सोमवार, 24 जून 2013

Mahabharat 13



हिरनी के गर्भ से लिया ऋषि ने जन्म क्योंकि...

एक बार युधिष्ठिर नन्दा और अपरनन्दा नाम की नदियों पर गए जो हर प्रकार से पाप और भय को नष्ट करने वाली थी। तब लोमेशजी ने युधिष्ठिर से कहा राजन्- इस नदी में स्नान करने वाला हर तरह के पाप से मुक्त हो जाता है। यह सुनकर युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ उस नदी में स्नान किया। उसके बाद वे लोग कौशिक नदी के किनारे गए। वहां जाकर लोमेशजी ने युधिष्ठिर से कहा- इस नदी के किनारे आपको जो आश्रम दिखाई दे रहा है। वह कश्यप मुनि का है। महर्षि विभाण्डक के पुत्र ऋषिश्रृंग का आश्रम भी यहीं है। उन्होंने एक बार अपने तप के प्रभाव से वर्षा को रोक दिया था। वे परमतेजस्वी हैं। उन्होंने विभाण्डकमुनि और मृगी के उदर से जन्म लिया है।

अनावृष्टी होने पर उस बालक के भय से वृत्रासुर वध करने वाले इन्द्र ने कैसे वर्षा की। तब युधिष्ठिर ने कहा लेकिन पशुजाति के साथ योनी संसर्ग होना तो शास्त्रों की दृष्टी से गलत है। तब लोमेशजी बोले महर्षि विभाण्डक बड़े ही साधुस्वभाव और प्रजापति के समान तेजस्वी थे। उनका वीर्य अमोघ था। तपस्या के कारण अंत:करण शुद्ध हो गया।  एक बार वे एक सरोवर पर स्नान करने लगे। वहां उर्वशी अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित को गया। 

इतने में ही वहां एक प्यासी मृगी आई वह जल के साथ वीर्य भी पी गई। इससे उसका गर्भ ठहर गया। वास्तव में वह एक देवकन्या थी। इसे शाप देते हुए कहा था कि तू मृगजाति में जन्म लेकर एक मुनि पुत्र को उत्पन्न करेगी। तब शाप से छूट जाएगी। विधि का विधान अटल है। इसी से महामुनि ऋषिश्रृंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके सिर पर एक सींग था। इसलिए उनके मन में हमेशा ब्रम्हचर्य रहता था।
---------------------------
...तब धरती पर उतरी गंगा

इतना सुनने के बाद कपिलमुनि ने कहा तुम जो वर मांगते हो वह मैं तुम्हे देता हूं। तुमसे सगर का जीवन सफल होगा। तुम्हारे पिता भी पुत्रवान में गिने जाएंगे। तुम्हारे प्रभाव से ही वे सब स्वर्ग प्राप्त करेंगे। तुम्हारा पौत्र भागीरथ सगर पुत्रों का उद्धार करने के लिए स्वर्गलोक से गंगाजी लाएगा। कपिलजी के इस तरह कहने के बाद अंशुमान घोड़ा लेकर सगर की यज्ञशाला में आ गया। इसके बाद बहुत दिनों तक राजा सगर ने अपनी प्रजा का पिता के समान पालन किया। 

अंशुमान ने भी अपने पितामह के ही समान राज्य किया। उन्हें दिलीप नाम के धर्मात्मा पुत्र हुए। उस राज्य को सौंपकर अंशुमान भी परलोक सिधार गए। दिलीप को जब अपने पितरों के विनाश की कहानी पता चली तो उन्हें बहुत चिंता हुई। वे उनके उद्धार का उपाय सोचने लगे और उन्होंने गंगाजी को लाने के लिए बहुत कोशिशें की। बहुत कोशिश करने पर भी वे सफल नहीं हो पाए। उनको भागीरथ का नाम का पुत्र हुआ। उसे राज्य पर सौंप कर दिलीप वन को चले गए। राजा भागीरथ चक्रवर्ती और महारथी थे। उन्हें जब मालुम हुआ के उनके पूर्वज कपिल मुनि के क्रोध से भस्म हो गए। तब उन्होंने कई सालों तक कंद-मूल खाकर तपस्या की। लगभग एक हजार साल बीत जाने के बाद गंगा नदी प्रकट हुई। तब गंगा ने उनसे पूछा कि तुम क्या चाहते हो तब भगीरथ ने कहा मेरे पितृगण की मुक्ति के लिए आप से प्रार्थना करता हूं। तब मां गंगा ने कहा-भागीरथ अगर मैं तुम्हे यह वर दे दूं तो तीनों लोकों में जल प्रलय आ जाएगा। 

