिष्ठिर देखो बलवान और शस्त्र चलाने वाले पुरुष कमजोर और शस्त्रहीन पर प्रहार करते हैं। जो पासे फेंकने में चतुर है। वह अनजान को तो आसानी से उस खेल में जीत लेगा। युधिष्ठिर ने कहा अच्छी बात है यह तो बताइये। यहां एकत्रित लोगों में से मुझे किसके साथ खेलना होगा। कौन दांव लगाएगा। कोई तैयार हो तो खेल शुरू किया जाए। दुर्योधन ने कहा दावं लगाने के लिए धन और रत्न तो मैं दूंगा। लेकिन मेरी तरफ से खेलेंगे मेरे शकुनि मामा। उसके बाद जूए का खेल शुरू हुआ। उस समय धृतराष्ट्र के साथ बहुत से राजा वहां आकर बैठ गए थे - भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य उनके मन में बहुत दुख था। 

युधिष्ठिर ने कहा कि मैं सुन्दर आभुषण और हार दाव पर रखता हूं। अब आप बताइए आप दावं पर क्या रखते हैं? दुर्योधन ने कहा कि मेरे पास बहुत सी मणियां और धन हैं। मैं उनके नाम गिनाकर घमंड नहीं दिखाना चाहता हूं। आप इस दावं को जीतिए तो। दावं लग जाने पर पासों के विशेषज्ञ शकुनि ने हाथ में पासे उठाए और बोला यह दावं मेरा रहा । उसके बाद जैसे ही उसने पासे डाले वास्तव में जीत उसकी ही हुई। युधिष्ठिर ने कहा मेरे पास तांबे और लोहे की संदूको में चार सौं खजाने बंद है। एक-एक में बहुत सारा सोना भरा है मैं सब का सब पर दावं लगाता हूं। इस तरह धीरे-धीरे जूआ बढऩे लगा। यह अन्याय विदुरजी से बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने युधिष्ठिर को समझाना शुरू किया।



क्रमश:


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क्यों चले गए युधिष्ठिर जुआ खेलने?

 राजा धृतराष्ट्र ने अपने मुख्य मंत्री विदुर को बुलवाकर कहा कि विदुर तुम मेरी आज्ञा से जाओ और युधिष्ठिर को बुलाकर ले आओ। युधिष्टिर से कहना हमने एक रत्न से जड़ी सभा बनवाई है। उन्हें कहना वे उसे अपने भाइयों के साथ आकर देखें और सब इष्ट मित्रों के साथ द्यूत क्रीड़ा करें।विदुर को यह बात न्याय के प्रतिकू ल लगी। इसलिए विदुर ने उनसे कहा कि मैं आपकी इस आज्ञा को स्वीकार नहीं कर सकता हूं।

तब धृतराष्ट्र ने कहा अगर तुम मेरी बात नहीं मानते हो तो दुर्योधन के वैर विरोध से भी मुझे कोई दुख नहीं है। धृतराष्ट्र की ऐसी बात सुनकर विदुर मजबूर हो गए। वे शीघ्रगामी रथ से इन्द्रप्रस्थ के लिए निकल पड़े। वहां जाकर उन्होंने युधिष्ठिर ने उनका यथोचित सत्कार किया। वहां पहुंचकर उन्होंने कौरवों का संदेश युधिष्ठिर को सुनाया। उनका संदेश सुनकर युधिष्ठिर ने कहा चाचाजी द्यूत खेलना तो मुझे सही नहीं लगता? तब विदुर ने कहा कि मैं यह जानता हूं कि जुआ खेलना सारे अनर्थो की जड़ है। ऐसा कौन भला आदमी होगा जो जुआ खेलना पसंद करेगा। 

मैंने इसे रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन मुझे सफलता नहीं मिली। आप को जो अच्छा लगे आप वही करें। युधिष्ठिर ने कहा वहा दुर्योधन, दु:शासन आदि के सिवा और भी खिलाड़ी इकठ्ठे होंगे। हमें उनके साथ जुआ खेलने के लिए बुलाया जा रहा है। तब विदुर ने कहा आप तो जानते ही हैं कि शकुनि पास फेंकने के लिए प्रसिद्ध है। युधिष्ठिर ने कहा तब तो आपका कहना ही सही है। अगर मुझे धृतराष्ट्र शकुनि के साथ जुआ खेलने नहीं बुलाते तो मैं कभी नहीं जाता। युधिष्ठिर ने इतना कहकर कहा कि कल सुबह द्रोपदी और अन्य रानियों के साथ हम पांचों भाई हस्तिनापुर चलेंगे। 

क्रमश:
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Mahabharat 15


अर्जुन ने उर्वशी को देखा तो...

