सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat 7







महाभारत युद्ध में कृष्ण ने किसे बनाया पांडवों का सेनापति और क्यों?


श्रीकृष्ण का कथन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके सामने ही अपने भाइयों से कहा- कौरवों की सभा में जो कुछ हुआ। वह सब तो तुमने सुन ही लिया और श्रीकृष्ण ने जो बात कही है, वह भी समझ ही ली होगी। इसलिए अब मेरी इस सेना का विभाग करो। हमारी विजय के लिए यह सात अक्षौहिणी सेना इकट्ठी हुई है। इसके ये सात सेना अध्यक्ष हैं- द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्र, शिखण्डी, सात्यकि, चेकितान, और भीमसेन।

ये सभी वीर अंत समय तक युद्ध करने वाले हैं। लज्जाशील और नितिमान और युद्धकुशल है। युधिष्ठिर ने कहा सहदेव यह बताओ इन सातों का भी नेता कौन हो, जो रणभूमि में भीष्मरूप अग्रि का सामना कर सके। सहदेव ने कहा- मेरे विचार से तो महाराज विराट इस पद के योग्य है। फिर नकुल ने कहा मैं तो द्रुपद को इस पद के योग्य समझता हूं। अर्जुन ने कहा मैं धृष्टद्युम्र को प्रधान सेनापति होने के योग्य समझता हूं। इसके सिवा कोई वीर दिखाई नहीं देता, जो महाव्रती भीष्मजी के सामने डट सके।

 भीमसेन बोले- द्रुपदपुत्र शिखण्डी का जन्म भीष्मजी के वध के लिए ही हुआ है। इसलिए मेरे विचार से ही प्रधान सेनापति होने चाहिए। यह सुनकर राजा युधिष्ठिर ने कहा- भाइयों धर्ममूर्ति श्रीकृष्ण सारे संसार के सारासार और बलाबल को जानते हैं। अत: जिसके लिए सम्मति दें। उसी को सेनापति बनाया जाए। हमारी जय या पराजय के कारण एकमात्र ये ही हैं। 

धर्मराज युधिष्ठिर की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान कृष्ण ने अर्जुन की ओर देखते हुए कहा महाराज आपकी सेना के नेतृत्व के लिए जिन-जिन लोगों के नाम लिए गए हैं इन सभी को मैं इस पद के योग्य मानता हूं। ये सभी बड़े पराक्रमी योद्धा हैं। लेकिन मेरे विचार से धृष्टद्युम्र को ही प्रधान सेनापति बनाना उचित होगा। श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर सभी पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। सब सैनिक चलने के लिए दौड़-धूप करने लगे।


महाभारत की घोषणा करने के बाद जब कृष्ण लौटे पांडवों के पास....


इधर हस्तिनापुर से कृष्णजी पांडवों के पास पहुंचे। श्रीकृष्ण ने कौरवों के साथ-जो बातें की थी। वे सब पांडवों को सुना दी। उन्होंने कहा हस्तिनापुर में जाकर मैंने कौरवों की सभा में दुर्योधन से बिल्कुल सच्ची, हितकारी और दोनों पक्षों का कल्याण करने वाली बात कहीं। लेकिन उस दुष्ट ने कुछ नहीं माना। 

राजा युधिष्ठिर ने कहा श्रीकृष्ण जब दुर्योधन ने अपना कुमार्ग नहीं छोड़ा तो पितामह ने उससे क्या कहा? आचार्य द्रोण, महाराज धृतराष्ट्र, माता गांधारी सब सभा में बैठे थे या नहीं? श्रीकृष्ण ने कहा- राजन कौरवों की सभा में राजा दुर्योधन से जो बात कही गई थी। जब मंैं अपनी बात खत्म कर चुका तो दुर्र्योधन हंसा। इस पर भीष्म जी ने क्रोधित होकर कहा- दुर्र्योधन इस कुल के कल्याण के लिए मैं जो बात कहता हूं तू उस पर ध्यान दे। तुझे बड़े-बुढा़े की बात पर ध्यान देना चाहिए। ऐसा करने से तू अपने को और सारी पृथ्वी को नष्ट होने से बचा लेगा। इसके बाद सभी ने उसे बहुत तरह से समझाने का प्रयत्न किया इस तरह कृष्णजी ने वहां हुई सारे घटनाक्रम का वर्णन पांडवों को सुनाया। 

