सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat-19






क्यों जरूरी था जरासंध से युद्ध?

जब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ करने के बारे में उनके विचार पूछे। तब श्रीकृष्ण ने कहा आपको राजसूय  यज्ञ करना चाहिए क्योंकि आप उस यज्ञ को करने के योग्य है लेकिन इसके लिए आपको जरासंध को हराना पड़ेगा क्योंकि जितने भी बड़े राजा हैं वे जरासंध के अधीन है। जरासंध ने उन्हें अपने कब्जे में कर रखा है और वह अपने आप को पुरुषोतम कहता है। वह मेरी उपेक्षा के कारण जिंदा है।जब कंस का आतंक चारो ओर था। तब उसके अत्याचार के कारण मैंने उसे मार दिया। ऐसा करने से के बाद कंस का भय तो मिट गया लेकिन उस समय ही जरासंध ने अपने आप को शक्तिशाली बनाया। उसकी सेना उस समय इतनी बड़ी हो गई थी कि उसने सारे राजाओं को हराकर उन्हें किले में बंद कर दिया। भगवान शंकर की तपस्या से उसे ऐसा वर मिला है जिससे वह अपनी हर प्रतिज्ञा पूरी कर सकता है। इसलिए अगर आप राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं तो सबसे पहले कैदी राजाओं को छुड़ाएं। तब युधिष्ठिर कृष्ण से पूछते हैं कि कृष्ण आप ही बताएं की जरासंध को कैसे पराजित करें।

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कृष्ण को क्यों जाना पड़ा इंद्रप्रस्थ?

देवर्षि नारद की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ की चिन्ता से बैचेन हो गए। उन्होंने अपने धर्म पर विचार किया और जिस प्रकार प्रजा की भलाई हो ,वही करने लगे। वे किसी भी पक्ष नहीं करते थे। सारी पृथ्वी पर युधिष्ठिर की जयजयकार होने लगी। किसी का कर बढ़ाया नहीं जाता, वसुली में किसी को सताया नहीं जाता। युधिष्ठिर के राज्य में प्रजा सुख से रहने लगी। उनके राज्य में जब सब कुछ ठीक चलने लगा। तब उन्होंने एक दिन अपने मंत्री और भाइयों को बुलाकर पूछा कि राजसूय यज्ञ के संबंध में आप लोगों की क्या सम्मति है। मंत्रियों ने एक स्वर में कहा कि आपको राजसूय यज्ञ करना चाहिए। आप इसके अधिकारी है। इसमें विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मंत्रियों की बात सुनकर धर्मराज ने सभी बुद्धिजीवियों से बातचीत की।  उसके बाद युधिष्ठिर ने सोचा कि श्रीकृष्ण ही मुझे इस संबंध में सही राय दे सकते हैं।

यह सोचकर युधिष्ठिर ने अपना एकदूत शीघ्रगामी रथ से द्वारका भेज दिया। जैसे ही दूत वहां पहूंचा उसकी बात सुनकर श्रीकृष्ण शीघ्र ही इन्द्रप्रस्थ के लिए निकल पढ़े। श्रीकृष्ण ने इन्द्रप्रस्थ पहुंचकर युधिष्ठिर से भेंट की। तब युधिष्ठिर ने कहा श्रीकृष्ण में राजसुय यज्ञ करना चाहता हूं। इस पर आपका क्या विचार है? युधिष्ठर ने कहा मेरे सभी मित्र एक स्वर में कहते हैं राजसुय यज्ञ करो लेकिन मुझे लगता है कि कुछ लोग अपने स्वार्थ के कारण तो कुछ अपनी भलाई को मेरी भलाई बताकर मुझे राजसूय यज्ञ करने की बात कह सकते हैं। आप ही मुझे सही गलत के बीच का फर्क बताएं कि मुझे क्या करना चाहिए। कल पढि़ए.....जरासंध के विषय में कृष्ण और युधिष्ठिर की बातचीत
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कैसे संदेश भेजा स्वर्गीय पाण्डु ने युधिष्ठिर के...

