सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat 11




धृतराष्ट्र ने दूर्योधन को मना किया क्योंकि...

 दुर्योधन से ऐसा कहकर कर्ण और शकुनि चुप हो गए। तब राजा दुर्योधन ने कहा-कर्ण तुम जो कहते हो, वह बात मेरे मन में भी बसी हुई है। पाण्डवों को वल्कवस्त्र और मृगचर्म ओढ़े देखकर मुझे जैसी खुशी होगी। वैसी इस सारी पृथ्वी का राज्य पाकर भी नहीं होगी। भला इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात क्या होगी कि मैं द्रोपदी को वन में गेरुए कपड़े पहने देखूं। मुझे कोई ऐसा उपाय नहीं सूझ रहा है। जिससे कि मैं द्वैतवन जा सकूं और महाराज भी मुझे वहां जाने की आज्ञा दें। इसलिए तुम मामा शकुनि और भाई दु:शासन के साथ सलाह करके कोई ऐसी युक्ति निकालों, जिससे हमलोग द्वैतवन में जा सकें। सब लोग बहुत ठीक ऐसा कहकर अपने-अपने स्थानों को चले गए। रात बीतने पर सुबह होते ही वे फिर दुर्योधन के पास आए। 

तब कर्ण ने दुर्योधन से कहा जिससे द्वैतवन में जाने का एक उपाय सूझ गया है। इस काम के लिए महाराज हमें अवश्य अपनी अनुमति दे देंगे। पाण्डवों से मेल-जोल करने के लिए भी समझावेंगे। ग्वाले लोग द्वैतवन में तुम्हारे आने की बाट देखते ही है, इसलिए घोषणा यात्रा से  हम वहां जरूर जा सकते हैं। इस तरह सलाह करके वे सब राजा धृतराष्ट्र के पास आए। 

उन्होंने पहले ही से समंग नाम के एक गोप को पढ़ाकर ठीक कर लिया था। उसने राजा धृतराष्ट्र से निवेदन किया है कि आपकी गाएं समीप ही आई हुई है। इस पर कर्ण और शकुनि ने कहा इस समय गौएं वहीं ठहरी हुई हैं। यह समय उनके रंग और आयु की गिनती के लिए बहुत उपयुक्त है। इसलिए आप दुर्योधन को वहां जाने की आज्ञ दे दीजिए। यह सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा गायों की देखभाल  करने में तो कोई आपत्ति नहीं है। मैंने सुना है आजकल पाण्डवलोग भी उधर कहीं पास ही में ठहरे हुए हैं। इसलिए मैं तुम लोगों को वहां जाने की अनुमति नहीं दे सकता, क्योंकि तुमने उन्हें कपट से जुए में हराया है। उन्हें वन में रहकर बहुत कष्ट भोगना पड़ रहा है। वे तब से लगातार तप कर रहे हैं। तुम तो अहंकार और मोह में चूर हैं। इसलिए उनका अपराध किए बिना मानोगे नहीं और ऐसा होने पर वे अपने तप के प्रभाव से तुम्हे भस्म कर देंगे। यही नहीं उनके पास कई दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी हैं। इसलिए गुस्सा हो जाने पर वे पांचों वीर मिलकर तुम्हे खत्म कर देंगे।

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राज की बात: पति के मन को कैसे करें वश में?

मैं पति के मन को अपने वश में करने का यह निर्दोष मार्ग बताती हूं। यदि तुम इस पर चलोगी तो अपने स्वामी के मन को अपनी और खीच लोगी। स्त्री के लिए इस लोक या परलोक में पति के समान कोई दूसरा नहीं है। उसकी प्रसन्नता होने पर वह सब प्रकार के सुख पा सकती है और उनके असंतुष्ट होने पर उनके सारे सुख मिट्टी में मिल जाते हैं। 

जिस प्रकार वे यह समझें कि मैं इसे प्यारा हूं, तुम वही काम करो। जब तुम्हारे पति के द्वार पर आने की आवाज पड़े तो तुम आंगन में खड़ी होकर उनके स्वागत के लिए तैयार रहो और जब वे भीतर आ जाएं तो तुरंत ही आसन और पैर धोने के लिए जल देकर उनका सत्कार करो। यदि वे किसी काम के लिए दासी को आज्ञा दे तो वह काम तुम खुद उठकर करो। श्रीकृष्ण को ऐसा मालूम होना चाहिए। 

तुम सब प्रकार उन्हें ही चाहती हो। तुम्हारे पति यदि तुमसे कोई ऐसी बात कहें कि जिसे गुप्त रखना आवश्यक न हो तो भी तुम उसे किसी मत कहो। पतिदेव के जो प्रिय स्नेही हितैषी रहो, उन्हें तरह-तरह के उपायों से भोजन कराओ। जो उनके शत्रु हों उनसे हमेशा दूर रहो। प्रद्युम्र और संाब तुम्हारे पुत्र ही हैं। एकांत में तो उनके पास भी मत बैठों। जो बहुत कुलीन हो उन्ही स्त्रियों से तुम्हारा प्रेम होना चाहिए। 

इस तरह तुम पति की सेवा करो। इस समय भगवान श्रीकृ ष्ण मार्कण्डेय मुनियों और महात्मा पाण्डवों के साथ तरह-तरह उनके मनोनुकूल बातें कर रहे थे। तब सत्यभामाजी ने द्रोपदी को गले मिलकर ढ़ाढस बंधाया। वे बोली कृष्णे तुम चिंता न करो व्याकुल मत होओ। इस प्रकार रात-रातभर जागना छोड़ दो। तुम्हारे पति फिर राज्य प्राप्त कर लेंगे। अपने पतियों सहित इस पृथ्वी पर राज्य करोगी।
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पांचों पांडवों के साथ द्रोपदी कैसे रहती थी?