देवताओं कि चले जाने पर अर्जुन वहीं रहकर देवराज इन्द्र के रथ की प्रतीक्षा कर रहे थे अब आगे... अर्जुन भगवान के चले जाने के बाद रथ की प्रतिक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि मातलि दिव्य रथ की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि सातलि दिव्य रथ लेकर वहां उपस्थित हुआ। उस रथ की उज्जवल क्रंाति से आकाश में अंधेरा मिट गया। बादल तितर बितर हो रहे थे। भीषण ध्वनि से दिशाएं प्रतिध्वनित हो रही थी। उसकी कांति दिव्य थी। रथ में तलवार, शक्ति, गदाएं, तेजस्वी, भाले, वज्र पहियोंवाली, तोपें आदि दस हजार हवा की रफ्तार से चलने वाले घोड़े थे। उस दिव्य रथ की चमक से आंखे चौंधिया जाती थी।

सोने के डण्डे में झंडा लहरा रहा था। मातलि सारथि ने अर्जुन के पास आकर प्रणाम करके कहा श्रीमान देवराज इन्द्र आपसे मिलना चाहते हैं। आप उनके रथ पर शीघ्र सवार होकर चलिए। सारथि की बात सुनकर अर्जुन के मन में बहुत प्रसन्नता हुई। शास्त्रोक्त रीति से उन्होंने देवताओं का तर्पण किया। मन्दराचल से उठकर वहां से तपस्वी ऋषि मुनियों की दृष्टी से ओझल हो गए। अर्जुन ने देखा कि वहां सूर्य का, चंद्र का अथवा अग्रि का प्रकाश नहीं था। अपनी पुण्य प्राप्त कांति से चमकते रहते है आर पृथ्वी से तारों के रूप में दीपक के समान दिखते है। वे पुण्यात्मा पुरुषों का मार्ग लांघकर आगे निकल गया था। इसके बाद राजर्षियों के पुण्यवान लोक पड़े उसके बाद उन्हें इन्द्र की पुरी अमरावती के दर्शन हुए। स्वर्ग का दृश्य बहुत ही सुन्दर था। अमरावती में देवताओं के सहस्त्रों इच्छानुसार चलने वाले विमान खड़े थे।

सभी महर्षि अर्जुन की पूजा में लग गए। वे अर्जुन का स्वागत करने के लिए ही बैठे हुए थे। उनके साथ अप्सराएं थी उन्होंने सभी ने अर्जुन उचित सेवा व सत्कार किया। एक दिन अनुकूल अवसर पाकर देवराज इन्द्र ने अर्जुन से कहा अब तुम चित्रसेन गंधर्व से नाच-गाना सीख लो। अब अर्जुन चित्रसेन से नाच गाना सीखने लगे। यह सब करते हुए अर्जुन को अपनी माता का याद आ गई। एक दिन की बात है इन्द्र ने देखा कि अर्जुन उर्वशी की ओर देख रहा है। उन्होंने चित्रसेन को एकान्त में बुलाकर कहा कि तुम उर्वशी को मेरा संदेश दो कि वह अर्जुन के पास जाए। 

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अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ जब...

अर्जुन ने भील की बात ना सुनते हुए उस शूकर पर तीर चला दिया। शिवजी ने भी उसके ऊपर तीर चलाया। दोनों के तीर शूकर के ऊपर जाकर टकराए और वह शूकर दानव के रूप में प्रकट होकर मर गया। अब अर्जुन ने भील की ओर देखा। उन्होने कहा-तू कौन है इस वन में अकेला क्यों घूम रहा है? यह शूकर मेरा तिरस्कार करने के लिए यहां आया था, मैंने पहले ही इसका विचार कर लिया था। फिर तूने इसका वध क्यों किया? अब मैं तुझे जीता नहीं छोड़ूंगा। भील ने कहा इस शूकर पर मैंने तुमसे पहले प्रहार किया। मेरा भी विचार पहले का था। यह मेरा निशाना था। मैंने ही इसे मारा है तुम तनिक ठहर जाओ। मैं बाण चलाता हूं। शक्ति हो तो सहो। नहीं तो तुम्ही मुझ पर बाण चलाओ। भील की बात सुनकर अर्जुन क्रोध से आगबबूला हो गए। वे भील पर बाणों की वर्षा करने लगे।

अर्जुन के बाण जैसे ही भील के पास आते, वह उन्हें पकड़ लेता। भीलवेषधारी शंकर हंसकर कहते कि मार खूब मार जरा सी भी कमी ना करे। अर्जुन ने बाणों की झड़ी लगा दी। भील एक बाल भी बांका न हुआ। यह देखकर अर्जुन के आश्चर्य की सीमा ना रही। अर्जुन ने धनुष की नोंक से मारना शुरू किया। भील ने धनुष भी छीन लिया। अब घुसे की बारी आयी। 

भील ने बदले में जो घूसा मारा उससे अर्जुन को दोनों भुजाओं में दबाकर पिण्डी कर दिया वे हिलने-चलने में भी असर्मथ हो गए। दम घुटने लगा। थोड़ी देर बाद अर्जुन को होश आया। उन्होंने मिट्टी की एक वेदी बनायी। उस पर भगवान शंकर की स्थापना की ओर से शरणागत होकर उनकी पूजा करने लगे। अर्जुन को बड़ा आश्चर्य जो पुष्प उन्होंने शिवजी की मूर्ति पर चढ़ाया है वह उस भील के सिर पर है।
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कैसे मिले युद्ध के लिए अर्जुन को शस्त्र?

जन्मेजय ने पूछा अर्जुन किस प्रकार दिव्य अस्त्र प्राप्त किए?

