रविवार, 9 दिसंबर 2012

दुर्योधन और भीम का युद्ध देख आया बलरामजी को गुस्सा



दुर्योधन और भीम का युद्ध देख आया बलरामजी को गुस्सा



अर्जुन श्रीकृष्ण का इशारा समझ गए। उन्होंने भीमसेन की ओर देखकर उनकी जंघाओं की तरफ इशारा किया। भीमसेन समझ गए। दोनों का युद्ध चलता रहा। दुर्योधन के थोड़ा कमजोर पडऩे पर भीमसेन ने उसकी जंघाओं पर प्रहार किया। लेकिन यह युद्ध के नियमों के खिलाफ था। जब बलराम ने यह देखा कि दुर्योधन  के साथ अधर्म किया जा रहा है तो वे अन्याय देखकर चुप न रह सके। उन्होंने कहा कि भीमसेन तुम्हे धित्कार है। बड़े अफसोस की बात है कि इस युद्ध के नियमों का पालन न करके आप नाभि के नीचे प्रहार कर रहे हें।

इसके बाद इन्होंने दुर्योधन की ओर दृष्टिपात किया, उसकी दशा देख उनकी आंखे क्रोध से लाल हो गई। वे कृष्ण से कहने लगे- कृष्ण दुर्योधन मेरे समान बलवान है इसकी समानता करने वाला कोई नहीं है। आज अन्याय करके दुर्योधन ही नहीं गिराया गया है बल्कि धर्म की अवहेलना हुई है ।  तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि जब दुर्योधन ने द्रोपदी के साथ दुर्व्यवहार किया था तब भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि वे अपनी गदाओं से दुर्योधन की जंघाओं को तोड़ देंगे। इसीलिए प्रतिज्ञा की पूर्ती के लिए उसकी जंघाओं पर वार किया गया है  |

अर्जुन के रथ का भस्म होना


अर्जुन के रथ का भस्म होना 

दुर्योधन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख पांडव व पांचालों को बड़ी प्रशंसा हुई। वे सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष टंकारा तो कोई शंख बजाने लगा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने कहा मरे हुए शत्रु को अपनी कठोर बातों से फिर मारना उचित नहीं है। कृष्ण बोले यह मर तो उसी दिन गया था जब इसने लज्जा को त्यागकर पापियों के समान काम करना शुरू कर दिया था। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब नरेश अपने-अपने शंख बजाते हुए शिविर को चले गए। सब लोग पहले दुर्योधन की छावनी में गए वहां कुछ बूढ़े मंत्री और किन्नर बैठे थे बाकि रानियों के साथ राजधानी चले गए थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- तुम स्वयं उतरकर अपने अक्षय तरकस व धनुष को भी रथ से उतार लो। इसके बाद में उतारूंगा यही करने में तुम्हारी भलाई है। अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर भगवान ने घोड़ों की बागडोर छोड़ दी और स्वयं भी रथ से उतर पड़े। जैसे ही कृष्ण रथ से उतरे ही उस रथ पर बैठा हुआ दिव्य कपि अंर्तध्यान हो गया।

उसके सारे उपकरण व धुरी लगाम, घोड़े जलकर नष्ट हो गए। यह देख सभी पांडवों को बहुत आश्चर्य हुआ। यह देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा हे प्रभु यह क्या आश्चर्य जनक घटना हो गई। एकाएक रथ क्यों जल गया? यदि मेरे सुनने योग्य हो तो इसका कारण बताइए। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन लड़ाई  में बहुत तरह के अस्त्रों के आघात से यह रथ तो पहले ही जल चुका था। सिर्फ बैठे रहने के कारण भस्म नहीं हुआ था। जब तुम्हारा सारा काम पूरा हो गया तब मैंने इस रथ को छोड़ा और यह भस्म हो गया ।

युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजना


युधिष्ठिर द्वारा  श्रीकृष्ण को  हस्तिनापुर भेजना 

उसके बाद सभी पांडव व  वीर जब दुर्योधन की छावनी में घुसकर खजाना, रत्नों की ढेरी व भंडार घर पर अधिकार कर लिया। चांदी, सोना, मोती, मणि अच्छे-अच्छे आभूषण बढिय़ा कंबल, मृगचर्म और राज्य के बहुत सारे सामान वहां से हाथ लगे। उस समय आपके अक्षय धन का भंडार पाकर पांडव खुशी के मारे उछल पड़े।

