बुधवार, 31 अगस्त 2016

महाभारत

महाभारत का नाम सुनते ही मस्तिष्क में भयंकर संहारक युद्ध का नजारा आंखों के सामने घूमने लगता है। अधिकतर लोग समझते हैं कि महाभारत एक युद्धकथा है, जिसमें राज्य के लिए पांडवों और कौरवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। किंतु अगर बारिकी से देखा जाए तो महाभारत में श्रेष्ठ जीवन के कई सूत्र छिपे हैं। यह कथा हमें सिखाती है कि पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन में कैसे जीया जाए। यह कथा एक संपूर्ण जीवन शैली है। महाभारत की रचना महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने की है। महाभारत के विषय में कहा जाता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के विषय में जो महाभारत में कहा गया है वह ही सब ओर है, और जो इसमें नहीं है वह कहीं नहीं है।इसे पांचवा वेद भी कहते हैं। महाभारत का नाम जय, भारत और उसके बाद महाभारत हुआ। इसमें एक लाख श्लोक हैं।यह बहुनायक प्रधान ग्रंथ है। जिसे किसी भी पात्र के दृष्टिकोण से देखा जाए वही नायक प्रतीत होता है। महाभारत के एक लाख श्लोकों को अठारह खंडों (पर्वों) में विभाजित किया हुआ है। इन पर्वों का नाम रखा गया है- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शांति, अनुशासन, अश्वमेद्य, आश्रमवाती, मौसल, महाप्रस्थानिक तथा अंतिम स्वर्गारोहण पर्व है।



एक श्लोक में महाभारत पाठ

महाभारत ऐसा दिव्य ग्रंथ है, जिसमें मानवीय जीवन के संघर्ष में विजय पाने के वह सभी सूत्र है, जिनकी अज्ञानता में कोई व्यक्ति प्रतिकूल स्थितियों तनावग्रस्त और बैचेन रहकर जीवन का अनमोल समय गंवा देता है।

आदौ देवकीदेवी गर्भजननं गोपीगृहे वर्द्धनम् ।
मायापूतन जीविताप हरणम् गोवर्धनोद्धरणम् ।।
कंसच्छेदन कौरवादि हननं कुंतीतनुजावनम् ।
एतद् भागवतम् पुराणकथनम् श्रीकृष्णलीलामृतम् ।।

भावार्थ यह है कि मथुरा में राजा कंस के बंदीगृह में भगवान विष्णु का भगवान श्रीकृष्ण के रुप में माता देवकी के गर्भ से अवतार हुआ। देवलीला से पिता वसुदेव ने उन्हें गोकुल पहुंचाया। कंस ने मृत्यु भय से श्रीकृष्ण को मारने के लिए पूतना राक्षसी को भेजा। भगवान श्रीकृष्ण ने उसका अंत कर दिया। यहीं भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रदेव के दंभ को चूर कर गोवर्धन पर्वत को अपनी ऊं गली पर उठाकर गोकुलवासियों की रक्षा की। बाद में मथुरा आकर भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी कंस का वध कर दिया। कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरव वंश का नाश हुआ। पाण्डवों की रक्षा की। भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता के माध्यम से कर्म का संदेश जगत को दिया। अंत में प्रभास क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण का लीला संवरण हुआ।



महाभारत का सबसे बड़ा संदेश है कर्म
महाभारत कई मायनों में धर्म प्रधान होते हुए भी कर्म प्रधान ही है। स्वयं श्रीकृष्ण भी कर्म की प्रधानता अर्जुन को गीता उपदेश के समय समझाते हुए कहते है कि कर्म करो फल की चिंता मत करो।अर्जुन युद्ध के मैदान में जब अपने ही परिजनों को समक्ष देखकर घबरा जाते हैं तब श्रीकृष्ण उन्हें कहते हैं कि एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि ये मेरे भाई-बंधु है, मुझे इनसे युद्ध नहीं करना चाहिए और मेरे बड़ों पर मैं अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाऊंगा तथा दूसरी तरफ तुम हे अर्जुन, जिन लोगों के विषय में नहीं सोचना चाहिए उनके विषय में तू सोचता है और ज्ञानियों की तरह बातें करते हो।