मेरे आकाश से जमीन पर आने के वेग को जो धारण कर सके। ऐसा कोई उपाय करो। तब भागीरथ ने पूछा कि तीनों लोकों में ऐसा कौन है जो आपको धारण करने में सक्षम है। तब मां गंगा ने कहा केवल शिवजी ही हैं जो मुझे धारण कर सकते हैं। तब भागीरथजी ने कैलास पर जाकर सैकड़ों सालों तक तपस्या की। तब शिवजी प्रकट हुए और उन्होंने भागीरथ से कहा कि अब तुम गंगा से प्रार्थना करों, मैं स्वर्ग में उसे धारण कर लुंगा। तब गंगाजी धरती पर उतरी। उन्होंने भागीरथ से कहा मैं किस मार्ग से चलूं। यह सुनकर राजा भगीरथ उन्हें उस स्थान पर ले गए जहां उनके पूर्वजों की अस्थियां थी।

क्रमश:
-----------------------------
...इसलिए राजा ने अपने पुत्र का त्याग कर दिया

अपने धर्म की रक्षा और प्रजा के हित के जिए मैंने तुम्हारे पिता को भी त्याग दिया है। तब युधिष्ठिर ने लोमेश मुनि से पूछा-राजा ने अपने पुत्रों को त्याग क्यों कर दिया था? तब लोमेश मुनि ने बोला -महाराज सगर का शैव्या से गर्भ से उत्पन्न पुत्र का नाम असमंजस था। वह अपने पुरवासियों के कमजोर बच्चों को रोने चिल्लाने पर भी गला फाड़कर नदी में डाल देता था। इसी कारण सभी पुरवासी उससे बहुत डरते थे। इस सब से परेशान होकर वे सभी पुरवासी राजा राजा के पास गए। पुरवासियों की बात सुनकर महाराज सगर उदास हो गए । 

फिर मंत्रियों को बुलाकर उन्होंने कहा यदि आप लोग मेरा कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो तुरंत ही एक काम करें- मेरे पुत्र असमंजस को अभी इस नगर से बाहर निकाल दीजिए। राजा की आज्ञा के अनुसार सभी पुरूवासियों के हित के लिए उन लोगों ने ऐसा ही किया। सगर ने अंशुमान से कहा बेटा में तुम्हारे पिता को नगर से निकाल चुका हूं। मेरे और सब पुत्र भस्म हो गए हैं। यज्ञ का घोड़ा भी नहीं मिला है। इसलिए मुझे बहुत दुख हो रहा है। तुम किसी तरह से वह घोड़ा ढूँढ़ कर लाओ ताकि में यज्ञ सम्पन्न कर पाऊं। 

अब अंशुमान उसी स्थान पर आया जहां पृथ्वी खोदी गई थी। उसी मार्ग से उसने समुद्र में प्रवेश किया। वहां उसने उस घोड़े और महात्मा कपिल को देखा। उनके दर्शन कर उसने प्रणाम किया और उनकी सेवा में वहां आने का निवेदन किया। अंशुमान की बातें सुनकर महर्षि कपिल बहुत प्रसन्न हुए। उससे बोले मैं तुम्हे वर देना चाहता हूं, तुम्हारी जो इच्छा हो मांग लो। अंशुमान ने पहले वर में अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा मांगा और दूसरे में पितरों को पवित्र करने की प्रार्थना की।

क्रमश:
------------------------
...और तब मारे गए राजा के साठ हजार पुत्र

उनका घोड़ा पृथ्वी पर घूमने लगा। राजा के पुत्र रखवाली पर नियुक्त थे। घूमता-घूमता वह जलहीन समुद्र के पास पहुंचा, जो उस समय भयंकर लग रहा था। राजकुमार बड़ी सावधानी से उसकी चौकसी कर रहे थे। वह वहां पहुंचने पर अदृश्य हो गया। जब वह ढूंढने पर भी न मिला तो राजपुत्रों ने समझा कि उसे किसी न चुरा लिया है और राजा सगर के पास आकर ऐसा ही कह दिया। हमने समुद्र, द्वीप, वन, नंद सभी छान डाले, परंतु हमें न तो घोड़ा ही मिला और न उसको चुरानेवाला। पुत्रों की यह बात सुनकर सगर को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने आज्ञा दी कि जाओ फिर घोड़े की खोज करो और बिना उस यज्ञपशु के लौटकर मत आना।