उसके बाद मैंने सब राजाओं को ललकारा और दुर्योधन का मुंह बंद कर दिया। मैंने दुर्योधन से कहा कि सारा राज्य तुम्हारा ही है तुम सिर्फ पांच गांव पांडवों को दे दो क्योंकि तुम्हारे पिता को पांडवों का पालन भी जरुर करना चाहिए। लेकिन अब उन पापियों के लिए मुझे दंड नीति का आश्रय लेना ही उचित जान पड़ता है। वे किसी प्रकार से समझने वाले नहीं हैं। वे सब विनाशके कारण बन चुके हैं और मौत उनके सिर पर नाच रही है।


कर्ण के कुंती से किए इस एक वादे ने महाभारत की बाजी पलट दी...

कर्ण का र्धेर्य सच्चा था। माता कुंती और पिता सूर्य के स्वयं इस प्रकार कहने पर भी उसकी बुद्धि विचलित नहीं हुई। उसने कहा- क्षत्रिये तुम्हारी इस आज्ञा को मान लेना धर्मनाश के द्वार खोल देना है। तुमने मुझे त्यागकर धर्मनाश किया है। तुम्हारे कारण ही मेरा क्षत्रियों सा संस्कार नहीं हो पाया। पहले से तो मैं पाण्डवों के भाई रूप में प्रसिद्ध हूं नहीं, युद्ध के समय यह बात खुली है। अब मैं पाण्डवों के पक्ष में हो जाता हूं तो क्षत्रिय लोग क्या कहेंगे? धृतराष्ट्र के पुत्रों ने मुझे हर तरह का ऐश्वर्य दिया है।

इसलिए इस समय मुझे जान का लालच न कर प्राणों का लोभ न करके अपना ऋण चुका देना चाहिए। मैं तुम्हारे सामने झूठी बात नहीं करूंगा। मैं तुम्हारे पांचों पुत्रों को मार सकता हूं लेकिन किसी को नहीं मारूंगा। परन्तु अर्जुन से में युद्ध करूंगा। युधिष्ठिर की सेना का वो एक मात्र योद्धा है जिससे मैं युद्ध करने की इच्छा रखता हूं। उसे मारने से ही मुझे संग्राम का सुयश मिलेगा। इस तरह में वादा करता हूं कि तुम्हारे पांच पुत्र बचे रहेंगे। अर्जुन न रहा तो वे कर्ण के सहित पांच रहेंगे और मैं मारा गया तो अर्जुन के सहित पांच रहेंगे।


क्या हुआ जब कुंती ने कर्ण से कहा-तुम मेरे पुत्र हो?

जब श्रीकृष्ण पांडवों के पास चले गए तो विदुरजी ने कुंती के पास जाकर कुछ खिन्न से होकर कहा- तुम जानती हो मेरा मन तो हमेशा युद्ध के विरुद्ध रहता है। मैं चिल्ला-चिल्लाकर थक गया, लेकिन दुर्योधन मेरी बात को सुनता ही नहीं। 

अब श्रीकृष्ण संधि के प्रयत्न में असफल होकर गए हैं। वे पांडवों को युद्ध के लिए तैयार करेंगे। यह कौरवो की अनीति सब वीरों का नाश कर डालेगी। इस बात को सोचकर मुझे न दिन में नींद आती और न रात में ही। विदुरजी की यह बात सुनकर कुंती दुख से व्याकुल हो गई। मन ही मन कहने लगी इस धन को धिक्कार है। इस से बन्धु-बांधवों का भीषण संहार होगा। इससे मेरा भय और भी बढ़ जाता है। कर्ण भी हमारा दुश्मन बना बैठा है। 

