सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat- 18



क्यों गुस्से से भर गया दुर्योधन?

हस्तिनापुर लौटने पर शकुनि ने धृतराष्ट्र के पास जाकर कहा मैं आपको ये बताना चाहता हूं कि दुर्योधन का चेहरा उतर रहा है। वह क्रोध से जल रहा है। वह दिनोंदिन पीला पड़ता जा रहा है। आप उसके तनाव का कारण पता क्यों नहीं लगाते? धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बुलवाया और पूछा तुम इतने गुस्से में क्यों हो शकुनि बता रहा है कि तुम किसी बात को लेकर परेशान हो? मुझे तो तुम्हारे गुस्से का कोई कारण समझ नहीं आ रहा है। क्या तुम अपने भाइयों से या अपने किसी प्रिय व्यक्ति के कारण दुखी हो। दुर्योधन ने कहा-पिताजी मैं कायरों जैसा जीवन नहीं बिता सकता हूं।

मेरे मन में पांडवों से बदला लेने की आग धधक रही है। जिस दिन से मैंने युधिष्ठिर का महल और उसके जीवन का ऐश्चर्य देखा है। तब से मुझे खाना पीना अच्छा नहीं लगता। मेरे शत्रु के घर में इतना वैभव देखकर मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। मेरा मन बैचेन हो गया है। लोग सब ओर दिग्विजय कर लेते हैं लेकिन उत्तर की तरफ कोई नही जाता। लेकिन अर्जुन वहां से भी धन लेकर आया है। लाख-लाख ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर जो शंख ध्वनि होती थी। उसे सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। युधिष्ठिर के समान तो इन्द्र का ऐश्वर्य नहीं होगा। तब धृतराष्ट्र शकुनि के सामने ही बोले कि युधिष्ठिर जूए का शौकिन है। तुम उन्हें बुलाओ। मैं उन्हे हराकर छल से हराकर सारी सम्पति ले लुंगा। 
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आदत बुरी सुधार लो

किसी भी व्यक्ति के पास कितनी ही धनसमृद्धि या पराक्रम क्यों ना हो?लेकिन एक भी बुरी आदत किसी की सारी अच्छाईयों पर भारी पड़ सकती है और दुख का कारण बन सकती हैं। युघिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है उनके सभी भाई उनका सम्मान करते हैं सभी धर्म के अनुसार कार्य करते हैं लेकिन किसी भी तरह का व्यसन इंसान के सुखी जीवन को दुखी बना सकता है।

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...सभी पांडवों द्वारा दुर्योधन की हंसी उड़ाना अब आगे...दुर्योधन जब वापस लौटकर आया तो पाण्डवों की हंसी जैसे उसके कानों में गुंज रही थी। उसका मन गुस्से से भरा हुआ था मन भयंकर संकल्पों से भर गया। शकुनि ने उसका गुस्सा भाप लिया और बोला भानजे तुम्हारी सांसे लंबी क्यों चल रही है? दुर्योधन बोला मामाजी धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन के शस्त्र कौशल से सारी पृथ्वी अपने अधीन कर ली है। उन्होंने राजसूय यज्ञ करके सब कुछ जीत लिया है। उनका यह ऐश्वर्य देखकर मेरा मन जलता है। 

कृष्ण ने सबके सामने ही शिशुपाल को मार गिराया। लेकिन किसी राजा ने कुछ नहीं किया। समस्या तो यह है कि मैं अकेला तो कुछ नहीं कर सकता और मुझे कोई सहायक नहीं देता है। अब मैं सोच रहा हूं कि मैं मौत को गले लगा लूं। मैने पहले भी पांडवों के अस्तित्व को मिटाने कि कोशिश की लेकिन वो बच गए और अब तरक्की करते जा रहे हैं। अब आप मुझ दुखी को प्राण त्यागने की आज्ञा दीजिए क्योंकि मैं गुस्से की आग मैं झुलस रहा हूं। आप पिताजी को जाकर यह समाचार सुना दीजिएगा।

