गुरुवार, 22 अगस्त 2013

युद्ध के मैदान में महायोद्धा अर्जुन क्यों घबराने लगे?

युद्ध के मैदान में महायोद्धा अर्जुन क्यों घबराने लगे?

धृतराष्ट्र बोले-संजय धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचना युक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा- आचार्य आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्र द्वारा सेना व्यूहाकार खड़ी की हुई। पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए। इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा भारी यौद्धा देखिए। कौरवों के सेनापति पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह के दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया। 

यह सब देखकर अर्र्जुन श्रीकृष्ण से बोले युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषा इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं मुंह सूखा जा रहा है। ये सभी मेरे संबंधी लोग हैं मैं इन्हें कैसे मार सकता हूं। धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन लोगों को मारकर हमें पाप ही लगेगा। अपने भाइयों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे। 

अर्जुन को क्यों था महाभारत युद्ध जीतने का पूरा विश्वास

अर्जुन को क्यों था महाभारत युद्ध जीतने का पूरा विश्वास

 उसके बाद कौरव और पाण्डवों दोनों ही पक्षों की ओर से युद्ध की तैयारियां तेज हो गई। दोनों ने अपने-अपने हिसाब से व्यूह की रचना कैसे करनी है इस बारे में विचार मंथन किया। फिर सभी युद्ध के मैदान में पहुंचे। इधर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी सेना के मध्यभाग में खड़े होकर कहा अर्जुन ये जो सिंह के समान हमारे सैनिकों की ओर देख रहे हैं। 

ये ही कुरुकुल  की ध्वजा फहराने वाले भीष्मजी हैं। जैसे मेघ सूर्य को ढक देता है ठीक वैसे ही ये सेनाएं इन्हें घेर कर खड़ी हैं। इसके बाद श्रीकृष्ण ने कौरव सेना की ओर दृष्टिपात किया और युद्ध का समय उपस्थित देखकर अर्जुन से कहा- तुम युद्ध के आरंभ में शत्रुओं को पराजित करने के लिए दुर्गादेवी की स्तुति करो। तब अर्जुन श्रीकृष्ण की आज्ञा से स्तुति करने लगे।



जब स्तुति खत्म हुई तो देवी प्रकट हुई और उन्होंने अर्जुन से कहा पाण्डुनंदन तुम थोड़े दिनों में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे। तुम साक्षात नर हो, नारायण तुम्हारे सहायक हैं। तुम्हे कोई नही दबा सकता। शत्रुओं की तो बात ही क्या है, तुम युद्ध में वज्रधारी इन्द्र के लिए भी अजेय हो। वह वरदायिनी देवी इस प्रकार वर देकर अंतर्धान हो गई।  वरदान पाकर अर्जुन को अपनी विजय का विश्वास हो गया। फिर वे अपने रथ पर आकर बैठ गए।  
इसलिए भीष्म को केवल शिखण्डी ही मार सकता था...

शिखण्डी इस तरह स्त्री से पुरुष बन गया। उस यक्ष की बात सुनकर शिखण्डी बहुत प्रसन्न हुआ। शिखण्डी को इस तरह पुरुष बना देख द्रुपद ने धर्नुविद्या सीखने के लिए उसे द्रोणाचार्यजी के पास भेज दिया। फिर शिखण्डी ने ही ग्रहण  धारण, प्रयोग और प्रतीकार - धर्नुविद्या की इन चार विधाओं की शिक्षा प्राप्त की। 

मैंने मुर्ख, बहरे और अंधे दिखने वाले जो गुप्तचर द्रुपद के यहां तैनात कर रखे थे। उन्हीं ने मुझे ये सब बातें बताई। इस प्रकार यह द्रुपद का पुत्र महारथी शिखण्डी पहले स्त्री था और फिर पुरुष हो गया। अगर यह युद्ध के मैदान में मेरे सामने आया तो मैं न तो उसकी तरफ देख पाऊंगा नहीं बाण चला पाऊं गा। अगर भीष्म एक स्त्री की हत्या करेगा तो साधु जन उसकी निंदा करेंगे। भीष्म की यह बात सुनकर कुरुराज दुर्योधन कुछ देर तक विचार करता रहा। फिर उसे भीष्म की बात ही उचित जान पड़ी।

कृष्ण ने आखिरी बार ऐसे की थी महाभारत युद्ध रोकने की कोशिश.....

कृष्ण ने आखिरी बार ऐसे की थी महाभारत युद्ध रोकने की कोशिश.....

यह सुनकर भगवान बोले तुझे इस असमय में यह मोह क्यों हो रहा है? न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न ही यश देने वाला है और न कीर्र्ति को करने वाला ही है। इसलिए अर्जुन नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। तेरे दिल की तुच्छ दुर्बलता त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा। अर्जुन बोले- मैं रणभूमि में किस प्रकार भीष्मपितामह  और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूंगा। वे दोनों ही पूजनीय हैं। इसलिए  इनके सामने युद्ध करना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है। श्रीकृष्ण से वे कहने लगे आप उस कुबुद्धि दुर्योधन को समझाते क्यों नहीं? तब श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को कई तरह से समझाने का प्रयास किया। श्रीकृष्ण की सारी बातें सुनकर भीष्म ने दुर्योधन से कहा- अपने चाहने वाले श्रीकृष्ण ने जो तुम्हे समझाया है। वह धर्म और अर्थ के अनुकूल है।  तुम उसे स्वीकार कर लो, व्यर्थ ही प्रजा का संहार मत कराओ। अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हे अपने सभी प्रियजनों से हाथ धोना पड़ेगा। इसके बाद द्रोणचार्य ने कहा- राजन श्रीकृष्ण और भीष्मजी बड़े बुद्धिमान, मेधावी, जितेन्द्रिय, अर्थनिष्ट है। उन्होंने तुम्हारे हित की बात कही है, तुम उसे मान लो और मोहवश श्रीकृष्ण का तिरस्कार मत करो। तुम प्रजा और पुत्र तथा बन्धु-बांधवों के प्राणों को संकट में मत डालो। यह बात निश्चय मानो कि जिस पक्ष में श्रीकृष्ण और अर्जुन होंगे, उसे कोई जीत नहीं सकेगा। अगर तुम अपने हितैषियों की बात नहीं मानोगे तो आगे तुम्हे पछतावा ही होगा।

जानिए, कृष्ण की किस बात ने किया अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार?

जानिए, कृष्ण की किस बात ने किया अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार?

यदि आपको कर्मों की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? आप मिले हुए से वचनों से मानो मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए। 

जिससे मेरा कल्याण हो जाए। श्रीकृष्ण बोले- मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। जो मूर्ख मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है। जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ। दसों इंद्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है। कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा। यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंधता  है। इसलिए तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही अपना भलीभांति कर्तव्य कर्म कर। अर्जुन ये युद्ध ही तेरा कर्म है और तू निश्चिंत होकर इसे कर।

जब यक्ष ने दिया इस राजकुमारी को राजकुमार बनने का वरदान तो...



जब यक्ष ने दिया इस राजकुमारी को राजकुमार बनने का वरदान तो...

यह सुनकर शिखण्डी को अपने पिता के यश की चिंता होने लगी। उसने यक्ष अनुष्ठान किया। अनुष्ठान से एक यक्ष प्रकट हुआ। उसने शिखण्डी से बोला बोलो तुम क्या चाहते हो? तो शिखण्डी ने अपनी सारी समस्या उसे बता दी। यह सुनकर यक्ष ने शिखण्डी से कहा तुम कुछ समय के लिए मेरा पुरुषत्व ले लो और मैं तुम्हारा स्त्रीत्व ले लेता हूं। इससे तुम्हारा काम हो जाएगा  परन्तु कुछ समय बाद तुम्हे मेरा पुरुषत्व मुझे लौटाना होगा। इस शर्त के साथ यक्ष ने शिखण्डी को पुरुष बना दिया। शिखण्डी जब पुरुष रूप में अपनी पत्नी और उसके पिता के सामने पहुंचा तो राजकुमारी को उसके पिता फटकार लगाकर अपनी सेना सहित अपने राज्य को लौट गए।

इधर इसी बीच किसी दिन यक्षराज कुबेर ने उस यक्ष को बुलावा भेजा। जब राजा को उसके स्त्री हो जाने की बात पता लगी तो उस पर क्रोधित होकर कुबेर ने उसे हमेशा उसी रूप में रहने का शाप दिया। उसके क्षमा मांगने पर कुबेर ने कहा जब शिखण्डी का वध हो जाएगा तब तुम्हे अपना पुरुषत्व वापस मिल जाएगा। जब शिखण्डी यक्ष को उसका पुरुषत्व लौटाने गया तो उसे सारी बात पता चली।

महाभारत में हुआ स्त्री का स्त्री से विवाह क्योंकि....

महाभारत में हुआ स्त्री का स्त्री से विवाह क्योंकि....

 महाराज द्रुपद की रानी को पहले कोई पुत्र नहीं हुआ था।  इसलिए द्रुपद ने संतानप्राप्ति के लिए तपस्या की और शंकर भगवान से पुत्र प्राप्ति का वर मांगा। शंकर भगवान ने उससे कहा जाओ द्रुपद अब तुम्हे पुत्र होगा। लेकिन वह स्त्री रूप में जन्म लेगा और बाद में पुरुषत्व प्राप्त कर लेगा। उसके बाद महाराज द्रुपद घर लौट आए कुछ महीनों बाद रानी ने गर्भधारण किया। उन्हें महादेवजी की बातों पर पूरा विश्वास था। 

कुछ दिनों बाद उनके यहां एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। कन्या जब बड़ी हो गई तब रानी ने राजा द्रुपद से कहा महाराज शिवजी के वर के कारण शिखण्डी का पुरुषत्व प्राप्त करना तो तय है। इसलिए हमें समय से इसका विवाह किसी स्त्री से कर देना चाहिए। राजा द्रुपद ने दर्शाणराज की कन्या से शिखण्डी का विवाह करवा दिया। शादी के बाद दर्शाणराज की कन्या को शिखण्डी के स्त्री होने का पता चला तो उसने अपने पिताजी को संदेश पहुंचवाया। उसके पिता ने जब यह समाचार पाया तो उन्होंने द्रुपद के राज्य पर हमला बोल दिया। 

केवल शिखण्डी ही क्यों मार सकता था भीष्म को?

केवल शिखण्डी ही क्यों मार सकता था भीष्म को?


परशुरामजी ने अम्बा को बुलाकर उससे कहा मैं युद्ध हार गया हूं। अब तू भीष्म की शरण में चली जा इसके अलावा मुझे कोई उपाय नहीं सुझ रहा है। तब अम्बा ने कहा आपने जैसा कहा ठीक है। आपने अपने बल और उत्साह के अनुसार मेरा काम करने में कोई कसर नहीं रखी है। लेकिन आप अंत में भीष्म से जीत नहीं सके तो फिर मैं किस तरह भीष्म के पास जाऊंगी। अब मैं ऐसी जगह जाऊंगी जहां रहने से मैं खुद भीष्म का युद्ध में संहार कर सकूं। ऐसा कहकर वह कन्या भीष्म नाश के लिए तप का विचार करके वहां से चली गई। परशुरामजी सभी मुनियों के साथ महेन्द्रगिरी पर्वत चले गए। यह सारा समाचार मैंने आकर माता को सुना दिया। उन्होंने उस कन्या के समाचार लाने के लिए कुछ लोग नियुक्त कर दिए।

कुरुक्षेत्र से वह कन्या यमुना तट के एक आश्रम पर आ गई। वह छ: महीने तक निराहर रहकर यमुनाजल में तपस्या करने लगी। इसके बाद वह आठवें या दसवें महीने पानी पीकर निर्वाह करने लगी। तपस्या के प्रभाव से उसका आधे शरीर से तो अम्बा नदी हो गई और आधे शरीर से वत्स देश की राजा की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई। वह उस जन्म में फिर तपस्या करने लगी। तपस्वियों ने घोर तप देख उसे रोका। वे अम्बा से बोले तुझे क्या चाहिए? अम्बा ने कहा मैंने सिर्फ  भीष्म का नाश करने के लिए ही तपस्या की है। तभी वहां शंकरजी प्रकट हुए और उन्होंने अम्बा से वर मांगने को कहा- अम्बा ने भीष्म को हराने का वरदान मांगा। वह बोली भगवान में तो स्त्री हूं। मेरा हृदय शौर्यहीन है तो मैं फिर युद्ध में भीष्म से कैसे जीत सकूंगी? भगवान ने कहा तू अगले जन्म में द्रुपद के यहां कन्या रूप में जन्म लेगी और कुछ समय के बाद तू पुरुष हो जाएगी। इस तरह तेरे हाथों ही भीष्म का वध होगा। अम्बा ने शंकर भगवान से ऐसा वरदान पाकर अगले जन्म में शिखण्डी के रूप में जन्म लिया।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

इस राजकुमारी के कारण हुआ भीष्म और परशुराम के बीच युद्ध


इस राजकुमारी के कारण हुआ भीष्म और परशुराम के बीच युद्ध


लेकिन अम्बा ने  मुझसे कहा आप सम्पूर्ण शास्त्रों में पारंगत और धर्म के रहस्य को जानने वाले हैं। इसलिए आप मेरी बात सुने और जैसा आपको उचित लगे करें। मैं मन ही मन राजा शाल्व को वर चुकी हूं। उन्होंने भी पिताजी को प्रकट न करते हुए एकांत में मुझे पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया है। फिर कुरुवंशी होकर आप मुझे राजधर्म को तिलांजली देकर मुझे अपने घर में क्यों रखना चाहते हैं।

तब मैंने सभी की अनुमति लेकर अम्बा को जाने दिया। अम्बा वृद्ध ब्राह्मण और क्षत्रियों के साथ लेकर राजा शाल्व के नगर में गई। उसने शाल्व के पास जाकर कहा मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूं। यह सुनकर शाल्व ने कुछ मुस्कुराकर कहा- पहले तुम्हारा संबंध दूसरे पुरुष हो चुका है। इसलिए अब मैं तुम्हे पत्नी रूप से स्वीकार नहीं कर सकता। भीष्म तुम्हे हरकर ले गया था। इसलिए मैं तुम्हे स्वीकार नहीं करना चाहते। अम्बा ने कहा भीष्मजी मुझे मेरी प्रसन्नता से नहीं ले गए थे। मैं तो उस समय विलाप कर रही थी। वो सब राजाओं को हराकर मुझे ले गया। मैं तो निरपराध आपकी दासी हूं। आप मुझे स्वीकार कीजिए। 

मैं तो आपके सिवा किसी और वर का अपने मन में चिंतन नहीं करती।  इस तरह अम्बा ने बार-बार प्रार्थना की लेकिन शाल्व ने उसे स्वीकार नहीं किया। अम्बा ने मन ही मन सोचा कि ये सारी परेशानी भीष्म के कारण आई है। अब तपस्या या युद्ध के द्वारा मुझे उनसे इसका बदला लेना चाहिए। ऐसा निश्चय कर वह नगर से निकलकर तपस्वियों के आश्रम पर आई। तपस्वियों के पास पहुंचकर अम्बा ने उसे पूरी कहानी सुनाई और तपस्या करने की जिद करने लगी। तभी वहां होत्रहान जो कि अम्बा के नाना थे वे आए। उन्होंने अम्बा कि कहानी सुनी और कहा बेटी मैं तेरा नाना हूं। तू मेरी बात मान और परशुरामजी के पास जाकर अपनी परेशानी बता दे। अम्बा ने अपनी सारी कहानी परशुरामजी को सुनाई। उसकी कहानी सुनकर परशुरामजी को क्रोध आया। उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिए ललकारा और उनमें भीषण युद्ध हुआ। परशुरामजी को भीष्म ने युद्ध में परास्त किया। 

भीष्म ने क्यों किया स्वयंवर से राजकुमारियों का हरण?