चिकित्सा का आश्चर्य भी है महाभारत में

महाभारत केवल एक धर्म शास्त्र या कोई युद्ध कथा नहीं है। यह भारतीय जीवन शैली का प्रामाणिक लेख है। नीति और धर्म की शिक्षा का सबसे बड़ा ग्रंथ है। जीवन का सार जो भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले अजरुन को दिया था, वह भी इसी ग्रंथ का एक हिस्सा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि महाभारत में चिकित्सा क्षेत्र का वह चमत्कार भी है, जिस पर अब लगभग सारे ही देशों में काम चल रहा है। वह है टेस्ट टच्यूब बेबी का। क्या आप जानते हैं हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों लाखों साल पहले ऐसे चमत्कार कर दिखाए हैं जो अब भी कई जगह आश्चर्य का विषय माने जाते हैं। दुनिया के हर कोने में टेस्ट टच्यूब बेबी द्वारा बच्चों के प्रजनन पर प्रयोग चल रहे हैं। महाभारत में यह प्रयोग हजारों वर्ष पहले ही सफलता पूर्वक किया जा चुका है। महाभारत के रचियता और इस कथा के मुख्य पात्र महर्षि वेद व्यास ने यह प्रयोग किया था। वे चिकित्सा पद्धति के विख्यात विद्वान भी रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि महर्षि वेद व्यास ने दुर्योधन और उसके 99 भाइयों और एक बहन को इसी पद्धति से पैदा किया था। महाभारत में कथा आती है कि दुर्योधन की माता गांधारी को महर्षि वेद व्यास ने ही सौ पुत्र होने का वरदान दिया था। गांधारी जब गर्भवती हुईं तो दो साल तक गर्भस्थ शिशु बाहर नहीं आया। वह लोहे के एक गोले जैसा सख्त हो गया। गांधारी ने लोकापवाद के भय से इस गोले को फेंकने का निर्णय लिया। जब वह इसे फेंकने जा रही थी तभी वेद व्यास आ गए और उन्होंने उस लोहे के गोले के सौ छोटे-छोटे टुकड़े किए और उन्हें सौ अलग-अलग मटकियों में कुछ रसायनों के साथ रख दिया। एक टुकड़ा और बच गया था, जिससे दुर्योधन की बहन दुशाला का जन्म हुआ। इस तरह एक सौ एक मटकियों में सभी कौरवों का जन्म हुआ। महर्षि वेद व्यास ने ऐसे ही कई और चमत्कारिक प्रयोग किए हैं।


जीवन का महाभारत हमें लड़ऩा भी है और जीतना भी

एक महाभारत वो था जो कुरुक्षेत्र की भूमि पर लड़ा गया था। जिसमें एक और अन्याय और अधर्म थे तो दूसरी तरफ न्याय और धर्म। जिधर धर्म था, उधर भगवान थे और जिस ओर स्वयं भगवान हों वहां जीत तो सुनिश्चित ही थी। ऐसा ही एक महाभारत दुनिया के हरेक इंसान को लडऩा होता है। जबसे इंसान को यह शरीर मिला है, जबसे वह पैदा हुआ है, तभी से संघर्ष .... संघर्ष.... संघर्ष ।

ऐसा ही हम सभी के जीवन का कुरुक्षेत्र भी है। जैसे ही बच्चा पैदा होता है पहले रोता है। तो रोने से शुरू होती है उसके संघर्षों की कहानी। आज ये करूंगा, कल वो करूंगा। मतलब कर्म के बगैर आदमी रह नहीं सकता। जब तक शरीर है एक क्षण भी हम बिना कर्म के रह नहीं सकते। मन भी कहता रहता है ये करूंगा वो करूंगा। तो जब तक जीवन है तब तक कर्म करना ही होता है,लेकिन मूल बात है कुशलता पूर्वक कर्म करना। बिना कर्म के तो रहना मुश्किल है और कर्म से छूटना मुश्किल है। लेकिन कर्म के बंधन से छूटना मुश्किल नहीं है, यह युक्ति गीता के तीसरे अध्याय 'कर्मयोग' में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं।

महाभारत के विश्वविख्यात युद्ध के लिये स्वयं श्री कृष्ण द्वारा जगह का चयन किया गया। कुरुक्षेत्र के विशाल मेदान में दोनों ओर सेनाएं हैं, रथ हैं, रथ में अर्जुन बैठे हैं और कृष्ण सारथी के रूप में रथ के अश्वों की बागडोर अपने हाथ में लिए चला रहे हैं। थोड़ा समझें, यह केवल ऐतिहासिक घटना मात्र नहीं है, इसमें एक दर्शन है। जीवन स्वयं में कुरुक्षेत्र है। हमारे जीवन में कभी-कभी ऐसे पल आते हैं जब हम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़े हो जाते हैं, अर्जुन की तरह। क्या करना चाहिए, क्या नहीं, हमारी समझ में नहीं आता। अपना कर्तव्य क्या है? अपना धर्म क्या है? गीता के द्वारा भगवान हमें याद दिलाते हैं कि-हमारा कर्तव्य क्या है? लक्ष्य क्या है? और इस लक्ष्य को सफलतापूर्वक हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं।