तब शकुनि ने कहा पाण्डव अपने भाग्य के अनुसार भाग्य का भोग कर रहे हैं। तुम्हे उनसे द्वेष नहीं करना चाहिए। तुम्हारे सभी भाई तुम्हारे अधीन और अनुयायी है। तुम इनकी सहायता से चाहो तो पूरी दुनिया जीत सकते हो। दुर्योधन बोला मामा श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, नकुल, सहदेव, द्रुपद, आदि को युद्ध में जीतना मेरी शक्ति से बाहर है। लेकिन युधिष्ठिर को जीतने का उपाय बतलाता हूं। युधिष्ठिर को जूए का शौक तो बहुत है लेकिन उन्हें खेलना नहीं आता है। अगर उन्हें जूए के लिए बुलाया जाए तो वे मना नहीं कर पाएंगे। इस तरह उनकी शक्ति को पराजित करने का सबसे आसान तरीका है कि मैं उन्हें जूए मैं हरा दूं।
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...तब दुर्योधन पर पांचों पांडव हंसने लगे

राजा दुर्योधन ने शकुनि के साथ इन्द्रप्रस्थ में ठहरकर धीरे-धीरे सारी सभा का निरीक्षण किया। उसने ऐसा कला कौशल कभी नहीं देखा था। सभा में घूमते समय दुर्योधन स्फ टिक चौक में पहुंच गया। उसे जल समझकर उसने अपने कपड़ो को ऊंचा उठा लिया। बाद में जब उसे यह समझ आया कि यह तो स्फटिक फर्श है तो उसे दुख हुआ। 

वह इधर-उधर भटकने लगा। उसके बाद वह थोड़ा आगे बड़ा और स्फटिक की बावड़ी में जा गिरा। उसकी ऐसी हालत देखकर भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सब के सब हंसने लगे। उनकी हंसी से दुर्योधन को बहुत दुख हुआ। इसके बाद जब वह दरवाजे के आकार की स्फटिक की बने दरवाजे को बंद दरवाजा समझकर उसके अंदर प्र्रवेश करने की कोशिश करने लगा। तब उसे ऐसी टक्कर लगी कि उसे चक्कर आ गया। 

एक स्थान पर बड़े-बड़े दरवाजे को धक्का देकर खोलने लगा तो दूसरी ओर गिर पड़ा। एक बार सही दरवाजे पर भी पहुंचा तो धोखा समझकर वहां से वापस लौट गया। इस तरह राजसूय यज्ञ और पाण्डवों की सभा देखकर दुर्योधन के मन में बहुत जलन हुई। उसका मन कड़वाहट से भर गया। उसके बाद वह युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर वह हस्तिनापुर लौट गया। 

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किसने पहले ही कर दी थी महाभारत की भविष्यवाणी?
जब राजसूय यज्ञ समाप्त हो गया तब भगवान श्रीकृष्ण-द्वैपायन अपने शिष्यों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर के पास आए। युधिष्ठर ने भाइयों के साथ उठकर उनका पूजन किया। उसके बाद वे अपने सिंहासन पर बैठ गए और सबको  बैठने की आज्ञा दी। तब भगवान व्यास जी ने कहा की आपके सम्राट होने से कुरुवंश की कीर्ति बहुत उन्नति हुई। धर्मराज ने हाथ जोड़कर पितामह व्यास का चरणस्पर्श किया और कहा मुझे एक बात पर संशय है।

आप ही मेरे संशय को दूर कर सकते है।नारद ने कहा था कि भुकंप आदि उत्पात हो रहे हैं। आप कृपा करके यह बताइए की शिशुपाल की मृत्यु से उनकी समाप्ति हो गई या वे अभी बाकि है। युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर भगवान व्यास जी ने कहा इन उत्पातों का फल तेरह साल बाद नजर आएगा। वह होगा क्षत्रियों का संहार। उस समय दुर्योधन के अपराध से आप निमित बनोगे और इकठ्ठे होकर भीमसेन और अर्जुन के बल से मर मिटेंगें।

