सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat 22



पाण्डवों को मारने के लिए किसने बनवाया था...लाक्षाभवन?

जब धृतराष्ट्र के कहने पर पाण्डव वारणावत जाने के लिए तैयार हो गए तो दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने मंत्री पुरोचन को एकांत बुलाया और कहा कि इससे पहले ही पाण्डव वारणावत पहुंचे तुम वहां जाओ और सन, राल व लकड़ी से ऐसा महल बनवाओ जो आग से तुरंत भड़क उठे। किसी को भी इस बात की भनक न लगे। जब पाण्डव वहां रहने लगे तो उचित अवसर देखकर तुम वहां आग लगा देना। 

इस प्रकार पाण्डव जल मरेंगे और किसी को हम पर शक भी नहीं होगा। दुर्योधन की आज्ञानुसार पुरोचन वारणावत की ओर चल पड़ा।समय आने पर जब युधिष्ठिर अपने भाइयों व माता कुंती के साथ वारणावत जाने के लिए चले तो उनके पीछे कुरुवंश के बहुत से विद्वान, ब्राह्मण और प्रजा चलने लगी।वे आपस में बात करते जाते कि इसमें अवश्य ही धृतराष्ट्र और दुर्योधन की कोई चाल है। पाण्डव सदैव धर्म का पालन करने वाले हैं और युधिष्ठिर को स्वयं धर्मराज है इसलिए अब जहां युधिष्ठिर रहेंगे हम भी वहीं निवास करेंगे। 

यह सुनकर युधिष्ठिर ने ही प्रजा व ब्राह्मणों से कहा कि राजा धृतराष्ट्र हमारे पिता और गुरु हैं। वे जो भी करेंगे हम वह ही करेंगे। इसलिए आप सब लोग यही निवास करें। जब हम पर कोई मुसीबत आएगी तब आप लोग हमारी सहायता अवश्य करना। युधिष्ठिर की बात सुनकर हस्तिनापुरवासी पाण्डवों को आशीर्वाद देकर नगर में लौट आए।
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पाण्डवों को क्यों जाना पड़ा वारणावत?

दुर्योधन ने जब देखा कि भीमसेन की शक्ति असीम है और अर्जुन का अस्त्र ज्ञान तथा अभ्यास विलक्षण है तो वह उनसे और अधिक द्वेष रखने लगा। उसी समय हस्तिनापुर की प्रजा भी यही कहने लगी कि अब युधिष्ठिर को राजा बना देना चाहिए। प्रजा की इस प्रकार की सुनकर दुर्योधन जलने लगा। वह धृतराष्ट्र के पास गया और कहा कि यदि युधिष्ठिर को राज्य मिल गया तो फिर यह उन्हीं की वंश परंपरा से चलेगा और हमें कोई पूछेगा भी नहीं। तब दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को एक युक्ति सुझाई कि आप किसी बहाने से पाण्डवों को वरणावत भेज दीजिए। 

यह कहकर दुर्योधन प्रजा को प्रसन्न करने में लग गया और धृतराष्ट्र ने कुछ ऐसे चतुर मंत्रियों को नियुक्त कर दिया जो वारणावत की प्रशंसा करके पाण्डवों को वहां जाने के लिए उकसाने लगे। इस प्रकार वारणावत नगर की प्रशंसा सुनकर पाण्डवों का मन भी वहां जाने को हुआ। उचित अवसर देखकर धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को बुलाया और कहा कि इन दिनों वारणावत में मेले की धूम है यदि तुम वहां जाना चाहते हो तो हो आओ। 

युधिष्ठिर धृतराष्ट्र की चाल तुरंत समझ गए लेकिन धृतराष्ट्र का कहना वे टाल न सके। इस तरह युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डवों व कुंती धृतराष्ट्र की आज्ञा से वारणावत जाने के लिए तैयार हो गए।

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पाण्डवों से द्वेष क्यों करने लगे धृतराष्ट्र?