पाण्डवों की सभा में एक दिन देवर्षि नारद आए। नारद जी ने युधिष्ठिर को कुटनीति व राजनीति से संबंधित कई बातें बताई। तब युधिष्ठिर ने नारद जी से कहा नारदजी आपने सभी लोकों की सभाए देखी हैं तो मुझे उन सभी सभाओं का वर्णन सुनाएं। तब देवर्षि ने युधिष्ठिर को देवता, वेद, यम, ऋषि, मुनि आदि की सभाओं का वर्णन सुनाया। नारद जी ने यमराज की सभा में मौजुद सभी राजाओं की उपस्थिति का वर्णन किया।

युधिष्ठिर ने उनसे पूछा नारद जी आपने मेरे पिता पाण्डु को किस प्रकार देखा था। तब देवर्षि ने कहा मैं आपको राजा हरिशचन्द्र की कहानी सुनाता हूं। हरिशचन्द्र एक वीर सम्राट थे। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था।आपके पिता राजा हरिशचन्द्र का ऐश्वर्य देखकर विस्मित हो गये। जब उन्होंने देखा कि मैं मनुष्य लोक जा रहा हूं। तब उन्होंने आपके लिए यह संदेश भेजा है। उन्होंने कहा युधिष्ठिर तुम मेरे पुत्र हो। यदि तुम राजसूय यज्ञ करोगे तो मैं चिरकालिक आनंद भोगूंगा। नारदजी ने कहा मैंने आपके पिता से कहा कि मैं उनका यह संदेश आप तक पहुंचा दूंगा। युधिष्ठिर आप अपने पिता का संकल्प पूर्ण करें। देवर्षि नारद इतना कहकर ऋषियों सहित वहां से चले गए। 

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असुर ने बनाई पाण्डवों के लिए अद्भूत सभा!

खांडवदाह के बाद मायासुर ने अर्जुन से कहा श्री कृष्ण ने तो मुझे अपने चक्र  से मारने का विचार कर लिया था। अग्रि ने मुझे जलाने का निश्चय कर लिया था। मैं सिर्फ आपके कारण ही जिंदा हूं। अब आप बताइये कि मैं आपकी क्या सेवा करूं। उसने कहा मैं दानवों का विश्वकर्मा हूं। उनका प्रधान शिल्पी हूं। आप मेरी सेवा स्वीकार करें। तब अर्जुन ने कहा मैं तुम्हारी सेवा स्वीकार नहीं कर सकता हूं लेकिन मैं तुम्हारी अभिलाषा नष्ट नहीं करना चाहता हूं। जब मायासुर ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की तो उन्होंने विचार किया।

मायासुर से कहा यदि तुम अर्जुन की सेवा और युधिष्ठिर का कोई प्रिय कार्य करना चाहते हो तो अपनी रूचि के अनुसार एक सभा बना दो लेकिन उस सभा में मनुष्यों, देवताओं व असुरों का कौशल प्रकट होना चाहिए। कुछ दिनों तक कृष्ण वहीं ठहरे। सभा बनाने के संबंध में पाण्डवों के साथ विचार किया। फिर शुभ मुहूर्त में ब्राह्मण भोजन और दान करके सर्वगुणों से सम्पन्न सभा बनाने के लिए दस हजार हाथ चौड़ी जमीन नाप ली। पाण्डवों ने बड़े सुख से श्रीकृष्ण का सत्कार किया। वे कुछ दिनों तक वहां बहुत सुख से रहे। फिर उन्होंने वहां से विदा होने की बात कही। तब भगवान श्रीकृष्ण की यात्रा पर जाने से पहले के कार्य प्रारंभ किए गए। उन्होंने स्नान करने के बाद आभुषण धारण किए। उनकी  ब्राह्मणों ने स्वास्तिवाचन के द्वारा पूजा-पाठ किया। वे सोने के रथ पर सवार हुए पांचों पाण्डव उन्हें दो कोस तक छोडऩे गए।
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कैसे हो गई अग्रि को आहूति से अपच!