उसके बादभगवान कृष्ण द्वैपायन अपने शिष्यों को लेकर कैलास चले गए। युधिष्ठिर को बहुत चिन्ता हो गई।  भगवान व्यास की बात याद करके उनकी सांसे गरम हो गई।  

वे अपने भाइयों से बोले - भाइयों तुम्हारा कल्याण हो आज से मेरी जो प्रतिज्ञा है उसे सुनो अब मैं तेरह वर्ष तक जीकर ही क्या करूंगा? यदि जीना ही है तो आज से मेरी प्रतिज्ञा सुनों आज से मैं किसी के प्रति कड़वी बात नहीं कहूंगा। यदि जीना ही है तो आज से मैं अपने भाई-बन्धुओं के  कहे अनुसार ही कार्य करूंगा। अपने पुत्र और दुश्मन के पुत्र प्रति एक जैसा बर्ताव करने से मुझमें और उसमें कोई भेद नहीं रहेगा। यह भेदभाव ही तो लड़ाई की जड़ है ना।  युधिष्ठिर भाइयों के साथ ऐसा नियम बनाकर उसका पालन करने लगे। वे नियम से पितरों का तर्पण और देवताओं की पूजा करने लगे। 

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....और श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का सिर काट दिया

शिशुपाल की बात खत्म होने पर श्रीकृष्ण बोले राजाओं शिशुपाल हमारा संबंधी है लेकिन इसने हम लोगों का सत्यानाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसने बिना कारण ही द्वारका को जलाने की चेष्टा की। जिस समय भोजराज रैवतक पर्वत पर घुमने गए थे। इसने उनके सारे साथियों को मार डाला। जब मेरे पिता अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे। तब इसने उसमें भी विघ्र डाला। इसने ऐसे बहुत से काम किए हैं। जिसके कारण में इसका वध कर सकता था। लेकिन हर बार मैं अपनी बुआ की बात मानकर चुप रहा। 

आप सभी लोग भरी सभा में इसका व्यवहार तो देख ही रहे हैं। श्रीकृष्ण तो इस प्रकार कह ही रहे थे। तभी शिशुपाल उठकर खड़ा हो गया और हंसने लगा। यदि तुझे सौ बार गरज हो तो मेरी बात सुन और सह। ना गरज हो तो जो चाहे कर ले। तब श्रीकृष्ण ने कहा राजाओं मैंने इसके सौ अपराध क्षमा करने की बात स्वीकार कर ली थी। लेकिन अब मेरे वचन की संख्या पुरी हो गई है। अब मैं आप लोगों के सामने ही इसका सिर धड़ से अलग कर देता हूं। श्रीकृष्ण ने इतना कहकर बिना देर किए शिशुपाल का सिर काट दिया।

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जब श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को गोद में लिया तो....

चेदिराज के घर में हुए विचित्र बालक का समाचार सुनकर सारी पृथ्वी के राजा उसे देखने आने लगे। चेदिराज ने सभी का बहुत प्रसन्नता के साथ स्वागत किया। उसके जन्म का समाचार सुनकर कृष्ण और बलराम भी अपनी बुआ से मिलने और उसे देखने पहुंचे। श्रीकृष्ण ने जैसे ही उसे गोद में लिया। उसी समय उसकी दो भुजाएं गिर गई। तीसरा नैत्र गायब हो गया। 

यह देखकर शिशुपाल की मां व्याकुल होकर उससे कहने लगी श्री कृष्ण में तुमसे डर गई हूं। तब उसकी मां ने श्रीकृष्ण से हाथ जोड़कर कहा तुम मेरी ओर देखकर शिशुपाल के सारे अपराध क्षमा कर देना ये मेरी विनती है तुमसे। तब श्रीकृष्ण ने कहा बुआजी तुम चिंता मत करो मैं इसके सौ अपराध भी क्षमा कर दूंगा। जिनके बदले इसे मार डालना चाहिए।इसी कारण इस कुल के कलंक शिशुपाल ने आज इतना दुस्साहस दिखाया है। मेरा अपमान किया है। भीष्म की बातें शिशुपाल से सही नहीं गई। उसे गुस्सा आ गया।

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बच्चा पैदा होते ही गधे जैसा रेंकने लगा!