द्रुपद को जीतने के एक वर्ष बाद राजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को युवराज बना दिया। युवराज बनने के बाद युधिष्ठिर ने अपने व्यवहार से प्रजा का दिल जीत लिया। इधर भीमसेन ने बलरामजी से खड्ग, गदा और रथ के युद्ध की विशिष्ट शिक्षा प्राप्त की। उस समय अर्जुन के समान अन्य कोई योद्धा नहीं था। एक दिन द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरे प्रिय शिष्य हो। आज मैं तुमसे यह गुरुदक्षिणा मांगता हूं कि यदि कभी युद्ध में मेरा और तुम्हारा सामना हो तो तुम मुझसे लडऩे से मत हिचकना। तब अर्जुन ने गुरु की आज्ञा स्वीकार की। भीमसेन और अर्जुन के समान ही सहदेव ने भी देवगुरु बृहस्पति से संपूर्ण नीतिशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की। नुकल भी तरह-तरह के युद्धों में कुशल थे। अर्जुन ने सौवीर देश के पराक्रमी राजा दत्तामित्र को युद्ध में मार गिराया। साथ ही भीमसेन की सहायता से पूर्व दिशा और बिना किसी की सहायता से दक्षिण दिशा पर भी विजय प्राप्त की। इस प्रकार दूसरे राज्यों का धन-वैभव भी हस्तिनापुर आने लगा। सभी दूर पाण्डवों की कीर्ति फैल गई। यह देखकर यकायक धृतराष्ट्र के मन में पाण्डवों के प्रति दूषित भाव आ गया। क्योंकि धृतराष्ट्र मन ही मन चाहते थे प्रजा जिस प्रकार युधिष्ठिर से स्नेह करती है वैसा ही दुर्योधन से रखें। यही कारण था कि पाण्डवों का यश धृतराष्ट्र के मन में खटकने लगा। 

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जब अर्जुन ने बंदी बनाया राजा द्रुपद को

जब सभी राजकुमार अस्त्र विद्या में निपुण हो गए तो गुरु द्रोणाचार्य ने सोचा कि अब द्रुपद से बदला लेने का समय आ गया है। तब द्रोणाचार्य ने सभी राजकुमारों को एकत्रित कर कहा कि तुम लोग पांचालराज द्रुपद को युद्ध में पकड़कर ले आओ, यही मेरी सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा होगी। गुरु की आज्ञा पाकर सभी कौरव व पाण्डव राजकुमार अस्त्र-शस्त्र लेकर पांचालदेश की ओर कूच कर गए। सबसे पहले दुर्योधन, कर्ण व दु:शासन ने पांचालदेश में प्रवेश किया। जब पांचालनरेश द्रुपद को यह पता चला तो वह भी अपने सैनिकों के साथ युद्ध करने लगे। द्रुपद की सेना तथा वहां के नागरिक कौरव सेना पर टूट पड़े। कौरव सेना पर ऐसी मार पड़ी कि वह भागने लगी। 

तब अर्जुन ने द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और नकुल, सहदेव व भीम के साथ द्रुपद के नगर में प्रवेश किया। अर्जुन ने अदुभुत पराक्रम दिखाते हुए ऐसी बाण वर्षा की कि सारी पांचाल सेना उसमें ढंक गई। थोड़ी ही देर में अर्जुन ने द्रुपद को हराकर उन्हें पकड़ लिया और गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य को सौंप दिया। तब द्रोणाचार्य ने द्रुपद से कहा कि अब तुम मेरे अधीन हो। इस प्रकार तुम्हारा राज्य भी मेरा ही है। लेकिन मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता बल्कि यह चाहता हूं कि हम पहले की भांति मित्र बन जाएं। एक बार तुमने मुझसे कहा था राजा ही राजा का मित्र हो सकता है तो मैं तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य वापस देता हूं। द्रुपद ने सहर्ष ही इसके लिए हां कह दिया। 