एक दिन की बात है पाण्डव और ब्राह्मण लोग आश्रम में बैठे थे। उसी समय द्रोपदी और सत्यभामा भी आपस में मिलकर एक जगह बैठी। उन दोनों की भेंट बहुत दिनों बाद हुई।  दोनों ही आपस में बाते करने लगी। सत्यभामा ने द्रोपदी से पूछा बहिन तुम्हारे पति पाण्डवलोग तुम से हमेशा प्रसन्न रहते हैं। मैं देखती हूं कि वे लोग सदा तुम्हारे वश में रहते हैं। तुम मुझे भी ऐसा कुछ बताओ कि मेरे श्याम सुंदर भी मेरे अधीन हों। 

तब द्रोपदी बोली सत्यभामा ये तुम मुझसे कैसी दुराचारणी स्त्रियों के बारे में पूछ रही हो। जब पति को यह मालूम हो तो वह अपनी पत्नी के वश में नहीं हो सकता। तब सत्यभामा ने कहा तो आप बताएं कि आप पांडवों के साथ कैसा आचरण करती हैं। तब द्रोपदी बोली तुम गौर से सुनों मैं तुम्हे सब सच-सच सुनाती हूं। तुम सुनो मैं अहंकार और काम क्रोध को छोड़कर बड़ी ही सावधानी से सब पाण्डवों की स्त्रियों के सहित सेवा करती हूं। मैं अहंकार और काम क्रोध को छोड़कर बड़ी सावधानी से सब पाण्डवों की सेवा करती हूं। मैं ईष्र्या से दूर रहती हूं। मन को काबू में रखकर केवल सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूं। यह सब करते हुए अभिमान को अपने पास नहीं फटकने देती। मैं कटुभाषण से दूर रहती हूं। असभ्यता से खड़ी नहीं होती। खोटी बातों पर दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगह पर नहीं बैठती, दुषित आचरण के पास नहीं फटकती। 

उनके अभिप्राय को पूर्ण संकेत का अनुसरण करती हूं। देवता, मनुष्य, सजाधजा या रूपवान कैसा ही पुरुष हो मेरा मन पाण्डवों के सिवाय कहीं नहीं जाता। उनके स्नान करते बिना स्नान नहीं करती। उनके बैठे बिना स्वयं नहीं बैठती। जब-जब मेरे पति घर में आते हैं मैं घर साफ रखती हूं। समय पर भोजन कराती हूं। सदा सावधान रहती हूं। घर में गुप्त रूप से अनाज हमेशा रखती हूं। मैं दरवाजे के बाहर जाकर खड़ी नहीं होती हूं। पतिदेव के बिना अकेले रहना मुझे पसंद नहीं। साथ ही सास ने मुझे जो धर्म बताएं है मैं सभी का पालन करती हूं।

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जानिए, किसको कैसे वश में करें?

पाण्डवों ने मार्कण्डेयजी से कहा आपने ब्राह्मणों की महिमा तो सुनाई अब आप हमें क्षत्रियों के महत्व के बारे सुनाएं। तब मार्कण्डेय मुनि ने कहा अच्छा सुनों मैं क्षत्रियों का महत्व सुनाता हूं। कुरूवंशी क्षत्रियों में एक सुहोत्र नाम का राजा था। एक दिन वे महर्षियों का सत्संग करने गए।  जब वहां से लौटा तो रास्ते में अपने सामने की ओर उसनं उशीनरपुत्र राजा शिबि के रथ पर आते देखा तो निकट आने पर उन दोनों ने अवस्था के अनुसार एक-दूसरे का सम्मान किया। लेकिन गुण में अपने को बराबर समझकर एक ने दूसरे से सलाह न ली। इतने में वहां नारदजी आ पहुंचे। उन्होंने उशीनरपुत्र राजा शिबि के रथ पर आते देखा। उन्होंने पूछा यह क्या बात है? 

तुम दोनों एक-दूसरे का रास्ता रोककर खड़े हो? वे बोले मार्ग अपने से बड़े को दिया जाता है। हम दोनों तो समान है। अत: कौन किसको मार्ग दे? यह सुनकर नारदजी ने तीन श£ोक पढ़े, जिनका सारांश यह है-कौरव। अपने साथ कोमलता का बर्ताव करने वाला क्रुर मनुष्य भी कोमल बन जाता है।फिर वह सज्जन से साधुता का बर्ताव कैसे नहीं करेगा? अपने उपर एक-बार किए हुए उपकार का भाव होता है। ऐसा कोई नियम नहीं है। इस उशीनर कुमार राजा शिबि का व्यवहार तुम से ज्यादा अच्छा है। नीच प्रकृति वाले मनुष्य को दान देकर वश में करे, झूठे को सत्यभाषण से वश में करें, क्रूर को क्षमा से और दुष्ट को अच्छे व्यवहार से तुम्हे अपन वश में करें। अत: तुम दोनों उदार हो अब तुमसे एक जो अधिक उदार हो वह मार्ग छोड़ दे। ऐसा कहकर नारदजी मौन हो गए। यह सुनकर कुरूवंशी राजा सुहोत्र शिबि को अपने दायी ओर करके उनकी प्रशंसा करते हुए चले गए। इस तरह राजा शिबि का महत्व अपने मुख से कहा है।
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लंबे समय तक जीने वालों को कौन से दुख सहन करने...