भीष्म ने क्यों किया स्वयंवर से राजकुमारियों का हरण?

भीष्मजी से दुर्योधन ने पूछा- दादाजी शिखण्डी अगर रणक्षेत्र में बाण चढ़ाकर आपके सामने आएगा तो आप उसका वध क्यों नहीं करोगे। भीष्मजी बोले- दुर्योधन शिखण्डी को रणभूमि में अपने सामने भी जो मैं नहीं मारूंगा, उसका कारण सुनो। जब मेरे पिता शान्तनुजी स्वर्गवासी हुए तो मैंने अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए चित्रागंद से राजसिहांसन पर अभिषिकक्त हुआ। जब उसकी मृत्यु भी हो गई तो माता सत्यवती की सलाह से मैंने विचित्रवीर्य को राजा बनाया। विचित्रवीर्य की आयु बहुत छोटी थी।

इसलिए राजकार्य में उसे मेरी सहायता की अपेक्षा रहती थी। फिर मुझे किसी कुल के अनुरूप कन्या के साथ उसका विवाह करने की चिंता हुई। इसी समय मैंने सुना कि कशिराज की अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का नाम की तीन अनुपम रूपवती कन्याओं का स्वयंवर होने वाला है। उसमें पृथ्वी के सभी राजाओं को बुलाया गया था। मैं भी अकेला ही रथ में चढ़कर कशिराज की राजधानी में पहुंचा। वहां यह नियम किया गया था कि जो सबसे पराक्रमी होगा, उसे ये कन्याएं विवाही जाएंगी।

मुझे जब यह मालूम हुआ तो मैंने तीनों कन्याओं को अपने रथ में बैठा दिया। वहां आए राजाओं को बार-बार सुना दिया गया कि महाराज शंातनु के पुत्र भीष्म कन्याओं को ले जा रहा है। आप लोग पूरा-पूरा बल लगाकर इन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करें। तब वे सब राजा अस्त्र-शस्त्र लेकर मेरे ऊपर टूट पड़े। मैंने सको परास्त कर दिया। मेरी बाण चलाने की फूर्ती देखकर उनके मुंह पीछे फिर गए और वे मैदान छोड़कर भाग गए। इस तरह सब राजाओं को जीतकर मैं हस्तिनापुर चल दिया। वे तीनों कन्याएं माता सत्यवती को सौंप दी।

दुर्योधन की चुनौती का पांडवों ने कैसे दिया जवाब?


दुर्योधन की चुनौती का पांडवों ने कैसे दिया जवाब?

उलूक तुम पाण्डवों के पास जाना और कृष्ण से कहना कि तुम अपनी और पांडवों की रक्षा करने के लिए अब तैयार होकर हमारे साथ युद्ध करो। तुमने माया से सभा में भयंकर रूप धारण किया था। तुमने कहा था कि पांडवों को हर कीमत पर उनका राज्य दिलवाऊंगा। सो तुम्हारा यह संदेश भी संजय ने मुझे सुना दिया। अब तुम सत्य प्रतिज्ञ होकर पाण्डवों के लिए पराक्रमपूर्वक कमर कस कर युद्ध करो। हम भी तुम्हारा पौरुष देखेंगे। संसार में अकस्मात ही तुम्हारा बड़ा यश फैल गया है। आज मुझे मालूम हुआ कि जिन लोगों ने तुम्हे सिर पर चढ़ाया हुआ है। वे वास्तव में पुरुष हैं ही नहीं। 

उस बिना मूंछों के मर्द, बहुभोजी, अज्ञान की मूर्ति, मूर्ख भीमसेन से कहना कि कौरवों कि सभा में जो प्रण लिया था। उसे मिथ्या मत करना। विराट और  द्रुपद से कहना कि तुम सब एकत्रित होकर मेरे सामने आओ और अपने और पांडवों के लिए मेरे साथ संग्राम करो। धृष्टद्युम्र का कहना कि जब तुम द्रोणाचार्य के सामने आओगे, तब तुम्हे मालूम होगा कि तुम्हारा हित किस बात में है। इसके बाद राजा दुर्योधन खूब हंसा और बोला उनसे बोलना वह समय आ चूका है जिसके लिए क्षत्राणी पुत्र का प्रसव करती है। 

उसके बाद दुर्योधन का संदेश लेकर उलूक पांडवों के पास पहुंचा। उलूक ने जैसा दुर्योधन ने कहा था वो सारी बातें आकर पांडवों को सुनाई। वे सभी क्रोध से आगबबूला हो गए। श्रीकृष्ण ने भी सब कुछ सुनने के बाद उलूक से कहा अब तुम जाओं और दुर्योधन से मेरा संदेश कहना कि अब कल तुम रणभूमि में आ जाओ तो सब अपने आप सिद्ध हो जाएगा। कल तुम कहीं भी जाओगे तुम्हे अर्जुन का रथ ही दिखाई देगा। इस तरह सभी पाण्डवों ने बारी-बारी अपना संदेश दिया।

महाभारत युद्ध में अर्जुन ने नहीं ली इस राजा की मदद क्योंकि....


महाभारत युद्ध में अर्जुन ने नहीं ली इस राजा की मदद क्योंकि....

उसके बाद भीष्मजी ने विधिपूर्वक सेनापति पद पर अभिषिक्त किया। इधर युधिष्ठिर ने सब भाइयों और श्रीकृष्ण को बुलाकर कहा तुम सब लोग सावधान रहो। सबसे पहले तुम्हारा युद्ध पितामह भीष्म के साथ होगा। 

अब तुम मेरी सेना के सात नायक नियुक्त करो। श्रीकृष्ण ने कहा- राजन ऐसा समय आने पर आपको जैसी बात करनी चाहिए आप वैसी ही कर रहे हैं। युधिष्ठिर ने धृष्टद्युम्र को अभिषिक्त किया। इसी समय घोर युद्धसंहार को करीब आया जानकर भगवान बलरामजी, अक्रूर, गद, साम्ब, उद्धव, प्रद्युम्र, चारुदेष्ण आदि मुख्य-मुख्य यदुवंशियों को साथ लिए पांडवों के शिविर में आए। सभी ने कहा कि हमें पता है कि जीत निश्चित ही पांडवों की होगी। उसी समय राजाभीष्मक का पुत्र रुक्मी एक अक्षौहिणी सेना लेकर पाण्डवों के पास आया। उसने श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए सूर्य के समान तेजस्विनी ध्वजा लिए पाण्डवों के शिविर में प्रवेश किया। 

उसने आकर पांडवों से कहा मैं तुम लोगों की सहायता के लिए आया हूं। संसार में मेरे समान पराक्रमी कोई और मनुष्य नहीं है। जिस सेना से मोर्चा लेने का भार सौपेंगे में उसे तहस-नहस कर दूंगा। तब अर्जुन ने धर्मराज को देखकर शांत स्वभाव से कहा- मैंने कुरुवंश में जन्म लिया है और हम इस युद्ध को लडऩे में सक्षम हैं। तुम अपनी इच्छा अनुसार जाना चाहो जा सकते हो। रहना चाहो तो आनंद से रह सकते हो।

भीष्म ने कौरवों का सेनापति बनने के लिए रखी ये कैसी शर्त?


भीष्म ने कौरवों का सेनापति बनने के लिए रखी ये कैसी शर्त?

इधर श्रीकृष्ण के चले जाने पर राजा दुर्योधन ने कर्ण, दु:शासन और शकुनि से कहा कृष्ण अपने उददेश्य में असफल होकर ही पाण्डवों के पास गए हैं। इसलिए वे क्रोध में भरकर निश्चय ही उन्हें युद्ध के लिए उत्तेजित करेंगे। वास्तव में श्रीकृष्ण को पांडवों के साथ मेरा युद्ध होना ही अभीष्ट है। भीम और अर्जुन तो उन्ही के मत में रहने वाले हैं। वे सभी श्रीकृष्ण के इशारे पर चलने वाले हैं इसलिए युद्ध बहुत ही भयंकर होने वाला है।

अब सावधानी से युद्ध सामग्री तैयार करनी चाहिए। कुरुक्षेत्र में बहुत से डेरे डलवाओ। जिनमें काफी अवकाश रहे और शत्रु अधिकार न कर सकें। युद्ध स्थल के चारों ओर ऊंची बाड़ लगवा दो। उनमें तरह-तरह के हथियार रखवा दो। अब देरी न करके आज ही घोषणा कर दो। कल ही सेना का कूच होगा। अगले दिन सुबह राजा दुर्योधन ने अपनी ग्यारह अक्षौहिणी सेना का विभाग किया। उसने पैदल, हाथी, रथ, और घुड़सवार सेना में से उत्तम और मध्यम श्रेणियों को अलग-अलग रखा। वे सभी अनेक तरह की युद्ध सामग्रियां लिए हुए थे।

फिर सब राजाओं को साथ ले उसने भीष्म से कहा- दादाजी कितनी भी बड़ी सेना हो अगर कोई अध्यक्ष नहीं होता तो सेना युद्ध के मैदान में आकर चीटिंयों की तरह तितर-बितर हो जाती है। सेनापति शूरवीर हो तभी युद्ध जीता जा सकता है। इसीलिए आप हमारे सेनापति बने। भीष्म ने दुर्योधन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। लेकिन साथ ही उन्होंने शर्त रख दी कि  या तो पहले मैं युद्ध लड़ूंगा या कर्ण। हम दोनों में से एक ही युद्ध लड़ेगा। तब कर्ण ने प्रण लिया कि भीष्म के जीवित रहते मैं युद्ध नहीं करूंगा। इनके मरने पर ही अर्जुन के साथ मेरा युद्ध होगा।

महाभारत के युद्ध से पहले कुछ ऐसा था कुरुक्षेत्र का माहौल...


महाभारत के युद्ध से पहले कुछ ऐसा था कुरुक्षेत्र का माहौल...

सब सैनिक दौड़-धूप करने लगे। युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। यह शब्द गूंजने लगे। हाथी, घोड़े और रथों का घोष होने लगा। चारो ओर शंख और दुन्दुभि की  ध्वनि फैल गई। सेना के आगे-आगे भीमसेन, नकुल, सहदेव अभिमन्यु, द्रोपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न आदि सभी चले। राजा युधिष्ठिर माल की गाडिय़ों, बाजार के सामानों, डेरे-तम्बू और पालकी आदि सवारियों, कोशों, मशीनों, वैद्यों एवं अस्त्रचिकित्सकों को लेकर चले। धर्मराज को विदा करे पांचालकुमारी द्रोपदी और अन्य राजमहिलाएं अपने शिविर को लौट आई।

इस तरह युद्ध की व्यापक तैयारी कर पाण्डवलोग परकोटों और पहरेदारों से अपने धन-स्त्री आदि की रक्षा का प्रबंध कर गौ और सोने आदि का दान करके विशाल मणजडि़त रथों में बैठकर कुरुक्षेत्र की ओर चले। वहां पहुंचकर एक ओर से श्रीकृष्ण और दूसरी ओर से अर्जुन शंख की ध्वनि करने लगे। राजा युधिष्ठिर ने एक चौरस र्मैदान में, जहां घास और ईधन की अधिकता थी, अपनी सेना का पड़ाव डाला। श्मशान, महर्षियों के आश्रम, तीर्थ और देवमंदिरों से दूर रहकर उन्होंने पवित्र और रमणीय भूमि में अपनी सेना को ठहराया।

वहां पाण्डवों के लिए जिस प्रकार का शिविर बनवाया गया था। ठीक वैसे ही डेरे श्रीकृष्ण ने अन्य लोगों के लिए भी बनवाए। उन सभी डेरों में सैकड़ों प्रकार की भक्ष्य, भोज्य और पेय सामग्रियां थी। ईधन आदि की भी अधिकता थी। वे राजाओं के डेरे विमानों के सामन थे। उनमें कवच धारण किए, हजारों योद्धाओं के साथ युद्ध करने वाले अनेकों हाथी पर्वतों की तरह खड़े दिखाई देते थे। वैद्यलोग वेतन देकर नियुक्त किए गए थे। पाण्डवों को कुरुक्षेत्र में आया सुनकर उनसे मित्रता का भाव रखनेवाले अनेकों राजा सेना और सवारियों के साथ उनके पास आने लगे।

द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को क्यों बताया अपनी मौत का राज?


द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को क्यों बताया अपनी मौत का राज?