तब द्रुपद माकंदी प्रदेश के काम्पिल्य नगर में रहने लगे और द्रोणाचार्य अहिच्छत्र प्रदेश की अहिच्छत्रा नगरी में रहने लगे। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने द्रुपद से अपने अपमान का बदला लिया। इससे द्रुपद के मन में असंतोष रहने लगा।
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जब अर्जुन को ललकारा कर्ण ने

जब सभी राजकुमार अस्त्र विद्या में पारंगत हो गए तब द्रोणाचार्य ने राजकुमारों द्वारा सीखी गई अस्त्र विद्या के प्रदर्शन के लिए रंगमंडप बनवाया। उचित समय आने पर वहां सर्वप्रथम भीम व दुर्योधन के बीच कुश्ती का मुकाबला हुआ।उसके बाद द्रोणाचार्य ने अर्जुन को बुलाया। 

अर्जुन ने विभिन्न तरह के बाणों का प्रदर्शन कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। सभी अर्जुन के पराक्रम को देखकर उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी समय रंगमंडप में कर्ण ने प्रवेश किया और कहा कि उपस्थित सभी लोगों के सामने जो पराक्रम अर्जुन ने दिखाया है वह मैं भी दिखा सकता हूं। तब द्रोणाचार्य के कहने पर कर्ण ने भी अर्जुन के समान ही अस्त्रविद्या का प्रदर्शन किया। यह देखकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ। तब कर्ण ने अर्जुन के साथ द्वन्द्वयुद्ध करने की इच्छा प्रकट की। तब द्रोणाचार्य ने इसके लिए हां कर दी।

तभी कृपाचार्य ने कर्ण से कहा कि अर्जुन चंद्रवंशी है तथा महाराज पाण्डु का पुत्र है इसलिए तुम भी अपने वंश का परिचय दो। इसके बाद ही द्वन्द्वयुद्ध करने का निर्णय होगा। यह सुनकर कर्ण चुप हो गया। तभी दुर्योधन ने बीच में आकर कहा कि यदि अर्जुन इसलिए कर्ण से युद्ध नहीं करना चाहता कि वह राजा नहीं है तो कर्ण को मैं इसी समय अंगदेश का राजा बनाता हूं। ऐसा कहकर दुर्योधन ने वहीं कर्ण का राज्याभिषेक कर दिया। तभी वहां कर्ण के पिता अधिरथ भी आ पहुंचे। 

उन्होंने कर्ण को अपने सीने से लगाया और स्नेह किया। यह देखकर सभी लोग समझ गए कि कर्ण सूतपुत्र है। तब दुर्योधन कर्ण को अपने साथ रंगमंडप से बाहर ले गया।
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जब भीम व दुर्योधन का मुकाबला हुआ

जब सभी राजकुमार युवा हो गए और उनकी अस्त्र शिक्षा भी पूरी हो गई तब एक दिन द्रोणाचार्य ने भीष्म आदि के सामने ही राजा धृतराष्ट्र से कहा कि सभी राजकुमार सभी प्रकार की विद्या में निपुण हो चुके हैं। अब हमें उनके अस्त्र कौशल का प्रदर्शन देखना चाहिए। धृतराष्ट्र ने भी हामी भर दी और विदुर को आचार्य द्रोण के अनुसार रंगमंडप बनवाने का आदेश दिया। रंगमंडप तैयार होने पर उसमें अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र टांगे गए और राजघराने के स्त्री-पुरुषों के लिए उचित स्थान बनवाए गए। स्त्रियों और साधारण दर्शकों के स्थान भी अलग-अलग थे। 

नियत दिन आने पर राजा धृतराष्ट्र, भीष्म एवं कृपाचार्य वहां आए। गांधारी, कुंती आदि राजपरिवार की महिलाएं भी वहां आईं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि आकर यथास्थान पर बैठ गए। सबसे पहले भीमसेन और दुर्योधन हाथ में गदा लेकर रंगभूमि में उतरे। वे पर्वत शिखर के समान हट्टे-कट्टे वीर लंबी भुजा और कसी कमर के कारण बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। वे मदमस्त हाथी के समान पैंतरे बदल-बदल कर गदायुद्ध करने लगे। उनके बीच बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा।