मार्कण्डेय मुनि से कई धर्मोपदेश सुनने के बाद युधिष्ठिर बोले मैं बक और इन्द्र के समागम की बात सुनना चाहता हूं। तब उन्होंने कथा सुनाना शुरू किया। एक दिन की बात है देवराज इन्द्र अपनी प्रजा को देखने के लिए ऐरावत चढ़कर निकले। वे पूर्व दिशा में समुद्र के पस एक सुंदर और सुखद स्थान पर नीचे उतरे। वहां एक बहुत सुंदर आश्रम था। जहां बहुत से मृग और पक्षी दिखाई पड़ते थे। उस रमणीक आश्रम में इंद्र ने बक मुनि का दर्शन किए। बक भी देवराज इंद्र को देखकर मन में बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें बैठने को आसन देकर उनका स्वागत किया तब इंद्र ने बक से सवाल कि आपकी उम्र एक लाख वर्ष हो गई है। अभी भी आप स्वस्थ्य हैं। इसका कारण क्या है? और अपने  अनुभव बताइए कि ज्यादा समय तक जीने वाले व्यक्ति को क्या-क्या दुख देखने पड़ते हैं।

 बक ने कहा- अप्रिय मनुष्यों के साथ रहना पड़ता है। प्रिय व्यक्तियों के मर जाने से उनके वियोग में जीवन बीताना पड़ता है। कभी-कभी दुष्ट मनुष्यों का साथ मिलता है। किसी भी चिरंजीवी के लिए इससे बढ़कर दुख क्या होगा? अपने सामने ही पत्नी और पुत्रों की मौत होती है। दोस्तों के लिए हमेशा वियोग बना रहता है।

 युधिष्ठिर ने कहा अब ये बताइए चिरंजीवी मनुष्यों को सुख किस बात में है?

जो अपने परिश्रम से घर में केवल साग बनाकर खाता है, दुसरों के अधीन नहीं होता उसे ही सुख है। दूसरों के सामने दीनता न दिखाकर अपने घर में फल और साग भोजन करना अच्छा है। दूसरे घर में तिरस्कार सह कर रोज मीठा खाना भी अच्छा नहीं है। जो दुसरे के घर में ऐसे अन्न खाता है वह कुत्ते के समान है। जो हमेशा मेहमानों के बाद में भोजन करता है। उतने ही हजारों गायों के दान पुण्य उस दाता को होता है। उसके द्वारा युवावस्था में जो पाप हुए हैं। वे सब नष्ट हो जाते हैं।
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ये कैसे हुआ, एक छोटा सा लड़का इतने बड़े आदमी को...

प्रलय के कारण बताने के बाद मार्कण्डेय ने राजा युधिष्ठिर से कहा। राजा युधिष्ठिर एक समय की बात है। जब मैं एकार्णव के जल में सावधानी पूर्वक बहुत देर तक तैरता-तैरता बहुत दूर जाकर थक गया विश्राम करने की कोई भी जगह ना मिली। तब किसी समय उस अनंन्त जलराशि मैं मैंने एक बड़ा सुंदर और विशाल वट का वृक्ष देखा। उसकी चौड़ी शाखा पर एक सांवला सा सुंदर बालक बैठा था। उसका मुख कमल के समान कोमल और चंद्रमा के मान नेत्रों को आनंद देने वाला था। उसकी आंखें खिले हुए कमल जैसी थी।  उसे देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। सोचने लगा- सारा संसार तो नष्ट हो गया। फिर ये बालक यहां कैसे सो रहा है।

मैं भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल का ज्ञाता हूं तो भी मैं इस बालक के बारे में कुछ क्यों नहीं देख पा रहा हूं। तब वह बालक जिसके चेहरे की कांति अद्भुत थी। वह मेरे कानों में बोला मार्कण्डेय मैं जानता हूं तुम बहुत थक गए हो और विश्राम लेने की इच्छा करते हो। तुम पर कृपा करके यह निवास दे रहा हूं। उस बालक के ऐसा कहने पर मुझे अपने जीवन और मनुष्य होने पर बहुत दुख हुआ।

इतने में ही बालक ने अपना मुंह फैलाया और मैं उसके मुंह में जा पड़ा। वहां मुझे सारे राष्ट्र और नगरों से भरी एक पृथ्वी दिखाई दी। मैंने उसमें गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों को भी देखा। ब्राह्मण लोग अनेकों यज्ञों द्वारा यजन कर रहे थे। क्षत्रिय राजा सब वर्णों और प्रजा को प्रसन्न कर रहे थे। क्षत्रिय राजा सब वर्णों की प्रजा सबको सुखी प्रसन्न रखते थे। वैश्य लोग न्यायपूर्वक खेती का काम और व्यापार कर रहे थे।