आइये महाभारत को संक्षेप में जानने का प्रयास करते हैं । श्री महाभारत कथा 




महाभारत विजय पर भी युधिष्ठिर का शोक

सब लोग भागीरथी नदी के तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने अपने आभूषण और दुपट्टे उतार दिए। फिर कुरुकुल की स्त्रियों ने बहुत दुखित होकर रोते-रोते अपने पुत्र और पतियों को जलांजलि दी और धर्मविधि को जानने वाले पुरुषों ने भी जलदान किया। जिस समय वे वीरपत्नियां जलदान कर रही थी। शोकाकुल कुंती ने रोते-रोते धीरे स्वर में कहा पुत्रों जिसे अर्जुन ने संग्राम में परास्त किया है जो वीरों के सभी लक्षणों से सम्पन्न था। जिसे तुम राधा की कोख से उत्पन्न सूतपुत्र मानते हो, जिसने दुर्योधन की सारी सेना को नियंत्रण किया था। पराक्रम में जिसके समान पृथ्वी में कोई भी राजा नहीं था। जो दिव्य कवच और कुंडल धारण किए हुए था।

वह कर्ण तुम्हारा बड़ा भाई था। उसके लिए तुम जलांजली दे दी। माता के ये अप्रिय वचन सुनकर सभी पाण्डव कर्ण के लिए शोकाकुल होकर उदास हो गए। फिर राजा युधिष्ठिर ने लंबी-लंबी सांसे लेते हुए माता से पूछा- माताजी कर्ण तो साक्षात समुद्र के समान गंभीर थे। उन्होंने किस प्रकार देवपुत्र होकर भी तुम्हारे गर्भ से जन्म लिया था। तुमने कैसे इस रहस्य को छुपा दिया। आज कर्ण की मृत्यु से हम सभी भाइयों को बहुत दुख हुआ है। इस तरह कहते हैं बहुत विलाप करके धर्मराज युधिष्ठिर रोते-रोते कर्ण को जलांजलि दी। उस समय वहां सहसा सभी स्त्रियां रो पड़ी।

सभी योद्धाओं को तिलांजली देने के बाद पाण्डव, विदुर, धृतराष्ट्र और भरवंश की सभी स्त्रियां आत्मशुद्धि के लिए एक मास तक गंगा के तट पर रहे। सबसे पहले नारदजी ने व्यास आदि मुनियों से वार्तालाप करके राजा युधिष्ठिर के बारे में इस तरह कहा- राजन् आप अपने बाहुबल और भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से इस संपूर्ण पृथ्वी पर धर्मपूर्वक विजय पाई है। सौभाग्य की बात है कि आप इस भयंकर संग्राम से जीते-जागते बच गए। अब आप प्रसन्न तो हैं ना राज्यलक्ष्मी पाकर कोई शोक तो नहीं सताता आपको युधिष्ठिर ने कहा भगवान श्रीकृष्ण के आश्रय व ब्राह्मणों की कृपा और भीम व अर्जुन के बल से मैंने संपूर्ण पृथ्वी पर विजय पा ली है।

लेकिन मेरे दिल में यह एक महान दुख बना रहता है कि मैंने लोभवश अपने वंश का संहार करवा दिया। मैंने विजय तो पा ली लेकिन मैं प्रसन्न नहीं हूं। सुभद्राकुमार अभिमन्यु व द्रोपदी के प्यारे पुत्रों को मरवाकर अब यह विजय भी पराजय सी ही जान पड़ती है। द्रोपदी सदा हमलोगों का प्रिय और हित करने में लगी रहती है, इस बेचारी के पुत्र और भाई सब मारे गए। जब इसकी ओर देखता हूं तो बड़ा कष्ट होता है। जिनमें दस हाथियों का बल था। संसार में जिनकी समानता करने वाला कोई भी महारथी नहीं था। जो बुद्धिमान, दाता, दयालु और वृत का पालन करने वाले थे वे कर्ण भी युद्ध में मारे गए। वे माता कुंती के ज्येष्ठ पुत्र थे उन्हें हमने ही मरवा डाला। 

कर्ण महाभारत के युद्ध में क्यों मारा गया

वैशम्पायनजी कहते हैं युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर नारद मुनि कर्ण को जिस तरह शाप प्राप्त हुआ था। वह सारी कथा सुनाई। वे बोले यह देवताओं की गुप्त बात है लेकिन मैं तुम्हे बता रहा हूं। वह समय सब देवताओं ने विचार किया कि कौन सा ऐसा उपाय हो जिससे सारा क्षत्रिय समाज शस्त्रों के आघात से पवित्र हो स्वर्ग सिधारे। यह सोचकर उन्होंने सूर्य द्वारा कुमारी कुन्ती के गर्भ से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कराया। वही कर्ण हुआ। उसने आचार्य द्रोण से धनुर्वेद का अभ्यास किया। वह बचपन से ही श्रीकृष्ण व अर्जुन की मित्रता से जला करता था। आपके ऊपर प्रजा का अनुराग जानकर वह चिंता से जलता रहता था। इसीलिए उसने बाल्यकाल में ही राजा दुर्योधन से मित्रता कर ली। धनंजय का धनुर्विद्या में अधिक पराक्रम देखकर एक दिन कर्ण ने द्रोणाचार्य से एकान्त में कहा- गुरुदेव मैं ब्रह्मास्त्र चलाने और लौटाने की विद्या जानना चाहता हूं।

