रविवार, 9 दिसंबर 2012

गांधारी का क्रोध


गांधारी का क्रोध 


इसके बाद पांडव श्रीकृष्ण के साथ गांधारी के पास आए। पांडवों के प्रति गांधारी के मन में पाप है यह ताड़कर महर्षि व्यास पहले ही ताड़ गए थे। इसलिए वे बड़ी तेजी से वहां  आ पहुंचे। वे दिव्य दृष्टि से अपने मन की एकाग्रता से सभी प्राणियों के आंतरिक भाव समझ लेते थे। इसलिए गांधारी के पास जाकर उससे कहने लगे गांधारी तुम पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर क्रोध मत करो, शांत हो जाओ। तुम जो बात मुंह से निकालना चाहते हो उसे रोक लो और मेरी बात पर ध्यान दो। पिछले अठारह दिनों में तुम्हारा विजयभिलाषी पुत्र रोज ही तुम से यह प्रार्थना करता था कि मैं शत्रुओं के साथ संग्राम करने के लिए जा रहा हूं। माताजी! मेरे कल्याण के लिए आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर तुम हर बार यही कहती थी कि जहां धर्म है, वहीं विजय है।

इस प्रकार पहले तुम्हारे मुंह से जो सच्ची बात निकलती थी, वह मुझे याद आती है। गांधारी ने कहा भगवान पांडवों के प्रति मेरा कोई दुर्भाव नहीं है और मैं इनका नाश ही चाहती हूं।लेकिन पुत्रशोक के कारण मेरा मन जबरदस्ती व्याकुल सा हो रहा है। इन कुंतीपुत्रों की रक्षा करना जैसा कुंती का  कर्तव्य है वैसे ही महाराज का भी और मेरा भी। कौरवों ने अभिमानी बनकर युद्ध किया। लेकिन साहसी भीम ने दुर्योधन को गदायुद्ध के लिए बुलाकर फिर कृष्ण के सामने ही उसकी नाभि के नीचे गदा पर चोट की इस अनुचित कार्य ने मेरा क्रोध भड़का दिया। गांधारी की यह बात सुनकर भीमसेन ने बहुत डरते-डरते उससे विनयपूर्वक कहा माताजी यह धर्म हो अथवा अधर्म मैंने तो डरकर अपनी रक्षा के लिए ही ऐसा किया था सो अब आप क्षमा करें।


गांधारी ने कहा भैया तुम मेरे पुत्र की ऐसी प्रशंसा कर रहे हो , यह तो उसका वध नहीं कहा जा सकता। लेकिन तुमने संग्राम भूमि पर दु:शासन का खून पिया, उस काम की तो सभी सत्पुरुष निंदा करेंगे। ऐसा काम आर्यपुरुष कभी नहीं करते। भीमसेन बोले-माताजी आप चिंता न करें। वह खून मेरे दांत व ओंठो से आगे नहीं गया। इस बात को कर्ण जानता था। मैंने तो अपने हाथ खून में सान लिए थे। जब द्युतक्रीडा के समय दु:शासन ने द्रोपदी के केश पकड़े थे। उसी समय क्रोध में भरकर मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर चुका था। यदि मैं उसे पूरा न करता तो अनन्त वर्षों तक क्षात्रधर्म पतित समझा जाता। इसीलिए मैंने यह काम किया। गांधारी ने कहा भीम अब हम बूढ़े हो गए हैं। हमारा राज्य भी तुमने छिन लिया।

ऐसे में तुम हम दो अंधों के सहारे के लिए एक पुत्र को भी जीवित क्यों नहीं छोड़ा? यदि तुम मेरे एक पुत्र को भी छोड़ देते तो तुम्हारे कारण मैं इतना दुख न पाती, यही समझ लेती कि तुमने अपने धर्म का पालन किया।भीमसेन के  ऐसा कहने पर पुत्र-पुत्रों के नाश से पीडि़त गांधारी गुस्से से भरकर बोली-राजा युधिष्ठिर कहां है यह सुनते ही धर्मराज भय से कांपते हुए हाथ जोड़े उसके सामने आए और बहुत ही मीठी वाणी में बोले आपके पुत्रों का संहार करने वाला मैं क्रूरकर्मा युधिष्ठिर सामने खड़ा हूं। युधिष्ठिर ने गांधारी के पैरों में गिरकर माफी मांगी।

महाराज युधिष्ठिर गांधारी के पास खड़े हुए ये सब बातें कह गए। लेकिन गांधारी के मुंह से कोई बात नहीं निकली वह गहरी सांसे लेने लगी। वे झुककर उसके चरणों में गिरना ही चाहते थे कि दिर्घदर्शिनी गांधारी की दृष्टि पट्टी में से होकर उनके नाखुनों पर पड़ी। इससे उनके सुंदर नाखून उसी समय काले पड़ गए।

यह देखते ही अर्जुन तो श्रीकृष्ण के पीछे खसक गए और भाई भी इधर-उधर छिपने लगे। उन्हें इस प्रकार कसमसाते देखकर गांधारी का क्रोध ठंडा पड़ गया। उसने माता के सामान उन्हें धीरज दिया। फिर उसकी आज्ञा पाकर वे अपनी माता कुंती के पास गए। कुन्ती ने अपने पुत्रों को बहुत दिनों बाद देखा था। इसलिए उनके कष्टों का स्मरण करके उसका दिल भर आया और वह अंचल से मुंह ढंककर आंसू बहाने लगी।

उसके साथ पांडवों को आंखों में भी आंसू आ गए। उसने प्रत्येक पुत्र के अंगों पर बार-बार हाथ फेरकर देखा। सभी के शरीर शस्त्रों  की चोंट से घायल हो रहे थे। पुत्रहीन द्रोपदी को देखकर तो उसे बड़ा ही दुख हुआ। उसने देखा कि पांचालकुमारी पृथ्वी पर पड़ी हुई रो रही है। द्रोपदी कह रही थी आर्ये! अभिमन्यु सहित मेरे सभी पौत्र कहा चले गए जब मेरे बच्चे ही नहीं बचें तो मैं राज्य लेकर क्या करूंगी। तब कुंती ने उसे धैर्य बंधाया। इसे बाद वह शौकाकुल द्रोपदी को उठाकर अपने साथ ले गांधारी के पास आई। उसके साथ ही सभी पांडव भी वहां पहुंचे।


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