पिता का ऐसा आदेश पाकर सगरपुत्र फिर सारी पृथ्वी में घोड़े की खोज करने लगे। अंत में उन्होंने एक जगह पृथ्वी फटी हुई देखा। उसमें उन्हें  एक छिद्र भी दिखाई दिया। तब वे कुदाल और हथियारों से छिद्र को खोदने लगे। खोदते-खोदते उन्हें बहुत समय बीत गया। लेकिन फिर भी उन्हें घोड़ा नहीं दिखाई दिया। इससे उनका गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया और उन्होंने ईशान्य कोण में पाताल लोक तक खोद डाला। वहां उन्होंने अपने घोड़े को घूमता देखा तो उसके पास ही उन्हें महात्मा कपिल भी दिखाई दिए। 

घोड़े को देखकर कपिल मुनि को गुस्सा आ गया। उन्होंने गुस्से में आकर सभी मंद बुद्धि पुत्रों को भस्म कर दिया। जब नारद जी ने राजा को जाकर यह समाचार सुनाया तो वे उदास हो गए। लेकिन तभी उन्हें शिवजी के दिए वर का स्मरण हो गया। इसलिए उन्होंने अपने पोते अंशुमान को बुलाकर कहा मेरे साठ हजार पुत्र नष्ट हो गए।

------------------------
ऐसे हुए राजा को एक साथ साठ हजार पुत्र....

युधिष्ठिर ने लोमेश मुनि से पूछा कि समुद्र भरने में भागीरथ के पूर्व पुरुष किस प्रकार कारण हुए, भागीरथ ने उसे किस प्रकार भरा यह प्रसंग में आपसे सुनना चाहता हूं। लोमेश मुनि ने कहा इक्ष्वाकुवंश में सगर नाम के एक राजा थे। वे बड़े ही सुंदर थे। उनकी विदर्भी और शैब्या नाम की दो पत्निया थी। उन्हें साथ लेकर वे कै लास पर्वत पर गए। तपस्या करने लगे। कुछ कला तपस्या करने पर उन्हें भगवान शंकर के दर्शन हुए। महाराज सागर ने दोनों रानियों के सहित भगवान के चरणों में प्रणाम किया और पुत्र के लिए प्रार्थना की। तब शिवजी ने राजा व रानियों को कहा तुमने जिस मुहूर्त में वर मांगा है। उसके प्रभाव से तुम्हारी एक रानी को तो बहुत शूरवीर साठ हजार पुत्र होंगे। वे सब एक साथ ही नष्ट हो जाएंगे।

दूसरी रानी से वंश को चलाने वाला केवल एक ही शूरवीर पुत्र होगा। ऐसा कहकर भगवान शंकर अंर्तध्यान हो गए। शिवजी के आर्शीवाद से दोनों ही रानियों ने शीघ्र ही गर्भ धारण किया। समय आने पर वैदर्भी के गर्भ से एक तुंबी उत्पन्न हुई। शैव्या के के गर्भ से एक देवरूपी बालक ने जन्म लिया।राजा ने उस तुंबी को फेंकवाने का विचार किया तो आकाशवाणी हुई। तुम इस तरह अपने पुत्रों का त्याग नहीं कर सकते हो। एक तुंबी में जितने बीज हैं सभी निकालकर उन्हें कुछ-कुछ गरम किए हुए घी से भरे घड़ों में रख दो। इससे तुम्हे साठ हजार पुत्र होंगे। उसने ऐसा ही किया और हर एक घड़े की रक्षा के लिए एक दासी नियुक्त कर दी। समय बीतने के बाद उन घड़ों से साठ हजार पुत्र हुए। वे सभी क्रुर कर्म करने वाले थे। सगर ने अश्वमेघ यज्ञ की दीक्षा ली।

क्रमश: 

--------------------------------
तब अगस्त्य मुनि समुद्र पी गए और...

देवताओं की यह बात सुनकर अगस्त्यजी अपनी पत्नी के सहित विन्ध्याचल के पास आए और उससे बोले, पर्वत प्रवर मैं किसी कार्य के लिए दक्षिण की तरफ जा रहा हूं। इसलिए मेरी इच्छा कि तुम मुझे उधर जाने का रास्ता दो। जब तक मैं उधर से लौटू़। तब तक तुम मेरी प्रतिक्षा करना, उसके बाद अपनी इच्छा के अनुसार बढ़ते रहना। 

विंध्याचल से यह कहकर अगस्त्यजी दक्षिण की ओर चले गए और वहां से आज तक नहीं लौटे। इतनी कथा सुनाने के बाद लोमेश मुनि ने युधिष्ठिर से कहा जितनी कथा मुझे तुम्हे सुनानी थी सुना चूका। अब मैं तुम्हे कालकैयों का संहार कैसे हुआ वह कथा सुनाता हूं। देवताओं की प्रार्थना सुनकर अगस्त्य ऋषि ने कहा आप लोग यहां कैसे आए हैं और मुझसे क्या वर चाहते हैं? तब देवताओं ने कहा 