वैशम्पायनजी ने कहा जन्मेजय अर्जुन हिमालय लांघकर एक बड़े कंटीले जंगल में जा पहुंचे। उसे देखकर अर्जुन के मन में प्रसन्नता हुई। वे उसी जंगल में रहकर आनंद से तपस्या करने लगे। पहले महीने में उन्होंने तीन-तीन दिन पर पेड़ों से गिरे सुखे पत्ते खाए। दूसरे महीने में पंद्रह-पंद्रह दिन में। चौथे महीने में बांह उठाकर पैर के अंगूठे की नोक के बल पर बिना किसी आधार के खड़े हो गए। केवल हवा पीकर तपस्या करने लगे। अर्जुन के तेज से दिशाएं धुमिल होने लगी। भगवान शंकर ने उनसे कहा मैं आज अर्जुन की इच्छा पूरी करूंगा। भगवान शंकर ने भील का रूप ग्रहण किया। भील का रूप धरकर वे अर्जुन के पास आए। बहुत से भूत-प्रेत भी उनके साथ भील के वेष में उनके साथ आए। 

भगवान शंकर जब अर्जुन के पास आए तो उन्होंने देखा कि  शूकर का वेष धारण कर तपस्वी अर्जुन को मार डालने की घात देख रहा है। अर्जुन ने भी शूकर को देख लिया।  उन्होंने उसके ऊपर गांडिव को टंकारते हुए कहा कि तु मुझ निरअपराध को मारना चाहता है। मैं तुझे अभी यमराज के हवाले करता हूं। ज्यो ही उन्होंने बाण छोडऩा चाहा, भील के वेष में आए शिवजी ने उन्हें रोका और कहा कि मैं पहले से ही इसे मारने का निश्चय कर चुका हूं। इसलिए तुम इसे मत मारो। 

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किससे डरते थे युधिष्ठिर?

पाण्डवों ने आगे बढ़कर वेदव्यासजी का स्वागत किया। उन्होंने व्यासजी को आसन पर बैठाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की। वेदव्यास जी ने युधिष्ठिर से कहा कि प्रिय युधिष्ठिर- मैं तुम्हारे मन की सब बात जानता हूं। इसीलिए  इस समय तुम्हारे  पास आया हूं।  तुम्हारे मन में भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण का  जो भय है उसका मैं रीति से विनाश करूंगा। तुम मेरा बतलाया हुआ उपाय करो। तुम्हारे मन से सारा दुख अपने आप मिट जाएगा। 

यह कहकर वेदव्यास युधिष्ठिर को एकांत में ले गए और  बोले युधिष्ठिर तुम मेरे शिष्य हो, इसलिए मैं तुम्हे यह मूर्तिमान सिद्धि के समान प्रतिस्मृति नाम की विद्या सिखा देता हूं। तुम यह विद्या अर्जुन को सिखा देना, इसके बल से वह तुम्हारा राज्य शत्रुओं के हाथ से छीन लेगा। अर्जुन  तपस्या तथा पराक्रम के द्वारा देवताओं के दर्शन की योग्यता रखता है। इसे कोई जीत नहीं सकता। 

इसलिए तुम इसको अस्त्रविद्या प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर, देवराज इन्द्र, वरूण, कुबेर और धर्मराज के पास भेजो। यह उनसे अस्त्र प्राप्त करके बड़ा पराक्रम करेगा। अब तुम लोगों को किसी दूसरे वन में जाना चाहिए क्योंकि किसी तपस्वी का लंबे समय तक एक स्थान पर रहना दुखदायी होता है। ऐसा कहकर वेदव्यास वहां से चले गए। युधिष्ठिर व्यासजी के उपदेश अनुसार मन्त्र का  जप करने लगे। उनके मन में बहुत खुशी हुई।

क्रमश:

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....क्योंकि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है


द्रोपदी ने युधिष्ठिर से कहा आपमें और आपके महाबली भाइयों में प्रजापालन करने योग्य सभी गुण हैं। आप लोग दुख: भोगने योग्य नहीं है। फिर भी आपको यह कष्ट सहना पड़ रहा है। आपके भाई राज्य के समय तो धर्म पर प्रेम रखते ही थे। इस दीन-हीन दशा में भी धर्म से बढ़कर किसी से प्रेम नहीं करते। ये धर्म को अपने प्राणों से भी श्रेष्ठ मानते हैं। यह बात ब्राह्मण, देवता और गुरु सभी जानते हैं कि आपका राज्य धर्म के लिए भीमसेन , अर्जुन, नकुल, सहदेव और मुझे भी त्याग सकते हैं।मैंने अपने गुरुजनों से सुना है कि यदि कोई अपने धर्म की रक्षा करें तो वह अपने रक्षक की रक्षा करता है। आप जब पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट हो गए थे। उस समय भी आपने छोटे-छोटे राजाओं का अपमान नहीं किया। 

आपमें सम्राट बनने का अभिमान बिल्कुल नहीं था। आपने साधु, सन्यासी और गृहस्थों की सारी आवश्यकताएं पूर्ण की थी। लेकिन आपकी बुद्धि ऐसी उल्टी हो गई कि आपने राज्य, धन, भाई और यहां तक की मुझे भी दावं पर लगा दिया। आपकी इस आपत्ति-विपत्ति को देखकर मेरे मन में बहुत वेदना हुई। मैं बेहोश सी हो जाती हूं। ईश्वर हर व्यक्ति को अपने पूर्वजन्म के कर्मबीज के अनुसार उनके सुख-दुख, प्रिय व अप्रिय वस्तुओं की व्यवस्था करता है। जैसे कठपुतली सूत्रधार के अनुसार नाचती है, वैसे ही सारी प्रजा ईश्वर के अनुसार नाच रही है। सारे जीव कठपुतली के समान ही है सभी ईश्वर के अधीन है कोई भी स्वतंत्र नहीं है

क्रमश:
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मनुष्य पाप इसलिए करता है क्योंकि...