द्रोणाचार्य उसकी दुष्टता से भी वे अपरिचित नहीं थे। इसीलिए उसकी प्रार्थना सुनकर उन्होंने कहा कर्ण शास्त्रोंक्त विधि के अनुसार ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने वाला क्षत्रिय ही इसे सीखने का अधिकारी होता है। उनके ऐसा कहने पर कर्ण ने उनसे कहा ठीक है गुरुजी। फिर वह उनकी आज्ञा लेकर वहां से चला गया। वहां से चलते-चलते वह महेन्द्रपर्वत पर पहुंचा और परशुरामजी को ब्राह्मण के रूप में अपना परिचय दिया।

इस तरह उसने परशुरामजी को अपना गुरु बना लिया। वह उनके आश्रम में रहने लगा। एक दिन सभी मुनि अग्रिहोत्र में लगे हुए थे। तब कर्ण वहां घुम रहे थे उसने अंजाने में हिंसक पशु समझकर उसे मार डाला। उसने अपने अज्ञानवश किए गए इस कर्म को ब्राह्मण को बताया। जिस ब्राह्मण की वह गाय थी वह यह जानकर गुस्से में आ गया और उसने कर्ण को शाप दे दिया कि अन्त समय में पृथ्वी तेरे रथ के पहिए को निगल लेगी। उस समय जब तू घबराया होगा उसी अवस्था में शत्रु तेरा सिर काट देगा।

यह सुनकर कर्ण घबरा गया। वह नीचे मुंह करके वहां से लौट आया। उसने परशुरामजी की खूब सेवा की। एक बार परशुरामजी ने लंबे समय तक उपवास किए। उपवास के बाद उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया था। इसलिए थकावट आ जाने से उन्हें नींद सताने लगी। कर्ण के ऊपर उनका पूर्ण विश्वास था। इसलिए वे उसकी गोद में सो गए। तभी वहां एक जहरीला कीड़ा वहां आया और उसने कर्ण को काट लिया कर्ण ने धैर्य पूर्वक सहन कर लिया। कर्ण के शरीर से निकली रक्त की धारा ने जब परशुराम का शरीर भिगने लगा तो सहसा वे जाग गए। उठे और शंकित होकर बोले- अरे तू अशुद्ध हो गया। तब कर्ण ने कीड़े के काटने की बात बता दी। उस कीड़े ने अचानक राक्षस का रूप धारण किया और वह बोला मुनिवर आपने मुझे नर्क से छुटकारा दिलवा दिया। मुझे शाप मिला था कि जा तू पापी कीड़ा हो जा और उसी शाप के कारण में कीड़ा हुआ।

अब परशुरामजी ने क्रोध से भरकर कहा-मूर्ख तूने इस कीड़े काटने की जो भयंकर पीड़ा है वह एक ब्राह्मण बर्दाश्त ही नहीं कर सकता। क्षत्रिय के समान जान पड़ता है। सच-सच बता तू कौन है। सच-सच बता तू कौन है? उनका प्रश्र सुनकर कर्ण शाप के भय से डर गया और उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करता हुआ बोला- मैं ब्राह्मण व क्षत्रियों से अलग सूत जाती से उत्पन्न हुआ हूं। लोग मुझे राधा का पुत्र कर्ण कहते हैं। यह कहकर कर्ण दीन भाव से हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। ऐसे कहने पर परशुरामजी ने कहा तूने ब्रह्मास्त्र के लोभ में झूठ बोला मेरे साथ कपट किया है इसलिए जब तू संग्राम में अपने समान योद्धा से युद्ध करेगा और तेरी मृत्यु निकट आ जाएगी। उस समय तुझे मेरे दिए हुए ब्रह्मास्त्र का स्मरण नहीं रहेगा। अब तू यहां से चला जा, मिथ्यावादी के लिए यह स्थान नहीं है। परशुरामजी के ऐसा कहने पर कर्ण उन्हें प्रणाम करके वहां से लौट आया और दुर्योधन से बोला मैं ब्रह्मास्त्र विद्या सीख गया। 