आपको तो कोई जीत नहीं सकता। इसलिए आप हमारा हित चाहते हैं तो बतलाइए , हम आपको युद्ध में कैसे जीत सकेंगे। तब भीष्म ने बोला संग्रामभूमि में युद्ध क रते समय मुझे जीत सके- ऐसा तो मुझे कोई दिखाई नहीं पड़ता। अन्य पुरुष तो क्या, स्वयं इंद्र की भी ऐसी शक्ति नहीं है। इसके सिवा मेरी मृत्यु का भी कोई निश्चित समय नहीं है। इसलिए तुम किसी दूसरे समय मुझसे मिलना। तब महाबाहु युधिष्ठिर द्रोणाचार्य से मिले। द्रोणाचार्य ने कहा यदि तुम युद्ध का निश्चय करके फिर मेरे पास न आते तो मैं तुम्हे पराजय के लिए शाप दे देता। लेकिन तुम्हारे इस सम्मान से मैं प्रसन्न हूं। युधिष्ठिर ने कहा मुझे आपसे युद्ध करना होगा, इसके लिए मैं आपसे आज्ञा मंागता हूं।

जिससे द्रोणाचार्य बोले जब मैं क्रोध से भरकर बाणों की वर्षा करूंगा, उस समय मुझे मार सके ऐसा तो कोई शत्रु दिखाई नहीं देता हां जब मैं शस्त्र छोड़कर अचेत सा खड़ा रहूं उस समय कोई योद्धा मुझे मार सकता है। यह मैं तुमसे सच-सच कहता हूं। यह सच्ची बात तुम्हे बताता हूं। जब किसी विश्वासपात्र व्यक्ति के मुंह से मुझे कोई अत्यंत अप्रिय बात सुनाई देती है। संग्रामभूमि में अस्त्र त्याग देता हूं।

युधिष्ठिर से सीखे बिना युद्ध दुश्मन को हराने की ये कला


युधिष्ठिर से सीखे बिना युद्ध दुश्मन को हराने की ये कला

राजा युधिष्ठिर ने उनकी आज्ञा ली और वे आचार्य कृप के पास आए और उन्हें प्रणाम एवं प्रदक्षिणा करके कहने लगे। गुरुजी मुझे आपसे युद्ध करना होगा। इसके लिए मैं आपसे आज्ञा मांगता हूं। जिससे मुझे कोई पाप न लगे। आपकी आज्ञा होने पर मैं शत्रुओं को भी जीत सकूं गा। कृपाचार्य ने कहा युद्ध का निश्चय होने पर यदि तुम मेरे पास न आते तो मैं तुम्हे शाप दे देता। 

 जीत तुम्हारी होगी। तुम्हारे इस समय यहां आने से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मैं रोज उठकर तुम्हारी विजयकामना करूंगा- यह मैं तुमसे ठीक-ठीक कहता हूं। कृपाचार्यजी की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर उनकी आज्ञा लेकर मद्रराज शल्य के पास गए और उन्हें प्रणाम करके बोले आपसे आज्ञा मांगता हूं, जिससे मुझे कोई पाप न लगे तथा आपकी आज्ञा होने पर मैं शत्रुओं को भी जीत सकूंगा। शल्य ने कहा राजन् युद्ध का निश्चय कर लेने पर यदि तुम मेरे पास न आते तो मैं तुम्हारी पराजय के लिए तुम्हे शाप दे देता। 

इस समय आकर तुमने मेरा सम्मान किया है। इसलिए मैं तुम पर प्रसन्न हूं। मुझे अर्थ ने अपना दास बना रखा है इसीलिए कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहा हूं। इसी के कारण मुझे नपुंसक की तरह  ये पूछना पड़ता है कि अपनी ओर से युद्ध कराने के सिवा तुम और क्या चाहते हो। तुम मेरे भानजे हो तुम्हारी जो इच्छा होगी पूरी होगी।

ये था एक मात्र कौरव जो महाभारत के अंत तक जीवित था


ये था एक मात्र कौरव जो महाभारत के अंत तक जीवित था

संजय कहते हैं मद्रराज शल्य से आज्ञा लेकर राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित उस विशाल वाहिनी से बाहर आ गए। इस बीच में श्रीकृष्ण कर्ण के पास गए और उससे कहा कि मैंने सुना है भीष्मजी से द्वेष होने के कारण तुम युद्ध नहीं करोगे। यदि ऐसा है तो जब तक भीष्म नहीं मारे जाते, तब तक तुम हमारीओर आ जाओ। उनके मारे जाने पर फिर तुम्हे दुर्योधन की सहायता करनी ही उचित जान पड़े तो फिर हमारे मुकाबले में आकर युद्ध करना। 

कर्ण ने कहा- केशव मैं दुर्योधन का अप्रिय कभी नहीं करूंगा। आप मुझे प्राणपण से दुर्योधन हितैषी समझें।  कर्ण की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण वहां से लौट आए और पांडवों से आ मिले। इसके बाद महाराज युधिष्ठिर ने सेना के बीच में खड़े होकर उच्च स्वर से कहा- जो वीर हमारा साथ देना चाहे अपनी सहायता के लिए मैं उसका स्वागत करने को तैयार हूं। यह सुनकर युयुत्सु बहुत प्रसन्न हुआ। 

उसने पाण्डवों की ओर देखकर धर्मराज युधिष्ठिर से कहा - महाराज यदि आप मेरी सेवा स्वीकार करें। युधिष्ठिर ने कहा - युयुत्सो आओ। आओ हम सब मिलकर तुम्हारे मूर्ख भाइयों से युद्ध करेंगे। महाबाहो! मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं। तुम हमारी ओर से संग्राम करो। मालूम होता है महाराज धृतराष्ट्र का वंश तुम से ही चलेगा। फिर युयुत्सु कौरवों को छोड़कर पाण्डवों की सेना में चला गया। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के सहित प्रसन्नता पूर्वक पुन: कवच धारण किया। सब लोग अपने अपने रथों पर चढ़ गए।

जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ तो कुछ ऐसा था पहला दिन


जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ तो कुछ ऐसा था पहला दिन

धृतराष्ट्र ने पूछा इस प्रकार जब मेरे पुत्र और पाण्डवों की सेना की व्युहरचना हो गई तो उन दोनों में से किसने प्रहार किया। संजय ने कहा- राजन् तब भाइयों सहित आपका पुत्र दुर्योधन भीष्मजी को आगे रखकर सेनासहित बढ़ा। इसी प्रकार सेनाओं में घोर युद्ध होने लगा। पाण्डवों ने हमारी सेना पर आक्रमण किया और हमने उन पर धावा बोल दिया। दोनों ओर ऐसा भीषण शब्द हो रहा था कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। दोनों और से जबरदस्त बाणों की वर्षा हो रही थी। महाराज युधिष्ठिर शल्य के सामने आए। 

मद्रराज शल्य ने उनके धनुष के दो टुकड़े कर दिए। धर्मराज ने तुरंत ही दूसरा धनुष लेकर उनके धनुष के तीन टुकड़े कर दिए।  राजा द्रुपद ने जयद्रथ पर आक्रमण किया। महारथी कुन्तिभोज से अवन्तिराज विन्द और अनुविन्द का संघर्ष हुआ। वे अपनी-अपनी विशाल वाहिनियों के सहित संग्राम करने लगे। 

इस तरह सब एक दूसरे को मारने लगे युद्ध का दृश्य बहुत भयानक हो गया। 

संग्राम मर्यादाहीन होने लगा। भीष्म के सामने पड़ते ही पाण्डवों की सेना थर्रा उठी। इस दुखभरे दिन का पहला भाग बीतते-बीतते अनेकों बांकुरे वीरों का भीषण संहार हो गया। तब आपके पुत्र दुर्योधन की प्रेरणा से दुर्मुख, कृतवर्मा कृप आदि ने अभिमन्यु पर हमला कर दिया। ये देखकर पांडव पक्ष के दस महारथी बड़ी तेजी से अभिमन्यु की रक्षा के लिए दौड़े।

महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन और भीष्म आए आमने-सामने तो.....


महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन और भीष्म आए आमने-सामने तो.....

महाभारत का दूसरा दिन- दुर्योधन ने जब उस पाण्डवों द्वारा रचे गए दुर्भेद्य कौरवव्यूह की रचना देखी और बहुत तेजस्वी अर्जुन को उसकी रक्षा करते पाया तो द्रोणाचार्य के पास जाकर वहां उपस्थित सभी शूरवीरों से कहा- वीरों आप सब लोग कई तरह की कला में प्रवीण हैं।  आप में से एक-एक वीर  युद्ध में पाण्डवों को मारने की शक्ति रखता है। फिर यदि सभी महारथी एक साथ मिलकर उद्योग करें, तब तो कहना ही क्या है? उसके  इस प्रकार कहने से भीष्म, द्रोण और सभी कौरव मिलकर पाण्डवों के मुकाबले में एक महान व्यूह की रचना करने लगे। 

भीष्मजी बहुत बड़ी सेना साथ लेकर सबसे आगे चलें। उनके पीछे कुन्तल, दशार्ण, मगध , विदर्भ व मेकल और कर्णाप्रवण आदि देशों के वीरों को साथ लेकर महाप्रतापी द्रोणाचार्य चले। गांधार, सिन्धुसौवीर, शिबि और वसाति वीरों के साथ शकुनि द्रोणचार्य की रक्षा में नियुक्त हुए। इनके पीछे अपने सभी भाइयों के साथ दुर्योधन था। कौरवों के पितामह भीष्म ने भी सिंह की तरह दहाड़ कर ऊंचे स्वर में शंख बजाया दसरे दिन के युद्ध की शुरुआत हुई। 

संजय ने कहा- जब दोनों ओर समानरूप से सेनाओं की व्यूहरचना हो गई और सब ओर सुंदर ध्वजाएं लहराने लगी। तब दुर्योधन ने युद्ध आरंभ करने की आज्ञा दी। भीष्म की मार से पांडवों का व्यूह टूट गया, सारी सेना तितर-बितर हो गई। कितने ही सवार और घोड़े मारे गए। यह देखकर अर्जुन को क्रोध आ गया।अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा जनार्दन अब पितामह भीष्म के पास रथ ले चलिए। नहीं तो ये हमारी पूरी सेना को खत्म कर देंगे। अर्जुन वहां पहुंचे तो भीष्म ने उन्हें अस्सी बाण मारकर बांध दिया।

महाभारत का तीसरा दिन....पांडवों की सेना हारने लगी क्योंकि...


महाभारत का तीसरा दिन....पांडवों की सेना हारने लगी क्योंकि...

जब रात बीती और सबेरा हुआ तो भीष्म ने अपनी सेना को रणभ्रूमि में चलने की आज्ञा दी। वहां जाकर उन्होंने सेना का गरुड़-व्यूह रचा और उस व्यूह के अग्रभागमें चोंच के स्थान पर वे खुद ही खड़े हुए। दोनों नेत्रों की जगह द्रोणाचार्य और कृतवर्मा थे। शिरोभाग में अश्चत्थामा और कृपाचार्य खड़े हुए। इनके साथ त्रैगर्त, कैकय, और वाटधान भी थे। 

मद्रक, सिंधुवीर और पंचनददेशीय  वीरों के साथ भूरिश्रवा, शल, शल्य, भगदत व जयद्रथ- ये कण्ठ की जगह खड़े किए गए थे। दुर्योधन पुष्ठभाग पर खड़ा हुआ। कम्बोज, शक और शूरसेनदेशीय योद्धाओं को साथ लेकर विन्द तथा अनुविन्द उस व्यूह के पुच्छभाग में स्थित हुए। अर्जुन ने कौरव सेना की वह व्यूह रचना देखी तो धृष्टद्युम्न को साथ लेकर उन्होंने अपनी सेना का अर्धचंद्राकार व्यूह बनाया। 

उसके दक्षिण शिखर पर भीमसेन सुशोभित उनके साथ अनेकों अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न भिन्न-भिन्न देशों के राजा थे। भीमसेन के पीछे महारथी विराट और द्रुपद खड़े हुए। उनके बाद नील के बाद धृष्टकेतु थे। धृष्टकेतु के साथ चेदि, काशि और करूष एवं प्रभद्रकदेशीय योद्धाओं के साथ सेना के साथ धर्मराज युधिष्ठिर भी वहां ही थे। उनके बाद सात्यकि और द्रोपदी के पांच पुत्र थे। फिर अभिमन्यु और इरावान थे। इसके बाद युद्ध आरंभ हुआ। रथ से रथ और हाथी से हाथी भिड़ गए। कौरवों ने एकाग्रचित्त होकर ऐसा युद्ध किया की पांडव सेना के पैर उखड़ गए। पांडव सेना में भगदड़ मच गई।  

क्या आप जानते हैं, महाभारत युद्ध में कृष्ण को क्यों उठाना पड़ा था चक्र?


क्या आप जानते हैं, महाभारत युद्ध में कृष्ण को क्यों उठाना पड़ा था चक्र?

 भीष्म ने अपने बाणों की वर्षा तेज कर दी।सारी पांडव सेना बिखरने लगी। पांडव सेना का ऐसा हाल देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम अगर इस तरह मोह वश धीरे-धीरे युद्ध करोगे तो अपने प्राणों से हाथ धो बैठोगे। यह सुनकर अर्जुन ने कहा केशव आप मेरा रथ पितामह के  रथ के पास ले चलिए। कृष्ण रथ को हांकते हुए भीष्म के पास ले गए। अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म का धनुष काट दिया। 

भीष्मजी फिर नया धनुष लेकर युद्ध करने लगे। यह देखकर भीष्म ने अर्जुन और श्रीकृष्ण को बाणों की वर्षा करके  खूब घायल किया। भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि सब पाण्डवसेना कि सब प्रधान राजा भाग खड़े हुए हैं और अर्जुन भी युद्ध में ठंडे पढ़ रहे हैं तो तब श्रीकृष्ण नेकहा अब मैं स्वयं अपना चक्र उठाकर भीष्म और द्रोण के प्राण लूंगा और धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को मारकर पाण्डवों को प्रसन्न करूंगा। कौरवपक्ष के सभी राजाओं का वध करके मैं आज युधिष्ठिर को अजातशत्रु राजा बनाऊंगा। 

जब कृष्ण कूद पड़े महाभारत के युद्ध में तो....


जब कृष्ण कूद पड़े महाभारत के युद्ध में तो....