विदुरजी धृतराष्ट्र को और कुंती गांधारी को सब बातें बतलाती जाती थीं। उसे देखकर दर्शकों में उत्साह फैल गया। उस समय दर्शक दो दलों में बंट गए। कुछ भीमसेन की जय बोलते तो कुछ दुर्योधन की। स्थिति अनियंत्रित होती देख द्रोणाचार्य ने अपने बेटे अश्वत्थामा को भीम व दुर्योधन को रोकने के लिए कहा। इस प्रकार उन दोनों महाबलियों के बीच चल रहा भयंकर संग्राम समाप्त हो गया।

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जब द्रोणाचार्य के प्राण बचाए अर्जुन ने

एक बार जब द्रोणाचार्य गंगास्नान कर रहे थे। तभी एक भयंकर मगर ने द्रोणाचार्य की जांघ पकड़ ली। द्रोण खुद भी छूट सकते थे लेकिन उन्होंने शिष्यों से कहा कि मगर को मारकर मुझे बचाओ। उनकी बात पूरी होने के पहले ही अर्जुन ने पांच बाणों से पानी में डुबे मगर को मार डाला और सभी राजकुमार हक्के-बक्के होकर अपने-अपने स्थान पर ही खड़े रहे। 

मगर मर गया और आचार्य की जांघ भी छूट गई। इससे प्रसन्न होकर द्रोणाचार्य ने अर्जुन को ब्रह्मशिर नामक अस्त्र प्रदान किया साथ ही उसके प्रयोग और उपसंहार की विधि भी बताई। ब्रह्मशिर अस्त्र देते समय द्रोणाचार्य ने अर्जुन को यह भी बताया कि यह महाभयंकर अस्त्र है। इसे कभी किसी साधारण पुरुष पर मत चलाना। यह अस्त्र सारे संसार को जला डालने की क्षमता रखता है। 

तब अर्जुन ने बड़े ही विन्रम भाव से वह अस्त्र स्वीकार किया। तब द्रोणाचार्य ने एक बार फिर अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान दिया।
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जब द्रोणाचार्य ने ली राजकुमारों की परीक्षा

एक बार द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने एक नकली गिद्ध एक वृक्ष पर टांग दिया। उसके बाद उन्होंने सभी राजकुमारों से कहा कि तुम्हे इस बाण से इस गिद्ध का सिर उड़ाना है। पहले द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को बुलाया और पूछा और निशाना लगाने के लिए कहा। फिर उन्होंने युधिष्ठिर से पूछा तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। युधिष्ठिर ने कहा मुझे वह गिद्ध, पेड़ व मेरे भाई आदि सबकुछ दिखाई दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को निशाना नहीं लगाने दिया। 

इसके बाद उन्होंने दुर्योधन आदि राजकुमारों से भी वही प्रश्न पूछा और सभी ने वही उत्तर दिया जो युधिष्ठिर ने दिया था। इससे द्रोणाचार्य काफी खिन्न हो गए।सबसे अंत में द्रोणाचार्य ने अर्जुन को गिद्ध का निशाना लगाने के लिए कहा और उससे पूछा कि तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे गिद्ध के अतिरिक्त कुछ और दिखाई नहीं दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्जुन को बाण चलाने के लिए। अर्जुन ने तत्काल बाण चलाकर उस नकली गिद्ध का सिर काट गिराया। 

यह देखकर द्रोणाचार्य की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि द्रुपद के विश्वासघात का बदला अर्जुन ही लेगा।
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द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसका अंगूठा ही क्यों...