नारदजी ने कहा राजन् एक बार कर्ण की जरासंध के साथ भी मुठभेड़ हुई थी। उसमें परास्त होकर जरासंध ने कर्ण को अपना मित्र ही बना लिया और उसे चम्पा नगरी उपहार में दे दी। पहले कर्ण केवल अंग देश का राजा था इसके बाद दुर्योधन की अनुमति से चम्पारन में भी राज्य करने लगा। इसी प्रकार एक समय इन्द्र ने आपकी भलाई करने के लिए कर्ण से कवच और कुंडलों की भीख मांगी थी। वे कवच और कुंडल दिव्य थे। वे कर्ण की देह के साथ ही उत्पन्न हुए थे। वे कर्ण ने उन्हें दान में दे दिए। इसलिए वे कृष्ण के सामने उसे मारने में सफल हो सके। 

अर्जुन श्रीकृष्ण के सामने उसे मारने में सफल हो सके। एक तो उसे परशुरामजी ने शाप दे दिया। दूसरे उसने स्वयं भी कुंती को वरदान दिया था कि मैं तुम्हारे चार पुत्रों को नहीं मारूंगा। इसके सिवा महारथियों की गणना करते समय भीष्म कर्ण को अर्धरथी कहकर अपमानित किया था। इसके बाद शल्य ने भी उसका तेज नष्ट किया और भगवान कृष्ण ने नीति से काम लिया। इतनी बातें तो कर्ण के विपरीत हुई और अर्जुन को कई तरह के दिव्य अस्त्र भी प्राप्त हुए। जिनका उपयोग करके उन्होंने कर्ण का वध किया। इतना कहकर देवर्षि नारद चुप हो गए और राजा युधिष्ठिर शोकमग्र होकर चिंता में डूब गए।

राजा युधिष्ठिर का स्त्री जाती को शाप

राजा युधिष्ठिर की यह अवस्था देखकर कुंती शोकमग्र हो गई। चिंता छोड़ो मेरी बात सुनों मैंने और भगवान सूर्य ने पहले ही कर्ण को यह जताने की कोशिश की थी कि युधिष्ठिर आदि तुम्हारे भाई हैं। सूर्यदेव ने वह सब कहा- उन्होंने उसे स्वप्र में बहुत समझाया मेरे सामने भी समझाया लेकिन वह मौत के वशीभूत होकर बदला लेने को तैयार था। हम लोग अपने प्रयत्न में सफल न हो सके। वह मौत के वशीभूत होकर बदला लेने को तैयार था। इसलिए मैंने भी उसकी उपेक्षा कर दी। 

माता की बात सुनकर धर्मराज के नेत्रों में आंसू भर आए। वे शोक से व्याकुल होकर कहने लगे। मां तुमने यह रहस्यमयी बात छिपा रखी थी। इसलिए आज मुझे कष्ट भोगना पड़ता है। फिर उन्होंने दुखी होकर संसार की सभी स्त्रियों को शाप दे दिया कि आज से कोई भी स्त्री गुप्त बात को छिपाकर नहीं रख सकेगी। इसके बाद वे मरे हुए पुत्र-पुत्रों को याद करके रो पड़े। अर्जुन को देखकर कहने लगे अर्जुन यदि हम लोग भिक्षा मांगकर अपना गुजारा कर लेते तो आज हमें अपने वंश की यह दुर्गति नहीं भोगनी पड़ती।  

राज्य मिल जाने पर युधिष्ठिर ने किया वनवास का फैसला

राज्य मिल जाने पर युधिष्ठिर ने किया वनवास  का फैसला

यह बोलकर युधिष्ठिर ने कहा अर्जुन थोड़ी देर तक मन को एकाग्र करके मेरी बात सुनों और उस पर विचार करो।  मैं तो सांसारिक सुखों को लात मारकर अवश्य ही वन में जाऊंगा वहां कंद-मूल खाकर तपस्या करूंगा। सुबह और शाम को स्नान करके अग्रि में आहूति डालूंगा। शरीर पर मृगछाला और वल्कलवस्त्र धारण कर मस्तक पर जटा रखूंगा। सर्दी-गर्मी, हवा और भूख प्यास व कष्ट को सहन करूंगा। शरीर को सुखा डालूंगा।

एकान्त में रहकर तत्व पर विचार करूंगा। कच्चा व पक्का जैसा भी फल मिले उसी खाकर जीवन का निर्वाह करूंगा। इस प्रकार वनवासी मुनियों के कठोर से कठोर नियमों का पालन करके इस शरीर की आयु समाप्त होने के बाद देखता रहूंगा। मुनि-वृति से रहता हुआ। मस्तक मुड़ां लूंगा और एक-एक दिन एक-एक वृक्ष से भिक्षा मांगकर देह को दुर्बल कर लूंगा। इस प्रकार वनवासियों के कठोर नियमों का पालन करेंगे। इस शरीर की आयु समाप्त होने का इंतजार करता रहूंगा। प्रिय व अप्रिय का विचार छोड़कर पेड़ के नीचे रहूंगा। किसी के लिए न शोक करूंगा न हर्ष। बुराई और अच्छाई को समान समझूंगा।  कभी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करूंगा।

