सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat-4





युधिष्ठिर को क्यों लगा कि अर्जुन युद्ध में मारे गए?

जब द्रोणाचार्य  पांडवों के व्यूह को इस प्रकार जहां-तहां से रौंदने लगे तो पांचाल, सोमक और पांडव वीर वहां से दूर भागने लगे। अब धर्मराज युधिष्ठिर  को अपना कोई सहायक नहीं दिखाई देता था। उन्होंने अर्जुन को देखने के लिए निगाहे दौड़ाई। जब अर्जुन नहीं दिखाई दिए तो उन्होंने व्याकुलता पूर्वक भीम को बुलाया। जब भीम ने पूछा धर्मराज आप इतने व्याकुल क्यों दिखाई दे रहे हैं।

तब युधिष्ठिर ने गहरी सांस लेकर कहा भैया श्रीकृष्ण के रोष पूर्वक बजाए जाते हुए पांचजन्य की आवाज सुनाई दे रही है। तुम्हारा भाई अर्जुन मृत्युशैय्या पर पर पड़ा हुआ है। उसके मारे जाने पर श्रीकृष्ण संग्राम कर रहे हैं। यही मेरे शोक का कारण है। अर्जुन और सात्यकि की चिंता मेरी शोकाग्नि को बार-बार भड़का देती है। देखों उनका मुझे कोई चिन्ह नहीं दिख रहा है इससे अनुमान होता है कि अर्जुन और सात्यकि युद्ध में मारे गए हैं और श्रीकृष्ण युद्ध कर रहे हैं। मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। मेरा कहना मानों और उधर जाओ जिधर अर्जुन और सात्यकि गए हैं।


जब दुर्योधन अर्जुन से लडऩे पहुंचा तो....

जब अर्जुन और श्रीकृष्ण कौरवों की सेना में घुस गए और उनके पीछे दुर्योधन भी चला गया, तो पांडवों ने सोमक वीरों को साथ लेकर बहुत कोलाहल किया द्रोणाचार्य पर धावा बोल दिया। बस दोनों ओर से बड़ी घमासान लड़ाई छिड़ गई। उस समय जैसा युद्ध हुआ, वैसा हमने न तो कभी देखा है और न सुना ही है। पुरुषसिंह धृष्टद्युम्र ने भी बाणों की झड़ी लगा दी थी। द्रोण पांडवों की जिस-जिस रथ सेना पर बाण छोड़ते थे। उसी-उसी की ओर से बाण बरसाकर धृष्टद्युम्न उन्हें हटा देता था। इस प्रकार बहुत प्रयत्न करने पर भी धृष्टद्युम्र का सामना करने पर कौरवों की सेना के तीन भाग हो गए। पांडवों की मार से घबराकर कुछ सैनिक कृतवर्मा की सेना में जा मिले। अन्त में कौरव सेना बहुत छिन्न-भिन्न हो गई।

माद्रीपुत्र नकुल और सहदेव ने बाणों की वर्षा करके अपने प्रति बैरभाव रखने वाले शकुनि की नाक में दम कर दिया। जब धृष्टद्युम्र ने देखा कि आचार्य बहुत करीब आ गए हैं तब उन्होंने कई सौ बाण मारकर उसकी ढाल को और दस बाणों से उसकी तलवार को काट डाला। 

फिर चौसठ बाणों से उसके घोड़ों का काम तमाम कर दिया और बाणों से ध्वजा और छत्र काटकर पाश्र्वरक्षकों को भी धराशाही कर दिया। तब आचार्य ने क्रोध में आकर कई हजार बाणों की वर्षा कर दी। उस समय सात्यकि ने चौदह तीखें बाणों से उसे बीच में ही काट डाला और आचार्य चंगुल में फंसे हुए धृष्टद्युम्र को बचा लिया।इस प्रकार द्रोण से मुकाबले पर सात्यकि आ गया तो पांचाल वीर धृष्टद्युम् को रथ में चढ़ाकर तुरंत ही दूर ले गए। 



अर्जुन से युद्ध करने से पहले ही क्यों घबरा गया दुर्योधन?