श्रीकृष्ण ने कहा-आज की रात में हम लोगों को अपने मंगल के लिए छावनी के बाहर रहना चाहिए। बहुत अच्छा कहकर पांडव श्रीकृष्ण और सात्यकि के साथ छावनी से बाहर निकल गए। उन्होंने परम पवित्र ओघवती नदी के किनारे वह रात बिताई। उस समय राजा युधिष्ठिर ने  कर्तव्य विचार करके कहा- माधव एक बार क्रोध से भरी हुई गांधारी देवी को शांत करने के लिए आपको हस्तिनापुर जाना चाहिए यही उचित जान पड़ता है। 

धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर श्रीकृष्ण गांधारी के पास गए। जन्मजेय ने पूछा- धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को गांधारी के पास क्यों भेजा? जब पहले वे संधि कराने के लिए कौरवों के पास गए थे, उस समय तो उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई।

उन्होंने ही युद्ध करने पर पांडवों को मजबूर किया तो फिर भगवान श्रीकृष्ण को गांधारी को शांत करने क्यों जाना पड़ा? ये सुनकर वैशम्पायनजी ने कहा- राजा तुमने जो प्रश्न किया है वह बिल्कुल सही है। मैं इसका यार्थाथ कारण बताता हूं सुनो। भीमसेन ने गदायुद्ध के नियम का उल्लंघन करके दुर्योधन को मारा यह देखकर महाराज युधिष्ठिर को बड़ा भय हुआ। उन्हें यही लगा कि अपने पुत्र की अन्याय पूर्वक वध की बात सुनकर कहीं वे अपने मन से अग्रि प्रकट कर हमें भस्म न कर डालें इसीलिए उन्होंने श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजा।

गांधारी का क्रोध


गांधारी का क्रोध 


इसके बाद पांडव श्रीकृष्ण के साथ गांधारी के पास आए। पांडवों के प्रति गांधारी के मन में पाप है यह ताड़कर महर्षि व्यास पहले ही ताड़ गए थे। इसलिए वे बड़ी तेजी से वहां  आ पहुंचे। वे दिव्य दृष्टि से अपने मन की एकाग्रता से सभी प्राणियों के आंतरिक भाव समझ लेते थे। इसलिए गांधारी के पास जाकर उससे कहने लगे गांधारी तुम पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर क्रोध मत करो, शांत हो जाओ। तुम जो बात मुंह से निकालना चाहते हो उसे रोक लो और मेरी बात पर ध्यान दो। पिछले अठारह दिनों में तुम्हारा विजयभिलाषी पुत्र रोज ही तुम से यह प्रार्थना करता था कि मैं शत्रुओं के साथ संग्राम करने के लिए जा रहा हूं। माताजी! मेरे कल्याण के लिए आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर तुम हर बार यही कहती थी कि जहां धर्म है, वहीं विजय है।

इस प्रकार पहले तुम्हारे मुंह से जो सच्ची बात निकलती थी, वह मुझे याद आती है। गांधारी ने कहा भगवान पांडवों के प्रति मेरा कोई दुर्भाव नहीं है और मैं इनका नाश ही चाहती हूं।लेकिन पुत्रशोक के कारण मेरा मन जबरदस्ती व्याकुल सा हो रहा है। इन कुंतीपुत्रों की रक्षा करना जैसा कुंती का  कर्तव्य है वैसे ही महाराज का भी और मेरा भी। कौरवों ने अभिमानी बनकर युद्ध किया। लेकिन साहसी भीम ने दुर्योधन को गदायुद्ध के लिए बुलाकर फिर कृष्ण के सामने ही उसकी नाभि के नीचे गदा पर चोट की इस अनुचित कार्य ने मेरा क्रोध भड़का दिया। गांधारी की यह बात सुनकर भीमसेन ने बहुत डरते-डरते उससे विनयपूर्वक कहा माताजी यह धर्म हो अथवा अधर्म मैंने तो डरकर अपनी रक्षा के लिए ही ऐसा किया था सो अब आप क्षमा करें।