इतना कहकर कृष्ण ने घोड़ों की लगाम छोड़ दी और हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर रथ से कूद पड़े। उसके किनारे का भाग छूरे के समान तीक्ष्ण था। भगवान कृष्ण बहुत वेग से भीष्म की ओर झपटे, उनके पैरों की धमक से पृथ्वी कांपने  लगी। वे भीष्म की ओर बढ़े। वे हाथ में चक्र उठाए बहुत जोर से गरजे। उन्हें क्रोध में भरा देख कौरवों के संहार का विचार कर सभी प्राणी हाहाकार करने लगे।

उन्हें चक्र  लिए अपनी ओर आते देख भीष्मजी बिल्कुल नहीं घबराए। उन्होंने कृष्ण से कहा आइए-आइए मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान को आगे बढ़ते देख अर्जुन भी रथ से उतरकर उनके पीछे दौड़े और पास जाकर उन्होंने उनकी दोनों बांहे पकड़ ली। भगवान रोष मे भरे हुए थे, अर्जुन के पकडऩे पर भी वे रूक न सके। जैसे आंधी किसी वृक्ष को खींच लिए चली जाए, उसी प्रकार वे अर्जुन को घसीटते हुए आगे बढऩे लगे।अर्जुन ने जैसे -तैसे  उन्हें रोका और कहा केशव आप अपना क्रोध शांत कीजिए , आप ही पांडवों के सहारे हैं। अब मैं भाइयों और पुत्रों की शपथ लेकर कहता हूं कि मैं अपने काम में ढिलाई नहीं करूंगा, प्रतिज्ञा के अनुसार ही युद्ध करूंगा। तब अर्जुन की यह प्रतिज्ञा सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो गए।

क्यों किया था, युधिष्ठिर ने महाभारत के युद्ध के बीच में ही हार मानने का फैसला?


क्यों किया था, युधिष्ठिर ने महाभारत के युद्ध के बीच में ही हार मानने का फैसला?

अर्जुन तेजी से युद्ध करने लगे उन्होंने अपने सात बाण भूरिश्रवा पर चलाएं, दुर्योधन ने तोमर शल्य ने गदा और भीष्म ने शक्ति का प्रहार किया। अर्जुन ने बाणों का जाल बिछाकर कौरव सेना के वीरों का नाश कर दिया।सभी पाण्डव योद्धा हर्षनाद करने लगे। श्रीकृष्ण ने भी हर्ष प्रकट किया। सूरज ढलने का वक्त हो गया। कौरव वीरों के  शरीर अस्त्र-शस्त्रों से क्षत-विक्षत हो रहे थे। युगान्तका के समान सब ओर फैला हुआ अर्जुन का ऐन्द्र अस्त्र भी अब सबके लिए असहाय हो चुका था। इन सब बातों का विचार करे संध्याकाल उपस्थित देख भीष्म, द्रोण, दुर्योधन आदि शिविर में लौट  आए। अर्जुन भी शत्रुओं पर विजय और  यश पाकर भाइयों और राजाओं के साथ शिविर में लौट आए। कौरवों के सैनिक लौटते समय एक दसरे से कहने लगे। आज तो अर्जुन ने बड़ा पराक्र म कर दिखाया। संजय ने कहा- रात बीत जाने के बाद अगले दिन सुबह ही भीष्मजी बड़े क्रोध में भरकर सेना के सहित शत्रुओं के सामने आए। 

उस समय द्रोणाचार्य, दुर्योधन, दुर्मर्षण, चित्रसेन, जयद्रथ तथा अनेकों दूसरे राजा लोग उनके साथ-साथ चल रहे थे। भीष्म ने सीधा अर्जुन पर धावा बोला। इस तरह युद्ध चलते रहने पर भीष्मजी की बाणों की मार खाकर पांडव सेना भय से व्याकुल हो हथियार फेंककर भाग चली। रात्रि के पहले पहर में पांडव की बैठक हुई। बहुत देर तक सोचने  विचारने के बाद राजा युधिष्ठिरने भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहा राजा भीष्म लगातार हमारी सेना का संहार कर रहे हैं। अब मेरा विचार है कि मैं वन में चला जाऊं। वहां जाने में ही अपना कल्याण दिखाई देता है। युद्ध की तो बिल्कुल इच्छा नहीं है। हमारे भाई बाणों की मार से बहुत कष्ट पा रहे हैं।  केशव मैं जीवन को बहुत मुल्यवान मानता हूं और वही इस समय दुर्लभ हो रहा है। इसलिए चाहता हूं अब जिंदगी के जितने दिन बाकी हैं उनमें उत्तम धर्म का आचरण करूं। अगर आप हम लोगों को अना कृपापात्र समझते हों तो ऐस उपाय बताइए, जिससे अपना हित हो और धर्म में बाधा न आए।

जब युधिष्ठिर मन ही मन हार गए महाभारत तो...


जब युधिष्ठिर मन ही मन हार गए महाभारत तो...

धधकती हुई आग के समान भीष्मजी की तरफ हमारी आंख उठाकर भी देखने की हिम्मत नहीं होती। भीष्म पर विजय पाना मुझे तो असंभव सा लगता है। वे निरंतर हमारी सेना का संहार कर रहे हैं। हमारा पक्ष क्षीण हो चला है। 

हमारे भाई बाणों की वर्षा से बहुत कष्ट पा रहे हैं। भातृस्नेह के ही कारण हमारे साथ ये भी राज्य से भ्रष्ट हुए, द्रोपदी ने भी कष्ट भोगा। युधिष्ठिर की करुणाभरी बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें सांत्वना  देते हुए कहा -धर्मराज आप विषाद न करें। आपके भाई शुरवीर हैं। आप चाहें तो मुझे भी युद्ध में लगा दें, आपके स्नेह से मैं भी युद्ध  कर सकता हूं। मैं अकेले ही उन्हें मार सकता हूं। 

इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं कि जो पाण्डवों का शत्रु है, वह मेरा भी शत्रु ही है। हम लोगों ने प्रतिज्ञा की है कि एक-दूसरे को संकट से बचाएंगे। आप आज्ञा दीजिए, आज मैं भी युद्ध करूंगा। अर्जुन ने सभी लोगों के सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं भीष्म का वध करूंगा। उसका मुझे अवश्य पूर्ण करना चाहिए। भीष्म को मारना कौन बड़ी बात हैं? अर्जुन तैयार हो जाएं तो असम्भव कार्य भी कर सकते हैं।

क्या आप जानते हैं,सिर्फ तभी संभव था भीष्म को मारना जब....


क्या आप जानते हैं,सिर्फ तभी संभव था भीष्म को मारना जब....

श्रीकृष्ण ने युधिष्टिर से कहा मैं जानता हूं कि भीष्म जैसे योद्धा को परास्त करना आसान नहीं है। लेकिन मुझे लगता है अब हमें खुद उनकी शरण में जाकर उनके वध का उपाय पूछना चाहिए। इस तरह सलाह करके पाण्डव और भगवान श्रीकृष्ण भीष्म के शिविर में गए। उस समय उन लोगों ने अपने अस्त्र-शस्त्र और कवच उतार दिए थे। वहां पहुंचकर पाण्डवों ने भीष्मजी के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया और कहा कि हम आपकी शरण में हैं। पितामह आप हमें अपने वध का उपाय बताएं। यह सुनकर भीष्म ने कहा मैं सच्ची बात कहता हूं कि जब तक मैं जीवित हूं, तुम्हारी विजय किसी भी तरह नहीं हो सकती। तुम अपनी विजय के लिए मेरा वध कर दो यही जरुरी है। 

युधिष्ठिर ने कहा तब आप ही वह उपाय बताए जिससे हम जीत सकें। भीष्म ने कहा- पाण्डुनंदन तुम्हारा कहना सत्य है, पर जब मैं हथियार रख दूं। उस समय तुम्हारी महारथी मुझे मार सकते हैं। जो हथियार डाल दें, गिर जाए, कवच उतार दे, मैं आपका हूं कहकर शरण में आ जाए या स्त्री हो या स्त्री के समान जिसका नाम हो उन लोगों से मैं युद्ध नहीं करता हूं। तुम्हारी सेना में शिखण्डी है जो पहले स्त्री था और बाद में पुरुष हुआ अगर अर्जुन उसे सामने कर मुझ पर बाणों की वर्षा करे तो मैं प्रहार नहीं करूंगा। श्रीकृष्ण और अर्जुन के अलावा पांडव सेना में कोई ऐसा नहीं है जो मुझे मार गिराए। 

महाभारत में सिर्फ यही एक व्यक्ति था जो भीष्म को मार सकता था


महाभारत में सिर्फ यही एक व्यक्ति था जो भीष्म को मार सकता था

भीष्म की सारी बातें सुनकर सभी पांडवों अपने शिविर में लौट आए। वहां आकर उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- केशव मुझे यह लगता है कि भीष्म की मृत्यु का कारण शिखण्डी ही होगा। मैं दूसरे धर्नुधार्रियों को बाणों से मारकर रोक रखूंगा।

भीष्म की सहायता के लिए किसी को न आने दूंगा और शिखण्डी उनसे युद्ध करेगा। उसके बाद दसवे दिन के युद्ध में शिखण्डी को आगे करके पांडव युद्ध के लिए निकले। सेना का व्यूह निर्माण करके शिखण्डी सबसे आगे खड़ा हुआ। उसके पिछले भाग की रक्षा के लिए द्रोपदी के पुत्र और अभिमन्यु खड़े हुए। उसके बाद युद्ध आरंभ हुआ। शिखण्डी ने भीष्मजी को बाण मारा। भीष्मजी ने उसके स्त्रीत्व का विचार करे उस पर वार नहीं किया। तब उसे अर्जुन ने कहा पितामह को क ेवल तुम्ही मार सकते हो। उनका वध तुम्हारे ही हाथ होना है। शिखण्डी यह बात समझ नहीं सका। शिखण्डी ने भीष्मजी के सामने आकर उनके छाती में दस बाण मारे। इस तरह उसने तीर मार मारकर पितामह को बींध दिया। 

भीष्म पितामह हारने के बाद भी जीवित रहे क्योंकि.....


भीष्म पितामह हारने के बाद भी जीवित रहे क्योंकि.....

इधर अर्जुन ने मुस्कुराकर भीष्मजी को पच्चीस बाण मारे। उसके बाद लगातार अर्जुन बाणों की बरसात करने लगे। अर्जुन ने बाण मार-मारकर उनकी ढाल के सैंकड़ो टुकड़े कर डाले।  इस प्रकार कौरवों के देखते ही देखते बाणों से छलनी होकर पितामह गिर पड़े। उनके गिरते ही तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। महाराज! महात्मा भीष्म को उस अवस्था में देख कौरवों का दिल बैठ गया। पृथ्वी पर वज्रपात के समान आवाज आई। गिरते-गिरते उन्होंने देखा कि सूर्य तो अभी दक्षिणायन है, यह मरण उत्तम काल नहीं है।

इसलिए अपने प्राणों का त्याग नहीं किया, होश हवास ठीक रखा। उसी समय उन्हें आकाश में यह दिव्य वाणी सुनाई दी, महात्मा भीष्मजी तो संपूर्ण शास्त्रवेताओं में श्रेष्ठ है, उन्होंने इस दक्षिणायन में अपनी मृत्यु क्यों स्वीकार की? यह सुनकर पितामह ने उत्तर दिया- मैं अभी जीवित हूं।उनकी माता गंगा को जब यह बात पता लगी तो उन्होंने हंस के रूप में महर्षियों को उनके पास भेजा। उन्होंने भीष्मजी से आकर  कहा 

आप दक्षिणायन सूर्य में अपना शरीर न छोड़ें। तब भीष्मजी  ने उनसे कहा मैं देह त्याग नहीं करूंगा। सूर्य उत्तरायण होने पर ही मैं अपने प्राण त्याग दूंगा यह निश्चित है। यह कहकर वे बाणों की शैय्या पर सोए रहे। पाण्डव विजयी हुए थे उनके दल में शंखनाद होने लगा। संजय और  सोमक खुशी के मारे फूल उठे। भीमसेन ताल ठोकतें हुए सिंह के समान दहाडऩे लगे। कौरव सेना में कुछ लोग बेहोश थे और कुछ फूट-फूटकर रो रहे थे।

क्यों बनाया गया था द्रोणाचार्य को कौरवों का सेनापति?


क्यों बनाया गया था द्रोणाचार्य को कौरवों का सेनापति?

जब रात बीती और सवेरा हुआ तो सभी पाण्डव और कौरव भीष्मजी के नजदीक पहुंचे। सभी ने वीरों की तरह बाणों पर सोए हुए भीष्मजी को प्रणाम किया। हजारों कन्याओं ने वहां आकर उनकी पूजा की। सभी श्रेणी के लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे। बाणों के घावों से भीष्मजी का शरीर जल रहा था। भीष्मजी ने कर्ण को बुलवाया और कहा कि कर्ण तुम सूत पुत्र नहीं तुम कुंती पुत्र हो। तब कर्ण ने कहा- यह मुझे भी मालूम है। लेकिन जैसे श्रीकृष्ण पाण्डवों की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। ठीक उसी तरह में अपने जीवन के अंत तक युद्ध में कौरवों का साथ दूंगा।

भीष्म ने ये बात सुनकर कहा यदि तुम्हारे मन से पांडवों के लिए वैर नहीं मिट सकता तो मैं तुम्हे उनसे युद्ध करने की आज्ञा देता हूं। भीष्मजी से युद्ध की आज्ञा प्राप्त करने के बाद कर्ण युद्ध के लिए तैयार हो गए। कर्ण और दुर्योधन के बीच आपस में बातचीत हुई और उन्होंने द्रोणाचार्य को सेनापति बनाने का निर्णय लिया। दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से कहा कि आप वर्ण, कुल, उत्पति, विद्या, आयु और तपस्या में सबसे श्रेष्ठ हैं। आप हमारे सेनापति बन जाएंगे तो इस युद्ध में निश्चित ही हमारी जीत हो जाएंगी। तब द्रोणाचार्य ने सेनापति बनना स्वीकार किया और उनका सेनापति पद पर अभिषेक किया गया।

जानिए, युधिष्ठिर को क्यों नहीं मारना चाहता था दुर्योधन?


जानिए, युधिष्ठिर को क्यों नहीं मारना चाहता था दुर्योधन?

द्रोणाचार्य के  सेनापति बनने के बाद पहले दिन का युद्ध प्रारंभ होने को था। दोनों सेना अपने-अपने व्यूह की रचना में लगी थी। तभी द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहा- दुर्योधन तुमने भीष्मजी के बाद मुझे अपना सेनापति चुना है। इसीलिए मैं तुम्हे वर देना चाहता हूं। बताओ मैं  तुम्हारा क्या काम करूं जो इच्छा हो वह वर मांग लो। इस पर राजा दुर्योधन ने कर्ण और दु:शासनादि से सलाह करके आचार्य से कहा- यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो महारथी युधिष्ठिर को जीता हुआ पकड़कर मेरे पास ले आइए।

यह सुनकर आचार्य ने कहा तुम कुंतीनंदन युधिष्ठिर को कैद क्यों करवाना चाहते हो? तुमने उनके वध के लिए वर क्यों नहीं मांगा। पांडवों को जीतने के पश्चात फिर युधिष्ठिर को ही राज्य सौंपकर तुम अपना सौहार्द तो नहीं दिखाना चाहते। आचार्य के ऐसा कहते ही दुर्योधन बोला मैं जानता हूं आचार्य कि युधिष्ठिर के मरने पर हमारी जीत कभी नहीं हो सकती। 

अगर हमने उन्हें मारा तो शेष बचे पांडव हमें नष्ट कर देंगे। सब पांडवों को तो देवता भी नहीं मार सकते। इसलिए जो भी अंत में बचेगा वह हमें मार डालेगा। मैं तो चाहता हूं कि सत्य की प्रतिज्ञा करने वाले युधिष्ठिर अगर मेरे काबू में आ जाएं तो मैं उन्हें फिर से जूए में जीत लूंगा और तब उनके अनुयायी पांडव लोग भी फिर वन में चले जाएंगे। इसीलिए में धर्मराज का वध किसी भी अवस्था में नहीं करना चाहता।

युधिष्ठिर को क्यों लगा कि अर्जुन युद्ध में मारे गए?