दूसरे दिन युद्ध की शुरुआत में ही अर्जुन ने कौरवसेना में हाहाकार मचा दिया। जयद्रथ का वध करने की इच्छा से द्रोणाचार्य और कृतवर्मा की सेनाओं को चीरकर व्यूह में घुस गए और उनके हाथ से सुदक्षिण और श्रुतायु का वध हो गया तो अपनी सेना को भागती देखकर दुर्योधन अकेला ही अपने रथ पर चढ़ा और बड़ी फूर्ती से द्रोणाचार्य के पास आया और कहा मुझे पूरा विश्वास था कि अर्जुन जीते जी आपको लांघकर सेना में नहीं घुस सकेगा। 

लेकिन मैं देखता हूं कि वह आपके सामने व्यूह में घुस गया है।आज मुझे अपनी सारी सेना विकल और नष्ट सी दिखाई दे रही है। द्रोणाचार्य ने कहा मैं तुम्हारी बातों को बुरा नहीं मानता। मेरे लिए तुम अश्वत्थामा के समान हो।लेकिन जो सच्ची बात है वह मैं तुम से कहता हूं। अर्जुन के सारथि श्रीकृष्ण हैं और उनके घोड़े भी बड़े तेज है। इसलिए थोड़ा सा रास्ता मिलने पर भी वे तत्काल घुस जाते हैं। मैंने सभी धर्नुधरों के सामने युधिष्ठिर को पकडऩे की प्रतिज्ञा की थी। इस समय अर्जुन उनके पास नहीं हैं। वे अपनी सेना के आगे खड़े हैं। इसलिए मैं अर्जुन से लडऩे नहीं जाऊंगा। 

तुम पराक्रम में अर्जुन के समान ही हो इसलिए तुम अर्जुन से युद्ध करो। दुर्योधन ने कहा वो आपको लांघ गया तो मैं उससे युद्ध कैसे करुंगा? तब द्रोणाचार्य बोले तुम ठीक कहते हो मैं एक ऐसा उपाय देता हूं जिससे तुम जरूर ही उसकी टक्कर झेल सकोगे। आज श्रीकृष्ण के सामने ही तुम अर्जुन युद्ध करोगे। मैं तुम्हे एक अभेद्य कवच देता हूं।उस कवच को धारण करके तुम अर्जुन से युद्ध करो।


जयद्रथ को मारने के लिए अर्जुन को शंकरजी ने दिया था ये अस्त्र....

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम शंकरजी के पास जाओ। शंकरजी के पास पाशुपत नामक एक दिव्य सनातन अस्त्र है। जिससे उन्होंने पूर्वकाल में सारे दैत्यों का संहार किया था। यदि तुम्हे उस अस्त्र का ज्ञान हो तो अवश्य ही कल जयद्रथ का वध कर सकोगे। उसके बाद अर्जुन ने अपने आप को ध्यान की अवस्था में कृष्ण का हाथ पकड़े देखा। कृष्ण के साथ वे उडऩे लगे और सफेद बर्फ से ढके पर्वत पर पहुंचे। वहां जटाधारी शंकर विराजमान थे। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। शंकरजी ने कहा वीरवरों तुम दोनों का स्वागत है। उठो, विश्राम करों और शीघ्र बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है। भगवान शिव की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गए और उनकी स्तुति करने लगे। 

अर्जुन ने मन ही मन दोनों का पूजन किया और शंकरजी से कहा भगवन मैं आपका दिव्य अस्त्र चाहता हूं।  यह सुनकर भगवान शंकर मुस्कुराए और कहा यहां से पास ही एक दिव्य सरोवर है मैंने वहां धनुष और बाण रख दिए हैं। बहुत अच्छा कहकर दोनों उस सरोवर के पास पहुंचे वहां जाकर देखा तो दो नाग थे। दोनों नाग धनुष और बाण में बदल गए। इसके बाद वे धनुष और बाण लेकर कृष्ण-अर्जुन दोनों शंकर भगवान के पास आ गए और उन्हें अर्पण कर दिए। शंकर भगवान की पसली से एक ब्रह्मचारी उत्पन्न हुआ जिसने मंत्र जप के साथ धनुष को चढ़ाया वह मंत्र अर्जुन ने याद कर लिया और शंकरजी ने प्रसन्न होकर वह शस्त्र अर्जुन को दे दिया। यह सब अर्जुन ने स्वप्र में ही देखा था।


कृष्ण ने कहा है बुद्धिमान लोगों को ऐसी बात नहीं सोचना चाहिए क्योंकि...

अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के विषय में विचार करते हुए सो गए। उन्हें चिंता करते देख भगवान कृष्ण ने उन्हें सपने में दर्शन दिए। भगवान को देखते ही अर्जुन उठे उन्हें बैठने का आसान देकर चुपचाप खड़े रहे। श्रीकृष्ण ने उनका निश्चय जानकर कहा- अर्जुन तुम खेद में किस लिए हो रहा है? बुद्धिमान पुरुष को नकारात्मक नहीं सोचना चाहिए। इससे काम बिगड़ जाता है। जो करने योग्य काम आ जाए , उसे पूरा करो। कर्म न करने वाले और जीत की दिशा में न सोचने वाले मनुष्य को शोक तो उसके लिए शत्रु का काम देता है।

 भगवान के ऐसा कहने पर अर्जुन ने कहा- केशव मैंने कल अपने पुत्र के घातक जयद्रथ को मार डालने की भारी प्रतिज्ञा कर डाली है। मैं सोचता हूं कि मेरी प्रतिज्ञा तोडऩे के लिए कौरव निश्चय ही जयद्रथ को सबसे पीछे खड़ा करेंगे। सभी महारथी उसकी रक्षा करेंगे। कौरव सेना से घिरा हुआ जयद्रथ कैसे दिखाई देगा। यदि नहीं दिखा तो प्रतिज्ञा का पालन नहीं हो सकेगा। प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाने पर मैं जीवन कैसे धारण करूंगा। इसलिए मेरी आशा निराशा में बदल गई है। 


इसीलिए कृष्ण थे अर्जुन के सबसे अच्छे दोस्त क्योंकि....

पुत्र शोक से दुखी होकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर डाली है कि मैं कल जयद्रथ का वध करूंगा। भगवान कृष्ण ने कहा द्रोण की रक्षा में रहने वाले पुरुष को इंद्र भी नहीं मारे सकते। अर्जुन के लिए मैं कर्ण दुर्योधन आदि सभी महारथियों को उनके घोड़े और हाथी सहित मार डालूंगा। कल सारी दुनिया इस बात का परिचय पा जाएगी कि मैं अर्जुन का मित्र हूं। जो उनसे द्वेष रखता है जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। श्रीकृष्ण ने दारूक से कहा- तुम अपनी बुद्धि में इस बात का निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है।

सवेरा होते ही रथ सजाकर तैयार कर देना। उसमें सुदर्शन चक्र, कौमोद की रथ सजाकर तैयार कर देना। उसमें सुदर्शन चक्र, धनुष के साथ ही सभी आवश्यक सामग्री रख लेना। घोड़े जोतकर प्रतीक्षा करना ज्यो ही मेरे पांचजन्य की ध्वनि हो, बड़े वेग से मेरे पास रथ ले आना  मैं आशा करता हूं- अर्जुन जिस-जिस वीर के वध का प्रयत्न करेंगे, वहां-वहां उनकी विजय जरूर होगी। दारुक ने कहा- पुरुषोत्तम आप जिसके सारथि है उसकी विजय तो निश्चित है। पराजय हो ही कैसे सकती हैं? अर्जुन की विजय के लिए आप मुझे जो कुछ करने की आज्ञा दे रहे हैं, उसे सबेरा होते ही मैं पूर्ण करूंगा। 


श्रीकृष्ण ने कुछ ऐसे दूर किया अभिमन्यु की मौत का दुख.....