यह सुनकर भीमसेन बोले जब आपने राजधर्म की निंदा कर आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने का ही निश्चय कर रखा था तो बेचारे कौरवों का नाश कराने से क्या लाभ था?आपका यह विचार अगर पहले मालूम होता तो हम हथियार नहीं उठाते, न किसी का वध करते।आप ही की तरह शरीर को त्यागने का संकल्प लेकर हम भी भीख ही मांगते। ऐसा करने से राजाओं यह भयंकर संग्राम तो नहीं होता। यह धर्म बताया गया है कि वे राज्य पर अधिकार जमावें और उसके बीच में अगर कोई रूकावट डाले तो उसे मार डालें। दुष्ट कौरव हमने उनका वध किया है। अब आप धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का उपभोग कीजिए। अन्यथा सारा प्रयत्न व्यर्थ चला जाएगा। जैसे कोई मनुष्य मन में किसी तरह की आशा करता है और मंजिल तक पहुंचकर उसे वहां उसे निराश होना पड़ता है। कोई भी बुद्धिमान पुरुष इस मौके को त्याग करने की प्रशंसा नहीं करेगा।

जो अतिथियों को भोजन देने की शक्ति नही रखता है। वही जंगल में जाकर रहने का निर्णय लेता है। सभी भाइयों को इस तरह परेशान देखकर द्रोपदी कहती है। महाराज- आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सुख गए हैं। पपीहे की तरह रट लगा रहे हैं। फिर भी आप अपनी बातों से इन्हें प्रसन्न कर रहे हैं।  जब हमने सालों तक वनवास व्यतीत किया तब दुख के समय आप अपने भाइयों से कहते थे कि एक बार कौरवों को हराने के बाद हम संपूर्ण पृथ्वी का सुख भोगेंगे। तब आपने ऐसी बातें करके हौसला बढ़ाया तो अब क्यों हम लोगों का दिल तोड़ रहे हैं। जो अवसर देखकर क्षमा भी करता है, क्रोध भी करता है, शरणागतों को निर्णय भी करता है। वह राजा धर्मात्मा कहलाता है।

भगवान कृष्ण का महानिर्वाण

धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अन्त में दुर्योधन आदि मारे गये और कौरव वंश का विनाश हो गया। महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्तवना देने के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति फेर दी। एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाए। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण को छोड़ कर एक भी यादव जीवित न बचा। इस घटना के बाद भगवान श्रीकृष्ण महाप्रयाण कर स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गए। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्री कृष्णचन्द्र स्वधाम को पधार गये। इस तरह गांधारी तथा ऋषि दुर्वासा के श्राप से समस्त यदुवंश का नाश हो गया।

गंगापुत्र भीष्म का पिछला जन्म

गंगापुत्र भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था अर्थात उनकी इच्छा के बिना यमराज भी उनके प्राण हरने में असमर्थ थे। वे बड़े पराक्रमी तथा भगवान परशुराम के शिष्य थे। भीष्म पिछले जन्म में कौन थे तथा उन्होंने ऐसा कौन सा पाप किया जिनके कारण उन्हें मृत्यु लोक में रहना पड़ा? इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है।

उसके अनुसार-गंगापुत्र भीष्म पिछले जन्म में द्यौ नामक वसु थे। एक बार जब वे अपनी पत्नी के साथ विहार करते-करते मेरु पर्वत पहुंचे तो वहां ऋषि वसिष्ठ के आश्रम पर सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाली नंदिनी गौ को देखकर उन्होंने अपने भाइयों के साथ उसका अपहरण कर लिया। जब ऋषि वसिष्ठ को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने द्यौ सहित सभी भाइयों को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। जब द्यौ तथा उनके भाइयों को ऋषि के शाप के बारे में पता लगा तो वे नंदिनी को लेकर ऋषि के पास क्षमायाचना करने पहुंचे। ऋषि वसिष्ठ ने अन्य वसुओं को एक वर्ष में मनुष्य योनि से मुक्ति पाने का कहा लेकिन द्यौ को अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए लंबे समय तक मृत्यु लोक में रहने का शाप दिया।

द्यौ ने ही भीष्म के रूप में भरत वंश में जन्म लिया तथा लंबे समय तक धरती पर रहते हुए अपने कर्मों का फल भोगा।  

धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों ( कौरवों ) का जन्म


ऐसे हुई कौरवों की उत्पत्ति
धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे। उनमें दुर्योधन सबसे ज्येष्ठ था। दुर्योधन का जन्म कैसे हुआ तथा उसके शेष भाइयों का नाम क्या था? महाभारत के आदिपर्व में इस संदर्भ में विस्तृत उल्लेख मिलता है।

धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी दो वर्ष तक गर्भवती रही लेकिन संतान का जन्म न हुआ। भयभीत होकर गांधारी ने गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के गोले के समान मांस-पिण्ड निकला। यह बात जब महर्षि व्यास को पता चली तो उन्होंने गांधारी से कहा कि एक सौ एक कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो तथा इस मांस पिण्ड पर ठंडा जल छिड़को। 

जल छिड़कने पर उस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी की आज्ञानुसार गांधारी ने प्रत्येक कुण्ड में मांस पिण्ड के टुकड़े डाल दिए। समय आने पर उन्हीं मांस-पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में शेष पुत्र व एक पुत्री का जन्म हुआ। 

धृतराष्ट्र के शेष पुत्रों के नाम युयुस्तु, दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुद्र्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मद, दुर्विगाह, विवत्सु, विकटानन, ऊर्णानाभ, सुनाभ, नंद, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, आयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुण्डल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवद्र्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृन्दारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध, जरासंध, सत्यसंध, सद:सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त, सुहस्त, बातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, अग्रयायी, कवची, क्रथन, कुण्डी, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृढऱथाश्रय, अनाधृष्य, कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ, प्रमाथी, दीर्घरोमा, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरस्क, कनकध्वज, कुण्डाशी और विरजा। धृतराष्ट्र की पुत्री का नाम दुश्शला था।

द्रौपदी की साड़ी कैसे इतनी लंबी हुई ?

महाभारत में द्युत क्रीड़ा के समय युद्धिष्ठिर ने द्रोपदी को दांव पर लगा दिया और दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि ने द्रोपदी को जीत लिया। उस समय दुशासन द्रोपदी को बालों से पकड़कर घसीटते हुए सभा में ले आया। वहां मौजूद सभी बड़े दिग्गज मुंह झुकाएं बैठे रह गए। देखते ही देखते दुर्योधन के आदेश पर दुशासन ने पूरी सभा के सामने ही द्रोपदी की साड़ी उतारना शुरू कर दी।



सभी मौन थे, पांडव भी द्रोपदी की लाज बचाने में असमर्थ हो गए। तब द्रोपदी द्वारा श्रीकृष्ण का आव्हान किया गया और श्रीकृष्ण ने द्रोपदी की लाज उसकी साड़ी को बहुत लंबी करके बचाई। श्रीकृष्ण द्वारा द्रोपदी की लाज बचाई गई। इसके पीछे द्रोपदी का ही एक ऐसा पुण्य कर्म है जिसकी वजह से द्रोपदी पूरी सभा के सामने अपमानित होने से बच गई। वह पुण्य कर्म यह था कि एक बार द्रोपदी गंगा में स्नान कर रही थी उसी समय एक साधु वहां स्नान करने आया। स्नान करते समय साधु की लंगोट पानी में बह गई और वह इस अवस्था में बाहर कैसे निकले? इस कारण वह एक झाड़ी के पीछे छिप गया। द्रोपदी ने साधु को इस अवस्था में देख अपनी साड़ी से लंगोट के बराबर कोना फाड़कर उसे दे दिया। साधु ने प्रसन्न होकर द्रोपदी को आशीर्वाद दिया। एक अन्य कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण द्वारा सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया गया, उस समय श्रीकृष्ण की अंगुली भी कट गई थी। अंगुली कटने पर श्रीकृष्ण का रक्त बहने लगा। तब द्रोपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर श्रीकृष्ण की अंगुली पर बांधी थी। इस कर्म के बदले श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को आशीर्वाद दिया था कि एक दिन अवश्य तुम्हारी साड़ी की कीमत अदा करुंगा। इन कर्मों की वजह से श्रीकृष्ण ने द्रोपदी की साड़ी को इस पुण्य के बदले ब्याज सहित इतना बढ़ाकर लौटा दिया और द्रोपदी की लाज बच गई।  