गांधारी ने कहा भैया तुम मेरे पुत्र की ऐसी प्रशंसा कर रहे हो , यह तो उसका वध नहीं कहा जा सकता। लेकिन तुमने संग्राम भूमि पर दु:शासन का खून पिया, उस काम की तो सभी सत्पुरुष निंदा करेंगे। ऐसा काम आर्यपुरुष कभी नहीं करते। भीमसेन बोले-माताजी आप चिंता न करें। वह खून मेरे दांत व ओंठो से आगे नहीं गया। इस बात को कर्ण जानता था। मैंने तो अपने हाथ खून में सान लिए थे। जब द्युतक्रीडा के समय दु:शासन ने द्रोपदी के केश पकड़े थे। उसी समय क्रोध में भरकर मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर चुका था। यदि मैं उसे पूरा न करता तो अनन्त वर्षों तक क्षात्रधर्म पतित समझा जाता। इसीलिए मैंने यह काम किया। गांधारी ने कहा भीम अब हम बूढ़े हो गए हैं। हमारा राज्य भी तुमने छिन लिया।

ऐसे में तुम हम दो अंधों के सहारे के लिए एक पुत्र को भी जीवित क्यों नहीं छोड़ा? यदि तुम मेरे एक पुत्र को भी छोड़ देते तो तुम्हारे कारण मैं इतना दुख न पाती, यही समझ लेती कि तुमने अपने धर्म का पालन किया।भीमसेन के  ऐसा कहने पर पुत्र-पुत्रों के नाश से पीडि़त गांधारी गुस्से से भरकर बोली-राजा युधिष्ठिर कहां है यह सुनते ही धर्मराज भय से कांपते हुए हाथ जोड़े उसके सामने आए और बहुत ही मीठी वाणी में बोले आपके पुत्रों का संहार करने वाला मैं क्रूरकर्मा युधिष्ठिर सामने खड़ा हूं। युधिष्ठिर ने गांधारी के पैरों में गिरकर माफी मांगी।

महाराज युधिष्ठिर गांधारी के पास खड़े हुए ये सब बातें कह गए। लेकिन गांधारी के मुंह से कोई बात नहीं निकली वह गहरी सांसे लेने लगी। वे झुककर उसके चरणों में गिरना ही चाहते थे कि दिर्घदर्शिनी गांधारी की दृष्टि पट्टी में से होकर उनके नाखुनों पर पड़ी। इससे उनके सुंदर नाखून उसी समय काले पड़ गए।

यह देखते ही अर्जुन तो श्रीकृष्ण के पीछे खसक गए और भाई भी इधर-उधर छिपने लगे। उन्हें इस प्रकार कसमसाते देखकर गांधारी का क्रोध ठंडा पड़ गया। उसने माता के सामान उन्हें धीरज दिया। फिर उसकी आज्ञा पाकर वे अपनी माता कुंती के पास गए। कुन्ती ने अपने पुत्रों को बहुत दिनों बाद देखा था। इसलिए उनके कष्टों का स्मरण करके उसका दिल भर आया और वह अंचल से मुंह ढंककर आंसू बहाने लगी।

उसके साथ पांडवों को आंखों में भी आंसू आ गए। उसने प्रत्येक पुत्र के अंगों पर बार-बार हाथ फेरकर देखा। सभी के शरीर शस्त्रों  की चोंट से घायल हो रहे थे। पुत्रहीन द्रोपदी को देखकर तो उसे बड़ा ही दुख हुआ। उसने देखा कि पांचालकुमारी पृथ्वी पर पड़ी हुई रो रही है। द्रोपदी कह रही थी आर्ये! अभिमन्यु सहित मेरे सभी पौत्र कहा चले गए जब मेरे बच्चे ही नहीं बचें तो मैं राज्य लेकर क्या करूंगी। तब कुंती ने उसे धैर्य बंधाया। इसे बाद वह शौकाकुल द्रोपदी को उठाकर अपने साथ ले गांधारी के पास आई। उसके साथ ही सभी पांडव भी वहां पहुंचे।