शिशुपाल का कृष्णजी के प्रति ऐसा व्यवहार देखकर भीम को बहुत गुस्सा आया। भीम गुस्से में शिशुपाल को मारने के लिए उठे। लेकिन उसे भीष्म पितामह ने रोक लिया। भीष्मपितामह भीम को समझाने लगे। 

उन्होंने भीम से कहा हे भीम ये शिशुपाल चेदिराज के वंश में पैदा हुआ, तब इसकी तीन आंखें थी और चार भुजाएं थी। पैदा होते ही वह गधों के समान रेंकने लगा था। उसकी यह दशा देखकर उसके सारे रिश्तेदार डर गए। सभी रिश्तेदारों ने उसे त्यागने का विचार बनाया। तभी आकाशवाणी हुई कि तुम्हारा पुत्र बड़ा बलवान होगा। इससे डरो मत, निश्चिंत होकर इसका पालन करो। 

यह सुनकर उसकी माता के मन को शांति हुई। उन्होंने कहा आप जो भी हों जिसने मेरे पुत्र के भविष्य के बारे में भविष्यवाणी की है वे कृपा करके यह भी बताएं कि इसकी मौत किसके हाथों होगी। तब आकाशवाणी ने दुबारा कहा- जिसकी गोद में जाने पर तुम्हारे पुत्र की दो अधिक भुजाएं गिर जाएं और तीसरा नेत्र गायब हो जाए उसी के हाथों तुम्हारे पुत्र की मौत होगी। उस समय शिशुपाल के विचित्र रूप का समाचार सुनकर पृथ्वी के अधिकतर राजा उसे देखने के लिए आने लगे। 

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क्यों किया शिशुपाल ने श्रीकृष्ण का तिरस्कार?

राजसूय यज्ञ के बाद श्रीकृष्ण की अग्रपूजा से चेदिराज शिशुपाल का चिढ़ गया।उसने भरी सभा में भीष्मपितामह और धर्मराज युधिष्ठिर को धिक्कारते हुए कृष्ण को फटकारना शुरू किया। उसने कहा कृष्ण बड़े-बड़े महात्माओं और राजाओं से महान नहीं हो सकता है। 

पाण्डवों यह जो तुम कर रहे हो यह अधर्म है। कृष्ण राजा नहीं है। फिर उसे तुम राजाओं का सम्मान कैसे दे सकते हो। द्रोणाचार्य और द्रुपद जैसे श्रेष्ठ लोगों की उपस्थिति में इसकी पूजा अनुचित है। इन सभी के होते हुए तुमने कृष्ण की पूजा करके हम लोगों का तिरस्कार किया है। ऐसा करके तुमने अपनी बुद्धि का दिवालियापन दिखाया है। 

उसके बाद शिशुपाल ने श्रीकृष्ण से कहा मैं मानता हूं कि पांडव बेचारे डरपोक हैं। ये अपनी कायरता और मुर्खता के कारण तुम्हारी पूजा कर रहे है।इस तरह उसने भगवान कृष्ण का बहुत अपमान किया। तभी युधिष्ठिर शिशुपाल के पास गए और उसे समझाने लगे कि इस तरह की कड़वी बातें कहना अपमानजनक तो है ही साथ ही अधर्म है। 