वो उस दुर्बुद्धि दुर्योधन की हर उल्टी बात में उसका साथ देता है। ऐसा सोचकर कुंती गंगातट पर कर्ण के पास गई। वहां पहुुंचकर कुंती ने अपने उस सत्यनिष्ट पुत्र के वेदपाठ की ध्वनि सुनी। कुंती ने जप समाप्त होते ही। कर्ण से कहा- कर्ण तुम राधा के पुत्र नहीं और सारी कहानी सुना दी। तुम्हे पांडवों के साथ मैत्री कर लेनी चाहिए। 

जैसे कृष्ण और बलराम की जोड़ी है वैसे ही कर्ण और अर्जुन जोड़ी बन जाए तो तुम सब कुछ जीत सकते हो। तुम अपने भाइयों में सबसे बड़े हो खुद को सूत पुत्र मत समझो। उसी समय कर्ण को सूर्यमंडल से आती हुई एक आवाज सुनाई दी। वह आवाज पिता की आवाज के समान स्नेहपूर्ण थी। उन्होंने कहा अगर तुम वैसा ही करोगे जैसा कुंती ने कहा है तो तुम्हारा हर तरह से हित होगा।


कर्ण का ये जवाब सुनकर श्रीकृष्ण ने कर दी महाभारत युद्ध की घोषणा....

कर्ण की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले- कर्ण! तो क्या तुम्हे यह राज्यप्राप्ति का उपाय भी मंजूर नहीं है। तुम मेरी दी हुई पृथ्वी का भी शासन नहीं करना चाहते। अच्छा होगा कि तुम अब यहां से जाकर भीष्म, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य से कहना। इस समय फलों की अधिकता है। जल में स्वाद आ गया है। न ज्यादा ठंड है न गर्मी अच्छा सुखमय समय है।

आज से सातवें दिन अमावस्या होगी। उसी दिन युद्ध आरंभ करो। वहां और भी जो-जो राजा लोग आए उन्हें भी यह खबर दे देना। तुम्हारी इच्छा युद्ध करने की है तो मैं उसी का प्रबंध कर देता हूं। तब कर्ण ने कहा- आप मुझे मोह में क्यों डाल रहे हैं? यह तो पृथ्वी के संहार का समय आ गया है।भयानक अपशकुन भी हो रहे हैं और उत्पात भी हो रहा है। पाण्डवों के हाथी घोड़े ओर वाहन भी तैयार हैं। श्रीकृष्ण ने कहा- कर्ण निस्संदेह अब पृथ्वी विनाश के करीब पहुंच चुकी है। जब विनाशकाल नजदीक आ जाता है तो इंसान को अन्याय भी न्याय दिखने लगता है। तब कर्ण ने कहा अच्छा अब युद्ध में ही मिलना होगा। ऐसा कहकर गाढ़ा आलिंगन किया। 


जब कर्ण को पता चली उसकी असली पहचान तो....

कर्ण ने कहा केशव! आपने प्यार और मित्रता के नाते और मेरे हित की इच्छा से जो कुछ कहा है वह ठीक है। इन सब बातों का मुझे भी पता है। जैसा आप समझते हैं, धर्मानुसार मैं पाण्डव का पुत्र हूं। कुन्ती ने कन्यावस्था में सूर्यदेव के द्वारा मुझे गर्भ धारण किया था। फिर उन्ही के कहने से त्याग दिया। उसके बाद अधिरथ सूत मुझे देखकर घर ले गए और उन्होंने बड़े प्यार से मुझे अपनी पत्नी राधा की गोद में दे दिया। 

उन्होंने ही मुझे पुत्र के समान प्यार देकर पाला। उन्होंने ही मेरे जातिकर्म आदि संस्कार भी करवाए। युवावस्था में सूत जाति की स्त्रियों से मेरा विवाह करवाया था। उन स्त्रियों में मेरा हृदय प्रेमवश काफी फंस चुका है। अब उनसे मेरे बेटे पोते भी पैदा हो चुके हैं। दुर्योधन ने भी मेरे ही भरोसे शस्त्र उठाने का साहस किया है। और इसी से संग्राम में मुझे अर्जुन के साथ द्विरथयुद्ध न किया तो इससे अर्जुन और मेरी दोनों की ही अपकीर्ति होगी। केशव आप हमारे बीच हुई बातचीत को किसी को भी मत बताइगा। अगर हमारी बात युधिष्ठिर को पता चल गई तो वे कभी राज्य ग्रहण नहीं करेंगे।


कैसे पता चला कर्ण को कि वह कुंती का बेटा है?