 तब जन्मेजय ने वैशम्पायनजी से कहा कि अग्रि ऐसा क्यों करना चाहते थे। तब वैशम्पायनजी ने कहा प्राचीन समय की बात है। श्वेतकि नाम का एक राजा था। वह ब्राहा्णों का बहुत सम्मान करता था। उसने कई बड़े-बड़े यज्ञ किए। अन्त में जब सब ब्राहा्रण थक गए। तब राजा ने भगवान शंकर की तपस्या की। भगवान शंकर को प्रसन्न करके ऋषि दुर्वासा से एक महान यज्ञ करवाया।

राजा श्वेतकि अपने परिवार के साथ स्वर्ग सिधारे। उस यज्ञ में बारह वर्ष तक अग्रि देव को लगातार घी की अखण्ड आहूतियां दी गई। जिसके कारण उनकी पाचन शक्ति कमजोर हो गई। रंग फीका पड़ गया और प्रकाश मन्द हो गया। जब अपच के कारण वे परेशान हो गए तो ब्रम्हा जी के पास गए। ब्रहा्रजी ने कहा तुम खांडव वन को जला दो तो तुम्हारी अरूचि खत्म हो जाएगी। अग्रि देव ने सात बार वन जलाने की कोशिश की लेकिन इन्द्र ने उन्हें सफल नहीं होने दिया। 
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अग्रि ने मांग लिया भोजन में....

एक दिन अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने जलविहार पर जाने का मन बनाया। अर्जुन भगवान श्री कृष्ण के साथ युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर यमुना के किनारे जंगल पर जल विहार करने वाले जंगल पर जलविहार करने लगे। वहां भगवान अर्जुन और श्री कृष्ण ने बड़े ही आनंद के साथ विहार किया। उसके बाद वे लोग एक स्थान पर जाकर बैठे थे। तभी वहां एक ब्राह्मण आया। उसने दोनों से कहा मैं एक ब्रह्मभोजी ब्राह्मण हूं। मैं आप लोगों से भोजन की भिक्षा मांगने आया हूं।

श्री कृष्ण और अर्जुन ने ब्राह्मण से पूछा बोलो तुम्हारी तृप्ति किस प्रकार के अन्न से होगी। तब ब्राह्मण ने कहा कि मैं कोई साधारण बा्हा्रण ने कहा मैं अग्रि हूं। आप मुझे वही अन्न दिजिए। जो मेरे लायक हो। मैं खाण्डव वन को जला देना चाहता हूं। लेकिन इस वन में तक्षक नाग और उसका परिवार रहता है। इसलिए इन्द्र हमेशा उस वन की रक्षा करता है। जब-जब मैं इस वन को जलाने की कोशिश करता हूं। तब-तब इन्द्र मेरी इच्छा पूरी नहीं होने देता। आप लोगों की सहायता से इसे जला सकता हूं। मैं आप लोगों से इसी भोजन की याचना करता हूं।

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कौन थे द्रोपदी के पुत्र जो पांडवों से हुए?

कृष्ण ने सभी को समझाया। उसके बाद अर्जुन और सुभद्रा का विधिपूर्वक विवाह करवाया गया। विवाह के एक साल बाद तक वे द्वारका में सुभद्रा के साथ ही रहे और कुछ समय पुष्कर में बिताया। वनवास के बारह साल पूरे होने के बाद वे सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ आए। अर्जुन के इन्द्रप्रस्थ पहुंचने पर सभी ने उनका बहुत खुशी से स्वागत किया। सुभद्रा लाल रंग के ग्वालियन के वेष में रानिवास गयी। वहां जाकर सुभद्रा ने कुंती का आशीर्वाद लिया। सुभद्रा ने द्रोपदी के पैर छूकर कहा बहन मैं तुम्हारी दासी हूं। 