हमारी ऐसी इच्छा है कि आप महासागर को पी जाइए। 

ऐसा होने पर हम समुद्र में छूपे सारे कालकेय राक्षसों को मा डालेंगे। देवताओं की बात सुनकर मुनिवर अगस्त्य ने कहा अच्छा मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा और संसार का दुख दूर कर दूंगा। तब देवताओं की मार से कालकेय का संहार करने लगे। जब सभी राक्षसों का संहार हो गया तो सभी देवता ब्रम्ह्माजी के पास आए और उनसे समुद्र भरने की प्रार्थना की। 

-------------------------------------
...और तब पृथ्वी पर अंधेरा छा गया

भगवान विष्णु की यह बात सुनकर देवगण ब्रम्ह्माजी अगस्त्य मुनि के आश्रम आए। वहां उन्होंने देखा कि अगस्त्यजी ऋषियों से घिरे हुए बैठे हैं। देवता उनके निकट गए। सभी देवता अगस्त्य मुनि की स्तुति गाने लगे। स्तुति में उन्होंने कहा पूर्वकाल में इन्द्र पद पाकर राजा नहुष ने जब सभी लोकों को तृप्त करना शुरू किया। 

पर्वतराज विन्ध्याचल सूर्य पर क्रोधित होकर एक साथ बहुत ऊंचे हो गए थे। इससे संसार में अंधेरा रहने लगा। उस समय प्रजा मरने लगी। उस समय आपकी शरण लेने से ही उन्हें शान्ति मिली थी। अब आप ही हमारा सहारा हैं। इतनी कथा सुनने के बाद युधिष्ठिर ने लोमेश से कहा विन्ध्याचल क्रोधित होकर अचानक सूर्य की तरफ क्यों बढऩे लगा?

तब लोमेश मुनि बोले सूर्य उदय और अस्त होने में पर्वतराज सुवर्णगिरी सुमेरु की प्रदक्षिणा किया करते थे। यह देखकर विंध्याचल ने कहा सूर्यदेव जिस प्रकार तुम सुमेरु के पास जाकर उसकी परिक्रमा करते हो, उसी तरह मेरी भी किया करो। इस पर सूर्य ने कहा मैं अपनी इच्छा से सुमेरु की प्रदक्षिणा नहीं करता। 

इसलिए करता हूं क्योंकि उन्होंने जगत की रचना की है। उन्होंने मेरे लिए यह मार्ग निर्दिष्ट कर दिया है। सूर्य के ऐसी बात सुनकर विध्यांचल को गुस्सा आ गया। वह सूर्य की तरफ तेजी से बढऩे लगा। तब सभी देवता विन्ध्य के पास आए और अनेकों उपायों से उसे रोकने लगे। उसने किसी कि एक ना सुनी। फिर वे सभी अपनी प्रार्थना लेकर अगस्त्य मुनि के पास गए। वे कहने लगे- भगवन पर्वतराज विन्ध्य  ने सूर्य और चंद्र के मार्ग व नक्षत्रों की गति को रोक दिया है।

--------------------------------------
राक्षस समुद्र में छुप जाया करते क्योंकि...

वत्रासुर के मारे जाने से सभी देवता और महर्षियों को बहुत प्रसन्न हुए। वे इन्द्र की स्तुति करने लगे। इसके पश्चात उन्होंने वृत्रासुर के वध से दुखी: के सारे दैत्यो ने मरना प्रारंभ किया। तब वे सभी डरे हुए राक्षस समुद्र की गहराई में जाकर छूप गए। वहंा से बहुत व्याकुल होकर आपस में सभी लोकों को कैसे नष्ट किया जाए। वो सभी राक्षस ये  मिलकर सोचने लगे। वे रात के समय बाहर आकर समुद्र के आसपास निवास करने वाले सभी ऋषियों को खा जाया करते थे। फिर जाकर समुद्र में छूप जाया करते थे। धीरे-धीरे उनका आतंक बढऩे लगा। पूरी पृथ्वी पर उनकी हड्डियां दिखाई देने लगी। जब इस तरह संसार का संहार होने लगा और यज्ञ समारोह नष्ट होने लगे। 

सभी देवताओं को जब इस बात से चिंता होने लगी तो वे इन्द्र के पास पहुंचे। उसके बाद इन्द्र के नेतृत्व में सभी देवता विष्णुजी के पास पहुंचे। सभी देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। देवताओं कि प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने कहा कालकेय नाम के दैत्यों का एक दल है। वे सब वत्रासुर के आश्रय में रहते थे। वत्रासुर के वध के बाद वे समुद्र की गहराई में रहने लगे। अब तुम्हे समुद्र सोखने के उपाय सोचने होंगे। तुम किसी तरह अगस्त्य ऋषि को इस काम के लिए तैयार कर लो। तब सभी देवता अगस्त्य मुनि के पास पहुंचे।