कृष्ण ने अर्जुन से कहा जो मेरे हैं वे तुम्हारे हैं और जो तुम्हारे हैं वे मेरे। तुम मुझसे अभिन्न हो और हम दोनों एक-दूसरे के स्वरूप हैं। अब आगे...एक दिन शाम के समय पांडव कुछ दुखी से होकर द्रोपदी के साथ बैठकर बातचीत कर रहे थे। द्रोपदी कहने लगी- सचमुच दुर्योधन बड़ा क्रूर है। उसने हम लोगों को धोखे से वनवास पर भेज दिया। उसने एक तो जूए को धोखे से जीत लिया। आप जैसे धर्मात्माओं को उसने सभी में इतना भला-बुरा कहा। जब मैं आप लोगों को ये वनवास के कष्ट झेलते हुए देखती हूं तो मुझे बहुत दुख होता है। 

आपके महल में रोज हजारो ब्राह्मण अपनी इच्छानुसार भोजन कराया जाता था। आज हम लोग फल-मूल खाकर अपनी जिंदगी बिता रहे हैं। भीमसेन अकेले ही रणभूमि में सब कौरवों को मार डालने की क्षमता रखते हैं लेकिन आप लोगों का रुख देखकर मन मसोस कर रह जाते हैं। आप सभी को इस तरह दुखी देखकर मेरा मन दुखी हो रहा है।

राजा द्रुपद की पुत्री, महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू मैं आज वन में भटक रही हूं। द्रोपदी ने फिर कहा पहले जमाने में राजा बलि ने अपने पितामाह प्रहलाद से पूछा था कि पितामह। क्षमा उत्तम है या क्रोध? आप कृपा करके मुझे ठीक-ठीक समझाइए।युधिष्ठिर ने कहा द्रोपदी मनुष्य क्रोध के वश में न होकर क्रोध को अपने वश में करना चाहिए। जिसने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली। उसका कल्याण हो जाता है। क्रोध के कारण ही मनुष्य पाप करता है। उसे इस बात का पता नहीं चलता कि क्या करना चाहिए क्या नहीं?इसलिए क्रोध से बड़ी क्षमा होती है।

क्रमश:

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क्या किया अर्जुन ने जब कृष्ण को आ गया गुस्सा?

चेदि देश के धृष्टकेतु और केकय देश के सगे संबंधियो को यह समाचार मिला कि पाण्डव बहुत दुखी होकर राजधानी से चले गए और काम्यक वन में निवास कर रहे हैं, तब वे कौरवों पर बहुत चिढ़कर गुस्से के साथ उनकी निंदा करते हुए अपना कर्तव्य निश्चय करने के लिए पाण्डवों के पास गए। 

सभी क्षत्रिय भगवान श्रीकृष्ण को अपना नेता बनाकर धर्र्मराज युधिष्ठिर के चारों और बैठ गए। भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को नमस्कार कर कहा- राजाओं अब यह निश्चित हो गया कि पृथ्वी अब दुरात्माओं का खुन पीएगी। यह धर्म है कि जो मनुष्य किसी को धोखा देकर सुख भोग कर रहा हो उसे मार डालना चाहिए। 

अब हम लोग इकट्ठे होकर कौरवों और उनके सहायकों को युद्ध में मार डालें तथा धर्मराज युधिष्ठिर का राजसिंहासन पर अभिषेक करें। अर्जुन ने देखा कि हम लोगों का तिरस्कार होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण क्रोधित हो गए है और अपना कालरूप प्रकट करना चाहते हैं। तब उन्होंने श्रीकृष्ण को शांत करने के लिए उनकी स्तुति की। अर्जुन ने कहा -श्रीकृष्ण आप सारे प्राणियों के दिल में विद्यमान अंर्तयामी आत्मा आप ही है। आप आपने अंहकार रूप भौमासुर को मारकर मणि के दोनों कुंडल इन्द्र को दिए और इन्द्र को इन्द्रत्व भी आपने ही दिया। 

आपने जगत के उद्धार के लिए ही मनुष्यों में अवतार लिया। आप ही नारायण और हरि के रूप में प्रकट हुए थे। तब भगवान कृष्ण ने कहा अर्जुन तुम एकमात्र मेरे हो । जो मेरे हैं वे तुम्हारे हैं और जो तुम्हारे हैं वे मेरे। तुम मुझसे अभिन्न हो और हम दोनों एक-दूसरे के स्वरूप हैं।
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क्यों मिला दुर्योधन को भीम के हाथों मरने का शाप?

व्यासजी की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा जो कुछ आप कह रहे है, वही तो मैं भी कहता हूं। यह बात सभी जानते हैं। आप कौरवों की उन्नति और कल्याण के लिए जो सम्मति दे रहे हैं वही विदुर, भीष्म, और द्रोणाचार्य भी देते हैं। यदि आप मेरे ऊपर अनुग्रह करते हैं। कुरुवंशियों पर दया करते हैं तो आप मेरे दुष्ट पुत्र दुर्योधन को ऐसी ही शिक्षा दें। व्यासजी ने कहा थोड़ी देर में ही महर्षि मैत्रेय यहां आ रहे है। वे पाण्डवों से मिलकर अब हम लोगों से मिलना चाहते हैं। वे ही तुम्हारे पुत्र को मेल-मिलाप का उपदेश देंगे। इस बात की सूचना मैं दे देता हूं कि वे जो कुछ कहे, बिना सोच-विचार के करना चाहिए।

अगर उनकी आज्ञा का उल्लंघन होगा तो वे क्रोध में आकर शाप भी दे सकते हैं। इतना कहकर वेदव्यास जी चले गए। महर्षि मैत्रेय के आते ही अपने पुत्रों के सहित उनकी सेवा व सत्कार करने लगे। विश्राम के बाद धृतराष्ट्र ने बड़ी विनय के साथ पूछा-भगवन आपकी यहां तक की यात्रा कैसी रही? पांचों पांडव कुशलपूर्वक तो हैं ना। तब मैत्रेयजी ने कहा राजन में तो तीर्थयात्रा करते हुए वहां संयोगवश काम्यक वन में युधिष्ठिर से भेट हो गई। वे आजकल तपोवन में रहते हैं। उनके दर्शन के लिए वहां बहुत से ऋषि-मुनि आते हैं। मैंने वहीं यह सुना कि तुम्हारे पुत्रों ने पाण्डवों को जूए में धोखे से हराकर वन भेज दिया। वहां से मैं तुम्हारे पास आया हूं क्योंकि मैं तुम पर हमेशा से ही प्रेम रखता हूं। 

उन्होंने युधिष्ठिर से इतना कहकर पीछे मुड़ते हुए दुर्योधन से कहा तुम जानते हो पाण्डव कितने वीर और शक्तिशाली है। तुम्हे उनकी शक्ति का अंदाजा नहीं है शायद इसलिए तुम ऐसी बात कर रहे हो। इसलिए तुम्हे उनके साथ मेल कर लेना चाहिए मेरी बात मान लो। गुस्से में ऐसा अनर्थ मत करो। महर्षि मैत्रेय की बात सुनकर दुर्योधन मुस्कुराकर पैर से जमीन कुरेदने लगे और अपनी जांघ पर हाथ से ताल ठोकने लगा। दुर्योधन की यह उद्दण्डता देखकर महर्षि को क्रोध आया। तब उन्होंने दुर्योधन को शाप दिया। तू मेरा तिरस्कार करता है और मेरी बात नहीं मानता। तेरे इस काम के कारण पाण्डवों से कौरवों का घोर युद्ध होगा और भीमसेन की गदा की चोट तेरी टांग तोड़ेगी।

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कौरवों ने क्यों रचा पांडवों को जंगल में ही मार...

काम्यक वन में पहुंचकर संजय ने देखा कि युधिष्ठिर अपने भाई और विदुरजी के साथ हजारों ब्राह्मणों के बीच में बैठे हुए है। संजय ने प्रणाम करके विदुरजी से कहा राजा धृतराष्ट्र आपको याद कर रहे हैं। आप हस्तिनापुर चलिए वे आप से मिलना चाहते हैं। विदुर से मिलकर धृतराष्ट्र को बहुत खुशी है।उन्होंने कहा मेरे भाई तुम्हारा कोई जाने के बाद नींद नहीं आई। मैंने तुम्हारे साथ जो व्यवहार किया है उसके लिए तुम मुझे क्षमा कर दो। इस तरह विदुर फिर से हस्तिनापुर में रहने लगे। अब आगे...जब दुर्योधन को यह समाचार मिला कि विदुरजी पाण्डवों के पास से लौट आए है,तब उसे बड़ा दुख: हुआ। उसने अपने मामा शकुनि, कर्ण, और दु:शासन को बुलाया। उसने उनसे कहा हमारे पिताजी के अंतरंग मन्त्री विदुर वन से लौटकर आ गए हैं। वे पिताजी ऐसी उल्टी सीधी बात समझाएंगें। 

उनके ऐसे करने से पहले ही आप लोग कुछ ऐसा कीजिए। दुर्योधन की बात कर्ण समझ गया। उसने कहा क्यों ना हम वनवासी पाण्डवों को मार डालने के लिए वन चले। जब तक पाण्डव लडऩे भिडऩे के लिए उत्सुक नहीं हैं। असहाय है तभी उन पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए। तभी हमारा कलह हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। सभी ने एक स्वर में कर्ण की बात को स्वीकार किया। वे सभी गुस्से में आकर रथों पर सवार होकर जंगल की ओर चल दिए। जिस समय कौरव पाण्डवों का अनिष्ट करने के लिए पुरुष है।