ये कहानी सुनाने के बाद कुंती ने कहा राज्य न पाने, जूए में हारने या पुत्रों का वनवास होने का दुख नहीं है। लेकिन मेरी युवती पुत्रवधु ने सभा में रोते हुए। जो दुर्योधन से कुवचन कहे थे। तुम उनकी याद  पुत्रों को दिला देना। अब तुम जाओ मेरे पुत्रों की रक्षा करते रहना। जाओ तुम्हारा मार्ग निर्विघ्र हो। भगवान कृष्ण ने कुंती को प्रणाम किया और उनकी प्रदक्षिणा कर बाहर आए। कुंती ने श्रीकृष्ण को जो संदेश दिए थे।

उसे सुनकर महारथी भीष्म और द्रोण ने राजा दुर्योधन से कहा राजन कुंती ने श्रीकृष्ण से जो अर्थ और धर्म के अनुकूल बड़े ही उग्र और मार्मिक वचन तुमने सुने। अब पांडव लोग श्रीकृष्ण की सम्मति से वही करेंगे। वे आधे राज्य को लिए बिना शांति से नहीं बैठेंगे। इसलिए तुम अपने मां-बाप और हितैषियों की बात मान लो। अब संधि या युद्ध तुम्हारे हाथ ही है। यदि इस समय तुम्हे हमारी बात नहीं समझ आती तो भीमसेन का सिंहनाद सुनकर जरूर समझ आएगी। यह सुनकर राजा दुर्योधन उदास हो गया। उसने मुंह नीचा कर लिया भौहें को सिकोड़कर टेड़ी निगाह कर देखने लगा। उसे उदास देखकर भीष्म और द्रोण आपस में एक-दूसरे की ओर देखकर बात करने लगे। भीष्म ने कहा युधिष्ठिर हमेशा हमारी सेवा करने को तत्पर रहता है। वह कभी किसी से ईष्र्या नहीं करता। दुर्योधन तुम्हारे कुल राज्य और सुख सबका सफाया हो जाएगा।

इसलिए उन वीरों के साथ युद्ध करने का विचार छोड़कर तुम संधि कर लो। इधर श्रीकृष्ण जब कर्ण को रथ में बैठाकर हस्तिनापुर से बाहर आए और कर्ण से कहा- तुमने वेदवेता ब्राह्मणों की बहुत सेवा की है। लेकिन मैं तुम्हे एक गुप्त बात बताता हूं। तुमने कुंती की कन्यावस्था में उसी के गर्भ से जन्म लिया है। इसलिए धर्म अनुसार तुम पाण्डवों के भाई हो। तुम मेरे साथ चलो। पाण्डवों को भी यह मालूम हो जाना चाहिए कि तुम युधिष्ठिर से पहले उत्पन्न हुए कुंती पुत्र हो। फिर तो पांच पांडव और पांडवों का पक्ष लेने के लिए एकत्रित हुए राजा, राजपुत्र आदि सब यादव भी तुम्हारा वंदन करेंगे।


अगर आप दुश्मनों से परेशान हैं तो यह कहानी जरूर पढ़ें

भगवान कृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, भीष्म,विदुर, कृपाचार्य से कहा इस समय कौरवों की सभा में जो कुछ हुआ है, वह आपने प्रत्यक्ष देख लिया तथा यह बात भी आप सबके सामने ही की है। मंदबुद्धि दुर्योधन किस प्रकार तुनककर सभा से चला गया। महाराज धृतराष्ट्र भी इस विषय में अपने को असर्मथ बता रहे हैं। अब मैं आप सबसे आज्ञा चाहता हूं।