इधर अर्जुन ने कृष्ण से कहा- भगवन अब आप सुभद्रा और उत्तरा को जाकर समझाइए। जैसे भी हो, उनका शोक दूर कीजिए। तब श्रीकृष्ण उदास होकर अर्जुन के शिविर में गए और पुत्र शोक से पीड़ित अपनी दुखिनी बहिन को समझाने लगे। उन्होंने कहा बहिन तुम और बहु उत्तरा दोनों ही शोक न करो। काल के द्वारा सब प्राणियों की एक दिन यही स्थिति होती है। 

तुम्हारा पुत्र उच्च वंश से उत्पन्न, धीर, वीर और क्षत्रिय था। यह मृत्यु उसके योग्य ही हुई है। इसलिए शोक त्याग दो। देखो बड़े-बड़े संत पुरुष, तपस्या, ब्रह्मचर्य, शस्त्रज्ञा और सद्बुद्धि के द्वारा जिस गति को प्राप्त करना चाहते हैं। वही गति तुम्हारे पुत्र को भी मिली है। तुम वीरमाता, वीरपत्नी, वीरकन्या और वीर बहिन हो। तुम्हारे पुत्र को बहुत उत्तम गति प्राप्त हुई। तुम उसके लिए शोक न करो। बालक की हत्या करवाने वाले पापी जयद्रथ यदि अमरावती में जाकर छिपे तो भी अब अर्जुन के हाथ से उसे छुटकारा नहीं मिल सकता। अर्जुन ने जैसी प्रतिज्ञा की है वैसी ठीक होगी। उसे कोई पलट नहीं सकता। 

तुम्हारे स्वामी जो कुछ करना चाहते हैं वह निष्फल नहीं होता। यदि मनुष्य, नाग, पिशाच आदि भी जयद्रथ की युद्ध सहायता करें तो भी वह कल जीवित नहीं रह सकता। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सुभद्रा का पुत्रशोक उमड़ पड़ा और वह बहुत दुखी होकर विलाप करने लगी। हा पुत्र तुम्हारे बिना आज से मैं अभागिन हो गई। बेटा तुम देखने के लिए तरसती ही रह गई। आज भीमसेन के बल को धिक्कार है। अर्जुन के धनुष-धारण को वृष्णि और पांचाल वीरों के पराक्रम को भी धिक्कार है। जो ये युद्ध में जाने पर तुम्हारी रक्षा न कर सके। श्रीकृष्ण और द्रोपदी ने सुभद्रा और उत्तरा को कई तरह से समझाया। 


जब जयद्रथ अर्जुन से डर गया तो दुर्योधन ने क्या किया?

जयद्रथ भय से व्याकुल होकर विलाप करने लगे। दुर्योधन ने उन्हे विलाप करते देख कहा तुम इतने भयभीत न होओ। युद्ध में संपूर्ण क्षत्रिय वीरों के बीच में रहने पर कौन तुम्हे पा सकता है। मैं और कर्ण, चित्रसेन, शल्य, वृषसेन, पुरुमित्र आदि राजालोग अपनी-अपनी सेना के साथ तुम्हारी रक्षा के लिए चलेंगे। तुम अपने मन की चिंता दूर कर दो। सिंधुराज तुम स्वयं भी तो श्रेष्ठ महारथी हो, शुरवीर हो, पांडवों से क्यों डरते हो? मेरी सारी सेना तुम्हारी रक्षा के लिए सावधान रहेगी, तुम अपना भय निकाल दो। 

मेरी सारी सेना तुम्हारी रक्षा के लिए तैयार रहेगी। दुर्योधन से ऐसा आश्वासन मिलने के बाद जयद्रथ रात को द्रोणाचार्य के पास गया। आचार्य के चरणों में प्रणाम करके उसने पूछा- भगवन् दूर का लक्ष्य या हाथ की फूर्ती में कौन बड़ा है मैं या अर्जुन। द्रोणाचार्य ने कहा- तुम्हारे और अर्जुन के हम एक ही आचार्य है इसलिए क्लेश सहने के कारण अर्जुन तुमसे बड़े धर्नुधर हैं। लेकिन तुम चिंता न करो मैं ऐसा व्यूह बनाऊंगा कि अर्जुन तुम तक नहीं पहुंच सकेंगे।

अभिमन्यु की मृत्यु का बदला लेने के लिए अर्जुन ने ली थी ये प्रतिज्ञा?