उसी समय महर्षि वहां पहुंचे क्योंकि उन्हें अपनी दिव्यदृष्टी से पता चल गया कि कौरव पांडवों के बारे में षडयंत्र कर रहे थे। उन्होंने वहां जाकर कौरवों को ऐसा करने से रोक दिया। उसके बाद वे धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। उनसे बोले धृतराष्ट्र मैं आपके हित की बात करता हूं। दुर्योधन ने कपट पूर्वक जूआ खेलकर पाण्डवों को हरा दिया। यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी है। यह निश्चित है कि तेरह साल के बाद कौरवों के दिए हुए कष्टो को स्मरण करके पाण्डव बड़ा उग्ररूप धारण करेंगे और बाणों की बौछार से तुम्हारे पुत्रों का ध्वंस कर डालेंगे। यह कैसी बात हैकि दुर्योधन उनसे उनका राज्य तो छीन ही चुका है अब उन्हें मारने डालना चाहता है। यदि तुम अपने पुत्रों के मन से द्वेष मिटाने की कोशिश नहीं करोगे तो मैं तुम्हे समझा रहा हूं । 

क्रमश:
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...और धृतराष्ट्र बेहोश होकर गिर पड़े

जब विदुरजी हस्तिनापुर से पाण्डव के पास काम्यक वन में चले गए। तब विदुर के जाने के बाद धृतराष्ट्र को बहुत पश्चाताप हुआ। वे विदुर का प्रभाव उसकी नीति को याद करने लगे। उन्हें लगा इससे तो पाण्डवों का फायदा हो सकता है। यह सोचकर धृतराष्ट्र व्याकुल हो गए। भरी सभा में राजाओं के सामने ही मुच्र्छित होकर गिर पड़े। 

जब होश आया तो उन्होंने उठकर संजय से कहा-संजय से कहा संजय मेरा प्यारा भाई विदुर मेरा परम हितैषी और धर्म की मुर्ति है। उसके बिना मेरा कलेजा फट रहा है। मैंने ही क्रोधवश होकर अपने निरापराध भाई को निकाल दिया है। तुम जल्दी जाकर उसे ले आओ। विदुर के बिना मैं जी नहीं बना सकता। धृतराष्ट्र की आज्ञा स्वीकार करके संजय ने काम्यक वन की यात्रा की।

काम्यक वन में पहुंचकर संजय ने देखा कि युधिष्ठिर अपने भाई और विदुरजी के साथ हजारों ब्राह्मणों के बीच में बैठे हुए है। संजय ने प्रणाम करके विदुरजी से कहा राजा धृतराष्ट्र आपकी याद कर रहे हैं। आप हस्तिनापुर चलिए वे आप से मिलना चाहते हैं। विदुर से मिलकर धृतराष्ट्र को बहुत खुशी है।उन्होंने कहा मेरे भाई तुम्हारा कोई जाने के बाद नींद नहीं आई। मैंने तुम्हारे साथ जो व्यवहार किया है उसके लिए तुम मुझे क्षमा कर दो। इस तरह विदुर फिर से हस्तिनापुर में रहने लगे। 

क्रमश:
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सुखी रहने के लिए जरूरी है,अपने हक में ही संतुष्ट...

जब पांडव वन में चले गए तब धृतराष्ट्र को बहुत चिंता होने लगी। धृतराष्ट्र ने विदुर को बुलाया और उनसे कहा - भाई विदुर तुम्हारी बुद्धि शुक्राचार्य जैसी शुद्ध है। तुम धर्म को बहुत अच्छे से समझते हो। कौरव और पांडव दोनों ही तुम्हारा सम्मान करते हैं। अब तुम कुछ ऐसा उपाय बताओं की जिससे दोनों का ही भला हो जाए। प्रजा किस प्रकार हम लोगों से प्रेम क रे। पाण्डव भी गुस्से में आकर हमें कोई हानि नहीं पहुंचाएं। ऐसा उपाय तुम बताओ। विदुरजी ने कहा अर्थ, धर्म और काम इन तीनों फल की प्राप्ति धर्म से ही होती है।राज्य की जड़ है धर्म आप धर्म की मर्यादा में रहकर अपने पुत्रों की रक्षा कीजिए। आपके पुत्रों की सलाह से आपने भरी सभा में उनका तिरस्कार किया है। उन्हें धोखे से हराकर वनवास दे दिया गया। 

यह अधर्म हुआ। इसके निवारण का एक ही उपाय है कि आपने पांडवों का जो कुछ छीन लिया है, वह सब उन्हें दे दिया जाए। राजा का यह परम धर्म है कि वह अपने हक में ही संतुष्ट रहे, दूसरे का हक ना चाहे। जो उपाय मैंने बतलाया है उससे आपका कलंक भी हट जाएगा। भाई-भाई में फूट भी नहीं पढ़ेगी और अधर्म भी नहीं होगा।यह काम आपके लिए सबसे बढ़कर है कि आप पांडवों को संतुष्ट करें और शकुनि का अपमान करें। अगर आप अपने पुत्रों की भलाई चाहते हैं तो आपको जल्दी से जल्दी यह काम कर डालना चाहिए।