--------------------------
...इस तरह इन्द्र को मिला वज्र

युधिष्ठिरजी से लोमेशजी बोले मैं आपको अगस्त्यजी की बहुत दिव्य और आलौकिक कथा सुनाता हूं। आप सावधान होकर सुनिए। सतयुग में कालकेय नाम का एक राक्षस था। वह वत्रासुर के अधीन था। सभी राक्षस देवताओं पर अक्सर आक्रमण किया करते थे। तब सब देवताओं ने मिलकर सोचा वृत्रासुर का वध करना अब जरूरी हो गया। वे इन्द्र को आगे लेकर ब्रह्माजी के पास आए। ब्रह्मा ने यह देखकर उनसे कहा देवताओं तुम जो काम करना चाहते हो, वह मुझसे छिपा नहीं है। 

मैं तुम्हे वत्रासुर के वध का उपाय बताता हूं। पृथ्वी पर दधीच नाम के एक ऋषि रहते हैं जो स्वभाव से बहुत उदार हैं। तुम सब उनसे जाकर वर मांगो। जब वे तुम्हे वर देने को तैयार हो जाएं। तब उनसे कहना कि तीनों लोक के हित के लिए आप हमें अपनी हड्डियां दे दीजिए। तब वे देह त्यागकर तुम्हे अपनी हड्डिया दे देंगे। तुम एक छ: दांतों वाला एक बहुत भयानक वज्र बनाना। उस वज्र से इन्द्र वत्रासुर क ा वध कर सकेगा। मैंने तुम्हें सब बातें दी हैं, अब जल्दी करो। 

ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने के बाद सभी देवता सरस्वती के दूसरे तट पर ऋषि दधीच के पास गए। देवताओं ने दधीच से प्रार्थना की। सभी की प्रार्थना पर दधीची ने शरीर त्याग किया। देवता ब्रह्मा के आदेश के अनुसार उनकी हड्डियां सभी देवता विश्वकर्मा के पास ले गए। विश्वकर्मा ने उनकी हड्डियों से वज्र तैयार किया और उस वज्र को इन्द्र को देकर कहा कि आप लोग वत्रासुर को भस्म कर डालिए। उसके बाद देवताओं ने वत्रासुर पर हमला बोल दिया। इन्द्र ने अपनी पूर्ण शक्ति के साथ जब वत्रासुर पर प्रहार किया तो वह गिर पड़ा। वज्र की चोट से वह कुछ ही समय बाद मारा गया।

क्रमश:
--------------------------------
ऐसे चूर-चूर हुआ परशुराम का अभिमान...

लोमेश मुनि की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने भाइयों और द्रोपदी के साथ उस तीर्थ में स्नान करने से उनका तेजस्वी शरीर और ज्यादा तेजस्वी लगने लगा। स्नान के बाद युधिष्ठिर ने लोमेश मुनि से पूछा मुनि बताइए कि इस तीर्थ में स्नान से अपना खोया तेज किस तरह प्राप्त हुआ। लोमेश मुनि बोले युधिष्ठिर में आपको परशुरामजी का चरित सुनाता हूं। आप सावधान होकर सुनिए। महाराज दशरथजी के यहां भगवान विष्णु ने ही रावण के वध के लिए रामवतार धारण किया। रामजी ने अपने बचपन में ही बहुत से पराक्रम के काम किए थे। उनके बारे में सुनकर परशुरामजी को बहुत आश्चर्य हुआ। वे अपना क्षत्रियों का संहार करने वाला धनुष लेकर उनके साथ ही अयोध्या आए।

जब राजा दशरथ को उनके आने के बारे में पता चला तो वे रामजी को सबसे आगे रखकर उन्हें राज्य की सीमा पर भेजा। परशुरामजी ने राम जी से कहा मेरा यह धनुष काल के समान कराल है। यदि तुममें बल हो तो इसे चढ़ाओ। तब रामजी ने उनके हाथ से वह धनुष लेकर उसे खेल ही खेल में चढ़ा दिया। फिर मुस्कुराते हुए उससे टंकार किया। इसके बाद परशुरामजी ने कहा लीजिए आपका धनुष तो चढ़ा दिया, अब और क्या सेवा करूं? तब परशुरामजी ने उन्हें एक दिव्य बाण देकर कहा इसे धनुष पर लगाकर तुम्हारे कान तक खींच कर बताओ। 