अर्जुन ने अपने भाइयों से कहा अभिमन्यु की मृत्यु कैसे हुई आप लोग मुझे बताओ। तब युधिष्ठिर ने सारी बात सुनाई। युधिष्ठिर अर्जुन की बात सुनकर बेहोश हो गए। थोड़ी देर बाद जब अर्जुन को होश आया तो बोले मैं आप लोगों को सामने यह सच्ची प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि जयद्रथ को कौरव का आश्रय छोड़कर भाग नहीं गया। हम लोगों की भगवान श्रीकृष्ण या महाराज युधिष्ठिर की शरण में नहीं आ गया तो कल उसे जरूर मार डालूंगा।

 अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की टंकार की, उसकी ध्वनि आकाश में गूंज उठी। अर्जुन की वह प्रतिज्ञा सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख बजाया और कुपित हुए अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख से शंखनाद किया। सभी पांडव सिंहनाद करने लगे। दूतों ने आकर जयद्रथ से अर्जुन की प्रतिज्ञा कह सुनाई। सुनते ही जयद्रथ शोक से विहृल हो गया। रोने-बिलखने लगा। अर्जुन से डर जाने के कारण उसने लजाते-लजाते राजाओं से कहा राजाओ! पाण्डवों की हर्ष ध्वनि सुनकर मेरा मन विचलित हो रहा है। यदि ऐसा है तो अर्जुन की प्रतिज्ञा कोई नहीं तोड़ सकता। मुझे यहां से जाने की आज्ञा दीजिए। मैं जाकर ऐसी जगह छिप जाऊंगा जहां पांडव मुझे देख नहीं सकेगे।  

क्या हुआ अभिमन्यु की मृत्यु के बाद?

उस दिन का सूर्यास्त हुआ सैनिक अपनी-अपनी छावनी को जाने लगे, उसी समय अर्जुन भी अपने दिव्य रथ  को लेकर शिविर की ओर गए। चलते-चलते ही वे भगवान श्रीकृष्ण से बोले केशव न जाने क्यों आज मेरा दिल धड़क रहा है। सारा शरीर शिथिल हो रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई अनिष्ट हुआ है। कृ ष्ण कहिए मेरे भाई राजा युधिष्ठिर अपने मंत्रियों के साथ कुशल तो होंगे ना?श्रीकृष्ण ने कहा शोक न करो, मंत्रियों सहित तुम्हारे भाई का तो कल्याण ही होगा। उसके बाद जब कृष्णजी और अर्जुन ने शिविर में 

प्रवेश किया तो देखा कि पांडव व्याकुल और हतोत्साहित हो रहे हैं। शिविर में सभी के चेहरे लटके हुए हैं। आज द्रोण ने व्यूह की रचना कि थी और उस व्यूह को भेदना केवन अभिमन्यु जानता था लेकिन मैंने उसे चक्रव्यूह से बाहर निकलना नहीं सिखाया था। अर्जुन ने पांडवों से पूछा कहीं आप लोगों ने उ स बालक शत्रु व्यूह में तो नहीं भेज दिया? वह सुभद्रा का दुलारा और माता कुं ती व श्रीकृष्ण का प्यारा था। अर्जुन की आंखों में आंसू थे। वो समझ चुके थे कि अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हो गया है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा मित्र इतने व्याकुल न होओ। जो युद्ध में पीठ नहीं दिखाते, उन सभी शूरवीरों को एक दिन इसी मार्ग से जाना पड़ता है। वह तो शत्रु के सामने डटे रहकर वीरों की तरह मरा है इसीलिए तुम्हे उसकी मृत्यु का शोक नहीं करना चाहिए। 

अभिमन्यु चक्रव्यूह क्यों नहीं भेद पाया?