यदि आप मोहवश ऐसा नहीं करेंगे तो कुरुवंश का नाश हो जाएगा। युधिष्ठिर के मन में किसी तरह का रागद्वेष नहीं है इसलिए वे धर्मपूर्वक सभी पर शासन करें। इसके लिए यह जरूरी है कि आप युधिष्ठिर को संात्वना देकर राजगद्दी पर बैठा देना चाहिए। धृतराष्ट्र ने कहा तुम्हारा में इतना सम्मान करता हूं और तुम मुझे ऐसी सलाह दे रहे हो। तुम्हारी इच्छा हो तो यहां रहो वरना चले जाओ। धृतराष्ट्र की ऐसी दशा देखकर विदुर ने कहा कि कौरवकुल का नाश निश्चित है।

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द्रोपदी के खाने के बाद ही खाली होता था चमत्कारी...चमत्कारी पात्र 

धर्मराज युधिष्ठिर और ब्राह्मणों की बीच की बातचीत अब आगे....शौनक जी ने युधिष्ठिर से कहा आप जैसे अच्छे लोग दूसरों को खिलाये बिना स्वयं खाने-पीने में संकोच करते हैं। जो लोग पापी होते हैं वे अपना पेट भरने के लिए दूसरों के हक का खा लेते हैं। जिस समय संस्कार मन के रुप में जागृत हो जाते हैं। संकल्प कामना उत्पन्न हो जाती है। अज्ञान के कारण कामनाएं, या इच्छाएं पूरी होने पर और ज्यादा बढऩे लगती है। कर्म करो और कर्म करके छोड़ दो ये दोनों ही बातें वेदों में लिखी गई है। शौनकजी का यह उपदेश सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर अपने पुरोहित धौम्य के पास आ गए और अपने भाइयों के सामने ही उनसे कहने लगे- वेदों के बड़े-बड़े पारदर्शी ब्राह्मण मेरे सामथ्र्य नहीं है, इससे में बहुत दुखी हूं। न तो मैं उनका पालन पोषण नहीं कर सकता हूं। 

ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, आप कृपा करके यह बतलाइए। धर्मराज युधिष्ठिर का प्रश्र सुनकर पुरोहित धौम्य ने योगदृष्टी से कुछ समय तक इस विषय पर विचार किया। धर्मराज को संबोधन करके कहा धर्मराज सृष्टी प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब भगवान सूर्य ने दया करके कहा धर्मराज सृष्टी के प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब सूर्य ने पृथ्वी का रस खींचा। इस प्रकार जब उन्होंने क्षेत्र तैयार कर दिया तब चंद्रमा ने उसमें ओषधीयों का बीज डाला और उसी से अन्न व फल की उत्पति हुई। उसी अन्न से प्राणीयों ने अपनी भुख मिटायी। कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य की कृपा से अन्न उत्पन्न होता है। 

सूर्य ही सब प्राणीयों की रक्षा करते हैं इसलिए तुम भगवान सूर्य की शरण में जाओ। पुरोहित धौम्य की बात सुनकर सूर्य की आराधना का तरीका बतलाते हुए कहा- मैं तुम्हे सूर्य के एक सौ आठ नाम बताता हूं तुम इन नामों का जप करना। भगवान सूर्य तुम पर कृपा करेंगे। धौम्य की बात सुनकर युधिष्ठिर ने सूर्य की आराधना प्रारंभ की। इस प्रकार युधिष्ठिर ने पूरी श्रृद्धा के साथ सूर्य की आराधना की और उनसे एक ऐसा पात्र प्राप्त किया वह पात्र अक्षय था यानी कभी खाली नहीं होता था। उन्होंने वह पात्र द्रोपदी को दे दिया। उसी से युधिष्ठिर ब्राहणों को भोजन करवाते थे। ब्राह्मणों के बाद सभी भाइयों को भोजन करवाने के बाद युधिष्ठिर भोजन करते और सबसे आखिरी में द्रोपदी भोजन करती थी।

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हर दुख का कारण यही है...

ब्राह्मणों की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने बहुत शोक प्रकट किया। वे उदास होकर जमीन पर बैठ गए। तब आत्मज्ञानी शौनक ने उनसे कहा राजन् अज्ञानी मनुष्यों को सामने प्रतिदिन सैकड़ों और हजारों शोक और भय के अवसर आया करते हैं, ज्ञानियों के सामने नहीं। आप जैसे सत्पुरुष ऐसे अवसरों से कर्मबंधन में नहीं पड़ते। वे तो हमेशा मुक्त ही रहते है। आपकी चित्तवृति, यम, नियम आदि अष्टांगयोग से पुष्ट है। 

आपकी जैसी बुद्धि जिसके पास है उसे अन्न-वस्त्र के नाश से दुख नहीं होता। कोई भी शारीरिक या मानसिक दुख उसे नहीं सता सकता। जनक ने जगत को शारीरिक और मानसिक दुख से पीडि़त देखकर उसके लिए यह बात कही थी। आप उनके वचन सुनिए। शरीर के दुख: के चार कारण है- रोग, किसी दुख पहुंचाने वाली वस्तु का स्पर्श, अधिक परिश्रम और मनचाही वस्तु ना मिलना। 

इन सभी बातों से मन में चिंता हो जाती है और मानसिक दुख ही शारीरिक दुख का कारण बन जाता है। लोहे का गरम गोला यदि घड़े के जल में डाल दिया जाए तो वह जल गरम हो जाता है। वैसे ही मानसिक पीड़ा से शरीर  खराब हो जाता है। इसलिए जैसे आग को पानी से ठंडा किया जाता है। वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख मिट जाता है। मन के दुखी होने का कारण प्यार है। प्यार के कारण ही मनुष्य दुखों में फंसता चला जाता है।

क्रमश:

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क्या हुआ जब हस्तिनापुर की जनता पहुंची युधिष्ठिर...