आप से बहुत से उम्र में बड़े राजा यहां उपस्थित हैं पर किसी को भी कृष्ण की पूजा से आपत्ति नहीं है। उसके बाद भीष्मपितामह और सहदेव ने भी उसे समझाया। लेकिन शिशुपाल तो गुस्से के कारण आग बबुल हो रहा था।उसने सभी राजाओं से कहा कि आप लोग किसके डर से बैठे हैं मैं आपका सेनापति बनकर खड़ा हूं। आइए हम लोग डटकर पांडवों का सामना करते हैं। कल पढि़ए....शिशुपाल के जन्म की कथा
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....तब शिशुपाल ने श्रीकृष्ण को फटकारना शुरू किया

जरासंध को हराने के बाद पांचों पांडवों ने दिग्विजय अभियान चलाया और सभी दिशाओं में जीत का परचम लहराया। उसके बाद जब धर्मराज ने देखा कि मेरे अन्न, वस्त्र,रत्न, आदि के भण्डार  सभी पूर्ण है। तब उन्होंने यज्ञ करने का संकल्प किया।  

अब युधिष्ठिर ने सभी बढ़ो की आज्ञा से और छोटों की सहमति से राजसूय यज्ञ करने का निर्णय लिया। ब्राह्मणों ने सही समय पर युधिष्ठिर को यज्ञ की दिक्षा दी। युधिष्ठिर ने अपनी भव्य सेना, मंत्रियों और सगे संबंधियों के साथ यज्ञशाला में प्रवेश किया। उनके रहने के लिए सुन्दर स्थान बनाए गए। युधिष्ठिर ने भीष्म, धृतराष्ट्र  आदि को बुलाने के लिए नकुल को भेजा। सभी लोगों ने निमंत्रण स्वीकार किया। यज्ञ में आने वाले राजा और राजकुमारों को गिनना कठिन था। धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य से प्रार्थना की-आप लोग इस यज्ञ में मेरी सहायता करो।

आप इस खजाने को अपना ही समझिए और इस तरह सब कार्य देखिए, जिससे मेरी मनोकामना पूरी हो। यज्ञ के आखिरी दिन सभी राजा सभा में बैठे थे। तब धर्मराज ने पूछा पितामह बताइए कि इन सभी सज्जनों में से हम सबसे पहले किसकी पूजा करें। तब भीष्म ने कहा इस पृथ्वी पर श्री कृष्ण से बढ़कर कौन है? इसलिए सबसे पहले उनकी ही पूजा करनी चाहिए। भीष्म की आज्ञा से सहदेव ने श्रीकृष्ण की पूजा की। चेदिराज शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण की अग्रपूजा देखकर चिढ़ गया। उसने भरी सभा में भीष्म पितामह और युधिष्ठिर को धिक्कारते हुए कृष्ण को फटकारना शुरू किया।

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दुश्मन को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए

दुश्मन की शक्ति चाहे आपकी तुलना में कितनी भी कम क्यों ना हो लेकिन उसे कमजोर नहीं समझना चाहिए क्योंकि एक छोटी चिंगारी भी बड़ी आग लगाने की क्षमता रखती है।

 महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...कृष्ण, अर्जुन और भीम द्वारा बुर्ज तोड़कर मगध में प्रवेश करना और युद्ध के लिए जरासंध को ललकारना...अब आगे

 जब भगवान कृष्ण ने देखा कि जरासंध युद्ध करने के लिए तैयार हो गया है। तब उन्होंने उससे पूछा तुम हम तीनों में से किससे युद्ध करना चाहते हो। जरासंध ने भीम के साथ कुश्ती लडऩा स्वीकार किया। दोनों ही ब्राह्मणों से स्वास्तिवचन करवाने के बाद अखाड़े में उतर गए।  दोनों के बीच मल्ल युद्ध छिड़ गया। युद्ध लगातार तेरह दिनों तक बिना खाये-पीये और बिना रूके चलता रहा। चौदहवे दिन रात के समय जरासंध थक कर चूर हो गया। उसकी ऐसी दशा देखकर कृष्ण ने कहा भीमसेन दुश्मन के थक जाने पर उसे अधिक दबाना सही नहीं है। अधिक जोर लगाने पर वह मर ही जाएगा। इसलिए अब तुम जरासंध को दबाओ मत सिर्फ उससे बाह युद्ध करते रहो।