यह सुनकर रामजी समझ गए कि परशुरामजी अभिमानी हैं। रामजी ने उनसे कहा आप ने पितामाह ऋत्वीक की कृपा से विशेषत: क्षत्रियों को हराकर ही यह तेज प्राप्त किया है। इसीलिए निश्चित ही आप मेरा भी तिरस्कार कर रहे हैं। मैं आपको दिव्य नेत्र देता हूं। उनसे आप मेरे रूप को देखिए। तब परशुरामजी ने रामजी मे सारी श्रृष्ठि को देखा। रामजी ने बाण छोड़ा तो वज्रपात होने लगा।

रामजी उस बाण से परशुरामजी को भी व्याकुल कर दिया। उनके शरीर से मानों तेज गायब हो गया। वे निस्तेज हो गए। इस तरह परशुरामजी का घमंड चूर-चूर हो गया। उन्होंने कहा तुमने साक्षात विष्णु के सामने ठीक से बर्ताव नहीं किया। अब तुम जाकर नदी में स्नान करो तभी तुम्हे तुम्हारा तेज फिर से प्राप्त होगा। इस तरह अपने पितृजन के कहने पर परशुरामजी ने वहां स्रान किया और अपना खोया तेज प्राप्त किया।

क्रमश:
----------------------------------

हर पति का है ये कर्तव्य....

जीवन का हर निर्णय पति-पत्नी को साझा रूप से लेना चाहिए। पति का कर्तव्य होता है कि वह हर फैसले में पत्नी की राय जरूर लें। यह सोच  आधुनिक नहीं है। यह तो प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। इसीलिए कहते हैं जहां नारियों को सम्मान दिया जाता है। वहां देवता निवास करते हैं। महाभारत की यह कथा हमें यही बता रही है कि गृहस्थी का  हर फैसला पति-पत्नी दोनों को मिलकर लेना चाहिए ताकि जीवन सुखमय व शांतिपूर्ण रहे अब आगे...

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...अगस्त्य मुनि ने राजा से अपनी आवश्यकता अनुसार धन दान में लिया और लोपामुद्रा की सारी इच्छाएं पूरी की। तब लोपामुद्रा ने कहा- आपने मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर दीं, अब मैं हमारे एक पराक्रमी पुत्र को जन्म देना चाहती हूं। अगस्त्य मुनि ने कहा-

मैं तुम्हारे सदाचार से बहुत खुश हूं। इसलिए तुम्हारे बारे में जो मैं सोचता हूं वह सुनो तुम्हे सहस्त्र पुत्रों के समान सौ पुत्र हो या सौ के समान दस पुत्र हो? या सौ को परास्त कर देने वाला एक ही पुत्र हो तुम क्या चाहती हो? 

तब लोपामुद्रा ने कहा- मुझे तो सौ को पराजित करने वाला एक ही पुत्र चाहिए। उसके बाद लोपामुद्रा का गर्भ ठहरा। दोनों फिर वन में रहने लगे। लगभग सात साल गर्भ से रहने के बाद लोपामुद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उनके पुत्र के जन्म के बाद उनके पूर्वजों को मोक्ष मिला। यह स्थान अगस्त्याश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस आश्रम के ही पास भागीरथी नदी है। भगवान राम ने जब परशुरामजी को तेज विहीन कर दिया था। तब उन्होंने इसी तीर्थ में स्नान करके फिर से तेज प्राप्त किया था। 

क्रमश:
---------------------------------
गृहस्थी तभी सुखी हो सकती है जब....

कोई भी  दो पहियां गाड़ी तभी ठीक से चल सकती है जब उसके दोनों पहिए ठीक से काम करें। उसी तरह गृहस्थी की गाड़ी तभी ठीक से चल सकती है। जब पति-पत्नी की आपसी समझ अच्छी हो। दोनों एक- दूसरे की भावनाओं का सम्मान करें व एक-दूसरे की जरूरतों का ध्यान रखें।  तो जिंदगी में बड़ी से बड़ी मुश्किलों का सामना करना आसान हो जाता है। महाभारत की यह कहानी हमें यही बता रही की पति-पत्नी के रिश्ते की आपसी समझ कैसी होनी चाहिए।

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...एक बार जब लोपामुद्रा ऋतुस्नान से निवृत हुई तो उनका रूप तप के कारण और अधिक सुंदर दिखाई दे रहा था। जब अगस्त्य मुनि ने समागम के लिए उनका आवाह्न किया तो उन्होंने कुछ सकुचाते हुए अगस्त्य ऋषि से कहा मेरी इच्छा है कि अपने पिता के महलों मैं जिस प्रकार के सुंदर वेष-भूषा से मैं सजी रहती थी, वैसे ही यहां भी रहूं और तब आपके साथ मेरा समागम हो। साथ ही आप भी बहुमूल्य हार और आभूषणों से विभूषित हों। इन काषायवस्त्रों को धारण करके तो मैं समागम नहीं करूंगी अब आगे...