युधिष्ठिर को क्यों लगा कि अर्जुन युद्ध में मारे गए?

जब द्रोणाचार्य  पांडवों के व्यूह को इस प्रकार जहां-तहां से रौंदने लगे तो पांचाल, सोमक और पांडव वीर वहां से दूर भागने लगे। अब धर्मराज युधिष्ठिर  को अपना कोई सहायक नहीं दिखाई देता था। उन्होंने अर्जुन को देखने के लिए निगाहे दौड़ाई। जब अर्जुन नहीं दिखाई दिए तो उन्होंने व्याकुलता पूर्वक भीम को बुलाया। जब भीम ने पूछा धर्मराज आप इतने व्याकुल क्यों दिखाई दे रहे हैं।

तब युधिष्ठिर ने गहरी सांस लेकर कहा भैया श्रीकृष्ण के रोष पूर्वक बजाए जाते हुए पांचजन्य की आवाज सुनाई दे रही है। तुम्हारा भाई अर्जुन मृत्युशैय्या पर पर पड़ा हुआ है। उसके मारे जाने पर श्रीकृष्ण संग्राम कर रहे हैं। यही मेरे शोक का कारण है। अर्जुन और सात्यकि की चिंता मेरी शोकाग्नि को बार-बार भड़का देती है। देखों उनका मुझे कोई चिन्ह नहीं दिख रहा है इससे अनुमान होता है कि अर्जुन और सात्यकि युद्ध में मारे गए हैं और श्रीकृष्ण युद्ध कर रहे हैं। मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। मेरा कहना मानों और उधर जाओ जिधर अर्जुन और सात्यकि गए हैं।

जब दुर्योधन अर्जुन से लडऩे पहुंचा तो....


जब दुर्योधन अर्जुन से लडऩे पहुंचा तो....

जब अर्जुन और श्रीकृष्ण कौरवों की सेना में घुस गए और उनके पीछे दुर्योधन भी चला गया, तो पांडवों ने सोमक वीरों को साथ लेकर बहुत कोलाहल किया द्रोणाचार्य पर धावा बोल दिया। बस दोनों ओर से बड़ी घमासान लड़ाई छिड़ गई। उस समय जैसा युद्ध हुआ, वैसा हमने न तो कभी देखा है और न सुना ही है। पुरुषसिंह धृष्टद्युम्र ने भी बाणों की झड़ी लगा दी थी। द्रोण पांडवों की जिस-जिस रथ सेना पर बाण छोड़ते थे। उसी-उसी की ओर से बाण बरसाकर धृष्टद्युम्न उन्हें हटा देता था। इस प्रकार बहुत प्रयत्न करने पर भी धृष्टद्युम्र का सामना करने पर कौरवों की सेना के तीन भाग हो गए। पांडवों की मार से घबराकर कुछ सैनिक कृतवर्मा की सेना में जा मिले। अन्त में कौरव सेना बहुत छिन्न-भिन्न हो गई।

माद्रीपुत्र नकुल और सहदेव ने बाणों की वर्षा करके अपने प्रति बैरभाव रखने वाले शकुनि की नाक में दम कर दिया। जब धृष्टद्युम्र ने देखा कि आचार्य बहुत करीब आ गए हैं तब उन्होंने कई सौ बाण मारकर उसकी ढाल को और दस बाणों से उसकी तलवार को काट डाला। 

फिर चौसठ बाणों से उसके घोड़ों का काम तमाम कर दिया और बाणों से ध्वजा और छत्र काटकर पाश्र्वरक्षकों को भी धराशाही कर दिया। तब आचार्य ने क्रोध में आकर कई हजार बाणों की वर्षा कर दी। उस समय सात्यकि ने चौदह तीखें बाणों से उसे बीच में ही काट डाला और आचार्य चंगुल में फंसे हुए धृष्टद्युम्र को बचा लिया।इस प्रकार द्रोण से मुकाबले पर सात्यकि आ गया तो पांचाल वीर धृष्टद्युम् को रथ में चढ़ाकर तुरंत ही दूर ले गए। 

अर्जुन से युद्ध करने से पहले ही क्यों घबरा गया दुर्योधन?


अर्जुन से युद्ध करने से पहले ही क्यों घबरा गया दुर्योधन?

दूसरे दिन युद्ध की शुरुआत में ही अर्जुन ने कौरवसेना में हाहाकार मचा दिया। जयद्रथ का वध करने की इच्छा से द्रोणाचार्य और कृतवर्मा की सेनाओं को चीरकर व्यूह में घुस गए और उनके हाथ से सुदक्षिण और श्रुतायु का वध हो गया तो अपनी सेना को भागती देखकर दुर्योधन अकेला ही अपने रथ पर चढ़ा और बड़ी फूर्ती से द्रोणाचार्य के पास आया और कहा मुझे पूरा विश्वास था कि अर्जुन जीते जी आपको लांघकर सेना में नहीं घुस सकेगा। 

लेकिन मैं देखता हूं कि वह आपके सामने व्यूह में घुस गया है।आज मुझे अपनी सारी सेना विकल और नष्ट सी दिखाई दे रही है। द्रोणाचार्य ने कहा मैं तुम्हारी बातों को बुरा नहीं मानता। मेरे लिए तुम अश्वत्थामा के समान हो।लेकिन जो सच्ची बात है वह मैं तुम से कहता हूं। अर्जुन के सारथि श्रीकृष्ण हैं और उनके घोड़े भी बड़े तेज है। इसलिए थोड़ा सा रास्ता मिलने पर भी वे तत्काल घुस जाते हैं। मैंने सभी धर्नुधरों के सामने युधिष्ठिर को पकडऩे की प्रतिज्ञा की थी। इस समय अर्जुन उनके पास नहीं हैं। वे अपनी सेना के आगे खड़े हैं। इसलिए मैं अर्जुन से लडऩे नहीं जाऊंगा। 

तुम पराक्रम में अर्जुन के समान ही हो इसलिए तुम अर्जुन से युद्ध करो। दुर्योधन ने कहा वो आपको लांघ गया तो मैं उससे युद्ध कैसे करुंगा? तब द्रोणाचार्य बोले तुम ठीक कहते हो मैं एक ऐसा उपाय देता हूं जिससे तुम जरूर ही उसकी टक्कर झेल सकोगे। आज श्रीकृष्ण के सामने ही तुम अर्जुन युद्ध करोगे। मैं तुम्हे एक अभेद्य कवच देता हूं।उस कवच को धारण करके तुम अर्जुन से युद्ध करो।

जयद्रथ को मारने के लिए अर्जुन को शंकरजी ने दिया था ये अस्त्र....


जयद्रथ को मारने के लिए अर्जुन को शंकरजी ने दिया था ये अस्त्र....

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम शंकरजी के पास जाओ। शंकरजी के पास पाशुपत नामक एक दिव्य सनातन अस्त्र है। जिससे उन्होंने पूर्वकाल में सारे दैत्यों का संहार किया था। यदि तुम्हे उस अस्त्र का ज्ञान हो तो अवश्य ही कल जयद्रथ का वध कर सकोगे। उसके बाद अर्जुन ने अपने आप को ध्यान की अवस्था में कृष्ण का हाथ पकड़े देखा। कृष्ण के साथ वे उडऩे लगे और सफेद बर्फ से ढके पर्वत पर पहुंचे। वहां जटाधारी शंकर विराजमान थे। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। शंकरजी ने कहा वीरवरों तुम दोनों का स्वागत है। उठो, विश्राम करों और शीघ्र बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है। भगवान शिव की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गए और उनकी स्तुति करने लगे। 

अर्जुन ने मन ही मन दोनों का पूजन किया और शंकरजी से कहा भगवन मैं आपका दिव्य अस्त्र चाहता हूं।  यह सुनकर भगवान शंकर मुस्कुराए और कहा यहां से पास ही एक दिव्य सरोवर है मैंने वहां धनुष और बाण रख दिए हैं। बहुत अच्छा कहकर दोनों उस सरोवर के पास पहुंचे वहां जाकर देखा तो दो नाग थे। दोनों नाग धनुष और बाण में बदल गए। इसके बाद वे धनुष और बाण लेकर कृष्ण-अर्जुन दोनों शंकर भगवान के पास आ गए और उन्हें अर्पण कर दिए। शंकर भगवान की पसली से एक ब्रह्मचारी उत्पन्न हुआ जिसने मंत्र जप के साथ धनुष को चढ़ाया वह मंत्र अर्जुन ने याद कर लिया और शंकरजी ने प्रसन्न होकर वह शस्त्र अर्जुन को दे दिया। यह सब अर्जुन ने स्वप्र में ही देखा था।

कृष्ण ने कहा है बुद्धिमान लोगों को ऐसी बात नहीं सोचना चाहिए क्योंकि...


कृष्ण ने कहा है बुद्धिमान लोगों को ऐसी बात नहीं सोचना चाहिए क्योंकि...

अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के विषय में विचार करते हुए सो गए। उन्हें चिंता करते देख भगवान कृष्ण ने उन्हें सपने में दर्शन दिए। भगवान को देखते ही अर्जुन उठे उन्हें बैठने का आसान देकर चुपचाप खड़े रहे। श्रीकृष्ण ने उनका निश्चय जानकर कहा- अर्जुन तुम खेद में किस लिए हो रहा है? बुद्धिमान पुरुष को नकारात्मक नहीं सोचना चाहिए। इससे काम बिगड़ जाता है। जो करने योग्य काम आ जाए , उसे पूरा करो। कर्म न करने वाले और जीत की दिशा में न सोचने वाले मनुष्य को शोक तो उसके लिए शत्रु का काम देता है।

 भगवान के ऐसा कहने पर अर्जुन ने कहा- केशव मैंने कल अपने पुत्र के घातक जयद्रथ को मार डालने की भारी प्रतिज्ञा कर डाली है। मैं सोचता हूं कि मेरी प्रतिज्ञा तोडऩे के लिए कौरव निश्चय ही जयद्रथ को सबसे पीछे खड़ा करेंगे। सभी महारथी उसकी रक्षा करेंगे। कौरव सेना से घिरा हुआ जयद्रथ कैसे दिखाई देगा। यदि नहीं दिखा तो प्रतिज्ञा का पालन नहीं हो सकेगा। प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाने पर मैं जीवन कैसे धारण करूंगा। इसलिए मेरी आशा निराशा में बदल गई है। 

इसीलिए कृष्ण थे अर्जुन के सबसे अच्छे दोस्त क्योंकि....


इसीलिए कृष्ण थे अर्जुन के सबसे अच्छे दोस्त क्योंकि....

पुत्र शोक से दुखी होकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर डाली है कि मैं कल जयद्रथ का वध करूंगा। भगवान कृष्ण ने कहा द्रोण की रक्षा में रहने वाले पुरुष को इंद्र भी नहीं मारे सकते। अर्जुन के लिए मैं कर्ण दुर्योधन आदि सभी महारथियों को उनके घोड़े और हाथी सहित मार डालूंगा। कल सारी दुनिया इस बात का परिचय पा जाएगी कि मैं अर्जुन का मित्र हूं। जो उनसे द्वेष रखता है जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। श्रीकृष्ण ने दारूक से कहा- तुम अपनी बुद्धि में इस बात का निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है।

सवेरा होते ही रथ सजाकर तैयार कर देना। उसमें सुदर्शन चक्र, कौमोद की रथ सजाकर तैयार कर देना। उसमें सुदर्शन चक्र, धनुष के साथ ही सभी आवश्यक सामग्री रख लेना। घोड़े जोतकर प्रतीक्षा करना ज्यो ही मेरे पांचजन्य की ध्वनि हो, बड़े वेग से मेरे पास रथ ले आना  मैं आशा करता हूं- अर्जुन जिस-जिस वीर के वध का प्रयत्न करेंगे, वहां-वहां उनकी विजय जरूर होगी। दारुक ने कहा- पुरुषोत्तम आप जिसके सारथि है उसकी विजय तो निश्चित है। पराजय हो ही कैसे सकती हैं? अर्जुन की विजय के लिए आप मुझे जो कुछ करने की आज्ञा दे रहे हैं, उसे सबेरा होते ही मैं पूर्ण करूंगा।

श्रीकृष्ण ने कुछ ऐसे दूर किया अभिमन्यु की मौत का दुख....


श्रीकृष्ण ने कुछ ऐसे दूर किया अभिमन्यु की मौत का दुख.....