अभिमन्यु ने युधिष्ठिर से कहा आप चिंता न करें। आज मैं वह पराक्रम कर दिखाऊंगा, जिससे मेरे मामा भी प्रसन्न होंगे और पिताजी भी। मैं बालक हूं, तो भी संपूर्ण प्राणी देखेंगे कि मैं किस तरह आज अकेले ही शत्रुसेना को काल का ग्रास बनाता हूं। यदि जीते-जी इस युद्ध में मेरे सामने कोई जीवित बच जाए तो मैं अर्जुन का पुत्र नहीं और माता सुभद्रा के गर्भ से मेरा जन्म नहीं हुआ।

युधििष्ठर ने कहा सुभद्रानंदन तुम द्रोण की सेना को तोडऩे का उत्साह दिखा रहे हो, इसलिए ऐसी वीरताभरी बातें करते हुए तुम्हारा बल हमेशा बढ़ता ही जा रहा है। धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर अभिमन्यु ने सारथि को द्रोण की सेना के पास रथ ले चलने को कहा। जब बारबार चलने की आज्ञा दी तो सारथि ने उससे कहा - आयुष्मान पाण्डवों ने आप पर बहुत बड़ा भार रख दिया है। इस पर विचार कर लीजिए। सारथि की बात सुनकर अभिमन्यु ने उससे हंसकर कहा, सूत! यह पूरी सेना मेरी सोलहवी कला के बराबर भी नहीं है। 

अभिमन्यु ने शीघ्र ही उसे द्रोण की सेना ओर चलने के लिए आज्ञा दी। अभिमन्यु ने कौरवों के व्यूह में प्रवेश किया। उसने लगभग बीस ही कदम प्रवेश किया होगा कि सभी कौरव योद्धा उस पर एक साथ टूट पड़े। अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदकर और अंदर चला गया। कौरवों ने कई बाणों से प्रहार किए अभिमन्यु से नेअकेले ही युद्ध किया। कौरव सेना तितर-बितर होने लगी सभी इधर-उधर भागने लगे। 

दुर्योधन से यह नहीं देखा गया। वह अभिमन्यु की ओर बढ़ा  द्रोण व अन्य योद्धाओं ने उसकी सुरक्षा की। इस घोर संग्राम में दु:सह ने नौ बाण मारकर अभिमन्यु को बींध दिया। जब अभिमन्यु चक्रव्यूह को भेद रहा था तब युधिष्ठिर, भीमसेन, सहदेव, नकुल, शिखण्डी, विराट,द्रुपद आदि ने  व्यूहआकरा में संगठित होकर उसे घेर रखा था। लेकिन कई प्रमुख कौरव वीरों का संहार करने के बाद छ: कौरव महारथियों ने अभिमन्यु को घेर लिया और सभी ने सामुहिक प्रयत्न से उसका वध किया।


अभिमन्यु ने क्यों किया था चक्रव्यूह में प्रवेश?

उस दिन के युद्ध के बाद कौरव पक्ष के लोग अपनी पूरी सेना को अकेले अर्जुन से कमजोर समझने लगे। दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से कहा आचार्य आपने जानबुझकर युधिष्ठिर को कैद नहीं किया। तब द्रोणाचार्य ने कहा पुत्र दुर्योधन सारे पाण्डवों को में युद्ध में परास्त कर सकता हूं पर अर्जुन को नहीं। अगर कल तुम अर्जुन को युद्ध करते हुए कुछ दूर ले जाओ तो मैं कल पांडव योद्धाओं में से एक श्रेष्ठ महारथी को तो जरूर मार गिराऊंगा। कल में एक ऐसे व्यूह की रचना करूंगा जिसका भेदन अर्जुन के अलावा कोई और पांडव नहीं जानता है। 