यह सुनकर द्रोपदी ने उसे खुशी से गले लगा लिया। अर्जुन के आ जाने से महल में रौनक आ गयी थी। उनके इन्द्रप्रस्थ लौट आने की खबर सुनकर कृष्ण और बलराम उनसे मिलने इंद्रप्रस्थ आए। उन्होंने सुभद्रा को बहुत सारे उपहार दिए। बलराम और दूसरे यदुवंशी कुछ दिन रूककर वहां से चले गए लेकिन कृष्ण वही रूक गए। समय आने पर सुभद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अभिमन्यु रखा गया। द्रोपदी ने भी एक-एक वर्ष के अंतराल से पांचों पांडव के एक-एक पुत्र को जन्म दिया। युधिष्ठिर के पुत्र का नाम प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से उत्पन्न पुत्र का नाम सुतसोम, अर्जुन के पुत्र का नाम श्रुतकर्मा, नकुल के पुत्र का नाम शतानीक, सहदेव के पुत्र का नाम श्रुतसेन रखा गया।

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क्या हुआ, जब अर्जुन ने बलपूर्वक सुभद्रा को रथ पर...

वहां से लौटकर अर्जुन फिर एक बार मणिपुर गए। चित्रांगदा के गर्भ से जो पुत्र हुआ उसका नाम बभ्रुवाहन रखा गया। अर्जुन ने राजा चित्रवाहन से कहा कि आप इस लड़के को ले लिजिए। जिससे इसकी शर्त पूरी हो जाए। उन्होंने चित्रांगदा को भी बभ्रुवाहन के पालन-पोषण के लिए वहां रहने की आवश्कता बताई। उसे राजसुय यज्ञ में अपने पिता के साथ इन्द्रप्रस्थ आने के लिए कहकर तीर्थयात्रा पर आगे चल पड़े। वहां उनकी मुलाकात श्री कृष्ण से हुई। वे कुछ समय तक रेवतक पर्वत पर ही रहने लगे। एक बार यदुवंशी बालक सजधजकर टहल रहे थे। गाजे बाजे नाच तमाशे की भीड़ सब  ओर लगी हुई थी। इस उत्सव में भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन सब साथ-साथ में घुम रहे थे। 

वहीं कृष्ण की बहिन सभुद्रा भी थी। उसके रूप पर  मोहित होकर अर्जुन एकटक उसकी ओर देखने लगे।भगवान कृष्ण समझ गए की अर्जुन सुभद्रा पर मोहित हो गए हैं। उन्होंने कहा कि वैसे तो सुभद्रा का विवाह स्वयंवर द्वारा ही होगा लेकिन यह जरू री नहीं है कि वह तुम्हे ही चुनें। इसलिए तुम क्षत्रिय हो तुम चाहो तो उसे हरण करके भी उससे विवाह कर सकते हो। क्षत्रियों में बलपूर्वक हरकर ब्याह करने की भी नीति है। तुम्हारे लिए यह मार्ग प्रशस्त है। भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन ने यह सलाह करके अनुमति के लिए युधिष्ठिर के पास दूत भेजा। युधिष्ठिर ने हर्ष के साथ इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। दूत के लौटने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन वैसी सलाह दे दी। एक दिन सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करके पर्वत की परिक्रमा की। जब सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई। तब अवसर पाकर अर्जुन ने उसे बलपूर्वक रथ में बिठा लिया। सैनिक यह दृश्य देखकर चिल्लाने लगे। बात दरबार तक पहुंची तब सभी यदुवंशीयों में अर्जन का विरोध होने लगा। तब बलराम ने बोला की आप लोग बिना कृष्ण की आज्ञा के  उनका विरोध कैसा कर सकते हैं। जब यह बात कृष्ण के सामने रखी गई तो उन्होने क हा कि अर्जुन जैसा वीर योद्धा जिसे शिव के अलावा कोई नहीं हरा सकता वह अगर मेरी बहन का पति बने तो इससे ज्यादा हर्ष की बात और क्या हो सकती है।
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क्या कहा कुबेर की प्रेमिका ने अर्जुन से?