जब द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों को अस्त्रों की शिक्षा दे रहे थे तब एक दिन निषादपति हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य भी अस्त्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए द्रोणाचार्य के पास आया लेकिन निषाद जाति का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे मना कर दिया। तब एकलव्य ने वन में जाकर द्रोणाचार्य की एक मिट्टी की मूर्ति बनाई और उसी में आचार्य भाव रखकर नियमित रूप से अस्त्र चलाने का अभ्यास करने लगा।

एक बार सभी राजकुमार द्रोणाचार्य की अनुमति से शिकार खेलने के लिए वन में गए। राजकुमारों के साथ एक कुत्ता भी था। वह कुत्ता घुमता-फिरता वहां पहुंच गया जहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। उसे देखकर कुत्ता भौंकने लगा। तब एकलव्य ने उस कुत्ते के मुंह को तीरों से भर दिया। कुत्ता उसी अवस्था में राजकुमारों के पास आया। यह दृश्य देखकर राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजकुमारों ने एकलव्य को ढूंढ लिया और उसके गुरु का नाम पूछा तो उसने द्रोणाचार्य को अपना गुरु बताया। 

तब सभी राजकुमार द्रोणाचार्य के पास गए और पूरी बात उन्हें बताई। द्रोणाचार्य ने सोचा कि यदि एकलव्य सचमुच धनुर्विद्या में इतना पारंगत हो गया है तो फिर अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का उनका वचन झूठा हो जाएगा। तब द्रोणाचार्य वन में गए और एकलव्य से मिले। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा कि यदि तू मुझे सचमुच अपना गुरु मानता है तो मुझे गुरुदक्षिणा दे। ऐसा कहकर उन्होंने एकलव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने हंसते-हंसते द्रोणाचार्य को अपने अंगूठा काटकर दे दिया।

एकलव्य की गुरुभक्ति देखकर द्रोणाचार्य अतिप्रसन्न हुए लेकिन अंगूठा कटने से एकलव्य के बाण चलाने में वह सफाई और फुर्ती नहीं रही।
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इसलिए द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था अर्जुन

द्रोणाचार्य हस्तिनापुर में रहकर कौरव व पाण्डवों को विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने लगे लेकिन उनके मन में राजा द्रुपद से अपने अपमान का बदला लेने की भावना कम नहीं हुई। द्रोणाचार्य ने एक दिन अपने सभी शिष्यों को एकांत में बुलाया और पूछा कि अस्त्र शिक्षा समाप्त होने के बाद क्या तुम लोग मेरे मन की इच्छा पूरी करोगे। अन्य शिष्य तो चुप रहे लेकिन अर्जुन ने बड़े उत्साह से द्रोणाचार्य की इच्छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की। यह देखकर द्रोणाचार्य बहुत प्रसन्न हुए। 

द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को तरह-तरह के दिव्य अस्त्रों की शिक्षा देने लगे। उस समय उनके शिष्यों में यदुवंशी तथा दूसरे देश के राजकुमार भी थे। सूतपुत्र के नाम से प्रसिद्ध कर्ण भी वहीं शिक्षा पा रहा था। धनुर्विद्या में अर्जुन की विशेष रूचि थी इसलिए वे समस्त शस्त्रों के प्रयोग और उपसंहार की विधियां शीघ्र ही सीख गए। एक दिन जब भोजन करते समय तेज हवा के कारण दीपक बुझ गया। अंधकार में भी हाथ को बिना भटके मुंह के पास जाते देखकर अर्जुन ने समझ लिया कि निशाना लगाने के लिए प्रकाश की आवश्यकता नहीं, केवल अभ्यास की है। 

एक बार रात में अर्जुन की प्रत्यंचा की टंकार सुनकर द्रोणाचार्य उनके पास गए और उनकी लगन देखकर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का आशीर्वाद दिया।
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जब कौरव व पाण्डवों के गुरु बनें द्रोणाचार्य