राजा युधिष्ठिर के पास जाता हूं। इस प्रकार आज्ञा लेकर जब भगवान जाने लगे तब सभी लोग कुछ दूर उनके पीछे गए। कृष्ण का रथ थोड़ी दूर पर जाकर रूका। वे कुंती से मिले। कुंती को जो कुछ हुआ वह संक्षेप में बताया। तब कुंती ने कहा मैं तुम्हे इस बात पर एक प्राचीन कहानी सुनाती हूं। उसमें विदुला और उसके पुत्र का संवाद है। विदुला एक क्षत्राणी थी। वह बहुत यशविस्नी, तेज स्वभाववाली, कुलीना, सयंमशीला और दिर्घदर्शनी थी। राजसभाओं में उसकी अच्छी ख्याति थी। शास्त्र का भी उसे अच्छा ज्ञान था। एक बार उसका पुत्र सिंधुराज से युद्ध में हार गया। वह हारकर वापस अपने राज्य पहुंचा। 

वह जब अपनी मां विदुला से मिला तो उसने कहा- तू तो शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाला है। तुझमें जरा भी आत्माभिमान नहीं है, इसलिए क्षत्रियों में तो तू गिना ही नहीं जा सकता। तेरे अवयव और बुद्धि आदि भी मेरी नहीं है।तू अपने आत्मा का निरादर करना। तेरा नाम तो संजय है लेकिन मुझे तुझमे ऐसा कोई गुण दिखाई नहीं देता। जब तू बालक था तब तुझे एक ब्राह्मण ने देखकर कहा था जब यह बालक बहुत भारी विपत्ति में पड़ेगा और एक बार हारकर पुन: जीतेगा। राजा संजय छोटे मन का आदमी था। लेकिन मां के ऐसी बात सुनकर उसका मोह नष्ट हो गया। वह फिर से दुगनी ऊर्जा से युद्ध भूमि में गया और युद्ध जीत गया। कुंती ने कहा- जब भी कोई दुश्मनों से परेशान हो उसे यह प्रसंग सुनाना चाहिए। साथ ही इस इतिहास को सुनने से गर्भवती स्त्री निश्चित ही वीर पुत्र उत्पन्न करती है।

धृतराष्ट्र को कृष्ण ने क्यों दिए थे दिव्य नेत्र?

राजा धृतराष्ट्र ने कहा- श्रीकृष्ण आप सारे संसार के  हितकर्ता है अत: आप हम पर कृपा कीजिए। मेरी प्रार्थना है कि इस समय मुझे दिव्य नेत्र प्राप्त हो मैं केवल आप ही के दर्शन करना चाहता हूं। फिर किसी दूसरे को देखने की मेरी इच्छा नहीं है। इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, कुरुनंदन तुम्हारे अदृश्य रूप से दो नेत्र हो जाएं। उस समय पृथ्वी डगमगाने लगी। समुद्र में खलबली पड़ गई।श्रीकृष्ण न धृतराष्ट्र को अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया। उसके बाद भगवान ने अपनी माया को समेट लिया।

वे ऋषियों से आज्ञा लेकर सात्यकि और कृतवर्मा के हाथ पकड़े सभा भवन से चले गए। उनके जाते ही नारद मुनि भी अंतरध्यान हो गए। श्रीकृष्ण को जाते देख सभी राजा और कौरव उनके पीछे चलने लगे। श्रीकृष्ण ने उन राजाओं की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इतने में दारुक उनका दिव्य रथ सजाकर ले आया। भगवान रथ पर सवार हुए। उनके साथ कृतवर्मा भी चढ़ता दिखाई दिया। जब वे जाने लगे तो धृतराष्ट्र बोले मेरे पुत्रों पर मेरा बल कितना है। यह तो आप देख ही चुके हैं। मैं तो चाहता हूं कि कौरव व पांडवों के बीच संधि हो जाए।


कब और क्यों करवाया था श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को अपने असली रूप का दर्शन?