सर्वश्रेष्ठ गुरुभक्त एकलव्य



एक भील बालक जिसका नाम एकलव्य था। उसे धनुष-बाण चलाना बहुत प्रिय था। वह धनुर्विद्या सीखना चाहता था। इसीलिए वह गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा। परंतु जब द्रोणाचार्य को मालूम हुआ कि यह बालक भील है तब उन्होंने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया। एकलव्य निराश होकर वहां से लौट आया परंतु उसने हार नहीं मानी और गुरु द्रोण की मूर्ति बनाई और उसके आगे अभ्यास करने लगा। एक दिन गुरु द्रोण और पांडव जंगल से गुजर रहे थे। उनके साथ उनका एक कुत्ता भी था। कुत्ता भौंकते हुए आगे-आगे चल रहा था। कुत्ता भौंकते हुए थोड़ी आगे चला गया और जब वह वापस आया तो उसका मुंह बाणों से भरा हुआ था। यह देखकर गुरु आश्चर्यचकित रह गए कि बाण इतनी कुशलता से मारे गए थे कि कुत्ते मुंह से रक्त की बूंद भी नहीं निकली। द्रोणाचार्य ने सभी शिष्यों को उस कुशल धनुर्धर की खोज करने की आज्ञा दी। जल्द ही उस धनुर्धर को खोज लिया गया। धनुर्धर वही भील बालक एकलव्य था, उसने बताया कि गुरु द्रोणाचार्य द्वारा धनुर्विद्या सीखाने से इंकार करने के बाद मैंने इनकी मूर्ति बनाकर उसी से प्रेरणा पाई है। द्रोणाचार्य चूंकि अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे, इसलिए अर्जुन को भी पीछे छोडऩे वाले एकलव्य से उन्होंने गुरु दक्षिणा में अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना विचार किए अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में अंगूठा काटकर दे दिया। आज भी एकलव्य की गुरुभक्ति से बढ़कर ओर कोई उदाहरण दिखाई नहीं देता।

दुर्योधन और कर्ण की मित्रता

जीवन मित्रों के बिना अधूरा है। महाभारत काल में यदि मित्रता का प्रसंग हो और दुर्योधन और कर्ण की मित्रता की बात न हो ऐसा कभी नहीं हो सकता। कर्ण-दुर्योधन की मित्रता का परिचय हमें इस घटना से मिलता है जब श्रीकृष्ण संधि दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे तो लौटते समय उन्होंने कर्ण को अपने रथ पर बैठाकर बताया कि वे सूतपुत्र नहीं बल्कि कुंती पुत्र हैं और कहा कि यदि तुम पांडवों की ओर से युद्ध करोगे तो राज्य तुम्हें ही मिलेगा। कर्ण ने इस बात पर जो कहा वह उनकी दोस्ती की सच्ची मिसाल है। उन्होने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पांडवों के पक्ष में श्रीकृष्ण आप हैं  तो विजय तो पांडवों की निश्चय ही है। परंतु दुर्योधन ने मुझको आज तक बहुत मान-सम्मान से अपने राज्य में रखा है तथा मेरे भरोसे ही वह युद्ध में खड़ा है। ऐसी संकट की स्थिति में यदि मैं उसे छोड़ता हूं तो यह अन्याय होगा। तथा मित्र धर्म के विरुद्ध होगा। श्रीकृष्ण अर्जुन के परम सखा थे।

भीष्म


महाभारत एक बहुनायक प्रधान रचना है। इस कथा में कई नायक हैं, जिनके जीवन पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। हर पात्र का एक विशेष गुण है और वह हमें इसी का संदेश भी देता है। महाभारत का पहला ऐसा पात्र है भीष्म। भीष्म पितामह जैसी निष्ठा महाभारत के अन्य पात्रों में कम ही दिखाई देती है।



पितामह भीष्म का नाम देवव्रत था उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य की जो भीष्म प्रतिज्ञा की इस कारण उनका नाम भीष्म पढ़ गया। हस्तिनापुर राज्य के राजा का पद अस्वीकार कर दो पीढिय़ों के बाद उन्हीं की मौजूदगी में हुए भीषण नरसंहारकारी महायुद्ध के वे दृष्टा बने। उन्हें यह ज्ञात होने पर भी कि कौरवों ने अधर्म और छल से पांडवों को राज्य से हटा दिया फिर भी वे निष्ठा पूर्वक कौरवों का साथ निभाते रहें। जबकि हृदय से तो वे पांडवों के साथ ही थे। भीष्म की ही निष्ठता का प्रमाण है कि उन जैसे वीर ने दस दिन तक लगातार युद्ध कर पांडवों की सेना को समाप्त कर ही रहे हैं किंतु कृष्ण के द्वारा अर्जुन को भीष्म के पास भेजे जाने पर उन्होंने स्वयं अपनी ही पराजय का गुप्त राज अर्जुन को बताया था। यह सत्य के प्रति उनकी निष्ठा थी।हमें भीष्म जैसे व्यक्तियों से जो कि नि:संतान होते हुए भी पितामह कहलाए जिनका श्राद्ध आज भी हर सनातन धर्म का अनुयायी करता है।हमें भी उनके जीवन के आदर्शों को अपने जीवन में उतारकर जीवन को विभिन्न आनंदों के साथ जीना चाहिए। जीवन में बहुत सी घटनाएं हमें हमारी प्रतिज्ञाओं से अलग हटा देती है। भीष्म पर भी कई बार दुविधा के क्षण आए किंतु वे अपनी प्रतिज्ञा से हटे नहीं।