उनकी बात सुनकर भीम कृष्ण का इशारा समझ गए और उन्होंने जरासंध को  मार डालने का संकल्प लिया। वे जरासंध को उठाकर उसे घुमाने लगे। सौ बार घुमाकर उसे उन्होंने जमीन पर पटक दिया। घुटनों से मारकर उसकी रीढ़ की हड्डी को तोड़ दिया। साथ ही हुंकार करके उसका एक पैर पकड़ा और दूसरे पैर पर अपना पैर रखकर उसे दो खण्डों में चीर डाला। भगवान कृष्ण, अर्जुन और भीम ने दुश्मन को हराने के बाद उसके शरीर को रानिवास के ड्योढी पर डाल दिया। उसके बाद उन्होंने सभी बंदी राजाओं को मुक्त करवाया।

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इसलिए कृष्ण ने जरासंध को भीम से मरवाया...

तब कृष्ण ने जरासंध से कहा हम स्नातक ब्राह्मण हैं, ये तो आपकी समझ की बात है। स्नातक का वेष तो ब्राह्मण वैश्य, क्षत्रीय सभी धारण कर सकते हैं। हम क्षत्रिय हैं हम सिर्फ बोली के  बहादुर नहीं है। दुश्मन के घर में बिना दरवाजे के प्रवेश करना और दोस्त के घर में दरवाजे से प्रवेश करना इसमें कोई अधर्म नहीं है। तब जरासंध बोला मुझे तो याद नहीं है कि आपका और मेरा किसी बात पर युद्ध हुआ हो, तो मुझे शत्रु समझने का क्या कारण है? मैं अपने धर्म को निभाता हूं। प्रजा को परेशान नहीं करता। फिर मुझे दुश्मन समझने का क्या कारण है?

तब कृष्ण ने कहा तुमने सभी क्षत्रियों को मारने का निर्णय लिया है, क्या यह अपराध नहीं है? तुम सबसे अच्छे राजा होते हुए भी सभी को मारने चाहते हो। यह तुम्हारा घमंड है। तुम अपने बराबर वालों के सामने यह घमंड छोड़ दो। तुम अपनी ये जिद छोड़ दो नहीं तो तुम्हे अपनी सेना सहित यम लोक में जाना पड़ेगा। हम ब्राह्मण नहीं है। मैं कृष्ण हूं और ये पाण्डु पुत्र अर्जुन और भीम है। हम तुम्हे युद्ध के लिए ललकारते हैं। तब जरासंध बोला मैं किसी भी राजा को यहां बिना जीते नहीं लाया हूं। उसने गुस्से में कहा तुम तीनों चाहो तो मुझ से एक साथ लड़ लो। कृष्ण को पता था कि आकाशवाणी के अनुसार इसका वध यदुवंशी के हाथ से नहीं होना चाहिए।। इसलिए उन्होंने जरासंध को खुद ना मारकर उसे भीम से मरवाया।

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क्यों वेष बदला कृष्ण, अर्जुन और भीम ने?

जरासंध की कहानी सुनने के बाद श्री कृष्ण ने कहा जरासंध के  नाश का समय आ गया है। लेकिन आमने-सामने की लड़ाई में तो उसको हराना बहुत कठीन है। इसलिए उससे सिर्फ कुश्ती लड़कर ही जीता जा सकता है। जब एकांत में हम तीनों की उससे मुलाकात होगी तो वह जरूर ही किसी ना किसी से युद्ध करना स्वीकार कर लेगा। 