इधर अर्जुन ने कृष्ण से कहा- भगवन अब आप सुभद्रा और उत्तरा को जाकर समझाइए। जैसे भी हो, उनका शोक दूर कीजिए। तब श्रीकृष्ण उदास होकर अर्जुन के शिविर में गए और पुत्र शोक से पीड़ित अपनी दुखिनी बहिन को समझाने लगे। उन्होंने कहा बहिन तुम और बहु उत्तरा दोनों ही शोक न करो। काल के द्वारा सब प्राणियों की एक दिन यही स्थिति होती है। 

तुम्हारा पुत्र उच्च वंश से उत्पन्न, धीर, वीर और क्षत्रिय था। यह मृत्यु उसके योग्य ही हुई है। इसलिए शोक त्याग दो। देखो बड़े-बड़े संत पुरुष, तपस्या, ब्रह्मचर्य, शस्त्रज्ञा और सद्बुद्धि के द्वारा जिस गति को प्राप्त करना चाहते हैं। वही गति तुम्हारे पुत्र को भी मिली है। तुम वीरमाता, वीरपत्नी, वीरकन्या और वीर बहिन हो। तुम्हारे पुत्र को बहुत उत्तम गति प्राप्त हुई। तुम उसके लिए शोक न करो। बालक की हत्या करवाने वाले पापी जयद्रथ यदि अमरावती में जाकर छिपे तो भी अब अर्जुन के हाथ से उसे छुटकारा नहीं मिल सकता। अर्जुन ने जैसी प्रतिज्ञा की है वैसी ठीक होगी। उसे कोई पलट नहीं सकता। 

तुम्हारे स्वामी जो कुछ करना चाहते हैं वह निष्फल नहीं होता। यदि मनुष्य, नाग, पिशाच आदि भी जयद्रथ की युद्ध सहायता करें तो भी वह कल जीवित नहीं रह सकता। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सुभद्रा का पुत्रशोक उमड़ पड़ा और वह बहुत दुखी होकर विलाप करने लगी। हा पुत्र तुम्हारे बिना आज से मैं अभागिन हो गई। बेटा तुम देखने के लिए तरसती ही रह गई। आज भीमसेन के बल को धिक्कार है। अर्जुन के धनुष-धारण को वृष्णि और पांचाल वीरों के पराक्रम को भी धिक्कार है। जो ये युद्ध में जाने पर तुम्हारी रक्षा न कर सके। श्रीकृष्ण और द्रोपदी ने सुभद्रा और उत्तरा को कई तरह से समझाया।

जब जयद्रथ अर्जुन से डर गया तो दुर्योधन ने क्या किया?


जब जयद्रथ अर्जुन से डर गया तो दुर्योधन ने क्या किया?

जयद्रथ भय से व्याकुल होकर विलाप करने लगे। दुर्योधन ने उन्हे विलाप करते देख कहा तुम इतने भयभीत न होओ। युद्ध में संपूर्ण क्षत्रिय वीरों के बीच में रहने पर कौन तुम्हे पा सकता है। मैं और कर्ण, चित्रसेन, शल्य, वृषसेन, पुरुमित्र आदि राजालोग अपनी-अपनी सेना के साथ तुम्हारी रक्षा के लिए चलेंगे। तुम अपने मन की चिंता दूर कर दो। सिंधुराज तुम स्वयं भी तो श्रेष्ठ महारथी हो, शुरवीर हो, पांडवों से क्यों डरते हो? मेरी सारी सेना तुम्हारी रक्षा के लिए सावधान रहेगी, तुम अपना भय निकाल दो। 

मेरी सारी सेना तुम्हारी रक्षा के लिए तैयार रहेगी। दुर्योधन से ऐसा आश्वासन मिलने के बाद जयद्रथ रात को द्रोणाचार्य के पास गया। आचार्य के चरणों में प्रणाम करके उसने पूछा- भगवन् दूर का लक्ष्य या हाथ की फूर्ती में कौन बड़ा है मैं या अर्जुन। द्रोणाचार्य ने कहा- तुम्हारे और अर्जुन के हम एक ही आचार्य है इसलिए क्लेश सहने के कारण अर्जुन तुमसे बड़े धर्नुधर हैं। लेकिन तुम चिंता न करो मैं ऐसा व्यूह बनाऊंगा कि अर्जुन तुम तक नहीं पहुंच सकेंगे।

अभिमन्यु की मृत्यु का बदला लेने के लिए अर्जुन ने ली थी ये प्रतिज्ञा?


अभिमन्यु की मृत्यु का बदला लेने के लिए अर्जुन ने ली थी ये प्रतिज्ञा?

अर्जुन ने अपने भाइयों से कहा अभिमन्यु की मृत्यु कैसे हुई आप लोग मुझे बताओ। तब युधिष्ठिर ने सारी बात सुनाई। युधिष्ठिर अर्जुन की बात सुनकर बेहोश हो गए। थोड़ी देर बाद जब अर्जुन को होश आया तो बोले मैं आप लोगों को सामने यह सच्ची प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि जयद्रथ को कौरव का आश्रय छोड़कर भाग नहीं गया। हम लोगों की भगवान श्रीकृष्ण या महाराज युधिष्ठिर की शरण में नहीं आ गया तो कल उसे जरूर मार डालूंगा।

 अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की टंकार की, उसकी ध्वनि आकाश में गूंज उठी। अर्जुन की वह प्रतिज्ञा सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख बजाया और कुपित हुए अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख से शंखनाद किया। सभी पांडव सिंहनाद करने लगे। दूतों ने आकर जयद्रथ से अर्जुन की प्रतिज्ञा कह सुनाई। सुनते ही जयद्रथ शोक से विहृल हो गया। रोने-बिलखने लगा। अर्जुन से डर जाने के कारण उसने लजाते-लजाते राजाओं से कहा राजाओ! पाण्डवों की हर्ष ध्वनि सुनकर मेरा मन विचलित हो रहा है। यदि ऐसा है तो अर्जुन की प्रतिज्ञा कोई नहीं तोड़ सकता। मुझे यहां से जाने की आज्ञा दीजिए। मैं जाकर ऐसी जगह छिप जाऊंगा जहां पांडव मुझे देख नहीं सकेगे।

क्या हुआ अभिमन्यु की मृत्यु के बाद?


क्या हुआ अभिमन्यु की मृत्यु के बाद?

उस दिन का सूर्यास्त हुआ सैनिक अपनी-अपनी छावनी को जाने लगे, उसी समय अर्जुन भी अपने दिव्य रथ  को लेकर शिविर की ओर गए। चलते-चलते ही वे भगवान श्रीकृष्ण से बोले केशव न जाने क्यों आज मेरा दिल धड़क रहा है। सारा शरीर शिथिल हो रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई अनिष्ट हुआ है। कृ ष्ण कहिए मेरे भाई राजा युधिष्ठिर अपने मंत्रियों के साथ कुशल तो होंगे ना?श्रीकृष्ण ने कहा शोक न करो, मंत्रियों सहित तुम्हारे भाई का तो कल्याण ही होगा। उसके बाद जब कृष्णजी और अर्जुन ने शिविर में 

प्रवेश किया तो देखा कि पांडव व्याकुल और हतोत्साहित हो रहे हैं। शिविर में सभी के चेहरे लटके हुए हैं। आज द्रोण ने व्यूह की रचना कि थी और उस व्यूह को भेदना केवन अभिमन्यु जानता था लेकिन मैंने उसे चक्रव्यूह से बाहर निकलना नहीं सिखाया था। अर्जुन ने पांडवों से पूछा कहीं आप लोगों ने उ स बालक शत्रु व्यूह में तो नहीं भेज दिया? वह सुभद्रा का दुलारा और माता कुं ती व श्रीकृष्ण का प्यारा था। अर्जुन की आंखों में आंसू थे। वो समझ चुके थे कि अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हो गया है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा मित्र इतने व्याकुल न होओ। जो युद्ध में पीठ नहीं दिखाते, उन सभी शूरवीरों को एक दिन इसी मार्ग से जाना पड़ता है। वह तो शत्रु के सामने डटे रहकर वीरों की तरह मरा है इसीलिए तुम्हे उसकी मृत्यु का शोक नहीं करना चाहिए। 

अभिमन्यु चक्रव्यूह क्यों नहीं भेद पाया?


अभिमन्यु चक्रव्यूह क्यों नहीं भेद पाया?

अभिमन्यु ने युधिष्ठिर से कहा आप चिंता न करें। आज मैं वह पराक्रम कर दिखाऊंगा, जिससे मेरे मामा भी प्रसन्न होंगे और पिताजी भी। मैं बालक हूं, तो भी संपूर्ण प्राणी देखेंगे कि मैं किस तरह आज अकेले ही शत्रुसेना को काल का ग्रास बनाता हूं। यदि जीते-जी इस युद्ध में मेरे सामने कोई जीवित बच जाए तो मैं अर्जुन का पुत्र नहीं और माता सुभद्रा के गर्भ से मेरा जन्म नहीं हुआ।

युधििष्ठर ने कहा सुभद्रानंदन तुम द्रोण की सेना को तोडऩे का उत्साह दिखा रहे हो, इसलिए ऐसी वीरताभरी बातें करते हुए तुम्हारा बल हमेशा बढ़ता ही जा रहा है। धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर अभिमन्यु ने सारथि को द्रोण की सेना के पास रथ ले चलने को कहा। जब बारबार चलने की आज्ञा दी तो सारथि ने उससे कहा - आयुष्मान पाण्डवों ने आप पर बहुत बड़ा भार रख दिया है। इस पर विचार कर लीजिए। सारथि की बात सुनकर अभिमन्यु ने उससे हंसकर कहा, सूत! यह पूरी सेना मेरी सोलहवी कला के बराबर भी नहीं है। 

अभिमन्यु ने शीघ्र ही उसे द्रोण की सेना ओर चलने के लिए आज्ञा दी। अभिमन्यु ने कौरवों के व्यूह में प्रवेश किया। उसने लगभग बीस ही कदम प्रवेश किया होगा कि सभी कौरव योद्धा उस पर एक साथ टूट पड़े। अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदकर और अंदर चला गया। कौरवों ने कई बाणों से प्रहार किए अभिमन्यु से नेअकेले ही युद्ध किया। कौरव सेना तितर-बितर होने लगी सभी इधर-उधर भागने लगे। 

दुर्योधन से यह नहीं देखा गया। वह अभिमन्यु की ओर बढ़ा  द्रोण व अन्य योद्धाओं ने उसकी सुरक्षा की। इस घोर संग्राम में दु:सह ने नौ बाण मारकर अभिमन्यु को बींध दिया। जब अभिमन्यु चक्रव्यूह को भेद रहा था तब युधिष्ठिर, भीमसेन, सहदेव, नकुल, शिखण्डी, विराट,द्रुपद आदि ने  व्यूहआकरा में संगठित होकर उसे घेर रखा था। लेकिन कई प्रमुख कौरव वीरों का संहार करने के बाद छ: कौरव महारथियों ने अभिमन्यु को घेर लिया और सभी ने सामुहिक प्रयत्न से उसका वध किया।

अभिमन्यु ने क्यों किया था चक्रव्यूह में प्रवेश?


अभिमन्यु ने क्यों किया था चक्रव्यूह में प्रवेश?

उस दिन के युद्ध के बाद कौरव पक्ष के लोग अपनी पूरी सेना को अकेले अर्जुन से कमजोर समझने लगे। दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से कहा आचार्य आपने जानबुझकर युधिष्ठिर को कैद नहीं किया। तब द्रोणाचार्य ने कहा पुत्र दुर्योधन सारे पाण्डवों को में युद्ध में परास्त कर सकता हूं पर अर्जुन को नहीं। अगर कल तुम अर्जुन को युद्ध करते हुए कुछ दूर ले जाओ तो मैं कल पांडव योद्धाओं में से एक श्रेष्ठ महारथी को तो जरूर मार गिराऊंगा। कल में एक ऐसे व्यूह की रचना करूंगा जिसका भेदन अर्जुन के अलावा कोई और पांडव नहीं जानता है। 

द्रोणचार्य की यह बात सुनकर दुर्योधन ने कहा ठीक है आचार्य आप जैसा कहेंगे हम वैसा ही करेंगे। दूसरे दिन का युद्ध आरंभ हुआ। अर्जुन को  षडयंत्र के तहत युद्धस्थल से दूर ले जाया गया। यह देखकर युधिष्ठिर ने अभिमन्यु से कहा बेटा चक्रव्युहभेदन  का उपाय हम लोग बिल्कुल नहीं जानते। इसे तो तुम अर्जुन, श्रीकृष्ण और प्रद्युम्र ही तोड़ सकते हैं। पांचवां कोई भी इस काम को नहीं कर सकता। इसलिए तुम इस व्यूह को तोड़ डालो, नहीं तो युद्ध से लौटने पर अर्जुन हमलोगों को ताना देंगे। अभिमन्यु ने कहा अचार्य द्रोण की सेना भयंकर है पर मैं वर्ग की विजय के लिए अभी इस चक्रव्यूह में प्रवेश करता हूं।  

कौरवों ने की अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा क्योंकि...


कौरवों ने की अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा क्योंकि...

आचार्य द्रोण के युद्ध के मैदान में आते ही सारे पांडव महारथी उन पर टूट पड़े। बड़ा ही रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। द्रोण ने राजा द्रुपद को दस बाण मारे। उनका जवाब उन्होंने अनेकों बाणों से दिया। द्रोण ने भीमसेन के घोड़े मार डाले। भीम अपने शत्रु का ऐसा पराक्रम सहन नहीं कर पाए। उन्होंने अपनी गदा से उसके सब घोड़े मार डाले।  

धीरे-धीरे का पांडवों का पक्ष मजबूत और कौरव पक्ष के लोग कमजोर पडऩे लगे। सूर्य अस्त हो गया अंधकार फैलने लगा। 

इसलिए शत्रु, मित्र किसी का भी पता लगाना कठिन हो गया। यह देखकर द्रोणाचार्य और दुर्योधन ने अपनी सेना को युद्ध बंद करने की आज्ञा दी और अर्जुन ने भी अपनी सेना को शिविर में मोड़ा। इस प्रकार शत्रुओं के दांत खट्टे कर वे श्रीकृष्ण के साथ बड़े हर्ष से पांडव शिविर को गए। पांडवों से उस दिन इतनी बुरी हार के बार कौरव वीरों ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की।  

जानिए क्यों की अर्जुन ने अपने गुरु को हराने की प्रतिज्ञा?


जानिए क्यों की अर्जुन ने अपने गुरु को हराने की प्रतिज्ञा?

द्रोणाचार्य पाण्डवों पर प्रेम रखते हैं, इसलिए उनकी प्रतिज्ञा को स्थाई बनाने के लिए उसने यह बात सेना के सभी पांडवों में घोषित करा दी। सैनिकों ने जब सुना कि आचार्य ने राजा युधिष्ठिर को कैद करने की प्रतिज्ञा की है तो वे सिंहनाद करने लगे। 

अपने विश्वास पात्र गुप्तचरों से द्रोण की प्रतिज्ञा के बारे में सुनकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा आचार्य जो कुछ करना चाहते हैं वह तुमने सुना? अब किसी ऐसी नीति से काम लो, जिसमे उनका विचार सफल न हो। उन्होंने एक शर्त के साथ प्रतिज्ञा की है और उस शर्त का संबंध तुम्ही से है। तुम मेरे पास रहकर ही युद्ध करो, जिससे कि द्रोण् के द्वारा दुर्योधन की इच्छा पूरी न हो सके। 

अर्जुन ने कहा जिस प्रकार में आचार्य का वध नहीं करना चाहता, उसी प्रकार आप से होने की भी मेरी इच्छा नहीं है। ऐसा करने में भले ही मुझे युद्धस्थल  में अपने प्राणों से हाथ धोना पड़े। भले ही प्रलय आ जाए। स्वयं इंद्र की सहायता पाकर भी  आचार्य आपको कैद नहीं कर पाएंगे। यह मेरी प्रतिज्ञा टल नहीं सकती। जहां तक मुझे स्मरण है मैंने कभी झूठ नहीं बोला, कहीं पराजय प्राप्त नहीं की और न कभी कोई प्रतिज्ञा करके ही उसे तोड़ा है। 

कर्ण के बाद राजा शल्य को क्यों बनाया गया कौरवों का सेनापति?


कर्ण के बाद राजा शल्य को क्यों बनाया गया कौरवों का सेनापति?

कर्ण की मृत्यु के बाद कृपाचार्य ने दुर्योधन को बहुत समझाया की पांडवों से संधि करने में ही सबकी भलाई है पर दुर्योधन नहीं माना। उसने कहा क्षत्रिय के लिए खाट पर सोकर मरना एक बड़ा पाप है। जो क्षत्रिय युद्ध में अपने प्राण त्यागता है वही श्रेष्ठ है। दुर्योधन की सेना के सारे योद्धा हिमालय की तराई में विश्राम करने के बाद एकत्रित हुए। 

दुर्योधन ने रथ पर सवार होकर महारथी अश्वत्थामा के पास गया। अश्वत्थामा युद्ध की संपूर्ण कलाओं का ज्ञाता था। उसे संपूर्ण वेदों और धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। अश्वत्थामा से बोला आप हमारे गुरु के पुत्र हैं हम सब लोगों को आप पर भरोसा है। आप ही बताइए कि हम किसे सेनापति बनावें? अश्वत्थामा ने कहा-हम लोगों में राजा शल्य ही अब ऐसे हैं जो उत्तम कुल, पराक्रम, तेज, यश व लक्ष्मी जैसे सभी गुणों से सम्पन्न हैं। द्रोणकुमार के ऐसा कहने पर सभी योद्धा राजा शल्य को घेरकर खड़े हो गए और उसकी जय-जयकार करने लगे। 

जानिए, महाभारत में क्या हुआ कर्ण के वध के बाद?


जानिए, महाभारत में क्या हुआ कर्ण के वध के बाद?

श्रीकृष्ण और नकुल व सहदेव ने हर्ष से भरकर शंख बजाए। सोमकों ने सेना सहित सिंहनाद किया। दूसरे योद्धाओं ने भी बहुत प्रसन्न होकर बाजा बजाना आरंभ कर दिया। कितने ही राजा आकर अर्जुन को गले लगाकर नाचने लगे। कर्ण के शरीर को खून से लथपथ हो पृथ्वी पर पड़ा देख राजा शल्य उस टूटी हुई ध्वजा वाले रथ के द्वारा ही वहां से भाग गए। कर्ण की मृत्यु का समाचार सुनकर दुर्योधन के आंखों में आंसू भर आए। वह बारंबार उच्छवास करने लगा। दोनों पक्ष के लोग कर्ण की लाश देखने के लिए उसे घेरकर खड़े हो गए। कोई प्रसन्न्ज्ञ था, कोई भयभीत। 

किसी के चेहरे पर विषाद की छाया थी तो कोई आश्चर्य में डूबा हुआ था। सारांश यह कि जिनकी जैसी प्रकृति थी वे उसी प्रकार हर्ष या शोक में मग्र हो गए। कर्ण के मरने पर भीम ने भयंकर सिंहनाद किया पूरा आकाश कांप गया। वे धृतराष्ट्र के पुत्रों को डराते हुए ताल ठोक कर नाचने लगे। उस समय शल्य दुर्योधन के पास पहुंचे और आंसू बहाते हुए बोले तुम्हारी सेना नष्ट- भ्रष्ट हो गई। मानों उनके  ऊपर यमराज का आधिपत्य हो। आज कर्ण और अर्जुन ने जैसा युद्ध किया था। वैसा पहले कभी नहीं हुआ था।  

कर्ण ने सभी को अपने काबू में कर लिया था लेकिन फिर भी वह मारा गया। निश्चय ही दैव पांडवों के अधीन होकर काम कर रहे हैं। यही कारण है कि तुम्हारी सेना के वीर बलपूर्वक शत्रु सेना द्वारा मारे गए।  मद्रराज की ये बातें सुनकर और मन ही मन अपने अन्यायों का भी स्मरण करके दुर्योधन बहुत उदास हो गया। उसकी बुद्धि कुछ काम नहीं दे रही थी।  वह मन ही मन अर्जुन को मारने का प्रण कर युद्ध करने लगा। इस प्रकार जब कर्ण को मारा गया और कौरव सेना भागने लगी तो कृष्ण ने अर्जुन को गले लगा लिया। धर्मराज भी कर्ण के वध का समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।

जानिए, कैसे हुआ कर्ण का वध?


जानिए, कैसे हुआ कर्ण का वध?

श्रीकृष्ण के समझाने पर अर्जुन को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने कर्ण से युद्ध का प्रण लिया।अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा भगवान में सूतपुत्र का वध करने के लिए महान भयंकर अस्त्र प्रकट कर रहा हूं। इसके लिए मुझे सभी देवताओं की आज्ञा चाहिए। भगवान से ऐसा कहकर अर्जुन ने सबसे पहले ब्रह्माजी से आशीर्वाद लिया और ब्रह्मास्त्र प्राप्तकिया। लेकिन कर्ण ने बाणों की बौछार से उस अस्त्र को खत्म कर दिया। 

यह देखकर भीमसेनक्रोध से तमतमा उठे,  भीमसेन ने अर्जुन से कहा सब लोग चाहते हैं तुम उत्तम ब्रह्मास्त्र का उपयोग करो। तब अर्जुन ने कर्ण पर जलते हुए सैकड़ों बाणों की वर्षा कर दी। अर्जुन ने कर्ण को बाणों से बींध डाला।

सारी कौरव सेना यह देखकर इधर-उधर भागने लगी। जब कर्ण ने चारों और नजर डाली तो उसे सब सूना दिखाई पड़ा। लेकिन उसके उत्साह में जरा भी कमी नहीं आई उसने अर्जुन पर धावा बोल दिया। कर्ण ने श्रीकृष्ण को बारह और अर्जुन को नब्बे बाणों को घायल कर दिया। फिर एक भयंकर बाण से अर्जुन को बींध दिया और जोर से गर्जना करने लगा।कर्ण ने हंसकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की , वह अर्जुन से नहीं सही गई। उन्होंने सैकड़ों बाण मारकर कर्ण के शरीर को बींध डाला।फिर अर्जुन ने छाती और यमदण्ड पर नौ बाण मारे। 

कर्ण धनुष उठाकर वेग से बड़ा श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा अर्जुन इस कर्ण का सिर तुम रथ पर चढ़ने से पहले ही काट दो। अर्जुन ने भगवान की आज्ञा को स्वीकार किया और कर्ण के रथ की ध्वजा को गिरा दिया। जिससे कौरवों की सारी कामना का पतन हो गया। अर्जुन ने कर्ण का सिर काट डाला। अर्जुन ने कर्ण को मार डाला है यह देखकर पांडव पक्ष के लोग शंखनाद करने लगे। 

अर्जुन ने क्यों किया खुद को खत्म करने का फैसला?


अर्जुन ने क्यों किया खुद को खत्म करने का फैसला?

अर्जुन धर्मभीरु थे। वे कृष्ण की ये सारी बातें सुनकर उदास हो गए। यह जानकर की मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया। उसके चित्त में बड़ा खेद हुआ। बार-बार सांस खींचते हुए उन्होंने फिर तलवार उठा ली। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ये क्या? तुम फिर तलवार उठा रहे हो? मुझे जवाब दो। मैं तुम्हें कोई उपाय बताऊंगा। पुरुषोत्तम के ऐसा कहने पर अर्जुन दु:खी होकर बोले मैंने जिद में आकर भाई का अपमान स्वरूप महान पाप कर डाला है, इसलिए अब अपने इस शरीर को नष्ट कर डालूंगा। 

अर्जुन की बात सुनकर भगवान से कहा- राजा युधिष्ठिर को तू मात्र कहकर तुम इतने दुख में क्यों डूब गए? उफ इसी के लिए आत्मघात करना चाहते हो? अर्जुन श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी ऐसा नहीं किया है। धर्म का स्वरूप सुक्ष्म है और उसका समझना कठिन। अज्ञानियों के लिए तो और भी मुश्किल है। यहां तो कर्तव्य है, उसे मे बताता हूं, सुनो भाई का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हे आत्मघात करने से मिलेगा। इसलिए अपने ही मुंह से अपने गुणों का बखान करो, ऐसा करने से यही समझा जाएगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने को मार लिया।

जब अर्जुन ने युधिष्ठिर पर तलवार उठाई तो श्रीकृष्ण ने क्या किया?


जब अर्जुन ने युधिष्ठिर पर तलवार उठाई तो श्रीकृष्ण ने क्या किया?

यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा धिक्कार है!धिक्कार है!!! फिर अर्जुन से बोले पार्थ आज मुझे मालूम हुआ कि तुमने कभी वृद्ध पुरुषों की सेवा नहीं की है। तभी तो बिना मतलब ही इतना क्रोध आ गया। यहां तुमने जो धर्मभीरुता और अज्ञानता का काम किया है। वह तुम्हारे योग्य काम नहीं है। जो खुद धर्म का आचरण करके शिष्यों द्वारा उपासना किया जाने पर उन्हें धर्म का उपदेश देते हैं। धर्म के संक्षेप और विस्तार से जानने वाले उन गुरुजनों का इस विषय में क्या निर्णय है। इसे तुम नहीं जानते। 

उस निर्णय को नहीं जानने वाला मनुष्य कर्तव्य व अकर्तव्य के निश्चय में तुम्हारी ही तरह असमर्थ और मोहित हो जाता है क्या करना चाहिए क्या नहीं? इसे जान लेना सहज नहीं है। इसका ज्ञान होता है शास्त्र का तुम्हे पता ही नहीं है। तुम अज्ञानवश जो खुद को धर्म का ज्ञाता मानकर जो तुम धर्म की रक्षा करने चले हो। उसमें जीवहिंसा का पाप है-यह बात तुम्हारे जैसे धार्मिक की समझ में नहीं आती। मेरे विचार से प्राणियों की हिंसा न करना ही सबसे बड़ा धर्म है।  किसी की प्राणरक्षा के लिए झूठ बोलना पड़े तो बोल दें लेकिन हिंसा न होने दें।भला तुम्हारे जैसा धर्मज्ञ अपने बड़े भाई और चक्रवर्ती राजा को मारने के लिए कैसे तैयार हो गया। जो युद्ध न करता हो, शत्रुता न रखता हो, रण से विमुख होकर भागा जा रहा हो, शरण में आता हो, हाथ जोड़कर खड़ा हो या असावधान हो तुम्हारे भाई में ये सभी गुण हैं। तुमने नासमझ बालक की तरह पहले ही प्रतिज्ञा कर ली। इसलिए मुर्खतावश अधर्म कार्य करने को तैयार हो गए। बताओ तो भला तुम बिना सोचे विचारे अपने बड़े भाई का वध करने कैसे दौड़ पड़े। 

जानिए, क्यों युधिष्ठिर का वध करने के लिए अर्जुन ने उठा ली तलवार?


जानिए, क्यों युधिष्ठिर का वध करने के लिए अर्जुन ने उठा ली तलवार?

युधिष्ठिर के घायल होने की खबर सुनकर अर्जुन और कृष्ण उनसे मिलने पहुंचे। धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा देवकीनंदन तुम्हारा स्वागत है और अर्जुन से कहा धनंजय तुम्हारा भी स्वागत है। उस समय धर्मराज ये समझे थे कि कर्ण मारा गया। इसीलिए युधिष्ठिर ने कहा- इसका मतलब तुम्हारी सेना रणभूमि छोड़कर भाग आई है। तुम कर्ण का बिना वध किए भीम को युद्ध के मैदान में अकेले छोड़कर यहां भाग आएं। 

तुम अपना गांडीव दूसरो को दे दो। तुम्हारे जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि यह बालक इंद्र के समान पराक्रमी होगा लेकिन तुमने सारी बातों को झुठा साबित कर दिया तुम तो भयभीत होकर भाग आए।। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन को बहुत गुस्सा आया। तब अर्जुन ने क्रोध में आकर तलवार उठा ली। श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा अर्जुन तुमने तलवार क्यों उठा ली तो उन्होंने कहा श्रीकृष्ण मैंने गुप्तरूप से प्रतिज्ञा की है कि जो कोई मुझे कह देगा कि गांडीव दसरे को दे डालो मैं उसका सिर काट दूंगा।

युद्ध में कर्ण के सामने जब आए युधिष्ठिर तो....


युद्ध में कर्ण के सामने जब आए युधिष्ठिर तो....

दूसरी ओर युधिष्ठिर को आते देख दुर्योधन क्रोध से भर गया। उसने अपनी आधी सेना साथ ले सहसा निकट जाकर उन्हें सब ओर से घेर लिया। युधिष्ठिर को घिरा देखकर नकुल, सहदेव व धृष्टद्युम्र तीनों उनकी सहायता के लिए आ गए। लेकिन तब भी कौरव उन पर लगातार प्रहार करते रहे। युधिष्ठिर पर कर्ण ने दस बाणों से प्रहार किया तब वे घायल हो गए और नकुल और सहदेव उन्हें शिविर में ले गए। 

 राजा मल्य ने जब बिना रथ के नकुल व सहदेव को युधिष्ठिर को शिविर में ले जाते देखा तो उन्हें दया आ गई उन्होंने कर्ण से कहा सुत-पुत्र आज तो तुम्हे अर्जुन से युद्ध करना है। फिर इतने क्रोध से भरकर धर्मराज से किस लिए लड़ रहे हो। वहां देखो भीमसेन ने दुर्योधन को दबोच रखा है। उनके प्राण संकट में हैं जाकर पहले दुर्योधन को बचाइए। 

अश्वत्थामा को हराने के लिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से क्या कहा?


अश्वत्थामा को हराने के लिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से क्या कहा?