उदर में भ्रमण करते हुए मुझे सारी पृथ्वी के विभिन्न स्थान दिखाई दे रहे थे। ये सब मुझे उस बालक के उदर से दिखाई दिया। मैं हर रोज फलाहार करता और घूमता रहता। इस प्रकार सौ वर्ष तक विचरते रहा। उसके बाद एक बार उस बालक ने सहसा उसने मुंह को खोला और मैं बाहर आ गया। देखा तो वह अमित तेजस्वी बालक ने प्रसन्न होकर कुछ मुस्कुराते हुए कहा मार्कण्डेय तुमने मेरे शरीर में विश्राम तो कर लिया है पर फिर भी तुम थके से जान पड़ते हो। तब मैंने उस बालक के पैर छूकर कहा भगवान मैंने आपके भीतर प्रवेश करके सारा संसार देख लिया है। 

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जब प्रलय आने वाला होगा तो ऐसे मिलेंगे संकेत

 इस तरह मत्स्योपाख्यान सुनने के पश्चात युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय मुनि से कहा कि आपने तो अनेक युगों के बाद प्रलय देखा है। आप हमें सारी सृष्टी के कारण से संबंध रखने वाले हैं  मैं आपसे कथा सुनना चाहता हूं।मार्कण्डेयजी ने कहा ये जो हम लोगों के पास भगवान कृष्ण बैठे हैं ये ही समस्त सृष्टि का निर्माण और संहार करने वाले हैं। ये अनंत हैं इन्हें वेद भी नहीं जानते। जब चारों युगों की समाप्त हो जाते हैं। तब ब्रम्ह्म का एक दिन समाप्त हो जाता है। यह सारा संसार ब्रह्म के दिनभर में रहता है। दिन समाप्त होते ही संसार नष्ट हो जाता है। जब सहस्त्र युग समाप्त हो जाते हैं तब सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। ब्राह्मण शुद्रों के कर्म करते हैं। शुद्र वैश्यों की भांति धन संग्रह करने लगते हैं या क्षत्रियों के कर्म से अपनी दिनचर्या चलाने लगते हैं। शुद्र गायत्री जप को अपनाते हैं। इस तरह सब लोगों का व्यवहार विपरित हो जाता है। मनुष्य नाटे कद के होने लगते हैं। आयु, बल, वीर पराक्रम सब घटने लगता है। उनकी बात में सच का अंश बहुत कम होता है। 

उस समय स्त्रियां भी नाटे कद वाली और बहुत से बच्चे पैदा करने वाली होती हैं। गांव-गांव में अन्न बिकने लगता है। ब्राह्मण वेद बेचने लगते हैं। वेश्यावृति बढऩे लगती है। वृक्षों में फल-फूल बहुत कम लगते हैं। गृहस्थ अपने ऊपर भार पढऩे पर इधर-उधर टैक्स की चोरी करने लगते हैं। मदिरा पीते हैं और गुरुपत्नी के साथ व्याभिचार करते हैं। जिनसे शरीर में मांस व रक्त बढ़े उन लौकिक कार्यों को करते हैं। स्त्रियां पति को धोखा देकर नौकरों के साथ व्याभिचार करती हैं। वीर पुरुषों की स्त्रियां भी अपने स्वामी का परित्याग करके दूसरों का आश्रय लेती हैं। इस तरह सहस्त्र युग पूरे होने लगते हैं। इसके बाद सात सूर्यों का बहुत प्रचण्ड तेज बढ़ता है। 

वे सातों सूर्य नदी और समुद्र आदि जो पानी होता है उसे भी सोख लेता है। पृथ्वी का भेदन वह अग्रि रसातल तक पहुंंच जाती है। इसके बाद अशुभकारी वाय और वह अग्रि, देवता, असुर, गंधर्व, यक्ष, सर्प आदि से युक्त सशक्त विश्व को ही जलाकर भस्म कर डालते हैं। फिर आकाश में मेघों की घनघोर घटा घिर आती है। बिजली कौंधने लगती है। भयंकर गर्जना होती है। उस समय इतनी वर्षा करते रहते हैं। इससे समुद्र मर्यादा छोड़ देते हैं। पर्वत फट जाते हैं और पृथ्वी जल में डुब जाती है।
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तब आया प्रलय और हो गया सबकुछ खत्म

इसके बाद पाण्डुनंदन युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी कहा अब आप हमें वैवस्वत मनु के चरित्र को सुनाइए। तब मार्कण्डेयजी ने सुनाना शुरू किया- सूर्य के एक प्रतापी पुत्र था, जो प्रजापति के समान महान मुनि था। उसने बदरिकाश्रम में जाकर पैर पर खड़े हो दोनों बांहे उठाकर दस हजार वर्ष तक भारी तप किया एक दिन की बात है।मनु चारिणी नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। वहां उनके पास एक मत्स्य आकर बोला-मैं एक छोटी सी मछली हूं। मुझे यहां अपने से बड़ी मछलियों से हमेशा डर बना रहता है। वैवस्वत मनु को उस मत्स्य की बात सुनकर बड़ी दया आई। उन्होंने उसे अपने हाथ पर उठा लिया। पानी से बाहर लाकर एक मटके में रख दिया। मनु का उस मत्स्य में पुत्रभाव हो गया था। उनकी अधिक देख भाल के कारण वह उस मटके में बढऩे और पुष्ट होने लगा। 