यह तप की भूमि बहुत पवित्र है। किसी भी तरह से हमें इसे अपवित्र नहीं करना चाहिए। यह सुनकर अगस्त्यजी बोले- तुम्हारे घर में जो धन था, वह ना तुम्हारे पास है ना मेरे पास फिर ऐसा कैसे हो सकता है। लोपामुद्रा बोली- स्वामी तपोधन से बड़ा कोई धन इस संसार में नहीं है। आप उससे सबकुछ एक ही क्षण में प्राप्त कर सकते हैं। तब अगस्त्य ऋषि ने कहा वो तो ठीक है लेकिन इससे मेरे तप का क्षय होगा अब तुम कोई ऐसा उपाय बताओ कि मेरा तप भी क्षीण ना हो और तुम्हारी इच्छा भी पूरी हो जाए। लोपामुद्रा ने कहा मैं आपका तप क्षीण नहीं करना चाहती। 

इसलिए आप उसकी रक्षा करते हुए मेरी कामना पूर्ण करें। तब अगस्त्य ऋषि राजा श्रुतर्वा के पास गए। वहां राजा ने उनका खूब सेवा सत्कार किया। उसके बाद अगस्त्य ऋषि ने राजा से कहा - राजन् आपके पास मैं धन की इच्छा लेकर आया हूं। आपको जो भी धन दूसरों को कष्ट पहुंचाये बिना मिला हो उसमें से आप मुझे अपनी शक्ति के अनुसार दान दे दीजिए। अगस्त्य ऋषि की बात सुनका राजा ने अपना सारा हिसाब उनके सामने रख दिया। जब मुनि ने देखा कि इनका तो आय व व्यय दोनों बराबर है। उसमें से थोड़ा सा भी लेने पर प्राणियों को दुख होगा। इसलिए उन्होंने कुछ नहीं लिया। फिर वे श्रुतर्वा को साथ लेकर वे राजा व्रन्धŸवके पास चले वहां भी वही हुआ जो श्रुर्तवा के यहां हुआ था। उनका आय व व्यय दोनों ही बराबर था। इस तरह जब उन्हें सभी राजाओं के पास ऐसा धन नहीं मिला तो वे सभी राजाओं के परामर्श पर इल्वल नाम के एक दैत्य के पास गए। वह दानव बड़ा ही धनवान था।

जब उसे इस बात का पता चला कि अगस्त्य मुनि उसके पास दानवों को लेकर आ रहे हैं तो वह उन्हें लेने गया। उनक ा आदर-सत्कार किया। फिर उसने पूछा बताइये मुनि मैं आपकी क्या सेवा करूं तब मुनि अगस्त्य ने सारी बात बताई।अगस्त्य ने उनसे अपनी आवश्यकता अनुसार धन दान में लिया और लोपामुद्रा की सारी इच्छाएं पूरी की। तब लोपामुद्रा ने कहा- आपने मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर दीं, अब मैं हमारे एक पराक्रमी पुत्र को जन्म देना चाहती हूं।

------------------------------------------
अगस्त्य मुनि की बात सुनकर राजा के होश क्यों उड़...

सभी पांडव तीर्थयात्रा करते हुए गयशिर क्षेत्र में पहुंचे वहां उन्होंने चर्मुर्मास्य यज्ञ कर ब्राह्मणों को बहुत सी दक्षिणा दी।  युधिष्ठिर अगस्त्याश्रम आए। यहां लोमेश मुनि ने उनसे कहा एक बार अगस्त्य  मुनि ने एक गड्डे में अपने पितरों को उल्टे सिर लटके देखा तो उनसे पूछा आप लोग इस तरह नीचे को सिर किए क्यों लटक हुए हैं? तब उन वेदवादी मुनियों ने कहा, हम तुम्हारे पितृगण हैं और पुत्र होने की आशा लगाए हम इस गड्ढे में लटके हुए हैं। 

बेटा अगत्स्य यदि तुम्हारे एक पुत्र हो जाए तो इस नरक से हमारा छुटकारा हो सकता है। अगस्त्य बड़े तेजस्वी थे। उन्होंने पितरों से कहा पितृगण आप निश्चिंत रहिए। मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगा। पितरों को इस प्रकार ढांढस बंधाने के बाद अगस्त्य ऋषि ने विवाह के लिए विचार किया। लेकिन उन्हें उनके अनुरूप कोई भी स्त्री नहीं मिली। तब उन्होंने विदर्भ के राजा के पास गए और उन्होंने कहा मैं आपसे आपकी पुत्री लोपामुद्रा मांगता हूं। ऋषि अगस्त्य की बात सुनकर राजा के होश उड़ गए। वे ना तो इस प्रस्ताव को स्वीकार कर सके और न कन्या देने का साहस।
--------------------------------------------
तीर्थ पर जाने से पहले जरूर ध्यान रखें ये बात