द्रोणचार्य की यह बात सुनकर दुर्योधन ने कहा ठीक है आचार्य आप जैसा कहेंगे हम वैसा ही करेंगे। दूसरे दिन का युद्ध आरंभ हुआ। अर्जुन को  षडयंत्र के तहत युद्धस्थल से दूर ले जाया गया। यह देखकर युधिष्ठिर ने अभिमन्यु से कहा बेटा चक्रव्युहभेदन  का उपाय हम लोग बिल्कुल नहीं जानते। इसे तो तुम अर्जुन, श्रीकृष्ण और प्रद्युम्र ही तोड़ सकते हैं। पांचवां कोई भी इस काम को नहीं कर सकता। इसलिए तुम इस व्यूह को तोड़ डालो, नहीं तो युद्ध से लौटने पर अर्जुन हमलोगों को ताना देंगे। अभिमन्यु ने कहा अचार्य द्रोण की सेना भयंकर है पर मैं वर्ग की विजय के लिए अभी इस चक्रव्यूह में प्रवेश करता हूं।  


कौरवों ने की अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा क्योंकि...

आचार्य द्रोण के युद्ध के मैदान में आते ही सारे पांडव महारथी उन पर टूट पड़े। बड़ा ही रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। द्रोण ने राजा द्रुपद को दस बाण मारे। उनका जवाब उन्होंने अनेकों बाणों से दिया। द्रोण ने भीमसेन के घोड़े मार डाले। भीम अपने शत्रु का ऐसा पराक्रम सहन नहीं कर पाए। उन्होंने अपनी गदा से उसके सब घोड़े मार डाले।  

धीरे-धीरे का पांडवों का पक्ष मजबूत और कौरव पक्ष के लोग कमजोर पडऩे लगे। सूर्य अस्त हो गया अंधकार फैलने लगा। 

इसलिए शत्रु, मित्र किसी का भी पता लगाना कठिन हो गया। यह देखकर द्रोणाचार्य और दुर्योधन ने अपनी सेना को युद्ध बंद करने की आज्ञा दी और अर्जुन ने भी अपनी सेना को शिविर में मोड़ा। इस प्रकार शत्रुओं के दांत खट्टे कर वे श्रीकृष्ण के साथ बड़े हर्ष से पांडव शिविर को गए। पांडवों से उस दिन इतनी बुरी हार के बार कौरव वीरों ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की।  


जानिए क्यों की अर्जुन ने अपने गुरु को हराने की प्रतिज्ञा?

द्रोणाचार्य पाण्डवों पर प्रेम रखते हैं, इसलिए उनकी प्रतिज्ञा को स्थाई बनाने के लिए उसने यह बात सेना के सभी पांडवों में घोषित करा दी। सैनिकों ने जब सुना कि आचार्य ने राजा युधिष्ठिर को कैद करने की प्रतिज्ञा की है तो वे सिंहनाद करने लगे। 

अपने विश्वास पात्र गुप्तचरों से द्रोण की प्रतिज्ञा के बारे में सुनकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा आचार्य जो कुछ करना चाहते हैं वह तुमने सुना? अब किसी ऐसी नीति से काम लो, जिसमे उनका विचार सफल न हो। उन्होंने एक शर्त के साथ प्रतिज्ञा की है और उस शर्त का संबंध तुम्ही से है। तुम मेरे पास रहकर ही युद्ध करो, जिससे कि द्रोण् के द्वारा दुर्योधन की इच्छा पूरी न हो सके। 

अर्जुन ने कहा जिस प्रकार में आचार्य का वध नहीं करना चाहता, उसी प्रकार आप से होने की भी मेरी इच्छा नहीं है। ऐसा करने में भले ही मुझे युद्धस्थल  में अपने प्राणों से हाथ धोना पड़े। भले ही प्रलय आ जाए। स्वयं इंद्र की सहायता पाकर भी  आचार्य आपको कैद नहीं कर पाएंगे। यह मेरी प्रतिज्ञा टल नहीं सकती। जहां तक मुझे स्मरण है मैंने कभी झूठ नहीं बोला, कहीं पराजय प्राप्त नहीं की और न कभी कोई प्रतिज्ञा करके ही उसे तोड़ा है। 

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