गांधारी द्वारा श्रीकृष्ण को शाप


गांधारी द्वारा श्रीकृष्ण को शाप

दुर्योधन को मरा हुआ देखते ही गांधारी जमीन पर गिर  पड़ी। होश आने पर जब उसने दुर्योधन को खून में लथपथ हुए पृथ्वी पर पड़ा देखा तो वह उससे लिपटकर रोने लगी। फिर गांधारी रोते हुए श्रीकृष्ण से कहने लगी जब यह बंधुओं का विध्वंस करने वाला संग्राम शुरु हो गया था। तब दुर्योधन ने मुझसे कहा था माता मुझे आशीर्वाद दो कि उस में मेरी विजय हो। तब मैंने यही कहा था कि जय तो वहीं रहती है जहां धर्म रहता है। देखो तो जो दुर्योधन सब राजाओं से आगे चलता था वही आज मरा पड़ा है।

आज उसके भी बाल बिखरे हुए हैं। श्रीकृष्ण तुम मेरी यह पुत्रवधु व लक्ष्मण की माता की दशा तो देखो। कुछ भी हो यदि वेद व शास्त्र सच्चे हैं तो दुर्योधन ने अवश्य ही अपने बाहुबल व प्रताप से अविनाशी लोक को प्राप्त किया है। देखो इधर मेरे सौ पुत्र पड़े हैं। इन सबको भीमसेन ने अपनी गदा से पछाड़ा है। मुझे तो इसी कारण अधिक दुख होता है। इस तरह सभी वीरों के बारें में विलाप करते हुए गांधारी क्रोध से भर गई। उसने श्रीकृष्ण से कहा माधव तुम चाहते तो इस युद्ध को रोक सकते थे। मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुमने कौरव और पांडवों दोनों भाइयों के आपस में प्रहार करते समय उपेक्षा कर दी थी। इसीलिए तुम भी अपने बंधु व बांधवों का वध करोगे। आज से छतीसवे वर्ष में तुम्हारे भी बंधुओं और पुत्रों का नाश हो जाएगा। तुम साधारण कारण से एक अनाथ की तरह मारे जाओगे।

श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा मैं तो जानता था कि यह बात इसी प्रकार होनी है। तुमने जो कुछ होना था। उसी के लिए शाप दिया है। इसमें संदेह नहीं, वृष्णिवंशियों का नाश दैवी कौप से ही होगा। इनका नाश करने में भी मेरे सिवा और कोई समर्थ नहीं है। मनुष्य तो क्या, देवता या असुर भी इनका संहार नहीं कर सकते। इसलिए ये यदुवंशी आपस के कलह से ही नष्ट होंगे। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर पाण्डवों को बहुत डर लगा। वे बहुत व्याकुल हो गए। उन्हें अपने जीवन की आशा भी नहीं रही।

श्रीकृष्ण कहने लगे- गांधारी उठो, उठो, मन में शोक मत करो। इन कौरवों का संहार तो तुम्हारे ही अपराध से हुआ है। तुम अपने दुष्ट पुत्रों को बड़ा साधु समझती थी। दुर्योधन जो कि बहुत ही आज्ञा का उल्लंघन करने वाला था, उसी दुर्योधन को तुमने सिर पर चढ़ा रखा था। फिर अपने किए हुए अपराध को तुम मेरे माथे क्यों मढ़ती हो? वैशम्पायनजी कहते हैं- श्रीकृष्ण के ये अप्रिय वचन सुनकर गांधारी चुप रह गई। फिर धर्म को जानने वाले राजर्षि धृतराष्ट्र ने अपने अज्ञानजनित मोह को दबाकर धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा-युधिष्ठिर इस युद्ध में जो सेना मारी गई। उसके परिणामस्वरूप का तुम्हे पता हो तो हमें बताओ। युधिष्ठिर ने कहा-महाराज इस युद्ध में एक अरब छाछट करोड़ वीर मारे गए हैं। इनके सिवा चौदह हजार योद्धा अज्ञात हैं और दस हजार एक सौ पैंसठ वीरों का और भी पता नहीं है। धृतराष्ट्र ने कहा महाबाहो मैं तुम्हे सर्वज्ञ मानता हूं। इसलिए यह बताओ उन सबकी गति क्या होगी। युधिष्ठिर बोले जिन्होंने अपने शरीर को होषपूर्वक होमा है, वे तो इन्द्र के समान ही पुण्यलोंको को प्राप्त हुए हैं।