एक दिन युधिष्ठिर आदि सभी राजकुमार नगर के बाहर मैदान में गेंद से खेल रहे थे। गेंद अचानक कुएं में गिर पड़ी। राजकुमारों ने उसे निकालने का प्रयत्न तो किया परंतु सफलता नहीं मिली। इसी समय उनकी दृष्टि पास ही बैठे एक ब्राह्मण पर पड़ी। उनकी शरीर दुर्बल और रंग सांवला था। राजकुमारों ने उनसे कुएं से गेंद निकालने का निवेदन किया। तब उस ब्राह्मण ने कहा कि तुम मेरे भोजन का प्रबंध कर दो और मैं तुम्हारी गेंद निकाल देता हूं। 

ऐसा कहकर ब्राह्मण ने कुएं में एक अगूंठी डाली और फिर अभिमंत्रित सीकों से गेंद व अंगूठी दोनों निकाल लिए। यह देखकर राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने उस ब्राह्मण का परिचय जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि तुम यह सब बात तुम्हारे पितामाह भीष्म से कहना वे मुझे पहचान जाएंगे। राजकुमारों ने सारी बात भीष्म को जाकर बताई तो वे तुरंत समझ गए कि वह ब्राह्मण कोई और नहीं बल्कि द्रोणाचार्य हैं। 

उन्होंने सोचा कि राजकुमारों के लिए उनसे अच्छा गुरु कोई और नहीं हो सकता। ऐसा विचारकर भीष्म द्रोणाचार्य को ससम्मान हस्तिनापुर ले आए और कौरव व पाण्डव राजकुमारों की शिक्षा का भार उन्हें सौंप दिया। इस प्रकार द्रोणाचार्य भीष्म से सम्मानित होकर हस्तिनापुर में रहने लगे।
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जब राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य का अपमान किया

पृषत नामक एक राजा भरद्वाज मुनि के मित्र थे। द्रोणाचार्य के जन्म के समय ही उनके यहां भी द्रुपद नामक पुत्र पैदा हुआ। उसने भी भरद्वाज आश्रम में रहकर द्रोणाचार्य के साथ शिक्षा प्राप्त की। द्रोणाचार्य के साथ उसकी मित्रता हो गई। जब दोनों युवा हुए तो पृषत का निधन होने पर द्रुपद उत्तर पांचाल देश का राजा हुआ और द्रोणाचार्य आश्रम में रहकर तपस्या करने लगे। 

आचार्य द्रोण को जब मालूम हुआ कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं तो वह भी भगवान परशुराम के पास पहुंचे। तब उन्होंने भगवान परशुराम से उनके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके प्रयोग की विधि, रहस्य और उपसंहार की विधि मांग ली। अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करके द्रोणाचार्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे अपने मित्र द्रुपद के पास गए। वहां राजा द्रुपद ने उनका बड़ा अपमान किया और बाल्यकाल की दोस्ती को मुर्खता बताया। 

तब द्रोणाचार्य को बड़ा क्रोध आया। तब उन्होंने मन ही मन द्रुपद से इस अपमान का बदला लेने का निश्चय किया। इसके बाद द्रोणाचार्य कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर में आ गए और कुछ दिनों तक गुप्त रूप से कृपाचार्य के घर पर रहे।
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कैसे हुआ द्रोणाचार्य का जन्म?

द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। उनके पुत्र का नाम अश्वत्थामा था जो यम, काल, महादेव व क्रोध का अंशावतार था। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है-

एक समय गंगाद्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक बार वे यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञपात्र में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी। 

अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से महाबली अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही उच्चै:श्रवा अश्व के समान गर्जना की थी इसलिए उसका नाम अश्वत्थामा था। अश्वत्थामा के जन्म से द्रोणाचार्य को बड़ा हर्ष हुआ। द्रोणाचार्य सबसे अधिक अपने पुत्र से ही स्नेह रखते थे। द्रोणाचार्य ने ही उसे धनुर्वेद की शिक्षा भी दी थी।


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