कृष्ण की बातें सुनकर भीम और अर्जुन और युधिष्ठिर तीनों उनसे सहमत हो गए। युधिष्ठिर ने कहा कृष्ण आपकी बोली गई हर एक बात सच है क्योंकि आप जिसके पक्ष में होते हैं उसकी जीत निश्चित होती है। उसके बाद युधिष्ठिर सें आज्ञा लेकर तीनों मगध की ओर निकल पड़े। मगध पहुंचते ही उन्होंने वह कि बुर्ज को नष्ट कर दिया और फिर नगर में प्रवेश किया। उन दिनों मगध में बहुत अपशकुन हो रहे थे। इसलिए पुरोहित की सलाह पर जरासंध हाथी पर पूरे नगर की परिक्रमा करने निकले।

उसी समय उससे बांह युद्ध करने के उद्देश्य से कृष्ण, अर्जुन और भीम तीनों ने नगर में प्रवेश किया। जरासंध उन्हें देखते ही खड़ा हो गया और उसने उनका स्वागत किया।  लेकिन कुछ ही क्षणों बाद वह उनके आचरण और कंधे पर शस्त्रों के निशान देखकर समझ गया कि वे कोई ब्राह्मण नहीं हैं। उसने तीनों का तिरस्कार करते हुए पूछा तुम लोग कौन हो? इतने निडर होकर वेष बदलकर और बुर्ज तोड़कर नगर में प्रवेश करने के पीछे तुम्हारा क्या उद्देश्य है।


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दो टुकड़ों को जोडऩे पर बन गया राजकुमार!

 उस बालक के दोनों टुकड़े वहा रहने वाली एक राक्षसी ने देखे। उसका नाम जरा था। वह राक्षसी वह खून-पीती और मांस खाती थी। उसने उन टुकड़ों को उठाया और संयोगवश सुविधा से ले जाने के लिए उसने दोनों टुकड़े मिलाए। टुकड़े मिलकर एक महाबली राजकुमार बन गया। राक्षसी आश्चर्य चकित हो गई।वह उस राजकुमार को उठा तक ना सकी। 

उस राजकुमार ने अपनी मुठ्ठी बाधकर मुंह में डाल ली और बहुत तेज आवाज में रोने लगा। रानिवास के सभी लोग उसकी आवाज सुनकर आश्चर्यचकित हो गए। रानियां अपने पुत्र को मरा हुआ समझकर निराश हो चुकी थी, फिर भी उनके स्तनों में दूध उमड़ रहा था। जरा ने सोचा मैं इस राजा के राज्य में रहती हूं। इसे कोई संतान नहीं है और इसे संतान की बहुत अभिलाषा है। साथ ही यह धार्मिक और महात्मा भी है। 

इसलिए इस राजकुमार को नष्ट करना अनुचित है।उसने वह राजकुमार जाकर राजा ब्रह्द्रथ को सौंप दिया। तब ब्रह्द्रथ ने पूछा मुझे पुत्र देने वाली तु कौन है?  जरा ने राजा को अपना परिचय दिया और सारी कहानी सुनाई।  राजा ने उसे धन्यवाद दिया। तब राजा ने कहा इसे जरासंध ने संधित किया है। इसलिए इसका नाम जरासंध होगा। 

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यह दृश्य देखकर दोनों रानियां कांप उठी...

 युधिष्ठिर और कृष्ण की जरासंध के बारे में बातचीत अब आगे...युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की बात सुनकर उनसे कहा आप मुझे बताएं? जरासंध कौन है? यह इतना पराक्रमी क्यों है? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कुछ समय पहले मगधदेश में बृहद्रथ नाम के राजा थे। उन्होंने कशिराज की दो कन्याओं से शादी की और ऐसी प्रतिज्ञा की कि मैं दोनों से समान प्रेम करूंगा। शादी के बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन उनके राज्य में एक महात्मा आए।