वीरवर अर्जुन वहां से चलकर समुद्र के किनारे-किनारे  अगस्त्यतीर्थ, सौभाग्यतीर्थ, पौलोमतीर्थ, कारन्धमतीर्थ, और भारद्वाज तीर्थ में गये। उन तीर्थो के पास ऋषि-मुनि गंगा में स्नान नहीं करते थे। अर्जुन के पूछने पर मालुम हुआ कि गंगा में बड़े-बड़े ग्राह रहते हैं, जो ऋषियों को निगल जाते हैं। तपस्वीयों के रोकने पर भी अर्जुन ने सौभाग्यतीर्थ में जाकर स्नान किया। जब वहां मगर ने अर्जुन का पैर पकड़ा, तब वे उसे उठाकर ऊपर ले आये । लेकिन उस समय यह बड़ी विचित्र घटना घटी कि वह मगर तत्क्षण एक सुन्दरी अप्सरा के रूप में परिणित हो गए। अर्जुन  के पुछने  पर अप्सरा ने बतालाया कि मैं कुबेर की प्रेयसीवर्गा नाम की अप्सरा हूं। एक बार मैं अपनी चार सहेलियों के साथ कुबेर जी के पास जा रही थी। रास्ते में एक तपस्वी के तप में हम लोगों ने विघ्र डालना चाहा। तपस्वी के मन में काम का भाव उत्पन्न नहीं हुआ लेकिन क्रोधवश उन्होने शाप दे दिया कि तुम पांचों मगर होकर सौ वर्ष तक पानी रहोगे। नारद से यह जानकर कि पाण्डव अर्जुन यहां आकर थोड़े ही दिनों में हमारा उद्धार कर देंगे। हम लोगों इन तीर्थो में मगर होकर रह रही हैं। आप हमारा उद्धार कर दिजिए। उलूपी के वरदान के कारण अर्जुन को जलचरों से कोई भय नहीं उन्होंने सब अप्सराओं का उद्धार भी कर दिया और उनके प्रयत्न से अधिक वहां के सब तीर्थ बाधाहीन भी हो गये।


तब पांचों पाण्डवों से हुआ द्रोपदी का विवाह

वेदव्यास जी ने द्रुपद के साथ युधिष्ठिर के पास जाकर कहा आज ही विवाह के लिए शुभ दिन व शुभ मुहूर्त है। आज चन्द्रमा पुष्यनक्षत्र पर है। इसलिए आज तुम द्रोपदी के साथ पाणिग्रहण करो। यह निर्णय होते ही द्रोपदी ने आवश्यक सामग्री जुटाई। द्रोपदी को श्रृंगारित कर मंडप में लाया गया। उस समय विवाह मण्डप का सौन्दर्य अवर्णीय था। पांचों पांडव भी सजधजकर मंडप में पहुंचे। पांचों ने एक-एक दिन द्रोपदी से पाणिग्रहण किया।इस अवसर पर सबसे विलक्षण बात यह हुई कि देवर्षि नारद के कथानुसार द्रोपदी प्रतिदिन कन्या भाव को प्राप्त हो जाया करती थी। विवाह में राजा द्रुपद ने दहेज में बहुत से रत्न, धन, और गहनों के साथ ही हाथी, घोड़े भी दिए। इस प्रकार पांडव अपार सम्पति और स्त्री रत्न आदि प्राप्त कर पाण्डव वहां सुख से रहने लगे। द्रुपद की रानियों ने कुन्ती के पास आकर उनके पैरों पर सिर रखकर प्रणाम किया। कुन्ती ने द्रोपदी को आर्शीवाद दिया। भगवान श्री कृष्ण ने भी पांडवों का विवाह हो जाने पर भेंट के रूप में अनेक उपहार दिए। कल पढि़ए... विदुर की पाण्डवों से भेंट पाण्डवों का हस्तिनापुर लौटना------------------------------------------
क्या हुआ, जब अर्जुन ने भंग किया...