द्रोणाचार्य के मारे जाने पर दुर्योधन बहुत घबरा गया। उसने कर्ण को सेनापति बनाने का निर्णय लिया। उस रात उसने वहीं दु:शासन और कर्ण के ही शिविर में आराम किया। सुबह विधिपूर्वक कर्ण का अभिषेक किया। सेना युद्ध के लिए तैयार हो गई। सेनापति कर्ण एक दमकते रथ पर युद्ध के लिए निकल पड़ा। युद्ध भुमि में पहुंचकर कौरवों ने व्यूह बनाया। जिसके मुख के स्थान पर कर्ण उपस्थित हुआ। इस तरह व्यूह बनाकर कर्ण रण की ओर कूच किया। चित्र का वध हुआ अश्वत्थामा और भीमसेन में भयंकर युद्ध हुआ।

राजा पांड्य का भी वध हो गया।अश्वत्थामा लगातार पांडव सेना का संहार कर रहा था। 

यह देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा -पार्थ आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि द्रोण पुत्र तुम से ज्यादा पराक्रम दिखा रहा है। तुम्हारी भुजाओं में कहीं बल का अभाव तो नहीं हो गया है। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने एक ही प्रहार में अश्चत्थामा की धनुष, ध्वजा,छत्र, आदि सब नष्ट कर डाला। अश्वत्थामा बेहोश हो गया। उसका सारथि अर्जुन से उसकी रक्षा करने के लिए उसे रणभूमि से ले गया।

धृष्टद्युम्न ने क्यों दिया युधिष्ठिर की रक्षा करने का वचन?


धृष्टद्युम्न ने क्यों दिया युधिष्ठिर की रक्षा करने का वचन?
  
यदि तुम्हे अर्जुन,श्रीकृष्ण और सात्यकि मिल जाएं तो तुम सिंहनाद कर देना। भीमसेन ने कहा-महाराज जिस रथ पर पहले ब्रह्मा, वरूण और महादेव सवारी कर चुके हैं अर्जुन उस रथ पर बैठकर गए हैं। इसलिए उनके विषय में कोई संशय की बात नहीं हैं तो भी मैं आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करके जा रहा हू। मैं उन पुरुषसिंहों से मिलकर से मिलकर आपको सूचना दूंगा। धर्मराज से ऐसा कहकर वहां से चलते समय महाबली भीमसेन ने धृष्टद्युम्र से कहा, महाबाहो! महारथी द्रोण जिस प्रकार सारी युक्तियां लगाकर धर्मराज को पकडऩे पर तुले हुए हैं वह तुम्हे मालूम ही है। इसलिए मेरे लिए महाराज की रक्षा करना आवश्यक है। लेकिन धर्मराज की आज्ञा मुझे माननी होगी। सो अब तुम खूब  सावधान रहकर धर्मराज की रक्षा करना। तब धृष्टद्युम्र ने भीमसेन से कहा- पार्थ आप निश्चित होकर जाइए। मैं आपके इच्छानुसार ही सब काम करूंगा। 

द्रोणाचार्य संग्राम में धृष्टद्युम्र का वध किए बिना किसी प्रकार धर्मराज को कैद नहीं कर सकते। अब भीमसेन शत्रुओं पर अपनी भयंकरता प्रकट करते हुए चल दिए। वे अपने धनुष की डोरी खींचकर बाणों की वर्षा करते हुए कौरवसेना के अग्रभाग को कुचलने लगे। उनके पीछे-पीछे दूसरे पांचाल और सोमक वीर भी बढऩे लगे। भीमसेन बड़ी तेजी से उन्हें पीछे छोड़कर द्रोण की सेना पर टूट पड़े। उसके आगे जो गजसेना थी उस बाणों की झड़ी लगा दी। पवनकुमार भीम ने बात-बात में उस सारी को नष्ट कर डाला। भीमसेन बड़ी तेजी से उन्हें पीछे छोड़कर द्रोण की सेना पर टूट पड़े तथा उसके आगे जो गजसेना थी। उस पर बाणों की झड़ी लगा दी।

इसके बाद उन्होंने फिर बड़े जोर से द्रोणाचार्य की सेना पर धावा बोल दिया। आचार्य ने उन्हें आगे बढऩे से रोका तथा मुस्कुराते हुए एक बाण द्वार उनके ललाट पर चोट की। फिर वे बोले भीमसेन मुझे जीते बिना अपनी शक्ति द्वारा तुम शत्रु सेना में प्रवेश नहीं कर सकोगे। अब भीमसेन शत्रुओं पर अपनी भयंकरता प्रकट करते हुए चल दिए। वे अपने धनुष को डोरी खींचकर बाणों की वर्षा करते हुए कौरवसेना के अग्रभाग कुचलने लगे। उनके पीछे-पीछे दूसरे पांचाल और सोमक वीर बढऩे लगे। तब उनके सामने दु:सह, विकर्ण, शल, चित्रसेन, दीर्घबाहु, सुदर्शैन सुवर्मा आदि आपके पुत्र अनेकों सैनिक और पदतियों को लेकर आए और उन्हें चारों ओर से घेरने लगे। भीमसेन बड़ी तेजी से उन्हें पीछे छोड़कर द्रोण की सेना पर टूट पड़े। 

भीम ने युधिष्ठिर का दुख कब और कैसे दूर किया?


भीम ने युधिष्ठिर का दुख कब और कैसे दूर किया?


पवनकुमार भीम ने द्रोण की सेना को नष्ट कर डाला। सभी इधर-उधर भागने लगे। आचार्य ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका। वे भीमसेन से बोले तुम मुझे हराए बिना मेरी सेना में प्रवेश नहीं कर सकते। द्रोणाचार्य के मुंह से ऐसी बात सुनकर भीमसेन की आंखे क्रोध से लाल हो गई। उन्होंने द्रोणाचार्य पर कई बाणों की वर्षा कि ओर व्यूह में प्रवेश कर गए। 

जब उन्होंने व्यूह में प्रवेश किया। तब उन्हें सामने ही अर्जुन जयद्रथ का वध करने के लिए युद्ध करते दिखाई दिए। यह देख उन्हें बहुत प्र्रसन्नता हुई उन्होंने जोर से सिंहनाद किया। उनके साथ ही अर्जुन और श्रीकृष्ण भी सिंहनाद करने लगे। जैसे ही उनका सिंहनाद युधिष्ठिर के कानों में पड़ा वे बहुत खुश हो गए।  वे मन ही मन कहने लगे भीम तुमने खूब सुचना दी, तुमने अपने बड़े भाई की आज्ञा का पालन किया अब मेरा शोक दूर हो गया है। जो तुमसे द्वेश रखते हैं संग्राम में उनकी विजय कभी नहीं हो सकती। 

भीम ने युद्ध में कर्ण को क्यों नहीं मारा?


भीम ने युद्ध में कर्ण को क्यों नहीं मारा?

कर्ण ने जब कौरवों को मरते देखा तो वह बड़ा क्रोधित हुआ, उसे अपना जीवन भी भारी सा मालूम होने लगा। उसके देखते-देखते भीमसेन ने कौरव पुत्रों को मार डाला, इससे वह अपने को अपराधी समझने लगा। वह भीमसेन से युद्ध के लिए कूद पड़ा। इतने ही में भीमसेन ने  पहले उसे पांच बाणों से और फिर सत्तर बाणों से घायल किया।

भीमसेन उसके सारथि और घोड़ों का भी काम तमाम कर दिया और धनुष काट डाला। अब महारथी कर्ण रथ से कूद पड़ा और एक गदा उठाकर उसे बड़े क्रोध से भरकर भीमसेन के ऊपर फेंका। भीमसेन सारी सेना के सामने उसे बीच में ही बाणों से रोक दिया। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। भीमसेन के सारे अस्त्र समाप्त हो चुके थे। इसलिए उनके हाथ में जो भी आया उन्होंने कर्ण के ऊपर फेंकना शुरु कर दिया। अब भीमसेन ने घूंसा तानकर उसी से कर्ण का काम तमाम करना चाहा। लेकिन फिर अर्जुन की प्रतिज्ञा याद आ जाने से उन्होंने समर्थ हो जाने पर भी, उसे मार डालने का विचार छोड़ दिया।

अगर अर्जुन पूरी नहीं करते ये प्रतिज्ञा तो कौरव जीत जाते महाभारत


अगर अर्जुन पूरी नहीं करते ये प्रतिज्ञा तो कौरव जीत जाते महाभारत


इस प्रकार दोनों के भीषण युद्ध के चलते कर्ण ने भीम के सामने से हटने में ही भलाई समझी और दूसरी ओर सात्यकि ने भूरीश्रवा का वध कर दिया। भूरिश्रवा के परलोक को प्रस्थान करने पर महाबाहु अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा -कृष्ण चलिए अब आप जयद्रथ की ओर रथ बढ़ा लीजिए। उसके बाद अर्जुन को जयद्रथ का वध करने के लिए आगे बढ़ते देख कर्ण ने दुर्योधन से कहा- अब थोड़ा ही दिन रह गया है आज आप कैसे भी करके अर्जुन को रोक लें तो वहअपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अग्रि में प्रवेश कर जाएगा और बचे हुए पांडव हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएंगे। यह सुनकर दुर्योधन व कर्ण के साथ ही सभी कौरवों ने अपने प्रयास तेज कर दिए और अर्जुन पर बाणों की वर्षा करने लगे लेकिन अर्जुन भी प्रतिज्ञा के पक्के थे। उन्होंने सूर्यास्त से पूर्व ही सबको बाणों से बींधकर और जयद्रथ की गर्दन धड़ से अलग कर अपनी प्रतिज्ञा। पूरी की।

भीम ने ऐसा क्या कहा कि द्रोणाचार्य ने हथियार डाल दिए?


भीम ने ऐसा क्या कहा कि द्रोणाचार्य ने हथियार डाल दिए?


जब धृष्टद्युम्र ने जब आचार्य द्रोण को युद्ध के कारण शोकाकुल देखा तो धृष्टद्युम्र ने अपने तरकश में अग्रि के समान एक तेजस्वी बाण रखा। अर्जुन द्रोणाचार्य का वध करने की कामना के साथ उनसे युद्ध करने लगे। द्रोणाचार्य और उनके बीच भीषण युद्ध हुआ द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्र पर शक्ति से वार किया तो सात्यकि भी युद्ध में कूद पड़े। 

 सात्यकि ने द्रोणाचार्य के बाण को काट डाला तो दुर्योधन आदि महारथियों का बहुत दुख हुआ। वे बहुत फूर्ती से सात्यकि पर बाण छोडऩे लगे। भीमसेन ने जब सात्यकि को घिरते देखा तो उन्होंने आचार्य के रथ के पास जाकर धीरे से कहा यदि ब्राह्मण अपना काम छोड़कर युद्ध नहीं करते तो क्षत्रियों का संहार नहीं होता। ब्राह्मण होकर भी आपने चाण्डाल की तरह राजाओं का संहार कर डाला। जिसके लिए आपने हथियार उठाया है वो आपका पुत्र अश्वत्थामा तो मरा पड़ा है और युधिष्ठिर का भी यही कहना है। यह सुनकर द्रोणाचार्य शोक में डूबकर रथ की पीछे की तरफ बैठकर ध्यान मग्र हो गए और धृष्टद्युम्र ने उनकी गर्दन को काट डाला।

द्रोणाचार्य के मारे जाने के बाद अश्वत्थामा ने क्या किया?


द्रोणाचार्य के मारे जाने के बाद अश्वत्थामा ने क्या किया?

द्रोणाचार्य के वध की खबर सुनकर अश्वत्थामा क्रोधित हो गया। उसने नाराणास्त्र का प्रयोग किया। उसने पांडवों की सेना पर ऐसा प्रहार किया की सभी इधर-उधर भागने लगे। अर्जुन ने यह देखकर अश्वत्थामा से कहा तुममें जितनी वीरता है, जितनी शक्ति है, जितना प्रेम है सब आज दिखा दो। धृष्टद्युम्र का या कृष्ण सहित मेरा सामना करने आ जाओ।  आज मैं तुम्हारा सारा घमंड तोड़ दूंगा। अश्वत्थामा अर्जुन के ऐसे वचन सुनकर अश्वत्थामा क्रोधित हो उठा उसने मंत्रोच्चार कर जितने भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शत्रु थे। उनका नाश करने के लिए अस्त्र छोड़ा। पांडव सेना जलने लगी। अश्वत्थामा ने अमर्ष भरकर उस समय जैसे अस्त्र का प्रहार किया था, वैसा किसी ने पहले नहीं किया था। 

अर्जुन ने अश्वत्थामा के अस्त्र का नाश करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। फिर तो एक क्षण में ही अश्वत्थामा के  प्रहार से जो अंधकार फैल गया था वह दूर हो गया चारों और प्रकाश फैल गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने शंखनाद किया और ज्वाला से मुक्त होकर अर्जुन का रथ वहां शोभा पाने लगा। पाण्डवों के हर्ष की सीमा न रही। वे शंख और भेरी बजाने लगे। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी शंखनाद किया। जब अश्वत्थामा ने ये देखा तो वह रथ से कूदकर रणभूमि से भागचला। उसे रास्ते में भगवान व्यास दिखे जिन्हें उसने प्रणाम किया।

अश्वत्थामा का अस्त्र क्यों नहीं दिखा पाया अर्जुन पर अपना असर?


अश्वत्थामा का अस्त्र क्यों नहीं दिखा पाया अर्जुन पर अपना असर?


वह रूका उसने व्यासजी से पूछा-भगवन् इसे माया कहें या देव की इच्छा मेरी समझ में नहीं आता-यह सब क्या हो रहा है। यह अस्त्र झूठा कैसे हुआ? मुझसे कौन सी गलती हो गई है। यह संसार के किसी उलट-फेर की सूचना है। 

जिससे कृष्ण और अर्जुन जीवित बच गए हैं। मेरे चलाए गया अस्त्र इतनी जल्दी कैसे शांत  हो गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन का में वध करना चाहता था लेकिन इनका वध क्यों नहीं हुआ? आप मेरे प्रश्रों का ठीक-ठीक उत्तर दीजिए।

यह बात सुनकर व्यासजी बोले- तू जिसके संबंध में आश्चर्य के साथ प्रश्र कर रहा है वह बड़ा महत्वपूर्ण विषय है। कृष्ण और अर्जुन कोई मनुष्य नहीं बल्कि स्वयं नर और नारायण हैँ। वेदव्यासजी की बातें सुनकर मन ही मन अश्चत्थामा ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। उसने रोमांचित शरीर से व्यासजी को प्रणाम किया और सेना को शिविर में जाने की आज्ञा दी।