गुरुवार, 22 अगस्त 2013

केवल शिखण्डी ही क्यों मार सकता था भीष्म को?

केवल शिखण्डी ही क्यों मार सकता था भीष्म को?


परशुरामजी ने अम्बा को बुलाकर उससे कहा मैं युद्ध हार गया हूं। अब तू भीष्म की शरण में चली जा इसके अलावा मुझे कोई उपाय नहीं सुझ रहा है। तब अम्बा ने कहा आपने जैसा कहा ठीक है। आपने अपने बल और उत्साह के अनुसार मेरा काम करने में कोई कसर नहीं रखी है। लेकिन आप अंत में भीष्म से जीत नहीं सके तो फिर मैं किस तरह भीष्म के पास जाऊंगी। अब मैं ऐसी जगह जाऊंगी जहां रहने से मैं खुद भीष्म का युद्ध में संहार कर सकूं। ऐसा कहकर वह कन्या भीष्म नाश के लिए तप का विचार करके वहां से चली गई। परशुरामजी सभी मुनियों के साथ महेन्द्रगिरी पर्वत चले गए। यह सारा समाचार मैंने आकर माता को सुना दिया। उन्होंने उस कन्या के समाचार लाने के लिए कुछ लोग नियुक्त कर दिए।

कुरुक्षेत्र से वह कन्या यमुना तट के एक आश्रम पर आ गई। वह छ: महीने तक निराहर रहकर यमुनाजल में तपस्या करने लगी। इसके बाद वह आठवें या दसवें महीने पानी पीकर निर्वाह करने लगी। तपस्या के प्रभाव से उसका आधे शरीर से तो अम्बा नदी हो गई और आधे शरीर से वत्स देश की राजा की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई। वह उस जन्म में फिर तपस्या करने लगी। तपस्वियों ने घोर तप देख उसे रोका। वे अम्बा से बोले तुझे क्या चाहिए? अम्बा ने कहा मैंने सिर्फ  भीष्म का नाश करने के लिए ही तपस्या की है। तभी वहां शंकरजी प्रकट हुए और उन्होंने अम्बा से वर मांगने को कहा- अम्बा ने भीष्म को हराने का वरदान मांगा। वह बोली भगवान में तो स्त्री हूं। मेरा हृदय शौर्यहीन है तो मैं फिर युद्ध में भीष्म से कैसे जीत सकूंगी? भगवान ने कहा तू अगले जन्म में द्रुपद के यहां कन्या रूप में जन्म लेगी और कुछ समय के बाद तू पुरुष हो जाएगी। इस तरह तेरे हाथों ही भीष्म का वध होगा। अम्बा ने शंकर भगवान से ऐसा वरदान पाकर अगले जन्म में शिखण्डी के रूप में जन्म लिया।

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