 पाण्डव द्रोपदी के पास नियमानुसार रहते। एक दिन की बात है लुटेरो ने किसी ब्राहा्रण की गाय लुट ली और उन्हे लेकर भागने लगे। ब्राहा्रण पाण्डवों के पास आया और अपना करूण रूदन करने लगा।ब्राहा्ण ने कहा कि पाण्डव तुम्हारे राज्य में मेरी गाय छीन ली गई है। अगर तुम अपनी प्रजा की रक्षा का प्रबंध नहीं कर सकते तो तुम नि:संदेह पापी हो। लेकिन उनके सामने अड़चन यह थी कि जिस कमरे में राजा युधिष्ठिर द्रोपदी के साथ बैठे हुए थे।उसी कमरे में उनके अस्त्र-शस्त्र थे। एक ओर कौटुम्बिक नियम और दुसरी तरफ ब्राहा्रण की करूण पुकार। तब अर्जुन ने प्रण किया की मुझे इस ब्राहा्रण की रक्षा करना है। चाहे फिर मुझे इसका प्रायश्चित क्यों ना करना पड़े? उसके बाद अर्जुन राजा युधिष्ठिर के घर में नि:संकोच चले गए। राजा से अनुमति लेकर धनुष उठाया और आकर ब्राहा्ण से बोले ब्राहा्रण देवता थोड़ी देर रूकिए में अभी आपकी गायों को आपको लौटा देता हूं। अर्जुन ने बाणों की बौछार से लुटेरों को मारकर गोएं ब्राहा्ण को सौंप दी। उसके बाद अर्जुन ने आकर युधिष्ठिर से कहा। मैंने एकांत ग्रह में अकार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी इसलिए मुझे वनवास पर जाने की आज्ञा दें। युधिष्ठिर ने कहा तुम मुझ से छोटे हो और छोटे भाई यदि अपनी स्त्री के साथ एकांत में बैठा हो तो बड़े भाई के द्वारा उनका एकांत भंग करना अपराध है। लेकिन जब छोटा भाई यदि बड़े भाई का एकांत भंग करे तो वह क्षमा का पात्र है। अर्जुन ने कहा आप ही कहते हैं धर्म पालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिए। उसके बाद अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वनवास को चल पड़े। कल पढि़ए... अर्जुन का वनवास के लिए जाना और नागकन्या उलूपी का अर्जन पर मोहित होना।
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द्रोपदी को बिना देखे कुंती ने कहा पांचों भाई आपस...

अर्जुन को धनुष चढ़ाने के लिए तैयार देखकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए। सभी ब्राह्मण अर्जुन को देखकर अनेक तरह की बातें करने लगी। अभी लोगों की आंखें अर्जुन पर ठीक से टीक भी नहीं पाई थी कि उन्होने धनुष को आसानी से उठाकर पांच बण उठाकर उनमें से एक लक्ष्य पर चलाया और वह यंत्र के छिद्र में हो गर जमीन पर गिर पड़ा। चारों तरफ शोर होने लगा पुष्पवर्षा होने लगी। द्रुपद की प्रसन्नता की सीमा ना रही। द्रोपदी प्रसन्नता के साथ अर्जुन के पास गई और उसके गले में वरमाला डाल दी। जब राजाओं ने देखा कि द्रुपद अपनी कन्या का विवाह एक ब्राह्मण के साथ करना चाहते हैं तो वे क्रोधित हुए। राजाओं ने अपने शस्त्र उठा लिए और द्रुपद को मारने के लिए दौड़े। राजाओं को आक्रमण करते देख भीम और अर्जुन बीच में आ गए। अर्जुन और कर्ण का आमना-सामना हुआ। अर्जुन ने उनकी वीरता देखकर कहा आप ब्राह्मण पुत्र होकर भी इतने वीर हैं। दोनों आपस में युद्ध करने लगे। श्री कृष्ण पहचान चुके थे कि ये तो पांडव है इसलिए उन्होंने सभी राजाओं को समझाया उसके बाद सब कुछ शांत हो गया धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी। भिक्षा लेकर लौटने का समय बीच चुका था। माता कुंती पुत्रों का इंतजार करते हुए चिंतित थी। इतने में अर्जुन ने कुम्हार के घर में प्रवेश करते हुए कहा मां हम भिक्षा लाएं है यह सुनकर माता कुंती ने कहा बेटा पांचों भाई बांट लो।
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द्रोणाचार्य को मारने के लिए क्या किया द्रुपद ने?