वे एक पेड़ के नीचे ठहरे हुए थे।राजा बृहद्रथ उनका आर्शीवाद लेने उनके पास गए और उनसे प्रार्थना करने लगे राजा ने उन्हें बताया कि वे संतानहीन है। तब महात्मा ने उन्हें एक फल दिया और कहा कि यह फल आप अपनी पत्नी को दें। वे इसे ग्रहण करेंगी तब आपको निश्चित ही पुत्र की प्राप्ति होगी। उनसे वह फल प्रसाद के रूप में लेकर वह फल उन्होंने दोनों रानियों को दिया।

दोनों ने उसके दो टुकड़े करके फल ग्रहण कर लिया। कुछ दिनों बाद ही रानियों ने गर्भ धारण कर लिया। राजा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। समय आने पर दोनों के गर्भ से शरीर का एक-एक टुकड़ा पैदा हुआ।  उन्हें देखकर रानियां कांप उठी। उन्होंने घबराकर यही सलाह की कि इन दोनों टुकड़ो को फेंक दिया जाए। दोनों की दासियों ने वे टुकड़े रानिवास के नीचे फेंक दिए।


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अक्रूर के मन में संशय था इसलिए कृष्ण ने....

अक्रूर भक्त थे लेकिन उनके मन में संशय था। वे भगवान के विराट स्वरूप की तलाश में थे, सो बाल कृष्ण को भगवान मानने में मन थोड़ा हिचक रहा था। वे बार-बार कृष्ण से बालकोचिन व्यवहार ही करते, बात-बात पर समझाते। कृष्ण ने अक्रूरजी की मनोदशा को ताड़ लिया। अक्रूरजी का संशय दूर करने के लिए उन्होंने यमुना के किनारे भी एक छोटी सी लीला की।

अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजी के कुण्ड पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने के बाद वे जल में डुबकी लगाकर गायत्री का जप करने लगे। उसी समय जल के भीतर अक्रूरजी ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं। अब उनके मन में यह शंका हुई कि वसुदेवजी के पुत्रों को तो मैं रथ पर बैठा आया हूं, अब वे यहां जल में कैसे आ गए? जब यहां हैं तो शायद रथ पर नहीं होंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा। वे उस रथ पर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जल में देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगाई। परन्तु फिर उन्होंने वहां भी देखा कि साक्षात् अनन्त देव श्री शेष नाग जी पर विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।

भगवान् की यह झांकी निरखकर अक्रूरजी का हृदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गई। सारा शरीर हर्शावेश से पुलकित हो गया। प्रेमभाव का उद्रेक होने से उनके नेत्र आंसू से भर गए। अब अकू्ररजी ने अपना साहस बटोरकर भगवान् के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गद्गद हो भगवान् की स्तुति करने लगे।

अब सारी शंंका, सारा संशय दूर हो गया। भगवान की लीला देख ली। बालकों के रूप में साक्षात् नारायण के दर्शन हो गए। बस भगवान की शरण ले ली। भगवान ने भी अक्रूरजी को भक्ति का प्रसाद दिया। अक्रूरजी के साथ श्रीकृष्ण जब मथुरा नगरी पहुंचे, तो नगरवासी भी उनके दर्शन कर कृत-कृत्य हो गए। 

भगवान श्रीकृष्ण ने विनीतभाव से खड़े अक्रूरजी का हाथ अपने हाथ में लेकर मुसकाते हुए कहा-चाचाजी! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिए और अपने घर जाइये। हम लोग पहले यहां उतरकर फिर नगर देखने के लिए आएंगे।

अक्रूरजी ने कहा-प्रभो! आप दोनों के बिना मैं मथुरा में नहीं जा सकता। स्वामी! मैं आपका भक्त हूं। भक्तवत्सल प्रभो! आप मुझे मत छोडि़ए। श्री भगवान् ने कहा-चाचाजी! मैं दाऊ भैया के साथ आपके घर आऊंगा और पहले इस यदुवंशियों के द्रोही कंस को मारकर तब अपने सभी सुहृत्-स्वजनों का प्रिय करूंगा।

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