प्रजा की बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा-प्रजाजनों वास्तव में हम लोगों में कोई गुण नहीं है, फिर भी आप लोग प्यार और दया के वश में होकर हममें गुण देख रहे है। यह बड़े सौभाग्य की बात है। मैं अपने भाइयों के साथ आप लोगों से प्रार्थना करता हूं। आप अपने प्रेम और कृपा से हमारी बात स्वीकार करें। इस समय हस्तिनापुर में पितामह भीष्म, राजा, धृतराष्ट्र, विदुर आदि सभी हमारे सगे सम्बंधी निवास करते हैं। जैसे आप लोग हमारे लिए दुखी हो रहे हैं। 

उतनी ही वेदना उनके मन में भी है। आप लोग हमारी प्रसन्नता के लिए वापस लौट जाइए। आप लोग बहुत दूर तक आ गए हैं अब साथ ना चले। मेरे प्रिय लोग में आपके पास धरोहर के रूप में छोड़कर जा रहा हूं। मैं आप लोगों से दिल से कह रहा हूं आपके ऐसा करने से मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। मैं उसे अपना सत्कार समझूंगा। जब सभी लोग उनके आग्रह पर हस्तिनापुर लौट गए तो पाण्डव रथ में बैठकर वहां से चल पड़े। उसके बाद वे गंगा तट पर प्रणाम कर बरगद के पेड़ के पास आए। 

उस समय संध्या हो चली थी। वहां उन्होंने रात बिताई। उस समय बहुत से ब्राह्मण पाण्डवों के पास आए, उनमें बहुत से अग्रिहोत्रि ब्राह्मण भी थे। उनकी मण्डली में बैठकर सभी पांडवों ने उनसे अनेक तरह की बातचीत की। रात बीत गई। जब उन्होंने वन में जाने की तैयारी की। तब ब्राह्मणों ने पाण्डवों से कहा महात्माओं वन में बड़े-बड़े विघ्र और बाधाएं हैं। इसलिए आप लोगों को वहां बड़ा कष्ट होगा। इसलिए आप लोग उचित स्थान पर जाएं। हमें आप अपने पास रखने की कृपा कीजिए। हमारे पालन पोषण के लिए आपको चिंता की आवश्कता नहीं होगी। हम अपने-अपने भोजन की व्यवस्था कर लेंगे। वहां बड़े प्रेम से अपने इष्ट का ध्यान करेंगें। उससे आपका कल्याण होगा।

क्रमश:
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...और चल पड़े पाण्डव वनवास पर

जन्मेजय ने वैशम्पायनजी से पूछा दुर्योधन, दु:शासन, आदि ने अपने मंत्रियों के साथ जूए में पांडवों को धोखे से हराकर जीत लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने दुश्मनी बढ़ाने के लिए भला-बुरा भी कहा। आप बताइए उसके बाद आपने अपना समय कैसे बिताया, उनके साथ वन में कौन-कौन गए। वे वन में कैसा बर्ताव करते थे।

उनके वन में बारह साल किस तरह बीते? आप मुझे बताइए। वैशाम्पायनजी ने कहा पांडव दुर्योधन आदि के दुव्र्यवहार से दुखी होकर अपने अस्त्र-शस्त्र और रानी द्रोपदी के साथ हस्तिनापुर से निकल पड़े। वे हस्तिनापुर के वर्धमानपुर के सामने वाले द्वार से निकल कर उत्तर की ओर चले। इन्द्रसेन और चौदह सेवक उनके पीछे शीघ्रगामी रथ पर सवार होकर उनके पीछे-पीछे चले। जब हस्तिनापुर की जनता को यह बात मालूम हुई तो प्रजा बहुत दुखी हो गई। सब लोग शोक से व्याकुल होकर एकत्रित हुए और निडर होकर सभी कौरवों और श्रेष्ठजनों की निन्दा करने लगे।

वे आपस में कहने लगे दुर्योधन, शकुनि आदि की सहायता से राज्य करना चाहता है। उसने पूरे वंश की मर्यादा को त्याग चुका है। अगर इसका राज्य हुआ तो यह सब कुछ नष्ट कर देगा। हस्तिनापुर की जनता इस प्रकार आपस में विचार करके वहां से चल पड़ी और पांडवों के पास जाकर बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर कहने लगी-पाण्डवों आप लोग हमें हस्तिनापुर में दुख भोगने के लिए छोड़कर अकेले कहां जा रहे हैं? आप लोग जहां जाएंगे। वही हम भी चलेंगे। जब से हमें यह बात मालूम हुई है कि आप लोगों को धोखे से वनवासी बना दिया गया है तब से हम लोग बहुत डरे हुए हैं।

क्रमश:

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