बकासुर का वध करने के बाद पाण्डव वेदाध्ययन करते हुए उसी ब्राह्मण के घर में रहने लगे। कुछ दिनों बाद उसी ब्राह्मण के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण आए। पाण्डवों ने उनका बड़ा सत्कार किया। उस ब्राह्मण ने बात ही बात में राजाओं को वर्णन करते हुए राजा द्रुपद की बात छेड़ दी और द्रोपदी के स्वयंवर की बात भी कही। उन्होंने बताया कि जब से द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के द्वारा द्रुपद को पराजित किया है तब से द्रुपद बदले की भावना में जल रहा है। वे द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिए श्रेष्ठ संतान की चाह से कई विद्वान संतों के पास गए। लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की। फिर एक दिन द्रुपद घुमते-घुमते कल्माषी नगर गए। वहां ब्राह्मण बस्ती में कश्यप गोत्र के दो ब्राह्मण याज व उपयाज रहते थे। द्रुपद सबसे पहले महात्मा उपयाज के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि आप कोई ऐसा यज्ञ कराईए जिससे मुझे द्रोणाचार्य को मारने वाली संतान प्राप्त हो। लेकिन उपयाज ने मना कर दिया। इसके बाद भी द्रुपद ने एक वर्ष तक उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा की। तब उन्होंने बताया कि उनके बड़े भाई याज यह यज्ञ करवा सकते हैं। तब द्रुपद महात्मा याज के पास पहुंचे और उनको पूरी बात बताई। यह भी कहा कि यज्ञ करवाने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गाए भी दूंगा। महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया।
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कैसे हुआ अर्जुन और चित्रांगदा का विवाह?

अर्जुन महेन्द्र पर्वत होकर समुद्र के किनारे चलते-चलते मणिपुर पहुंचे। वहां के राजा चित्रवाहन बहुत धर्मात्मा थे। उनकी सर्वांगसुन्दरी कन्या का नाम चित्रांगदा था। एक दिन अर्जुन की दृष्ठि उस पर पड़ गयी उन्होने समझ लिया कि यह यहां कि राजकुमारी है। और राजा चित्रवाहन के पास जाकर कहा राजन् मैं कुलीन क्षत्रीय हूं। आप मुझसे अपनी कन्या का विवाह कर दिजिए। 

चित्रवाहन  के पूछने पर अर्जुन ने बतलाया कि मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूं।  चित्रवाहन ने कहा कि हे वीर अर्जुन मेरे पूर्वजो में प्रभजन नाम के एक राजा हो गये हैं। उन्होंने संतान न होने पर उग्र तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। उन्होने वर दिया कि तुम्हारे वंश में सबको एक-एक संतान होती जाएगी। तब से हमारे वंश में ऐसा ही होता आया है। मेरे यह एक ही कन्या है इसे में पुत्र ही समझता हूं। इसका मैं पुत्रिकाधर्म अनुसार विवाह करूंगा, जिससे इसका पुत्र हो जाए और मेरा वंश प्रवर्तक बने। अर्जुन ने कहा ठीक है आपकी शर्त मुझे मंजुर है और इस तरह अर्जुन और चित्रांग्दा  का विवाह हुआ। उसके बाद अर्जुन राजा से अनुमति लेकर फिर तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े।


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