कुछ ही समय में वह बढ़कर बहुत बड़ा हो गया। मटके में उसका रहना कठिन हो गया। एक दिन उस मत्स्य ने मनु को देखकर कहा भगवन अब आप मुझे इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिए। तब मनु ने उसे मटके में से निकालकर एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक योजन चौड़ी थी। वहां भी मत्स्य अनेकों वर्षों तक बढ़ता रहा। वह इतना बढ़ गया कि  अब उस बावड़ी में भी नहीं रह पाया। 

तब उसने मुनि से प्रार्थना की उसने कहा मुनि- आप मुझे गंगाजी में डाल दीजिए।  उसके बाद जब उसे गंगाजी भी छोटी पढऩे लगी तो उसने मुनि से कहा - मुनि में अब यहां हिल-डुल नहीं सकती आप मुझे समुद्र में डाल दी। उस मत्स्य ने प्रसन्न होकर मुनि से कहा आप सप्तर्षि को लेकर एक नौका में बैठ जाएं क्योंकि प्रलय आने वाला है। सभी सप्तऋषि उस नाव में बैठकर चले गए। उसके बाद जब मनु को सृष्ठि करने की इच्छा हुई तो उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या करके शक्ति प्राप्त की, उसके बाद शक्ति आरंभ की। 
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किस दान का क्या पुण्य मिलता है?

उस अवसर पर पाण्डवों ने बड़े-बड़े तपस्वीयों के साथ सरस्वती तीर्थ पर कई पुण्य कर्म किए। एक दिन एक ब्राह्मण जो अर्जुन का प्रिय मित्र था। यह संदेश लेकर आया कि महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण यहां जल्द ही पधारने वाले हैं। भगवान को यह मालूम हो चुका है कि आप लोग इस वन में आ गए हैं। वे हमेशा ही आप लोगों से मिलने को उत्सुक रहते हैं। आपके कल्याण की बातें सोचा करते हैं। वह ब्राह्मण यह बात कह ही रहा था कि देवकीनंदन भगवान कृष्ण सत्यभामा सहित रथ पर सवार होकर पांडवों के पास पहुंचे। वे सभी पांडवों से मिले उनके हाल-चाल पूछे उसके बाद वे द्रोपदी से बोले प्रद्युम्र तुम्हारे पुत्रों को बहुत अच्छे से शस्त्र शिक्षा दे रहा है 

 जब श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर बात कर रहे थे। तभी मार्कण्डेय मुनि वहां प्रकट हुए। तब युधिष्ठिर ने उनसे रूकने की प्रार्थना की उन्होंने कहा महात्मा मार्कण्डेयजी  हम आपसे श्रेष्ठ ब्राह्मणों के बारे में पूछना चाहते हैं। तब मार्कण्डेय मुनि ने ब्राह्मणों के चरित्र के बारे में बताया। उसके बाद एक बार मुनिवर ने सरस्वती देवी से कुछ प्रश्र किया। उसके उत्तर में सरस्वती ने जो कुछ कहा, वह मैं तुम्हे सुनाता हूं। ताक्ष्र्य ने पूछा- इस संसार में मनुष्य का कल्याण करने की वस्तु क्या है? किस तरह का आचरण करने से मनुष्य अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होता? देवी तुम मुझसे इसका 

वर्णन करो, मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा। मुझे दृढ़ विश्वास है। तुमसे उपदेश ग्रहण करके मैं अपने धर्म से गिर नहीं सकता। जो प्रमाद छोड़कर पवित्रभाव से नित्य स्वाध्याय प्रणव मंत्र का जप करता है। मार्गो से प्राप्त होने योग्य सगुण ब्रह्मा को जान लेता है। वही देवलोक से ऊपर ब्रह्मलोक में जाता है।  देवताओं के साथ उसका मित्रभाव हो सकता है। दान करने वाले को भी उत्तम लोक की प्राप्ति होती है। वस्त्रदान करने वाला चंद्र लोक तक जाता है। स्वर्ण देने वाला देवता होता है। जो अच्छे रंग की हो, सुगमता से दूध दुहवा लेती हो, अच्छे बछड़े देने वाली हो। वे गौ के शरीर में जितने रोएं हों, उतने वर्षो तक परलोक में पुण्यफलों का उपभोग करते हैं। कांसी की दोहनी में  द्रव्य, वस्त्र आदि रखकर दक्षिणा के साथ दान करते हैं। उसकी सारी कामनाए पूर्ण होती है। गोदान करने वाला मनुष्य अपने पुत्र, पौत्र आदि सात पीढिय़ों का नरक से उद्धार करता है। शास्त्रीय विधि के अनुसार अन्य वस्तुओं का दान करने वाला मनुष्य इंद्र लोक तक जाता है। जे सात वर्षों तक हवन करता है वह पीढिय़ों का उद्धार कर देता है।
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तब सर्प ने भीम को छोड़ा

अगर तुम रुकोगे तो कल तुम भी मेरे आहार बनोगे। सर्प तुम कोई देवता हो या दैत्य या वास्तव में सर्प ही हो? सर्प बोला मैं पूर्व जन्म में नहुष राजा था। मैंने अपनी तपस्या से इंद्रियों पर विजयी पाई थी। मेरा अहं बढ़ गया था। इसीलिए मैंने मन्दोमत होकर ब्राह्मणों का अपमान किया था। इसीलिए मुझे अगस्त्य मुनि ने शाप दिया था। उनके शाप के अनुसार ही दिन के छटे भाग में तुम्हारा भाई मुझे भोजन के रूप में मिला है मैं इसे नहीं छोड़ुंगा। लेकिन अगर तुम मेरे पूछे हुए प्रश्रों का उत्तर अभी दे दोगे तो मैं तुम्हारे भाई को छोड़ दुंगा अब आगे....

युधिष्ठिर ने उससे कहा तुम अपनी इच्छा के अनुसार मुझसे प्रश्र करों। उसके बाद सर्प ने युधिष्ठिर से कई प्रश्र किए। उन सभी प्रश्रों के युधिष्ठिर ने उत्तर दिए। उसके बाद सर्प ने क्षमा याचना कर भीम को छोड़ दिया और स्वर्ग गमन किया। जिन दिनों पाण्डव लोग सरस्वती के तटपर निवास करते थे। उसी समय वहं कार्तिक पूर्णिमा का पर्व लगा। 

उस अवसर पर पाण्डवों ने बड़े-बड़े तपस्वीयों के साथ सरस्वती तीर्थ पर कई पुण्य कर्म किए। एक दिन एक ब्राह्मण जो अर्जुन का प्रिय मित्र था। यह संदेश लेकर आया कि महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण यहां जल्द ही पधारने वाले हैं। भगवान को यह मालूम हो चुका है कि आप लोग इस वन में आ गए हैं। वे हमेशा ही आप लोगों से मिलने को उत्सुक रहते हैं। आपके कल्याण की बातें सोचा करते हैं। वह ब्राह्मण यह बात कह ही रहा था कि देवकीनंदन भगवान कृष्ण सत्यभामा सहित रथ पर सवार होकर पांडवों के पास पहुंचे। वे सभी पांडवों से मिले उनके हाल-चाल पूछे उसके बाद वे द्रोपदी से बोले प्रद्युम्र तुम्हारे पुत्रों को बहुत अच्छे से शस्त्र शिक्षा दे रहा है।

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भीमसेन को छोडऩे के लिए सर्प ने रख दी ये कैसी शर्त?

मुंहसे सारी गुफांए रूकी हुई थी। उसे देखते ही भय के मारे शरीर के रोएं, खड़े हो जाते थे। उसकी लाल-लाल आंखें मानो आग उगल रही थी। वह जीभ से बारबार अपने जबड़े चाट रहा था। वह अजगर काल के समान विकराल और समस्त प्राणियों को भयभीत करने वाला था। भीमसेन को सहसा अपने पास पाकर वह महासर्प क्रोध से भर गया और उनके शरीर को लपेट लिया। अजगर को मिले हुए वर के प्रभाव के कारण जब उसक स्पर्श भीमसेन से होते ही उनकी चेतना लुप्त हो जाती है अब आगे...

 भीमसेन को सहसा अपने निकट पाकर वह महासर्प बहुत गुस्से में भर गया। उसने बलपूर्वक अपनी भुजाओं में भीमसेन को लपेट लिया। अजगर के मिले हुए वर के प्रभाव से उसका स्पर्श होते ही भीमसेन की चेतना लुप्त हो गई। वे बेकाबु हो गए और धीरे-धीरे छुटने के लिए तडफ़ड़ाने लगे। मगर उसने ऐसा बांध लिया कि वे हिल भी ना सके। भीमसेन के पूछने पर उस अजगर ने अपने पूर्वजन्म का परिचय दिया तथा शाप और वरदान की कथा सुनाई। फिर भी वे सर्पबंधन से छुटकारा न पा सके। इधर राजा युधिष्ठिर बड़े भयंकर उत्पात से घबरा गए। युधिष्ठिर का बायां हाथ फड़कने लगा। ये सब अपशकुन देखकर वे समझ गए थे कि कोई बड़ी मुसीबत आ गई है। उन्होंने द्रोपदी से पूछा भीमसेन कहां है? द्रोपदी बोली उन्हें तो वन गए देर हो गई है। तब अर्जुन को द्रोपदी का रक्षा कार्य सौंपकर नकुल व सहदेव को ब्राह्मणों की सेवा में नियुक्त किया। 

उसके बाद वे भीम के पैरों के चिन्हों  की खोज में चल पड़े। वे उन्हें ढुंढते हुए उसी पर्वत पर पहुंच गए। उन्होंने देखा कि भीम को अजगर ने जकड़ा हुआ है। धर्मराज ने भीम से कहा कुंती के पुत्र होकर तुम इस आपत्ति में कैसे फंस गए। यह पर्वाताकार अजगर कौन है। बड़े भाई धर्मराज को देखकर भीम ने सारी बात कह सुनाई। धर्मराज ने सर्प से कहा- तुम मेरे इस पराक्रमी भाई को छोड़ दो। तुम्हारी भूख मिटाने के लिए मैं तुम्हे दुसरा आहार दूंगा। सर्प बोला- यह राजकुमार मेरे मुख के पास आकर खुद मुझे भोजन के रूप में मिला है।

अगर तुम रुकोगे तो कल तुम भी मेरे आहार बनोगे। सर्प तुम कोई देवता हो या दैत्य या वास्तव में सर्प ही हो? सर्प बोला मैं पूर्व जन्म में नहुष राजा था। मैंने अपनी तपस्या से इंद्रियों पर विजयी पाई थी। मेरा अहं बढ़ गया था। इसीलिए मैंने मन्दोमत होकर ब्राह्मणों का अपमान किया था। इसीलिए मुझे अगस्त्य मुनि ने शाप दिया था। उनके शाप के अनुसार ही दिन के छटे भाग में तुम्हारा भाई मुझे भोजन के रूप में मिला है मैं इसे नहीं छोड़ुंगा। लेकिन अगर तुम मेरे पूछे हुए प्रश्रों का उत्तर अभी दे दोगे तो मैं तुम्हारे भाई को छोड़ दुंगा।

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किससे और क्यों डर रहे थे गदाधारी भीम

सभी पांडव गंधमादन पर्वत से चलकर द्वेतपान प्रदेश पहुंचे अब आगे.... भीम तो दस हजार हाथियों के समान बल वाले थे। वे उस अजगर से बहुत भयभीत कैसे हो गए? जो कुबेर को भी युद्ध में ललकार सकते हैं। भीम को आप एक सांप से डरा हुआ बता रहे हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है। जिस समय पाण्डव लोग महर्षि वृषपर्वा के आश्रम पर आए। वहां के अनेकों प्रकार की आश्चर्यजनक घटनाओं से युक्त वनों में निवास करने लगे उन्ही दिनों की बात है। एक बार भीमसेन ने अपनी अच्छा के अनुसार वन देखने के लिए आश्रम से बाहर निकले। उस समय उनकी कमर तलवार बंधी थी। और हाथ में धनुष था। 

भीमसेन धीरे-धीरे चले जा रहे थे। इतने में उनकी दृष्टि एक विशालकाय अजगर पर पड़ी, जो एक पर्वत की कंदरा में था। उसके पर्वत के समान विशाल शरीर से सारी गुफा रूकी हुई थी। उसके शरीर की कांति हल्दी के समान पीले रंग की थी। उसके मुंहसे सारी गुफांए रूकी हुई थी। उसे देखते ही भय के मारे शरीर के रोएं, खड़े हो जाते थे। उसकी लाल-लाल आंखें मानो आग उगल रही थी। वह जीभ से बारबार अपने जबड़े चाट रहा था। वह अजगर काल के समान विकराल और समस्त प्राणियों को भयभीत करने वाला था। भीमसेन को सहसा अपने पास पाकर वह महासर्प क्रोध से भर गया और उनके शरीर को लपेट लिया। अजगर को मिले हुए वर के प्रभाव के कारण जब उसक स्पर्श भीमसेन से होते ही उनकी चेतना लुप्त हा जाती।
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इसलिए मुनि ने दिया कुबेर को शाप

कुबेर ने पांडवों को देखा तो वे धर्मराज से बोले आप सभी यहां रह सकते हैं। भीमसेन के हाथ से जिनकी भी मृत्यु हुई है। वे अपने काल से ही मरे है। आपका भाई तो निमित मात्र है। एक बार कुशस्थली नाम के स्थान पर देवताओं की मंत्रणा हुई। उसमें मुझे भी बुलाया गया था। तब मैं तरह-तरह के अस्त्रों व शस्त्रों से सुसज्जित वहां पहुंचा। वहां मेरे साथ तीन सौ महापद्य यक्ष भी थे। 

रास्ते में मुझे अगस्त्य मुनि मिले। वे यमुनाजी के तट पर बैठकर कठीन तपस्या कर रहे थे। उस समय मेरा राक्षस मित्र मणिमान भी मेरे साथ था। उसने गर्व और मूर्खता के अधीन होकर अगस्त्य मुनि पर थुक दिया। इस कारण वे महर्षि नाराज हो गए उन्होंने उसे शाप दिया कहा- तुम्हारे इस मित्र ने मेरा अपमान किया है इसलिए यह अपनी सेना सहित केवल एक ही मनुष्य के हाथों मारा जाएगा। मुझे भी शाप दिया कितुम्हे भी इन सेनानियों के कारण दुखी होना पड़ेगा। फिर उस मनुष्य के दर्शन करने पर ही तुम्हारा दुख दुर होगा जिसने उन्हें मारा होगा। इस प्रकार महर्षियों में श्रेष्ठ अगस्त्यजी ने शाप दे दिया था। उस शाप से आज आपके भाई ने मुझे मुक्त किया है।


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जब कुबेर ने पांडवों को देखा तो...

इस समय गुफाओं में अनेक प्रकार के शब्दों से गुंजते देखकर अजातशत्रु युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, धौम्य, द्रोपदी ब्राह्मण और भीमसेन को न देखकर उदास हो गए। फिर द्रोपदी को अष्र्टिपेण मुनि को सौंपकर वे सब वीर अस्त्र-शस्त्र लेकर एक साथ पर्वत पर चढऩे लगे। पहाड़ की चोटी पर पहुंचकर उन्होंने इधर-उधर दृष्टी डाली तो देखा कि एक ओर भीमसेन खड़े हैं और वही उनके मारे हुए अनेकों विशालकाय राक्षस पृथ्वी पर पड़े हैं। भीमसेन को देखकर सब भाई उनसे गले मिले और फिर वहीं बैठ गए। महाराज युधिष्ठिर ने कुबेर के महल और मरे हुए राक्षसों की ओर देखकर भीमसेन ने कहा भैया भीम तुमने यह पाप साहस या मोहवश ही किया है। तुम मुनियों का सा जीवन व्यतीत कर रहे हो, इस तरह हत्या करना तुम्हे शोभा नहीं देता। देखो तुम मेरी प्रसन्नता चाहते हो तो ऐसा मत करो। 

इधर भीमसेन के आक्रमण से बचे हुए कुछ राक्षस बड़ी तेजी से दौड़कर कुबेर के पास आए। चीख-चीखकर उनसे कहने लगे-आज संग्राम भूमि में एक अकेले मनुष्य ने क्रोधवश नाम के राक्षसों को मार डाला है। वे सब वहां मरे हुए पड़े हैं हम जैसे-तैसे वहां से जान बचाकर निकले हैं। आपका मित्र मणिमान भी मारा जा चूका है। यह सब कांड एक मनुष्य ने ही कर डाला है। अब जो करना चाहे वही कीजिए। यह समाचार पाकर सभी यक्ष और राक्षस बहुत क्रोधित हुए। उनकी आंखें लाल हो गई कुबेर ने राक्षसों से पूछा यह कैसे हुआ? फिर यह दूसरा अपराध भी भीमसेन का ही सुनकर उसका गुस्सा और बढ़ गया। उसने आज्ञा दी हमारा रथ सजा लाओ। रथ तैयार हो जाने पर राजराजेश्चर महाराज कुबेर उस पर चढ़कर चले। जब वे गंधमादन पर पहुंचे तो यक्ष राक्षसों से घिरे हुए कुबेरजी को देखकर पांडव रोमांचित हो गए। कुबेर महाराज पांडु के बड़े धनुषधारी पुत्र को देखकर वह प्रसन्न हो गए। वे उनसे देवताओं का ही कार्य कर करवाना चाहते थे। इसलिए उन्हें देखकर वे दिल से संतुष्ट हुए। धर्म के रहस्य को जानने वाले कुबेर को सभी पाण्डवों ने प्रणाम किया। अपने को उनका अपराधी सा माना। वे सब यक्षराज को घेरकर हाथ जोड़कर खड़े हो गए अब आगे....

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तो इसलिए भीम ने अकेले ही कर दी कुबेर पर चढ़ाई

 एक दिन भीमसेन उस पर्वत पर आनंद से एकांत में बैठे हुए थे। उस समय द्रोपदी ने उनसे कहा अगर सारे राक्षस आपके बाहुबल से पीडि़त होकर इस पर्वत को छोड़कर भाग जाए तो कैसा रहे। फिर तो यह पर्वत हर तरह के डर से रहित हो जाएगा। मेरे मन में बहुत दिनों से यह बात आ रही है। द्रोपदी की बात सुनकर भीमसेन ने सुवर्ण की पीठवाला धनुष, तलवार, तरकश, उठा लिए, वे हाथ में गदा लेकर गंधमादन की ओर आगे बढऩे लगे। 
उस पर्वत की चोटी पर जाकर वे वहां से कुबेर के महल को देखने लगे। वह सुवर्ण और स्फटिक के भवनों से सुशोभित था। उसके चारों और सोने का परकोटा बना हुआ था। उसमें सब प्रकार के रत्न जगमगा रहे थे। तरह-तरह के उद्यान उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उन्होंने शंख बजाया। शंख की आवाज से यक्ष, राक्षस, गंधर्वों के रोंगटे खड़े हो गए। वे गदा परिघ, तलवार, त्रिशूल शक्ति और फरसा लेकर भीमसेन की अपने प्रबल वेगवाले भाले से उनके चलाए हुए त्रिशूल, तलवार, आदि फेंककर दक्षिण दिशा को भागे। उधर कुबेर का मित्र मणिमान नाम का राक्षस रहता था।
उसने यक्ष-राक्षसों को भागते देखकर मुस्कुराकर कहा- तुम अनेकों को अकेले आदमी ने परास्त कर दिया। अब तुम कुबेर के पास जाकर क्या कहोगे। उन सबसे ऐसा कहकर वह राक्षस शक्ति, त्रिशूल और गदा लेकर भीमसेन पर टूट पड़ा। भीमसेन ने भी उसे हाथी की तरह अपनी ओर आते देखकर वत्सदंत नामक तीन बाणों से उसकी पसलियों पर प्रहार किया। इससे मणिमान बहुत क्रोध में भर गया। उसने अपनी भारी गदा उठाकर भीमसेन के ऊपर छोड़ी। परंतु भीमसेन गदायुद्ध की चालों में बहुत दक्ष थे। उन्होंने उसके उस प्रहार व्यर्थ कर दिया।

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