इस पर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा- तुम शीघ्र ही पापी दुर्योधन को ले आओ। संभव है, इस बार मैं उसके अनुयायियों सहित उसे ठीक रास्ते पर ला सकूं। विदुरजी दुर्योधन की इच्छा न होने पर भी उसे फिर सभा में ले आए। राजा धृतराष्ट्र बोले क्यों रे कुटिल दुर्योधन तू अपने पापी साथियों के साथ मिलकर एकदम पापकर्म करने पर ही उतारू हो गया है। याद रख, तुझ जैसा कुलकलंक पुरुष जो कुछ करने का विचार करेगा वह कभी पूरा नहीं होगा। इससे सत्पुरुष तेरी निंदा करेंगे। 

कहते है। जिस तरह हवा की हाथ से नहीं पकड़ा जा सकता और पृथ्वी को सिर पर नहीं उठाया जा सकता, वैसे ही श्रीकृष्ण को किसी बल से नहीं बांधा जा सकता। विदुरजी ने बोले-दुर्योधन तुम मेरी बात सुनो। देखो श्रीकृष्ण को कैद करने का विचार नरकासुर ने भी किया था और श्रीकृष्ण ने उसका क्या हाल किया ये तुम जानते हो। विदुरजी की बात खत्म होने के बाद श्रीकृष्ण ने कहा-दुर्योधन तुम जो अज्ञानवश यह समझते हो कि मैं अकेला हूं।

याद रखो पांडव, वष्णि और यादव भी यहीं हैं। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण हंसने लगे। तुरंत ही उनके सभी अंगों से बिजली-सी चमकने लगी। उनके अंगों में सभी देवता दिखाई देने लगे। उस समय श्रीकृष्ण की अनेकों भुजाएं दिखाई दे रही थी जो कई शस्त्रों से सजी हुई थी। उनके कानों से आग निकलने लगी। श्रीकृष्ण का यह रूप देखकर सभी राजा डरने लगे।


श्रीकृष्ण को कैद करना चाहता था दुर्योधन क्योंकि....

गांधारी की कही इन बातों पर दुर्योधन ने कुछ ध्यान नहीं दिया। वह क्रोध में सभा छोड़कर मंत्रियों के पास चला गया। फिर दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दु:शासन इन चारो मिलकर यहां सलाह की कि देखो यह कृष्ण हमें कैद करना चाहता है तो क्यों न हम ही इसे पहले कैद कर लें। कृष्ण को कैद हुआ सुनकर पाण्डवों का सारा उत्साह ठंडा पड़ जाएगा। सात्यकि जो इशारे से ही दूसरों के मन की बात जान लेते थे। 

वे तुरंत ही उनके भाव समझ गए। वे सभा से बाहर आकर कृतवर्मा से बोले शीघ्र ही सेना सजाओ दुर्योधन श्रीकृष्ण को कैद करने की सोच रहा है। फिर उन्होंने सभा में जाकर श्रीकृष्ण को उनका वह कुविचार कह दिया। सात्यकि ने मुस्कुराकर राजा धृतराष्ट्र और विदुर से कहा सत्पुरुषों की दृष्टि में दूत को कैद करना अधर्म है लेकिन ये मूर्ख वही करना चाहते हैं। इनका मनोरथ किसी भी तरह पूरा नहीं हो सकता। 

श्रीकृष्ण को कैद करना वैसा ही है जैसे कोई बालक जलती हुई आग पर कपड़े से लपेटना चाहे। सात्यकि की यह बात सुनकर विदुरजी ने बोला महाराज लगता है आपके पुत्रों को मौत ने घेर रखा है इसीलिए वे ऐसी बातें कर रहे हैं। इसके बाद श्रीकृष्ण ने कहा महाराज अगर वे लोग मुझेे कैद करने का साहस कर रहे हैं तो आप मुझे जरा आज्ञा दीजिए। फिर देखिए ये मुझे कैद करते हैं या मैं इन्हें बांध लेता हूं।


दुश्मनों से जीतना है तो ये बात याद रखें

श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुरजी से कहा भैया आप गांधारी को यहां बुलवा लीजिए। वही दुर्योधन को समझा सकती है। तब गांधारी सभा में आई। जब धृतराष्ट्र ने उसे पूरी बात बताई तो वह बोली महाराज इसमें आपकी ही गलती है। जब आप जानते हैं दुर्योधन गलत है। फिर भी आप आज तक अपनी मौन स्वीकृति देते आए है। 

वह तो काम, क्रोध, लोभ और मोह में अंधा हो रहा है। आपने उसे बिना कुछ सोचे-समझे ही राज्य की बागडौर उसके हाथ सौंप दी। गांधारी ने दुर्योधन को सभा में बुलवाया और कहा बेटा दुर्योधन मेरी बात सुनो तुम पांडवों के साथ संधि कर लो। इससे तुम्हारा और तुम्हारी संतान दोनों का ही भविष्य सुखमय रहेगा।जिस तरह बिगड़े घोड़े उस पर सवारी करने वाले को रास्ते में ही मार देते हैं उसी तरह यदि इंद्रियों पर वश न रखा जाए तो मनुष्य का नाश हो जाता है। मन पर काबू न रखने वाले शत्रुओं को जीतने में हमेशा विफल होते हैं। यदि तुम सुखी रहना चाहते हो तो पाण्डवों को उनका न्यायोचित भाग दे दो।

श्रीकृष्ण की बात सुनकर जब दु:शासन बीच में ही बोल पड़ा तो...

जिस समय भगवान कृष्ण ये सब बाते कह रहे थे। उस समय बीच में ही दु:शासन बीच में ही दुर्योधन से बोला आप यदि अपनी इच्छा से पांडवों के साथ संधि नहीं करेंगे तो मालूम होता है ये भीष्म, द्रोण और हमारे पिताजी आपको मुझे और कर्ण को बांधकर पांडवों के हाथ में सौंप देंगे। भाई की यह बात सुनकर दुर्योधन का क्रोध और भी बढ़ गया। वह सांप की तरह फुफकार मारता हुआ विदुर, धृतराष्ट्र, ब्राहीक, कृप, सोमदत, भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ण इन सभी का तिरस्कार कर वहां से चलने को तैयार हो गया।

उसे जाते देख उसके भाई, मंत्री और सब राजा लोग सभी छोड़कर चल दिए। तब पितामह भीष्म ने कहा राजकुमार दुर्योधन बड़ा पापी है। इसे राज्य का झूठा घमंड है। क्रोध और लोभ ने इसे दबा रखा है। मैं तो समझता हूं इन सब क्षत्रियों का काल आ गया है। इसी से मंत्रियों के सहित ये सब दुर्योधन का अनुसरण कर रहे हैं। भीष्म की ये बातें सुनकर कृष्ण ने कहा कौरवों में जो वयोवृद्ध है ये उन सभी की गलती है क्योंकि वे ऐश्वर्य के कारण दुर्योधन को कैद नहीं कर रहे हैं। इस विषय में मुझे जो बात जान पड़ती है वो मैं स्पष्ट कहता हूं। आपको यदि वह अनुकूल लगे तो कीजिएगा दुर्योधन को कैद करके पांडवों से संधि कर लीजिए। इससे सबका भला हो जाएगा। सारा कुरुवंश नष्ट होने से बच जाएगा।


इसलिए हो गया दुर्योधन और श्रीकृष्ण में विवाद

इस तरह कौरव के सभी हितैषीयों ने उन्हें कई तरह से समझाया लेकिन दुर्योधन और अधिक क्रोधित हो गया। वह ये अप्रिय बातें सुनकर श्रीकृष्ण से बोला कृष्ण आपको अच्छी तरह से सोच समझकर बोलना चाहिए। आप तो पाण्डवों के प्रेम की दुहाई देकर उल्टी-सीधी बातें कहते हुए विशेष रूप से मुझे दोषी ठहरा रहे हैं। क्या आप हमेशा मेरी ही निंदा करते रहोगे। मैं देख रहा हूं कि आप सब अकेले ही मुझ पर सारा दोष लाद रहे हैं। मैंने तो सब विचारकर देख लिया मुझे तो खुद का कोई दोष नजर नहीं आता। हम जानते हैं कि पाण्डवों में हमारा सामना करने की शक्ति नहीं है। पाण्डव जूआ खेले और अपना राज्य हार गए, इसी कारण उन्हें वन में जाना पड़ा। 

हम उनकी ऐसी बातों को सुनकर डरने वाले नहीं हैं। स्वधर्म का पालन करते हुए हम यदि युद्ध में काम ही आ गए तो स्वर्ग प्राप्त करेंगे। यह तो क्षत्रियों का प्रधान धर्म है। इस प्रकार यदि हमें युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई तो कोई पछतावा नहीं होगा। मेरे जैसा वीर पुरुष तो धर्म की रक्षा के लिए केवल ब्राह्मणों का सम्मान करता हूं। मेरी बाल्यवस्था में अज्ञान व भय के कारण ही पाण्डवों को राज्य मिल गया। अब उन्हें फिर नहीं मिल सकता। दुर्योधन की बात सुनकर श्रीकृष्ण को गुस्सा आ गया। 

उन्होंने कुछ देर विचारकर कहा- दुर्योधन  तुम्हे वीर शैय्या की इच्छा है तो कुछ दिन मंत्रियों सहित धैर्य धारण करो। तुम्हे अवश्य वही मिलेगी और तुम्हारी यह कामना पूरी होगी। पर याद रखो बहुत जनसंहार होगा। देखो, पांडवों को वैभव से जल-भुनकर तुमने और शकुनि ने ही तो जुआ खेलने की खोटी सलाह की थी। जूआ तो भले आदमियों की बुद्धि को भ्रष्ट करने वाला है ही। तुमने द्रोपदी को सभा में बुलाकर खुल्लम-खुल्ला जैसी-जैसी अनुचित बातें कही थी, अपनी भाभी के साथ ऐसी कुचाल क्या कोई भी कर सकता है।

दुर्योधन के मन में महाभारत को लेकर कोई डर नहीं था क्योंकि....

इस तरह उस समय नर ने वह काम किया था। इस समय के नर अर्जुन हैं। तुम अर्जुन की शरण ले लो। वे नारायण अर्जुन के सखा हैं। अर्जुन में अनगिनत गुण है। जो पहले नर और नारायण थे। वे आज अर्जुन और कृष्ण हैं।  उन दोनों को ही तुम वीर समझो। यदि तुम मेरी बात मान लो। परशुरामजी की बात सुनकर महर्षि कण्व भी दुर्योधन से कहने लगे-  ब्रह्मा और नर-नारायण - ये अक्षय और अविनाशी हैं। 

अदिति के पुत्रों में केवल विष्णु ही सनातन ईश्वर है। जब संसार में प्रलय हो जाता है तो ये सभी पदार्थ तीनों लोकों को त्यागकर नष्ट हो जाते हैं। सृष्टि का आरंभ होने बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं। इन सब बातों पर विचार करके धर्मराज युधिष्ठिर के साथ संधि कर लेना चाहिए। जिससे कौरव और पांडव मिलकर पृथ्वी का पालन कर पाएं। इन देवताओं की ओर तो तुम देख भी नहीं सकते। इसलिए इनसे विरोध छोड़कर संधि कर लो।

तुम्हे इन तीर्थस्वरूप श्रीकृष्ण के द्वारा अपने कुल की रक्षा की कोशिश करनी चाहिए। महर्षि कण्व की बात सुनकर दुर्योधन लंबी-लंबी सांसें लेने लगा। वह कर्ण की ओर देखकर जोर-जोर से हंसने लगा। उस दुष्ट ने कण्व के कथन पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और इस कहने लगा जो कुछ होने वाला है। उसमें मेरी गति होनी है, उसी के अनुसार ही ईश्चर ने मुझे रचा है वही मेरा आचरण है। 


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