तीन रात तक काम्यक वन में रहने के बाद युधिष्ठिर ने तीर्थयात्रा की तैयारी की। एक वनवासी ब्राह्मण उनके पास आकर बोले कि महाराज आप लोमेश मुनि के साथ तीर्थ की यात्रा करने जा रहे है। आप हमें भी अपने साथ ले चलिए, क्योंकि आपके बिना हमलोग तीर्थयात्रा करने में असमर्थ हैं। हिंसक पशु-पक्षी और कांटे आदि के कारण इन तीर्थों पर सामान्य मनुष्य नहीं जा सकते। आपके भाइयों के संरक्षण में रहकर हमलोग भी तीर्थयात्रा कर लेंगे। आपका ब्राह्मणों पर स्वाभाविक ही प्रेम है। इसलिए हम आपके  साथ चलना चाहते हैं तब थोड़ी देर सोचने के बाद कहा चलिए आप भी हमारे साथ चल सकते हैं।

जब सभी तीर्थ यात्रा पर चलने को तैयार हो गए तो युधिष्ठिर ने सबकी शास्त्रोक्त विधि से पूजन किया। उन्होंने कहा- तीर्थ जाने के लिए शारीरिक शुद्धि और मानसिक शुद्धि दोनों की आवश्यकता होती है। मन की शुद्धि ही पूर्ण शुद्धि है। अब तुमलोग किसी के प्रति द्वेष बुद्धि  ना रखकर सबके प्रति मित्रबुद्धि रखो। इससे तुम्हारी मानसिक शुद्धि हो जाएगी। ऋषियों की यह बात सुनकर द्रोपदी और पाण्डवों ने प्रतिज्ञा की कि हम ऐसा ही करेंगे। अब स्वास्तिवचन होने के बाद युधिष्ठिर ने सभी के चरण छूए और उसके बाद पांडवों ने अपनी तीर्थयात्रा आरंभ की।

----------------------------------------------
...और पांडवों ने शुरू की तीर्थयात्रा

युधिष्ठिर व अन्य भाइयों  ने सारे तीर्थों का महत्व सुनने के बाद। युधिष्ठिर व सभी पाण्डव जहां रहने लगे वहां एक दिन लोमेश मुनि आए। लोमेश मुनि के आने पर सारे पांडव उनकी आवभगत में जुट गए। सेवा व सत्कार हो जाने के बाद युधिष्ठिर ने पूछा मुनि किस उद्देश्य से आपका आगमन कैसे हुआ है? लोमेश मुनि ने कहा मैं सब लोकों में घूमता रहता हूं। एक बार में इन्द्रलोक पहुंचा। वहां मैंने देखा कि देवसभा मे देवराज इन्द्र के आधे सिंहासन पर बैठे हुए हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। देवराज इन्द्र ने अर्जुन की ओर देखकर मुझसे कहा कि देवर्षे तुम पांडवों  के पास जाओ। उन्हें अर्जुन का कुशल-मंगल सुनाओ। इसीलिए मैं तुम लोगों के पास आया हूं। 

मैं तुम लोगों की हित बात करता हूं। तुम सब ध्यान से सुनों। तुम लोगों की अनुमति लेकर अर्जुन जिस अस्त्र विद्या को प्राप्त करने गए थे। वह उन्होंने शिवजी से प्राप्त कर ली थी। उसके प्रयोग की विधि भी अर्जुन ने सीख ली है।  इन्द्र ने तुमसे कहने के लिए यह संदेश दिया है कि युधिष्ठिर तुम्हारा भाई अस्त्र विद्या में निपुण हो गया है और अब उसे यहां निवातकवच नामक असुरों को मारना है। यह काम इतना कठिन है कि बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। यह काम करके अर्जुन तुम्हारे पास चला जाएगा। तुम तपस्या करके आत्मबल प्राप्त करो। तुम जाओ और तप करों क्योकि तप से बड़ी कोई वस्तु नहीं है। युधिष्ठिर ने उनसे कहा आपकी बात सुनकर मुझे बहुत सुख मिला।  देवराज इन्द्र ने आपके द्वारा जो मुझे तीर्थ यात्रा करने का  आदेश दिया है। मैं उसका पालन करना चाहता हूं। अब आज्ञा हो तो मैं आपके साथ-साथ तीर्थयात्रा करने के लिए चलूंगा। उसके बाद वे लोग तीर्थ यात्रा पर चल पड़े।
-------------------------------------------------

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें