सोमवार, 24 जून 2013

क्यों बहाया गंगा ने अपने पुत्रों को नदी में ?


क्यों बहाया गंगा ने अपने पुत्रों को नदी में ?

दुष्यंत व शकुंतला का पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट बना। भरत के वंश में आगे जाकर प्रतीप नामक राजा हुए। प्रतीप के बाद उनके पुत्र शांतनु राजा हुए। एक बार शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगातट पर जा पहुंचे। उन्होंने वहां एक परम सुंदर स्त्री देखी। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए। शांतनु ने उसका परिचय पूछते हुए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा। उस स्त्री ने इसकी स्वीकृति दे दी लेकिन एक शर्त रखी कि आप कभी भी मुझे किसी भी काम के लिए रोकेंगे नहीं अन्यथा उसी पल मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी। 

शांतनु ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा उस स्त्री से विवाह कर लिया। इस प्रकार दोनों का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा। समय बीतने पर शांतनु के यहां सात पुत्रों ने जन्म लिया लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया। शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाएं क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी। 

आठवां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही है? उस स्त्री ने बताया कि वह गंगा है तथा जिन पुत्रों को उसने नदी में डाला था वे वसु थे जिन्हें वसिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था। उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया। आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका इसलिए मैं अब जा रही हूं। ऐसा कहकर गंगा शांतनु के आठवें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई। 

जब दुर्योधन ने भीम को विष पिलाया


जब दुर्योधन ने भीम को विष पिलाया

हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों को वैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया। 

दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई। 

तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।

क्यों हुई महाराज पाण्डु की मौत... ?


क्यों हुई महाराज पाण्डु की मौत... ?

पाण्डवों के जन्म के पश्चात पाण्डु अपने पत्नियों के साथ तपस्वियों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन जब पाण्डु व माद्री अकेले वन में घुम रहे थे तभी पाण्डु के मन में कामभाव का संचार हो गया और उन्होंने माद्री को बलपूर्वक पकड़ लिया। माद्री ने पाण्डु को रोकने की कोशिश की लेकिन तब तक ऋषि किंदम के श्राप के प्रभाव से पाण्डु ने प्राण त्याग दिए। माद्री यह देखकर रोने लगी। तभी वहां कुंती व पांचों पाण्डव भी आ गए। तब माद्री ने सारी बात कुंती को बताई तो वे भी पाण्डु के शव से लिपटकर विलाप करने लगीं।जब पाण्डु के अंतिम संस्कार का समय आया तो कुंती पाण्डु के साथ सती होने लगी तभी माद्री ने कुंती को रोका और स्वयं सती होने का हठ करने लगी तथा पाण्डु की चिता पर चढ़ कर सती हो गई।

पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। पाण्डु की मृत्यु के कुछ दिन बाद महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए और उन्होंने विपरीत समय आता देख माता सत्यवती तथा अंबिका व अंबालिका को वन में जाने का निवेदन किया। तब वे तीनों वन में चली गई और तप करते हुए अपने शरीर का त्याग कर दिया। 

कैसे हुआ पाण्डवों का जन्म?


कैसे हुआ पाण्डवों का जन्म?

ऋषि किंदम की मृत्यु का प्रायश्चित करने के लिए जब पाण्डु कुंती व माद्री के साथ वन में रहने लगे तो उन्हें संतान न होने की चिंता सताने लगी। जब यह बात कुंती को पता चली तो उन्होंने पाण्डु को ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए मंत्र की बात बताई। यह जानकर पाण्डु अत्यंत प्रसन्न हुए।तब पाण्डु ने कुंती से कहा कि तुम धर्मराज (यमराज) का आवाहन करो। कुंती ने धर्मराज का आवाहन किया। मंत्र के प्रभाव से धर्मराज तुरंत वहां उपस्थित हुए और उनके आशीर्वाद से कुंती को गर्भ रहा। समय आने पर कुंती ने युधिष्ठिर को जन्म दिया। 

इसके बाद कुंती ने पाण्डु की इच्छानुसार वायुदेव का स्मरण किया। वायुदेव की कृपा से महाबली भीम का जन्म हुआ। इसके बाद कुंती ने देवराज इंद्र का आवाहन किया। इंद्र की कृपा से अर्जुन का जन्म हुआ। तभी आकाशवाणी हुई कि यह बालक भगवान शंकर व इंद्र के समान पराक्रमी होगा। यह अनेक राजाओं को पराजित कर तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा। तब एक दिन पाण्डु ने कुंती से कहा कि तुम वह मंत्र जो तुम्हें ऋषि दुर्वासा ने दिया है, माद्री को भी बताओ जिससे यह भी पुत्रवती हो सके। 

कुंती ने माद्री को वह मंत्र बताया। तब माद्री ने अश्विनकुमारों का चिंतन किया। अश्विनकुमारों ने आकर माद्री को गर्भस्थापन किया, जिससे माद्री को जुड़वा पुत्र नकुल व सहदेव हुए। इस प्रकार कुंती के गर्भ से युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन तथा माद्री से गर्भ से नकुल व सहदेव का जन्म हुआ। तब पाण्डु अपने पुत्रों व पत्नियों के साथ वन में प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।

जब कुंती ने पाण्डु को बताया मंत्र का रहस्य


जब कुंती ने पाण्डु को बताया मंत्र का रहस्य

ऋषि किंदम के श्राप के कारण पाण्डु वानप्रस्थाश्रम के अनुसार कुंती व माद्री के साथ गंदमादन पर्वत पर रहने लगे। पाण्डु वहां रहते हुए प्रतिदिन तप किया करते और कुंती व माद्री उनकी सेवा करती थी। एक बार पाण्डु ने देखा कि बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि कहीं जा रहे थे। पाण्डु के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे ब्रह्माजी के दर्शन के लिए ब्रह्मलोक की यात्रा कर रहे हैं। यह बात जानकर पाण्डु भी अपनी पत्नियों के साथ उनके पीछे चलने लगे। लेकिन फिर पाण्डु ने सोचा कि संतानहीन के लिए तो स्वर्ग के द्वार बंद है। यह सोचकर वे सोच में पड़ गए। 

तब ऋषियों ने दिव्य दृष्टि से देखकर बताया कि पाण्डु आपके देवताओं के समान पुत्र होंगे और तब आप स्वर्ग जा सकेंगे। किंतु पाण्डु यह जानते थे कि किंदम ऋषि के श्राप के कारण वे सहवास नहीं कर सकते। इसी सोच में पाण्डु एक दिन बैठे थे तभी कुंती वहां आई और उसने पाण्डु से परेशानी का कारण पूछा। पाण्डु ने सारी बात कुंती को बता दी। तब कुंती ने पाण्डु को बताया कि बालपन में मैंने दुर्वासा ऋषि की खूब सेवा की थी जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे एक मंत्र दिया था जिसके स्मरण से मैं किसी भी देवता का आवाहन कर सकती हूं और उसी की कृपा से मुझे संतान उत्पन्न होगी। यह बात सुनकर पाण्डु अत्यंत प्रसन्न हुए।

ऋषि किंदम ने क्यों दिया पाण्डु को श्राप?


ऋषि किंदम ने क्यों दिया पाण्डु को श्राप?

राजा पाण्डु एक बार वन में घूम रहे थे। तभी उन्हें हिरनों का एक जोड़ा दिखाई दिया। पाण्डु ने निशाना साधकर उन पर पांच बाण मारे, जिससे हिरन घायल हो गए। वास्तव में वह हिरन किंदम नामक एक ऋषि थे जो अपनी पत्नी के साथ विहार कर रहे थे। तब किंदम ऋषि ने अपने वास्तविक स्वरूप में आकर पाण्डु को श्राप दिया कि तुमने अकारण मुझ पर और मेरी तपस्नी पत्नी पर बाण चलाए हैं जब हम विहार कर रहे थे। अब तुम जब भी अपनी पत्नी के साथ सहवास करोगे तो उसी समय तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी तथा वह पत्नी तुम्हारे साथ सती हो जाएगी। 

इतना कहकर किंदम ऋषि ने अपनी पत्नी के साथ प्राण त्याग दिए। ऋषि की मृत्यु होने पर पाण्डु को बहुत दु:ख हुआ। ऋषि की मृत्यु का प्रायश्चित करने के उद्देश्य से पाण्डु ने सन्यास लेने का विचार किया। जब कुंती व माद्री को यह पता चला तो उन्होंने पाण्डु को समझाया कि वानप्रस्थाश्रम में रहते हुए भी आप प्रायश्चित कर सकते हैं। पाण्डु को यह सुझाव ठीक लगा और उन्होंने वन में रहते हुए ही तपस्या करने का निश्चय किया। पाण्डु ने ब्राह्मणों के माध्यम से यह संदेश हस्तिनापुर भी भेजा। यह सुनकर हस्तिनापुरवासियों को बड़ा दु:ख हुआ। तब भीष्म ने धृतराष्ट्र को राजा बना दिया। उधर पाण्डु अपनी पत्नियों के साथ गंधमादन पर पर्वत पर जाकर ऋषिमुनियों के साथ साधना करने लगे। 

यह हैं धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के नाम


यह हैं धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के नाम

महर्षि वेदव्यास के कथनानुसार गांधारी के पेट से निकले मांस पिण्ड से सौ पुत्र व एक पुत्री ने जन्म लिया। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार उनके नाम यह हैं-

गांधारी का सबसे बड़ा पुत्र था दुर्योधन। उसके बाद दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुद्र्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मुर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मुद, दुर्विगाह, विवित्सु, विकटानन, ऊर्णनाभ, सुनाभ, नंद, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, आयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुंडल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवद्र्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृंदारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध, जरासंध, सत्यसंध, सद:सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त, सुहस्त, बातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, अग्रयायी, कवची, क्रथन, कुण्डी, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृढऱथाश्रय, अनाधृत्य, कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ, प्रमाथी, दीर्घरोमा, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरस्क, कनकध्वज, कुण्डाशी और विरजा। 

गांधारी की पुत्री का नाम दुश्शला था जिसका विवाह राजा जयद्रथ के साथ हुआ था।

कैसे हुआ कौरवों का जन्म ?


कैसे हुआ कौरवों का जन्म ?

एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए। गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला। 

महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को। जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। 

व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुण्डों में डाल दो। अब इन कुण्डों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।

कर्ण को सूर्यपुत्र क्यों कहते हैं?


कर्ण को सूर्यपुत्र क्यों कहते हैं?

महाभारत में कई ऐसे पात्र हैं जो अलग-अलग बातों के लिए जानें जाते हैं। ऐसे ही एक पात्र हैं कर्ण, जो अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। कर्ण को सूर्यपुत्र भी कहते हैं। कर्ण के जन्म का पूरा वृतांत महाभारत के आदिपर्व में है। 

यदुवंशी राजा शूरसेन की एक कन्या थी जिसका नाम पृथा था। इस कन्या को शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन पुत्र कुंतीभोज को दे दिया। इस प्रकार पृथा कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुंती जब छोटी थी तो ऋषियों की सेवा करने में उसे बड़ा आनन्द आता था। एक बार कुंती ने महर्षि दुर्वासा की बड़ी सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उसे एक मंत्र दिया और कहा कि इस मंत्र से तुम जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी की कृपा से तुम्हें पुत्र उत्पन्न होगा। दुर्वासा ऋषि की बात सुनकर कुंती को बड़ा आश्चर्य हुआ। 

उसने एकांत में जाकर भगवान सूर्य का आवाहन किया। सूर्यदेव ने आकर तत्काल कुंती को गर्भस्थापन किया, जिससे तेजस्वी कवच व कुंडल पहने एक सर्वांग सुंदर बालक उत्पन्न हुआ। उस समय कुंती कुंवारी थी इसलिए उसने कलंक के भय से उस बालक को छिपाकर नदी में बहा दिया। रथ चलाने वाले अधिरथ ने उसे निकाला और अपनी पत्नी राधा के पास ले जाकर उसे पुत्र बना लिया। उसका नाम वसुषेण रखा गया। यही वसुषेण आगे जाकर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

गांधारी ने क्यों बांधी आंखों पर पट्टी?


गांधारी ने क्यों बांधी आंखों पर पट्टी?

पाण्डु के राज्याभिषेक के बाद भीष्म ने धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर का विवाह करने का विचार किया। भीष्म ने सुना कि गांधारराज सुबल की पुत्री गांधारी सब लक्षणों से सम्पन्न है और उसने भगवान शंकर की आराधना कर सौ पुत्रों का वरदान भी प्राप्त किया है। तब भीष्म ने गांधारराज के पास धृतराष्ट्र के विवाह के लिए प्रस्ताव भेजा जिसे सुबल ने स्वीकार कर लिया। गांधारी को जब पता चला कि धृतराष्ट्र अंधे हैं तो उसने अपनी आंखों पर भी पट्टी बांध ली और जीवन भर इस प्रकार रहकर अपने पति की सेवा करने का निश्चय किया। इस तरह धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से हो गया। 

यदुवंशी शूरसेन की पृथा नाम की कन्या थी। इस कन्या को शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन लड़के कुन्तीभोज को गोद दे दिया था। इस प्रकार पृथा कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुंती जब विवाह योग्य हुई तो कुंतीभोज ने स्वयंवर का आयोजन किया जिसमें कुंती ने पाण्डु को जयमाला पहनाई। इस तरह पाण्डु का विवाह कुंती से हो गया। तब भीष्म ने पाण्डु के एक और विवाह करने का निश्चय किया तथा मद्रराज के राजा शल्य की बहन माद्री से पाण्डु का विवाह किया। पाण्डु कुंती व माद्री के साथ सुखपूर्वक रहने लगे।

इसके बाद भीष्म ने राजा देवक की दासीपुत्री जो गुणों में विदुर के समान ही थी, का विवाह विदुर से करवा दिया।

पाण्डु को ही क्यों बनाया गया राजा?


पाण्डु को ही क्यों बनाया गया राजा?

महर्षि वेदव्यास की कृपा से ही कुरुवंश में धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ने जन्म लिया। उन दिनों भीष्म बड़ी लगन से धर्म की रक्षा और राज्य का काम-काज देखते थे। धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर के कार्य देखकर हस्तिनापुरवासियों को बड़ी प्रसन्नता होती थी। भीष्म बड़ी सावधानी से राजकुमारों की रक्षा करते थे। जब ये तीनों बड़े हुए तो भीष्म ने उनकी शिक्षा का उचित प्रबंध किया। 

इस प्रकार धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर तीनों ने ही अपने-अपने अधिकारानुसार अस्त्र व शास्त्रज्ञान का अध्ययन किया। पाण्डु की रुचि शस्त्र ज्ञान में अधिक थी वे श्रेष्ठ धनुर्धर थे और सबसे बलशाली थे धृतराष्ट्र, उनमें अनेक हाथियों का बल था। विदुर के समान धर्म को जानने वाला संसार में कोई और नहीं था। जब ये तीनों युवा हुए तो भीष्म ने सत्यवती की सम्मति से किसी एक को राज्य का भार सौंपने का विचार किया। धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे और विदुर दासी पुत्र, इसलिए वे दोनों राज्य के अधिकारी नहीं माने गए। 

इस प्रकार सर्वसम्मति से पाण्डु को राज्य का अधिकारी माना गया। भीष्म ने बड़े उत्साह से पाण्डु का राज्याभिषेक किया।

धृतराष्ट्र अंधे व पाण्डु पीले क्यों थे?



धृतराष्ट्र अंधे व पाण्डु पीले क्यों थे?

अंबिका व अंबालिका से विवाह होने के बाद विचित्रवीर्य दोनों पत्नियों के साथ प्रेम से रहने लगे। इस तरह सात वर्ष खुशी-खुशी बीत गए। लेकिन इसके बाद यौवनावस्था में ही विचित्रवीर्य को क्षय रोग हो गया। बहुत उपचार करने के बाद भी विचित्रवीर्य बिना संतान उत्पन्न किए ही स्वर्गवासी हो गए। तब हस्तिनापुर का सिंहासन खाली हो गया। तब माता सत्यवती ने भीष्म को कहा कि वे काशीनरेश की कन्याओं के द्वारा संतान उत्पन्न कर अपने वंश की रक्षा करें। तब भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा को न तोडऩे का संकल्प दोहराया। 

भीष्म की प्रतिज्ञा सुनकर सत्यवती ने अपने पुत्र महर्षि वेदव्यास को बुलाया। महर्षि व्यास के आने पर सत्यवती ने उन्हें विचित्रवीर्य के क्षेत्र में संतान उत्पन्न करने के लिए कहा। माता की आज्ञा मानकर व्यासजी ने अंबिका से धृतराष्ट्र व अंबालिका से पाण्डु को उत्पन्न किया। जब अंबिका व्यासजी के पास गई तो उन्हें देखकर उसने अपनी आंखें बंद कर ली इसी कारण धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे हुए। अंबालिक जब व्यासजी के पास गई तो उन्हें देखकर उसका शरीर पीला हो गया। इसी कारण पाण्डु पीले व कमजोर हुए। तब अंबिका की प्रेरणा से उसकी दासी ने व्यासजी के द्वारा ही विदुर को उत्पन्न किया।

इस तरह धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर से कुरुवंश आगे बढ़ा। 

भीष्म ने क्यों किया काशी के राजा की पुत्रियों का...


भीष्म ने क्यों किया काशी के राजा की पुत्रियों का...

भरतवंशी राजा शांतनु को पत्नी सत्यवती से दो पुत्र हुए- चित्रांगद और विचित्रवीर्य। दोनों ही बड़े होनहार व पराक्रमी थे। अभी चित्रांगद ने युवावस्था में प्रवेश भी नहीं किया था कि राजा शांतनु स्वर्गवासी हो गए। तब भीष्म में माता सत्यवती की सम्मति से चित्रांगद को राजगद्दी पर बैठाया। लेकिन कुछ समय तक राज करने के बाद ही उसी के नाम के गंधर्वराज चित्रांगद ने उसका वध कर दिया। तब भीष्म में विचित्रवीर्य को राजा बनाया।

जब भीष्म ने देखा कि विचित्रवीर्य युवा हो चुका है तो उन्होंने उसका विवाह करने का विचार किया। उन्हीं दिनों काशी के राजा की तीन कन्याओं का स्वयंवर भी हो रहा था। लेकिन काशी नरेश ने द्वेषतापूर्वक हस्तिनापुर को न्योता नहीं दिया। क्रोधित होकर भीष्म अकेले ही स्वयंवर में गए और वहां उपस्थित सभी राजाओं व काशी नरेश को हराकर उनकी तीनों कन्याओं अंबा, अंबिका व अंबालिका को हर लाए। तब काशी नरेश की बड़ी पुत्री अंबा ने भीष्म से कहा कि वह मन ही मन में राजा शाल्व को अपना पति मान चुकी है। यह बात जानकर भीष्म ने अंबा को उसके इच्छानुसार जाने की अनुमति दे दी तथा शेष दो कन्याओं का विवाह विचित्रवीर्य से कर दिया।

जब भीष्म ने ली भीषण प्रतिज्ञा


जब भीष्म ने ली भीषण प्रतिज्ञा

गंगापुत्र भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। भीष्म का नाम पूर्व में देवव्रत था। उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। देवव्रत का नाम भीष्म क्यों पड़ा इसकी कथा इस प्रकार है-

एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर घूम कर रहे थे। तभी उन्हें वहां एक सुंदर युवती दिखाई दी। परिचय पूछने पर उसने स्वयं को निषादकन्या सत्यवती बताया। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए तथा उसके पिता के पास जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उस युवती के पिता ने शर्त रखी कि यदि मेरी कन्या से उत्पन्न संतान ही आपके राज्य की उत्तराधिकारी हो तो मैं इसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं। यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे।

इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया। तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिए उस युवती की मांग की। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी। तब निषादराज ने कहा यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा? तब देवव्रत ने सबके सामने अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लीl देवव्रत की इस प्रतिज्ञा को सुन देवता पुष्पवर्षा करने लगे। 

इसी भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा।

किसने रोका था बाणों से गंगा का प्रवाह?


किसने रोका था बाणों से गंगा का प्रवाह?

गंगा जब शांतनु के आठवे पुत्र को साथ लेकर चली गई तो राजा शांतनु बहुत उदास रहने लगे। इस तरह थोड़ा समय और बीत गया। शांतनु एक दिन गंगानदी के तट पर घूम रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि गंगाजी में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है। इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है। 

यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका आठवां पुत्र है। इसका नाम देवव्रत है। इसने वसिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है। यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इंद्र के समान इसका तेज है। देवव्रत का परिचय देकर गंगा उसे शांतनु को सौंपकर चली गई। शांतनु देवव्रत को लेकर अपनी राजधानी में लेकर आए तथा शीघ्र ही उसे युवराज बना दिया। गंगापुत्र देवव्रत ने अपनी व्यवहारकुशलता के कारण शीघ्र प्रजा को अपना हितैषी बना लिया। 

भीष्म कौन थे पिछले जन्म में ?




गंगापुत्र भीष्म पिछले जन्म में द्यौ नामक वसु थे। वसिष्ठ ऋषि के श्राप के कारण उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेना पड़ा। इस कथा का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व में मिलता है, जो इस प्रकार है-

एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहां वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में बंधी नन्दिनी नामक गाय पर पड़ गई। यह गाय समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली थी। उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है। आप इसे हर लें। पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों के साथ उस गाय को हर लिया। वसु को उस समय इस बात का ध्यान भी नहीं रहा कि वसिष्ठ ऋषि बड़े तपस्वी हैं और वे हमें शाप भी दे सकते हैं। 

जब महर्षि वसिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बात जान ली । वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। वसुओं को जब यह बात पता चली तो ने ऋषि वसिष्ठ से क्षमा मांगने आए तब ऋषि ने कहा कि बाकी सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। यह पृथ्वी पर संतानहीन रहेगा। 

गंगापुत्र भीष्म वह द्यौ नामक वसु थे। श्राप के प्रभाव से वे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहे तथा अंत में इच्छामृत्यु से प्राण त्यागे।

Mahabharat 22



पाण्डवों को मारने के लिए किसने बनवाया था...लाक्षाभवन?

जब धृतराष्ट्र के कहने पर पाण्डव वारणावत जाने के लिए तैयार हो गए तो दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने मंत्री पुरोचन को एकांत बुलाया और कहा कि इससे पहले ही पाण्डव वारणावत पहुंचे तुम वहां जाओ और सन, राल व लकड़ी से ऐसा महल बनवाओ जो आग से तुरंत भड़क उठे। किसी को भी इस बात की भनक न लगे। जब पाण्डव वहां रहने लगे तो उचित अवसर देखकर तुम वहां आग लगा देना। 

इस प्रकार पाण्डव जल मरेंगे और किसी को हम पर शक भी नहीं होगा। दुर्योधन की आज्ञानुसार पुरोचन वारणावत की ओर चल पड़ा।समय आने पर जब युधिष्ठिर अपने भाइयों व माता कुंती के साथ वारणावत जाने के लिए चले तो उनके पीछे कुरुवंश के बहुत से विद्वान, ब्राह्मण और प्रजा चलने लगी।वे आपस में बात करते जाते कि इसमें अवश्य ही धृतराष्ट्र और दुर्योधन की कोई चाल है। पाण्डव सदैव धर्म का पालन करने वाले हैं और युधिष्ठिर को स्वयं धर्मराज है इसलिए अब जहां युधिष्ठिर रहेंगे हम भी वहीं निवास करेंगे। 

यह सुनकर युधिष्ठिर ने ही प्रजा व ब्राह्मणों से कहा कि राजा धृतराष्ट्र हमारे पिता और गुरु हैं। वे जो भी करेंगे हम वह ही करेंगे। इसलिए आप सब लोग यही निवास करें। जब हम पर कोई मुसीबत आएगी तब आप लोग हमारी सहायता अवश्य करना। युधिष्ठिर की बात सुनकर हस्तिनापुरवासी पाण्डवों को आशीर्वाद देकर नगर में लौट आए।
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पाण्डवों को क्यों जाना पड़ा वारणावत?

दुर्योधन ने जब देखा कि भीमसेन की शक्ति असीम है और अर्जुन का अस्त्र ज्ञान तथा अभ्यास विलक्षण है तो वह उनसे और अधिक द्वेष रखने लगा। उसी समय हस्तिनापुर की प्रजा भी यही कहने लगी कि अब युधिष्ठिर को राजा बना देना चाहिए। प्रजा की इस प्रकार की सुनकर दुर्योधन जलने लगा। वह धृतराष्ट्र के पास गया और कहा कि यदि युधिष्ठिर को राज्य मिल गया तो फिर यह उन्हीं की वंश परंपरा से चलेगा और हमें कोई पूछेगा भी नहीं। तब दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को एक युक्ति सुझाई कि आप किसी बहाने से पाण्डवों को वरणावत भेज दीजिए। 

यह कहकर दुर्योधन प्रजा को प्रसन्न करने में लग गया और धृतराष्ट्र ने कुछ ऐसे चतुर मंत्रियों को नियुक्त कर दिया जो वारणावत की प्रशंसा करके पाण्डवों को वहां जाने के लिए उकसाने लगे। इस प्रकार वारणावत नगर की प्रशंसा सुनकर पाण्डवों का मन भी वहां जाने को हुआ। उचित अवसर देखकर धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को बुलाया और कहा कि इन दिनों वारणावत में मेले की धूम है यदि तुम वहां जाना चाहते हो तो हो आओ। 

युधिष्ठिर धृतराष्ट्र की चाल तुरंत समझ गए लेकिन धृतराष्ट्र का कहना वे टाल न सके। इस तरह युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डवों व कुंती धृतराष्ट्र की आज्ञा से वारणावत जाने के लिए तैयार हो गए।

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पाण्डवों से द्वेष क्यों करने लगे धृतराष्ट्र?

द्रुपद को जीतने के एक वर्ष बाद राजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को युवराज बना दिया। युवराज बनने के बाद युधिष्ठिर ने अपने व्यवहार से प्रजा का दिल जीत लिया। इधर भीमसेन ने बलरामजी से खड्ग, गदा और रथ के युद्ध की विशिष्ट शिक्षा प्राप्त की। उस समय अर्जुन के समान अन्य कोई योद्धा नहीं था। एक दिन द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरे प्रिय शिष्य हो। आज मैं तुमसे यह गुरुदक्षिणा मांगता हूं कि यदि कभी युद्ध में मेरा और तुम्हारा सामना हो तो तुम मुझसे लडऩे से मत हिचकना। तब अर्जुन ने गुरु की आज्ञा स्वीकार की। भीमसेन और अर्जुन के समान ही सहदेव ने भी देवगुरु बृहस्पति से संपूर्ण नीतिशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की। नुकल भी तरह-तरह के युद्धों में कुशल थे। अर्जुन ने सौवीर देश के पराक्रमी राजा दत्तामित्र को युद्ध में मार गिराया। साथ ही भीमसेन की सहायता से पूर्व दिशा और बिना किसी की सहायता से दक्षिण दिशा पर भी विजय प्राप्त की। इस प्रकार दूसरे राज्यों का धन-वैभव भी हस्तिनापुर आने लगा। सभी दूर पाण्डवों की कीर्ति फैल गई। यह देखकर यकायक धृतराष्ट्र के मन में पाण्डवों के प्रति दूषित भाव आ गया। क्योंकि धृतराष्ट्र मन ही मन चाहते थे प्रजा जिस प्रकार युधिष्ठिर से स्नेह करती है वैसा ही दुर्योधन से रखें। यही कारण था कि पाण्डवों का यश धृतराष्ट्र के मन में खटकने लगा। 

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जब अर्जुन ने बंदी बनाया राजा द्रुपद को

जब सभी राजकुमार अस्त्र विद्या में निपुण हो गए तो गुरु द्रोणाचार्य ने सोचा कि अब द्रुपद से बदला लेने का समय आ गया है। तब द्रोणाचार्य ने सभी राजकुमारों को एकत्रित कर कहा कि तुम लोग पांचालराज द्रुपद को युद्ध में पकड़कर ले आओ, यही मेरी सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा होगी। गुरु की आज्ञा पाकर सभी कौरव व पाण्डव राजकुमार अस्त्र-शस्त्र लेकर पांचालदेश की ओर कूच कर गए। सबसे पहले दुर्योधन, कर्ण व दु:शासन ने पांचालदेश में प्रवेश किया। जब पांचालनरेश द्रुपद को यह पता चला तो वह भी अपने सैनिकों के साथ युद्ध करने लगे। द्रुपद की सेना तथा वहां के नागरिक कौरव सेना पर टूट पड़े। कौरव सेना पर ऐसी मार पड़ी कि वह भागने लगी। 

तब अर्जुन ने द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और नकुल, सहदेव व भीम के साथ द्रुपद के नगर में प्रवेश किया। अर्जुन ने अदुभुत पराक्रम दिखाते हुए ऐसी बाण वर्षा की कि सारी पांचाल सेना उसमें ढंक गई। थोड़ी ही देर में अर्जुन ने द्रुपद को हराकर उन्हें पकड़ लिया और गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य को सौंप दिया। तब द्रोणाचार्य ने द्रुपद से कहा कि अब तुम मेरे अधीन हो। इस प्रकार तुम्हारा राज्य भी मेरा ही है। लेकिन मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता बल्कि यह चाहता हूं कि हम पहले की भांति मित्र बन जाएं। एक बार तुमने मुझसे कहा था राजा ही राजा का मित्र हो सकता है तो मैं तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य वापस देता हूं। द्रुपद ने सहर्ष ही इसके लिए हां कह दिया। 

तब द्रुपद माकंदी प्रदेश के काम्पिल्य नगर में रहने लगे और द्रोणाचार्य अहिच्छत्र प्रदेश की अहिच्छत्रा नगरी में रहने लगे। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने द्रुपद से अपने अपमान का बदला लिया। इससे द्रुपद के मन में असंतोष रहने लगा।
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जब अर्जुन को ललकारा कर्ण ने

जब सभी राजकुमार अस्त्र विद्या में पारंगत हो गए तब द्रोणाचार्य ने राजकुमारों द्वारा सीखी गई अस्त्र विद्या के प्रदर्शन के लिए रंगमंडप बनवाया। उचित समय आने पर वहां सर्वप्रथम भीम व दुर्योधन के बीच कुश्ती का मुकाबला हुआ।उसके बाद द्रोणाचार्य ने अर्जुन को बुलाया। 

अर्जुन ने विभिन्न तरह के बाणों का प्रदर्शन कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। सभी अर्जुन के पराक्रम को देखकर उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी समय रंगमंडप में कर्ण ने प्रवेश किया और कहा कि उपस्थित सभी लोगों के सामने जो पराक्रम अर्जुन ने दिखाया है वह मैं भी दिखा सकता हूं। तब द्रोणाचार्य के कहने पर कर्ण ने भी अर्जुन के समान ही अस्त्रविद्या का प्रदर्शन किया। यह देखकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ। तब कर्ण ने अर्जुन के साथ द्वन्द्वयुद्ध करने की इच्छा प्रकट की। तब द्रोणाचार्य ने इसके लिए हां कर दी।

तभी कृपाचार्य ने कर्ण से कहा कि अर्जुन चंद्रवंशी है तथा महाराज पाण्डु का पुत्र है इसलिए तुम भी अपने वंश का परिचय दो। इसके बाद ही द्वन्द्वयुद्ध करने का निर्णय होगा। यह सुनकर कर्ण चुप हो गया। तभी दुर्योधन ने बीच में आकर कहा कि यदि अर्जुन इसलिए कर्ण से युद्ध नहीं करना चाहता कि वह राजा नहीं है तो कर्ण को मैं इसी समय अंगदेश का राजा बनाता हूं। ऐसा कहकर दुर्योधन ने वहीं कर्ण का राज्याभिषेक कर दिया। तभी वहां कर्ण के पिता अधिरथ भी आ पहुंचे। 

उन्होंने कर्ण को अपने सीने से लगाया और स्नेह किया। यह देखकर सभी लोग समझ गए कि कर्ण सूतपुत्र है। तब दुर्योधन कर्ण को अपने साथ रंगमंडप से बाहर ले गया।
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जब भीम व दुर्योधन का मुकाबला हुआ

जब सभी राजकुमार युवा हो गए और उनकी अस्त्र शिक्षा भी पूरी हो गई तब एक दिन द्रोणाचार्य ने भीष्म आदि के सामने ही राजा धृतराष्ट्र से कहा कि सभी राजकुमार सभी प्रकार की विद्या में निपुण हो चुके हैं। अब हमें उनके अस्त्र कौशल का प्रदर्शन देखना चाहिए। धृतराष्ट्र ने भी हामी भर दी और विदुर को आचार्य द्रोण के अनुसार रंगमंडप बनवाने का आदेश दिया। रंगमंडप तैयार होने पर उसमें अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र टांगे गए और राजघराने के स्त्री-पुरुषों के लिए उचित स्थान बनवाए गए। स्त्रियों और साधारण दर्शकों के स्थान भी अलग-अलग थे। 

नियत दिन आने पर राजा धृतराष्ट्र, भीष्म एवं कृपाचार्य वहां आए। गांधारी, कुंती आदि राजपरिवार की महिलाएं भी वहां आईं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि आकर यथास्थान पर बैठ गए। सबसे पहले भीमसेन और दुर्योधन हाथ में गदा लेकर रंगभूमि में उतरे। वे पर्वत शिखर के समान हट्टे-कट्टे वीर लंबी भुजा और कसी कमर के कारण बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। वे मदमस्त हाथी के समान पैंतरे बदल-बदल कर गदायुद्ध करने लगे। उनके बीच बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा।

विदुरजी धृतराष्ट्र को और कुंती गांधारी को सब बातें बतलाती जाती थीं। उसे देखकर दर्शकों में उत्साह फैल गया। उस समय दर्शक दो दलों में बंट गए। कुछ भीमसेन की जय बोलते तो कुछ दुर्योधन की। स्थिति अनियंत्रित होती देख द्रोणाचार्य ने अपने बेटे अश्वत्थामा को भीम व दुर्योधन को रोकने के लिए कहा। इस प्रकार उन दोनों महाबलियों के बीच चल रहा भयंकर संग्राम समाप्त हो गया।

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जब द्रोणाचार्य के प्राण बचाए अर्जुन ने

एक बार जब द्रोणाचार्य गंगास्नान कर रहे थे। तभी एक भयंकर मगर ने द्रोणाचार्य की जांघ पकड़ ली। द्रोण खुद भी छूट सकते थे लेकिन उन्होंने शिष्यों से कहा कि मगर को मारकर मुझे बचाओ। उनकी बात पूरी होने के पहले ही अर्जुन ने पांच बाणों से पानी में डुबे मगर को मार डाला और सभी राजकुमार हक्के-बक्के होकर अपने-अपने स्थान पर ही खड़े रहे। 

मगर मर गया और आचार्य की जांघ भी छूट गई। इससे प्रसन्न होकर द्रोणाचार्य ने अर्जुन को ब्रह्मशिर नामक अस्त्र प्रदान किया साथ ही उसके प्रयोग और उपसंहार की विधि भी बताई। ब्रह्मशिर अस्त्र देते समय द्रोणाचार्य ने अर्जुन को यह भी बताया कि यह महाभयंकर अस्त्र है। इसे कभी किसी साधारण पुरुष पर मत चलाना। यह अस्त्र सारे संसार को जला डालने की क्षमता रखता है। 

तब अर्जुन ने बड़े ही विन्रम भाव से वह अस्त्र स्वीकार किया। तब द्रोणाचार्य ने एक बार फिर अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान दिया।
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जब द्रोणाचार्य ने ली राजकुमारों की परीक्षा

एक बार द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने एक नकली गिद्ध एक वृक्ष पर टांग दिया। उसके बाद उन्होंने सभी राजकुमारों से कहा कि तुम्हे इस बाण से इस गिद्ध का सिर उड़ाना है। पहले द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को बुलाया और पूछा और निशाना लगाने के लिए कहा। फिर उन्होंने युधिष्ठिर से पूछा तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। युधिष्ठिर ने कहा मुझे वह गिद्ध, पेड़ व मेरे भाई आदि सबकुछ दिखाई दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को निशाना नहीं लगाने दिया। 

इसके बाद उन्होंने दुर्योधन आदि राजकुमारों से भी वही प्रश्न पूछा और सभी ने वही उत्तर दिया जो युधिष्ठिर ने दिया था। इससे द्रोणाचार्य काफी खिन्न हो गए।सबसे अंत में द्रोणाचार्य ने अर्जुन को गिद्ध का निशाना लगाने के लिए कहा और उससे पूछा कि तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे गिद्ध के अतिरिक्त कुछ और दिखाई नहीं दे रहा है। यह सुनकर द्रोणाचार्य काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्जुन को बाण चलाने के लिए। अर्जुन ने तत्काल बाण चलाकर उस नकली गिद्ध का सिर काट गिराया। 

यह देखकर द्रोणाचार्य की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि द्रुपद के विश्वासघात का बदला अर्जुन ही लेगा।
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द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसका अंगूठा ही क्यों...

जब द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों को अस्त्रों की शिक्षा दे रहे थे तब एक दिन निषादपति हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य भी अस्त्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए द्रोणाचार्य के पास आया लेकिन निषाद जाति का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे मना कर दिया। तब एकलव्य ने वन में जाकर द्रोणाचार्य की एक मिट्टी की मूर्ति बनाई और उसी में आचार्य भाव रखकर नियमित रूप से अस्त्र चलाने का अभ्यास करने लगा।

एक बार सभी राजकुमार द्रोणाचार्य की अनुमति से शिकार खेलने के लिए वन में गए। राजकुमारों के साथ एक कुत्ता भी था। वह कुत्ता घुमता-फिरता वहां पहुंच गया जहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। उसे देखकर कुत्ता भौंकने लगा। तब एकलव्य ने उस कुत्ते के मुंह को तीरों से भर दिया। कुत्ता उसी अवस्था में राजकुमारों के पास आया। यह दृश्य देखकर राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजकुमारों ने एकलव्य को ढूंढ लिया और उसके गुरु का नाम पूछा तो उसने द्रोणाचार्य को अपना गुरु बताया। 

तब सभी राजकुमार द्रोणाचार्य के पास गए और पूरी बात उन्हें बताई। द्रोणाचार्य ने सोचा कि यदि एकलव्य सचमुच धनुर्विद्या में इतना पारंगत हो गया है तो फिर अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का उनका वचन झूठा हो जाएगा। तब द्रोणाचार्य वन में गए और एकलव्य से मिले। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा कि यदि तू मुझे सचमुच अपना गुरु मानता है तो मुझे गुरुदक्षिणा दे। ऐसा कहकर उन्होंने एकलव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने हंसते-हंसते द्रोणाचार्य को अपने अंगूठा काटकर दे दिया।

एकलव्य की गुरुभक्ति देखकर द्रोणाचार्य अतिप्रसन्न हुए लेकिन अंगूठा कटने से एकलव्य के बाण चलाने में वह सफाई और फुर्ती नहीं रही।
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इसलिए द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था अर्जुन

द्रोणाचार्य हस्तिनापुर में रहकर कौरव व पाण्डवों को विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने लगे लेकिन उनके मन में राजा द्रुपद से अपने अपमान का बदला लेने की भावना कम नहीं हुई। द्रोणाचार्य ने एक दिन अपने सभी शिष्यों को एकांत में बुलाया और पूछा कि अस्त्र शिक्षा समाप्त होने के बाद क्या तुम लोग मेरे मन की इच्छा पूरी करोगे। अन्य शिष्य तो चुप रहे लेकिन अर्जुन ने बड़े उत्साह से द्रोणाचार्य की इच्छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की। यह देखकर द्रोणाचार्य बहुत प्रसन्न हुए। 

द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को तरह-तरह के दिव्य अस्त्रों की शिक्षा देने लगे। उस समय उनके शिष्यों में यदुवंशी तथा दूसरे देश के राजकुमार भी थे। सूतपुत्र के नाम से प्रसिद्ध कर्ण भी वहीं शिक्षा पा रहा था। धनुर्विद्या में अर्जुन की विशेष रूचि थी इसलिए वे समस्त शस्त्रों के प्रयोग और उपसंहार की विधियां शीघ्र ही सीख गए। एक दिन जब भोजन करते समय तेज हवा के कारण दीपक बुझ गया। अंधकार में भी हाथ को बिना भटके मुंह के पास जाते देखकर अर्जुन ने समझ लिया कि निशाना लगाने के लिए प्रकाश की आवश्यकता नहीं, केवल अभ्यास की है। 

एक बार रात में अर्जुन की प्रत्यंचा की टंकार सुनकर द्रोणाचार्य उनके पास गए और उनकी लगन देखकर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का आशीर्वाद दिया।
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जब कौरव व पाण्डवों के गुरु बनें द्रोणाचार्य

एक दिन युधिष्ठिर आदि सभी राजकुमार नगर के बाहर मैदान में गेंद से खेल रहे थे। गेंद अचानक कुएं में गिर पड़ी। राजकुमारों ने उसे निकालने का प्रयत्न तो किया परंतु सफलता नहीं मिली। इसी समय उनकी दृष्टि पास ही बैठे एक ब्राह्मण पर पड़ी। उनकी शरीर दुर्बल और रंग सांवला था। राजकुमारों ने उनसे कुएं से गेंद निकालने का निवेदन किया। तब उस ब्राह्मण ने कहा कि तुम मेरे भोजन का प्रबंध कर दो और मैं तुम्हारी गेंद निकाल देता हूं। 

ऐसा कहकर ब्राह्मण ने कुएं में एक अगूंठी डाली और फिर अभिमंत्रित सीकों से गेंद व अंगूठी दोनों निकाल लिए। यह देखकर राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने उस ब्राह्मण का परिचय जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि तुम यह सब बात तुम्हारे पितामाह भीष्म से कहना वे मुझे पहचान जाएंगे। राजकुमारों ने सारी बात भीष्म को जाकर बताई तो वे तुरंत समझ गए कि वह ब्राह्मण कोई और नहीं बल्कि द्रोणाचार्य हैं। 

उन्होंने सोचा कि राजकुमारों के लिए उनसे अच्छा गुरु कोई और नहीं हो सकता। ऐसा विचारकर भीष्म द्रोणाचार्य को ससम्मान हस्तिनापुर ले आए और कौरव व पाण्डव राजकुमारों की शिक्षा का भार उन्हें सौंप दिया। इस प्रकार द्रोणाचार्य भीष्म से सम्मानित होकर हस्तिनापुर में रहने लगे।
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जब राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य का अपमान किया

पृषत नामक एक राजा भरद्वाज मुनि के मित्र थे। द्रोणाचार्य के जन्म के समय ही उनके यहां भी द्रुपद नामक पुत्र पैदा हुआ। उसने भी भरद्वाज आश्रम में रहकर द्रोणाचार्य के साथ शिक्षा प्राप्त की। द्रोणाचार्य के साथ उसकी मित्रता हो गई। जब दोनों युवा हुए तो पृषत का निधन होने पर द्रुपद उत्तर पांचाल देश का राजा हुआ और द्रोणाचार्य आश्रम में रहकर तपस्या करने लगे। 

आचार्य द्रोण को जब मालूम हुआ कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं तो वह भी भगवान परशुराम के पास पहुंचे। तब उन्होंने भगवान परशुराम से उनके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके प्रयोग की विधि, रहस्य और उपसंहार की विधि मांग ली। अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करके द्रोणाचार्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे अपने मित्र द्रुपद के पास गए। वहां राजा द्रुपद ने उनका बड़ा अपमान किया और बाल्यकाल की दोस्ती को मुर्खता बताया। 

तब द्रोणाचार्य को बड़ा क्रोध आया। तब उन्होंने मन ही मन द्रुपद से इस अपमान का बदला लेने का निश्चय किया। इसके बाद द्रोणाचार्य कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर में आ गए और कुछ दिनों तक गुप्त रूप से कृपाचार्य के घर पर रहे।
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कैसे हुआ द्रोणाचार्य का जन्म?

द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। उनके पुत्र का नाम अश्वत्थामा था जो यम, काल, महादेव व क्रोध का अंशावतार था। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है-

एक समय गंगाद्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक बार वे यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञपात्र में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी। 

अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से महाबली अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही उच्चै:श्रवा अश्व के समान गर्जना की थी इसलिए उसका नाम अश्वत्थामा था। अश्वत्थामा के जन्म से द्रोणाचार्य को बड़ा हर्ष हुआ। द्रोणाचार्य सबसे अधिक अपने पुत्र से ही स्नेह रखते थे। द्रोणाचार्य ने ही उसे धनुर्वेद की शिक्षा भी दी थी।


कौन थे कृपाचार्य ?


कौन थे कृपाचार्य ?

कृपाचार्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उनके जन्म के संबंध में पूरा वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है। उसी के अनुसार-

महर्षि गौतम के पुत्र थे शरद्वान। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने तपस्या करके सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए। शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में निपुणता देखकर इंद्र बहुत भयभीत हो गया। उसने शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह शरद्वान के आश्रम में आकर उन्हें लुभाने लगी। उस सुंदरी को देखकर शरद्वान के हाथों से धनुष-बाण गिर गए। वे बड़े संयमी थे तो उन्होंने स्वयं को रोक लिया। 

लेकिन उनके मन में विकार आ गया था इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। उन्होंने धनुष, बाण, आश्रम और उस सुदंरी को छोड़कर तुरंत वहां से यात्रा कर दी। उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से गुजरे। उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी। शांतनु ने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले आए। बालक का नाम रखा कृप और बालिका का नाम रखा कृपी। जब शरद्वान को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बालकों के नाम, गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी। 

थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो गए। अब कौरव और पाण्डव राजकुमार उनसे धनुर्वेद की शिक्षा लेने लगे। तब भीष्म ने सोचा कि इन राजकुमारों को दूसरे अस्त्रों का ज्ञान भी होना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने राजकुमारों को द्रोणाचार्य को सौंप दिया।

Mahabharat 21




विश्वामित्र नन्दिनी को ले जाने लगे तो...

गंधर्वराज चित्ररथ के मुख से महर्षि की महिमा सुनकर अर्जुन ने कहा गंर्धवराज महर्षि वशिष्ठ कौन थे? कृपया उनका चरित्र सुनाइये।  गंधर्वराज कहने लगे हे अर्जुन महर्षि वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र है। उनकी पत्नी का नाम अरूंधती है। उन्होने अपनी तपस्या के बल से देवताओं पर विजय और  अपनी इन्द्रियों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। इसलिए उनका नाम वशिष्ठ हुआ। विश्वामित्र के बहुत अपराध करने पर भी उन्होने अपने मन में क्रोध नहीं आने दिया और उन्हे क्षमा कर दिया। यहां तक कि विश्वामित्र ने उनके पूरे सौ पुत्रों का नाश कर दिया। वशिष्ठ में बदला लेने की पूरी शक्ति थी। लेकिन फिर भी उन्होने कोई प्रतिकार नहीं किया। अर्जुन ने पूछा गंधर्व राज विशिष्ठ और विश्वामित्र तो आश्रमवासी थे, उनकी दुश्मनी का क्या कारण हैं? गंधर्व ने कहा: बहुत प्राचीन और विश्वविश्रुति है। मैं तुम्हे सुनाता हूं। 

एक बार राजा कुशिक के पुत्र विश्वामित्र अपने मन्त्री के साथ मरुधन्व देश में शिकार खेलते-खेलते थककर वशिष्ठ के आश्रम पर आये। विशिष्ठ ने विधिपूर्वक उनका स्वागत सत्कार किया। अपनी कामधेनु नन्दिनी से उनकी खुब सेवा की। इस सेवा से विश्वामित्र बहुत खुश हुए। उन्होने वसिष्ठ से कहा कि आप मुझ से एक अर्बुद गौएं या मेरा राज्य ले लिजिए। अपनी कामधेनु नन्दिनी मुझे दे दीजिये। वशिष्ठ बोले मैंने यह दुधार गाय देवता, अतिथि पितर और यक्षो के लिए रख छोड़ी है। विश्वामित्र बोले आप ब्राम्हण हैं और मैं क्षत्रीय हूं। अगर आप मुझे नन्दिनी नहीं देगें तो मैं उसे बलपूर्वक प्राप्त कर ले जाऊंगा। वशिष्ठ जी ने बोला आप तो बलवान क्षत्रीय है जो चाहे तुरंत कर सकते हैं। 

जब विश्वामित्र बलपूर्वक नन्दिनी को ले जाने लगे तब वह विलाप करती हुई कहने लगी हे भगवन्! ये सब मुझे डंडों से पीट रहे हैं मैं अनाथों की तरह मार खा रही हूं। आप मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? विशिष्ठ उसका करूण कुंदन सुनकर भी न क्षुब्ध हुए न धैर्य से विचलित। वे बोले क्षत्रीयों का बल हैं तेज और ब्राम्हणों का क्षमा। मेरा प्रधान बल क्षमा मेरे पास है। तुम्हारी मौज हो तो जाओ।

तुझमें शक्ति हो तो रह जा देख, तेरे बच्चे ये लोग मजबुत रस्सी से बाधकर लिए जा रहे हैं। वशिष्ठ की बात सुनकर नन्दिनी का सिर ऊपर उठ गया। आंखें लाल हो गई और उसका रोद्र स्वरूप को देखकर विश्वामित्र के सारे सैनिक भाग गए।

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राजा संवरण ने तपती को देखा तो..

गन्धर्व ने चाक्षुषी विद्या देने के बाद उसने अर्जुन को तपतीनन्दन कहकर संबोधित किया। तब अर्जुन ने गंधर्व से पूछा कि है गन्धर्व मैं तो कुन्ती का पुत्र हूं आपने मुझे तपतीनन्दन कहकर क्यों संबोधित किया। गंधर्व ने कहा हे! अर्जुन भगवान सूर्य की पुत्री तपती के नाम से विख्यात थी। वह आपकी ही माता की तरह ज्योतिषमती थी। वह सावित्री की छोटी बहन थी।

वह अपनी तपस्या के कारण तीनों लोकों में विख्यात थी। उन दिनों उसके समान कोई योग्य पुरुष भी नहीं था। जो उससे विवाह करें। उन्ही दिनों पुरूवंश में राजा ऋक्ष के पुत्र संवरण बड़े ही बलवान और धार्मिक थे। सूर्य के मन में भी यह बात आने लगी कि ये मेरी पुत्री के योग्य पति होंगे। एक दिन की बात है संवरण जंगल में शिकार खेल रहे थे। भुख प्यास से बेहाल होकर उनका घोड़ा मर गया तो वे पैदल ही चलने लगे।

उस समय जंगल में खड़ी एक अकेली लड़की पर पड़ी। उन्होने उस लड़की से पूछा कौन हो तुम? किसकी पुत्री हो? तुम्हे देखकर लगता है तीनों लोक में तुम्हारे जैसी कोई और सुन्दरी नहीं होगी। राजा की बात सुनकर वह कुछ नहीं बोली और अंर्तध्यान हो गई।राजा बेहोश होकर गिर पड़े। उन्हें धरती पर पड़ा देखकर तपती फिर आयी और बोली राजन्  उठिए। राजा को चेतना आई और उन्होने कहा सुन्दरी मेरे प्राण तुम्हारे हाथ है। तुम मुझ से गंधर्व विवाह स्वीकार करों। उसने कहा मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं है। आप मेरे पिता को प्रसन्न करके मुझे मांग लिजिए।

यह सुनकर वे भगवान सूर्य की आराधना करने लगे। उन्होने मन ही मन अपने पुरोहित महर्षि वशिष्ठ का ध्यान किया। उन्होने राजा के मन का हाल जानकर उन्हे आश्वासन दिया और भगवान सूर्य से मिलने निकल पड़े। महर्षि वशिष्ठ ने भगवान सूर्य के पास पहुंचकर प्रार्थना की। भगवान ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ओर उन्ही के साथ तपती को भेज दिया। उसके बाद विधि पूर्वक पाणी-ग्रहण संस्कार के बाद उसके साथ वे उसी पर्वत पर सुख पूर्वक रखने लगे। बारह वर्ष वहां रहने के बाद प्रजा में होने वाली अव्यवस्था को देखते हुए वे तपती को लेकर अपनी राजधानी ले आये। इन्ही तपती के गर्भ से राजा कुरू का  जन्म हुआ जिनसे कुरू वंश चला
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अर्जुन ने मशाल से ही हरा दिया गंधर्व को

पांडवों ने अपनी माता को आगे कर पांचाल देश की यात्रा शुरू की। वे लोग उत्तर की तरफ बढऩे लगे। एक दिन रात यात्रा करने के बाद वे गंगा के किनारे सोमनाथ तीर्थ पर पहुंचे। उस समय उनके आगे-आगे अर्जुन मशाल लेकर चल रहे थे। उस समय गंगा में एक अंगार्पण नामक गंधर्व स्त्रियों के साथ विहार कर रहा था। उसने उन लोगों की पैरों की आहट सुनकर वह क्रोधित हुआ। उसने अपने धनुष की आवाज करते हुए पांडवों को कहा: दिन के अन्त से ललिमामय संध्या होती है। उसके बाद अस्सी लव के अलावा सारा समय गंधर्व और राक्षसों के लिए होता है।

जो मनुष्य अपने लालच के कारण इस समय यहां आते हैं राक्षस उन्हें कैद कर लेते हैं। इसलिए रात के समय जल में प्रवेश करना मना है दूर रहो। 

अर्जुन ने उसकी बात सुनकर कहा अरे मुर्ख समुद्र, हिमालय की तराई और गंगा नदी ये स्थान किसके लिए सुरक्षित है? यहां आने के समय का कोई नियम नहीं है। गंगा माई का द्वार हर समय उसके हर भक्त के लिए खुला था। यदि हम मान भी लें की तुम्हारी बात ठीक है तो हम शक्ति सम्पन्न हैं नपुसंक  नहीं हैं जो डरकर गंगा जल को स्पर्श ना करें। गंधर्व ने धनुष से जहरीले बाण छोडऩे प्रारंभ किए।अर्जुन ने अपनी मशाल से ही उसके सारे बाण व्यर्थ कर दिए। उसने कहा: अरे गंधर्व वीरों के सामने धमकी से काम नहीं चलता है। ले मैं तुझसे माया युद्ध नहीं करता द्विव्य अस्त्र चलाता हूं। यह अस्त्र मुझे मेरे गुरू द्रोणाचार्य ने दिया है। वह अस्त्र के तेज से इतना चकरा गया कि रथ से कुदकर मुंह के बल लुढ़कने लगा। यह देखकर उसकी पत्नी कुंभीनसी युधिठिर के समक्ष प्रार्थना करने लगी। युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर अर्जुन ने उसे छोड़ दिया। 

गंधर्व ने कहा युद्ध हारने के कारण आज से में अपना नाम अंगार्पण त्यागता हूं। उसके बाद उसने पांडवों को विश्वावसुको से प्राप्त एक ऐसा विद्या चाक्षुषी दी। उसके बल के द्वारा कोई भी सुक्ष्म से सुक्ष्म वस्तु देखी जा सकती है। जो भी छ: महिने तक एक पैर से खड़ा होकर तपस्या करे वह इसका  अधिकारी है लेकिन आपसे युद्ध हारने के कारण मैं आपसे अनुनय करता हूं कि इसे स्वीकार करें।
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द्रौपदी कौन थी पूर्व जन्म में?

द्रौपदी के जन्म की कथा और स्वयंवर का समाचार सुनकर पाण्डवों का मन भी वहां जाने को हुआ। उनके मन की बात जानकर कुंती ने भी पांचालदेश जाने की हामी भर दी। सभी पांचाल देश जाने की तैयारी करने लगे। उसी समय एकचक्रा नगरी में महर्षि वेदव्यास पाण्डवों से मिलने आ गए। सभी ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया। पांचाल देश जाने की बात सुनकर उन्होंने पाण्डवों को द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा सुनाई।

महर्षि वेदव्यास ने बताया कि द्रौपदी पूर्व जन्म में एक बड़े महात्मा ऋषि की सुंदर व गुणवती कन्या थी। इसके बाद भी पूर्व जन्मों के बुरे कर्मों के कारण किसी ने उसे पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया। इससे दु:खी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और उसे दर्शन दिए तथा वर मांगने को भी कहा। भगवान के दर्शन पाकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हो गई और उसने अधीरतावश भगवान शंकर से प्रार्थना की कि मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। ऐसा उसने पांच बार कहा। तब भगवान ने उसे वरदान दिया कि तुने मुझसे पांच बार प्रार्थना की है इसलिए तुझे पांच भरतवंशी पति प्राप्त होंगे। ऐसा कहकर भगवान शंकर अपने लोक को चले गए।

वही ब्राह्मण कन्या इस जन्म में अग्निकुंड से द्रौपदी के रूप में जन्मी है। तुम लोगों के लिए विधि-विधान के अनुसार वहीं सर्वांगसुंदरी निश्चित है। उस पाकर तुम सुखी रहोगे। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास अन्यत्र चले गए।
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कैसे हुआ धृष्टद्युम्न व द्रौपदी का जन्म?

महात्मा याज ने जब राजा द्रुपद का यज्ञ करवाया तो यज्ञ के अग्निकुण्ड में से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। उसके सिर पर मुकुट, शरीर पर कवच था तथा हाथों में धनुष-बाण थे। यह देख सभी पांचालवासी हर्षित हो गए। तभी आकाशवाणी हुई कि इस पुत्र के जन्म से द्रुपद का सारा शोक मिट जाएगा। यह कुमार द्रोणाचार्य को मारने के लिए ही पैदा हुआ है।

इसके बाद उस अग्निकुंड में से एक दिव्य कन्या भी प्रकट हुई। वह अत्यंत ही सुंदर थी। उसके नीले-नीले घुंघराले बाल, लाल-लाल ऊंचे नख तथा उसकी आंखें कमल के समान थी। तभी आकाशवाणी हुई कि यह रमणीरत्न कृष्णा है। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए क्षत्रियों के विनाश के उद्देश्य से इसका जन्म हुआ है। इसके कारण कौरवों को बड़ा भय होगा। दिव्य कुमार व कुमारी को देखकर द्रुपदराज की रानी महात्मा याज के पास आई और प्रार्थना की कि ये दोनों मेरे अतिरिक्त और किसी को अपनी मां न जानें। महात्मा याज ने कहा- ऐसा ही होगा। 

ब्राह्मणों ने उन दोनों का नामकरण किया। वे बोले- यह कुमार बड़ा धृष्ट(ढीट) और असहिष्णु है। इसकी उत्पत्ति अग्निकुंड की द्युति से हुई है, इसलिए इसका धृष्टद्युम्न होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है इसलिए इसका नाम कृष्णा होगा। द्रुपद की पुत्री होने के कारण कृष्णा ही द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई।

यज्ञ समाप्त होने पर द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न को अपने साथ ले आए और उसे अस्त्र-शस्त्र की विशिष्ट शिक्षा दी। द्रोणाचार्य यह जानते थे कि प्रारब्धानुसार जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। इसलिए उन्होंने पूरी लग्न के साथ धृष्टद्युम्न को अस्त्र शिक्षा दी, जिसके हाथों उनका मरना निश्चित था।

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द्रोणाचार्य को मारने के लिए क्या किया द्रुपद ने?

बकासुर का वध करने के बाद पाण्डव वेदाध्ययन करते हुए उसी ब्राह्मण के घर में रहने लगे। कुछ दिनों बाद उसी ब्राह्मण के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण आए। पाण्डवों ने उनका बड़ा सत्कार किया। उस ब्राह्मण ने बात ही बात में राजाओं को वर्णन करते हुए राजा द्रुपद की बात छेड़ दी और द्रोपदी के स्वयंवर की बात भी कही। 

उन्होंने बताया कि जब से द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के द्वारा द्रुपद को पराजित किया है तब से द्रुपद बदले की भावना में जल रहा है। वे द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिए श्रेष्ठ संतान की चाह से कई विद्वान संतों के पास गए। लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की। फिर एक दिन द्रुपद घुमते-घुमते कल्माषी नगर गए। वहां ब्राह्मण बस्ती में कश्यप गोत्र के दो ब्राह्मण याज व उपयाज रहते थे। 

द्रुपद सबसे पहले महात्मा उपयाज के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि आप कोई ऐसा यज्ञ कराईए जिससे मुझे द्रोणाचार्य को मारने वाली संतान प्राप्त हो। लेकिन उपयाज ने मना कर दिया। इसके बाद भी द्रुपद ने एक वर्ष तक उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा की। तब उन्होंने बताया कि उनके बड़े भाई याज यह यज्ञ करवा सकते हैं। 

तब द्रुपद महात्मा याज के पास पहुंचे और उनको पूरी बात बताई। यह भी कहा कि यज्ञ करवाने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गाए भी दूंगा। महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया। 
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बकासुर का वध क्यों किया भीम ने?

कुंती के कहने पर भीम बकासुर के लिए भोजन लेकर वन में गए और उसका नाम लेकर पुकारने लगे। लेकिन बहुत देर तक जब वह राक्षस नहीं आया तो उसके लिए लाया भोजन स्वयं ही खाने लगे। थोड़ी देर बाद जब बकासुर आया तो उसने देखा कि भीमसेन उसका भोजन खा रहे हैं। यह देखकर वह बहुत क्रोधित हुआ और भीमसेन को मारने के लिए दौड़ा। भीमसेन ने उसकी और देखा और उसका तिरस्कार करते हुए भोजन करते रहे। इससे बकासुर और भी क्रोधित हो गया और वृक्ष उखाड़कर भीम की और दौड़ा। 

तब तक भीम सारा खाना खा चुके थे। बकासुर को वृक्ष लेकर आता देख भीमसेन ने भी वृक्ष उखाड़ लिया। इस प्रकार दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। बहुत देर तक लडऩे पर जब बकासुर थक गया तो भीमसेन ने उसे जमीन पर पटक दिया और गला दबा कर उसका वध कर दिया। भीम बकासुर की लाश लेकर नगर के द्वार पर आए और वहां उसे पटककर चुपचाप चले गए। सुबह जब नगरवासियों ने बकासुर के शव को देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ।

उन्होंने समझा कि यह उसी ब्राह्मण का काम है जिसे कल भोजन लेकर बकासुर के पास जाना जाना था। सभी लोग एकत्रित होकर उस ब्राह्ण के घर आए और उसकी प्रशंसा करने लगे। तब उस ब्राह्ण ने सत्य छुपाते हुए नगरवासियों से कह दिया कि मेरे स्थान पर एक सिद्ध ब्राह्मण राक्षस का भोजन लेकर गए थे। उन्होंने ही बकासुर का वध किया होगा। यह सुनकर सभी लोग खुश हो गए और नगर में उत्सव मनाने लगे।
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कौन था बकासुर राक्षस?

जब पाण्डव ब्राह्मणों का वेष बनाकर एकचक्रा नगरी में रहने लगे तब एक दिन किसी कारणवश भीमसेन भिक्षा मांगने नहीं गए और घर पर ही रुक गए। उस दिन उस ब्राह्मण के घर में जहां पाण्डव रहते थे अचानक चीख-पुकार मच गई। तब कुंती इस विलाप का कारण जानने के लिए ब्राह्मण के पास गई। कुंती ने वहां देखा कि ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा पुत्री तीनों स्वयं का बलिदान देने की बात कर रहे हैं और विलाप कर रहे हैं। 

यह देखकर कुंती ने इसका कारण पूछा तो ब्राह्मण ने बताया कि नगर के बाहर बकासुर नामक एक राक्षस रहता है। उसके भोजन के लिए एक गाड़ी अन्न और दौ भैंसे रोज दिए जाते हैं और जो मनुष्य यह सब लेकर जाता है राक्षस उसे भी खा जाता है। प्रतिदिन नगर के किसी एक घर से किसी एक प्राणी को जाना पड़ता है। आज राक्षस के लिए भोजन हमारे परिवार में से किसी को लेकर जाना है इसलिए यह विलाप हो रहा है। 

पूरी बात सुनकर कुंती ने ब्राह्मण को सांत्वना दी और कहा कि आज आपके परिवार के बदले मेरा पुत्र राक्षस के लिए भोजन लेकर जाएगा। तब कुंती ने भीम को यह सारी बात बताई। कुंती के कहने पर भीम राक्षस के लिए भोजन ले जाने के लिए तैयार हो गए।
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एकचक्रा नगरी में क्यों आए पाण्डव?

घटोत्कच के जन्म के बाद पाण्डव वन में विचरने लगे। भीम भी उनके साथ ही रहते थे। पाण्डवों ने सिर पर जटाएं रख ली और वृक्षों की छाल तथा मृगचर्म पहन लिए। एक बार जब पाण्डव शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे तभी वहां महर्षि वेदव्यास आए गए। पाण्डवों ने उन्हें ससम्मान आसन पर बैठाया। तब वेदव्यासजी ने कहा कि तुम्हें मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षाभवन बनवाया था। यह बात मैं जान चुका हूं। मैं तुम लोगों का हित करने के लिए ही यहां आया हूं। 

यहां से पास ही एक बड़ा सुंदर नगर है जिसका नाम एकचक्रा है। तुम वहां जाकर रहो। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास स्वयं पाण्डवों व कुंती को साथ लेकर एकचक्रा नगरी तक आए। वहां पहुंचकर उन्होंने कुंती से कहा कि यह सब तुम्हारे हित के लिए ही हो रहा है इसलिए तुम दु:खी मत होओ। तुम्हारा पुत्र युधिष्ठिर एक दिन संपूर्ण पृथ्वी पर राज्य करेगा। 

व्यासजी ने पाण्डवों तथा कुंती को एक ब्राह्मण के घर में ठहरा दिया और जाते-जाते कहा कि एक महीने तक मेरी बाट जोहना, मैं फिर आऊंगा। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास वहां से चले गए और पाण्डव माता कुंती के साथ एकचक्रा नगरी में रहने लगे। वे भिक्षावृत्ति से अपना जीवन-निर्वाह करने लगे। वे सायंकाल होने पर दिनभर की भिक्षा लाकर माता के सामने रख देते। माता की अनुमति से आधा भीमसेन खाते और आधे में शेष पाण्डव व कुंती। इस प्रकार बहुत दिन बीत गए।
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कैसे हुआ घटोत्कच का जन्म?

युधिष्ठिर की आज्ञा मानकर भीम हिडिम्बा के साथ चले गए। हिडिम्बा भीम को आकाशमार्ग से लेकर उड़ गई। तब हिडिम्बा ने सुंदर स्त्री का रूप धारण कर लिया और तरह-तरह से वह भीम को रिझाने लगी। हिडिम्बा भीमसेन से मीठी-मीठी बातें करते हुए पहाड़ों की चोटियों पर, जंगलों में, गुफाओं आदि में विहार करने लगी। समय आने पर हिडिम्बा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका मुख विशाल, नुकीले दांत, तीखी दाढ़ें और विशाल शरीर था।

राक्षसों की माया से वह तुरंत ही जवान हो गया। उसके सिर पर बाल नहीं थे। भीम तथा हिडिम्बा ने उसके घट अर्थात सिर को उत्कच यानि केशहीन देखकर उसका नाम घटोत्कच रख दिया। 

घटोत्कच पाण्डवों के प्रति बड़ी श्रद्धा और प्रेम रखता था तथा पाण्डव भी उस पर स्नेह रखते थे। इस प्रकार भीम की प्रतिज्ञा पूरी होने पर हिडिम्बा ने पाण्डवों को जाने के लिए हामी भर दी। तब घटोत्कच ने कुंती व पाण्डवों को नमस्कार कर पूछा कि मैं किस प्रकार आपकी सेवा कर सकता हूं।

घटोत्कच की बात सुनकर कुंती ने घटोत्कच से प्रेमपूर्वक कहा कि तू कुरुवंश में पैदा हुआ है और पाण्डवों का सबसे बड़ा पुत्र है। इसलिए समय आने पर इनकी सहायता करना। तब घटोत्कच ने कहा कि जब भी आप मेरा स्मरण करेंगे मैं तुरंत आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। ऐसा कहकर वह उत्तर दिशा की ओर चला गया।

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कैसे हुआ भीम व हिडिम्बा का विवाह?

जब भीमसेन ने हिडिम्बासुर का वध किया और सभी पाण्डव माता कुंती के साथ वन से जाने लगे तो हिडिम्बा भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। हिडिम्बा को पीछे आता देख भीम ने उससे जाने के लिए कहा तथा उस पर क्रोधित भी हुए। तब युधिष्ठिर ने भीम को रोक लिया। 

हिडिम्बा ने कुंती व युधिष्ठिर से कहा कि इन अतिबलशाली भीमसेन को मैं अपना पति मान चुकी हूं। इस स्थिति में अब ये जहां भी रहेंगे मैं भी इनके साथ ही रहूंगी। आपकी आज्ञा मिलने पर मैं इन्हें अपन साथ लेकर जाऊंगी और थोड़े ही दिनों में लौट आऊंगी। आप लोगों पर जब भी कोई परेशानी आएगी उस समय मैं तुरंत आपकी सहायता के लिए आ जाऊंगी। हिडिम्बा की बात सुनकर युधिष्ठिर ने भीमसेन को समझाया कि हिडिम्बा ने तुम्हें अपना पति माना है इसलिए तुम भी इसके साथ पत्नी जैसा ही व्यवहार करो। यह धर्मानुकूल है। भीमसेन न युधिष्ठिर की बात मान ली। 

इस प्रकार भीम व हिडिम्बा का गंर्धव विवाह हो गया। तब युधिष्टिर ने हिडिम्बा से कहा कि तुम प्रतिदिन सूर्यास्त के पूर्व तक पवित्र होकर भीमसेन की सेवा में रह सकती हो। भीमसेन दिनभर तुम्हारे साथ रहेंगे और शाम होते ही मेरे पास आ जाएंगे। तब भीम ने कहा कि ऐसा सिर्फ तब तक ही होगा जब तक हिडिम्बा को पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी।

हिडिम्बा ने भी स्वीकृति दे दी। इस प्रकार भीम हिडिम्बा के साथ चले गए।
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राक्षस हिडिम्बासुर का वध क्यों किया भीम ने?

लाक्षाभवन से निकलकर जब पाण्डव दक्षिण दिशा की ओर चले तो रास्ते में एक वन आया। सभी ने उसी वन में रात बिताई। उस वन में हिडिम्बासुर नाम का एक राक्षस रहता था। जब उसने मनुष्यों की गंध सूंघी तो उसने अपनी बहन हिडिम्बा से कहा कि वन में से मनुष्यों की गंध आ रही है तुम उन्हें मारकर ले आओ ताकि हम उन्हें अपना भोजन बना सकें। भाई की आज्ञा मानकर जब हिडिम्बा पाण्डवों को मारने के लिए गई तो सबसे पहले भीम को देखा जो पहरेदारी कर रहे थे। 

भीम को देखकर हिडिम्बा उस पर मोहित हो गई। तब हिडिम्बा स्त्री का रूप बदलकर भीम के पास पहुंची और अपना परिचय देकर प्रणय निवेदन किया। उसने हिडिम्बासुर के बारे में भी भीम को बताया। लेकिन भीमसेन जरा भी विचलित नहीं हुए। उधर जब काफी देर तक हिडिम्बा नहीं पहुंची तो हिडिम्बासुर स्वयं वहां आ पहुंचा। हिडिम्बा को भीम पर मोहित हुआ देख वह बहुत क्रोधित हुआ और उसे मारने के लिए दौड़ा। इतने में ही भीमसेन बीच में आ गए और दोनों के बीच भयंकर युद्ध होने लगा।

आवाजें सुनकर पाण्डवों की नींद भी खुल गई। कुंती ने जब हिडिम्बा को वहां देखा तो उसका परिचय पूछा। हिडिम्बा ने पूरी बात कुंती को सच-सच बता दी। इधर भीम को राक्षस के साथ युद्ध करता देख अर्जुन उनकी मदद के लिए आए लेकिन भीम ने उन्हें मना कर दिया और  अपने बाहुबल से हिडिम्बासुर का वध कर दिया।  जब पाण्डव वहां से जाने लगे तो हिडिम्बा भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी।
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लाक्षाभवन से निकलने के बाद पाण्डवों ने क्या किया?

लाक्षाभवन से निकलने के बाद पाण्डव गंगा नदी के तट पर पहुंच गए। तभी वहां विदुरजी द्वारा भेजा हुआ सेवक भी आ गया । उसने नौका से पाण्डवों को गंगा के पार पहुंचा दिया। पाण्डव बड़ी शीघ्रता से आगे बढऩे लगे। सुबह जब वारणावतवासियों ने जले हुए महल को देखा तो उन्हें पता चल गया कि महल लाख का बना हुआ था। वे तुरंत समझ गए कि यह सब दुर्योधन की ही चाल थी जिसके कारण पाण्डव इस महल में जल कर मर गए। आग बुझने पर जब महल की राख को हटाया तो उसमें से भीलनी तथा उसके पांच पुत्रों के साथ ही पुरोचन का भी शव निकला। लोगों ने समझा कि यह माता कुंती तथा पाण्डवों के ही शव हैं। तब सभी दुर्योधन को धिककारने लगे।

यह खबर जब धृतराष्ट्र को लगी तो झूठ-मूठ का विलाप करने लगा। उन्होंने कौरवों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही वारणावत जाओ और पाण्डवों का अंत्येष्टि संस्कार करो। इस प्रकार सभी लोग यह समझने लगे की पाण्डव सचमुच मर चुके हैं। विदुर सब कुछ जानते हुए भी अनजाने बने रहे। 

इधर पाण्डव तेजी से दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे। माता कुंती तथा पाण्डव काफी थक चुके थे। इसलिए वे चलने में असमर्थ थे तब भीम ने माता कुंती को कंधे पर, नकुल व सहदेव को गोद में तथा युधिष्ठिर तथा अर्जुन को अपने दोनों हाथों पर बैठा लिया और तेजी से चलने लगे। थोड़ी देर बाद कुंती को प्यास लगी तो भीम ने सभी को नीचे उतार दिया और स्वयं पानी लेने के लिए चले गए। जब भीम वापस लौटे तो माता कुंती व भाइयों को इस अवस्था में देख बहुत दु:खी हुए। वह रात पाण्डवों ने वहीं वन में बिताई।

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लाक्षा भवन की आग से कैसे बचे पाण्डव ?

धृतराष्ट्र के कहने पर जब पांडव वारणावत पहुंचे तो वहां के नागरिकों में बड़े उत्साह से उनका स्वागत किया। दुर्योधन के मंत्री पुरोचन ने पांडवों के रहने व भोजन का उचित प्रबंध किया। दस दिन बीत जाने के बाद पुरोचन ने पांडवों को लाक्षा भवन के बारे में बताया तब  माता कुंती के साथ लाक्षा भवन में रहने चले गए। युधिष्ठिर ने जब भवन को देखा तो उन्हें दुर्योधन की चाल तुरंत समझ में आ गई। यह बात युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी बताई। तब सभी ने यह निर्णय लिया कि यहां चतुराई पूर्वक रहना ही उचित होगा।

तभी वहां विदुरजी द्वारा भेजा गया सेवक आया जो सुरंग खोदने में माहिर था। युधिष्ठिर के कहने पर उसने भवन के बीच एक बड़ी सुरंग बनाई। और उसे इस प्रकार ढ़क दिया कि किसी को उस सुरंग के बारे में पता न चले। पांडव अपने साथ शस्त्र रखकर बड़ी सावधानी से रात बिताते थे। दिनभर शिकार खेलने के बहाने जंगलों के गुप्त रास्ते पता किया करते थे। पुरोचन  को लगभग एक वर्ष बाद यह विश्वास हो गया कि पांडवों को दुर्योधन की चाल का बिल्कुल ध्यान नहीं हैं। तब युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा कि अब वह समय आ गया है जब पुरोचन का वध कर यहां से भाग निकलना चाहिए। 

कुंती ने एक दिन दान देने के लिए ब्राह्मण भोज कराया। जब सब खा पीकर चले गए। एक भील की स्त्री अपने पांच पुत्रों के साथ खाना मांगने आईं। वे सब शराब पीकर लाक्षा भवन में ही सो गए। उसी रात भीमसेन ने पुरोचन के कक्ष में आग लगा दी तथा जब आग बहुत भयानक हो गई तब पांचों भाई माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते नगर के बाहर निकल गए। वारणावत के लोगों ने जब लाक्षा भवन जलता दिखा तो उन्हें लगा कि पांडव भी जल गए हैं, यह सोचकर वे रातभर विलाप करते रहे।
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विदुरजी ने युधिष्ठिर को क्या गुप्त बात कही?

जब राजा धृतराष्ट्र के कहने पर पाण्डव वारणावत जाने लगे तो विदुरजी ने युधिष्ठिर को सांकेतिक भाषा में कहा कि नीतिज्ञ पुरुष को शत्रु का मनोभाव समझकर उससे अपनी अपनी रक्षा करनी चाहिए। एक ऐसा अस्त्र है जो लोहे का तो नहीं है परंतु शरीर को नष्ट कर सकता है (अर्थात शत्रुओं ने तुम्हारे लिए एक ऐसा भवन तैयार किया है जो आग से तुरंत भड़क उठने वाले पदार्थों से बना है।) 

आग घास-फूस और जीव सारे जंगल को जला डालती है परंतु बिल में रहने वाले जीव उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं। यही जीवित रहन का उपाय है (अर्थात उससे बचने के लिए तुम एक सुरंग तैयार करा लेना।) 

अंधे को रास्ता और दिशा का ज्ञान नहीं होता। बिना धैर्य के समझदारी नहीं आती। (अर्थात दिशा आदि का ज्ञान पहले से ही तैयार कर लेना ताकि रात मे भटकना न पड़े।)

शत्रुओं के दिए हुए बिना लोहे के हथियार को जो स्वीकार करता है वह स्याही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है। (अर्थात उस सुरंग से यदि तुम बाहर निकल जाओगे तो उस भवन की आग में जलने से बच जाओगे।)

जिसकी पांचों इंद्रियां वश में है, शत्रु उसकी कुछ भी हानि नहीं कर सकता (अर्थात यदि तुम पांचों भाई एकमत रहोगो तो शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।

विदुरजी की सारी बात युधिष्ठिर ने अच्छी तरह से समझ ली। तब विदुरजी हस्तिनापुर लौट गए। यह घटना फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र की है।
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जब भीम सकुशल हस्तिनापुर लौट आए


जब भीम सकुशल हस्तिनापुर लौट आए

जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा। 

उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा। इसके बाद भी दुर्योधन ने कई बार भीम को मारने का षडय़ंत्र रचा लेकिन वह कामयाब नहीं हो पाया। 

पाण्डव सबकुछ जानकर भी विदुर की सलाह के अनुसार चुप ही रहे। जब धृतराष्ट्र ने देखा कि सभी राजकुमार खेल-कूद में ही लगे रहते हैं तो उन्होंने कृपाचार्य को उन्हें शिक्षा देने के लिए निवेदन किया। इस तरह कौरव व पाण्डव कृपाचार्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त करने लगे।
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Mahabharat -20




द्रोणाचार्य को मारने के लिए क्या किया द्रुपद ने?

बकासुर का वध करने के बाद पाण्डव वेदाध्ययन करते हुए उसी ब्राह्मण के घर में रहने लगे। कुछ दिनों बाद उसी ब्राह्मण के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण आए। पाण्डवों ने उनका बड़ा सत्कार किया। उस ब्राह्मण ने बात ही बात में राजाओं को वर्णन करते हुए राजा द्रुपद की बात छेड़ दी और द्रोपदी के स्वयंवर की बात भी कही। उन्होंने बताया कि जब से द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के द्वारा द्रुपद को पराजित किया है तब से द्रुपद बदले की भावना में जल रहा है। वे द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिए श्रेष्ठ संतान की चाह से कई विद्वान संतों के पास गए। लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की। फिर एक दिन द्रुपद घुमते-घुमते कल्माषी नगर गए। वहां ब्राह्मण बस्ती में कश्यप गोत्र के दो ब्राह्मण याज व उपयाज रहते थे। द्रुपद सबसे पहले महात्मा उपयाज के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि आप कोई ऐसा यज्ञ कराईए जिससे मुझे द्रोणाचार्य को मारने वाली संतान प्राप्त हो। लेकिन उपयाज ने मना कर दिया। इसके बाद भी द्रुपद ने एक वर्ष तक उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा की। तब उन्होंने बताया कि उनके बड़े भाई याज यह यज्ञ करवा सकते हैं। तब द्रुपद महात्मा याज के पास पहुंचे और उनको पूरी बात बताई। यह भी कहा कि यज्ञ करवाने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गाए भी दूंगा। महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया।
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कैसे हुआ अर्जुन और चित्रांगदा का विवाह?

अर्जुन महेन्द्र पर्वत होकर समुद्र के किनारे चलते-चलते मणिपुर पहुंचे। वहां के राजा चित्रवाहन बहुत धर्मात्मा थे। उनकी सर्वांगसुन्दरी कन्या का नाम चित्रांगदा था। एक दिन अर्जुन की दृष्ठि उस पर पड़ गयी उन्होने समझ लिया कि यह यहां कि राजकुमारी है। और राजा चित्रवाहन के पास जाकर कहा राजन् मैं कुलीन क्षत्रीय हूं। आप मुझसे अपनी कन्या का विवाह कर दिजिए। 

चित्रवाहन  के पूछने पर अर्जुन ने बतलाया कि मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन हूं।  चित्रवाहन ने कहा कि हे वीर अर्जुन मेरे पूर्वजो में प्रभजन नाम के एक राजा हो गये हैं। उन्होंने संतान न होने पर उग्र तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। उन्होने वर दिया कि तुम्हारे वंश में सबको एक-एक संतान होती जाएगी। तब से हमारे वंश में ऐसा ही होता आया है। मेरे यह एक ही कन्या है इसे में पुत्र ही समझता हूं। इसका मैं पुत्रिकाधर्म अनुसार विवाह करूंगा, जिससे इसका पुत्र हो जाए और मेरा वंश प्रवर्तक बने। अर्जुन ने कहा ठीक है आपकी शर्त मुझे मंजुर है और इस तरह अर्जुन और चित्रांग्दा  का विवाह हुआ। उसके बाद अर्जुन राजा से अनुमति लेकर फिर तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े।
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जब नागकन्या उलूपी अर्जुन पर मोहित हो गई....

अर्जुन वनवास को चल दिए। वे एक दिन गंगा नदी में स्नान करने पहुंचे। गंगा नदी वे स्नान और तर्पण करके हवन करने के लिए बाहर निकलने ही वाले थे कि नागकन्या उलूपी उन पर मोहित हो गई। उसने कामासक्त होकर अर्जुन को जल के भीतर खींच लिया और अपने भवन में ले गई। अर्जुन ने देखा कि वहां यज्ञ की अग्रि प्रज्वलित हो रही है। उसने उसमें हवन किया और अग्रिदेव को प्रसन्न करके नागकन्या उलूपी से पूछा सुन्दरि तुम कौन हो? तुम ऐसा साहस करके मुझे किस देश लेकर आई होउलूपी ने कहा मैं ऐरावत वंश के नाग की कन्या उलूपी हूं। मैं आपसे प्रेम करती हूं। आपके अतिरिक्त मेरी कोई गति नहीं है। आप मेरी अभिलाषा पूर्ण किजिए। मुझे स्वीकार किजिए। अर्जुन ने कहा आप लोगों ने द्रोपदी के लिए जो मर्यादा बनाई है। उसे मैं जानती हूं। लेकिन इस लोक में उसका लोप नहीं होता। आप मुझे स्वीकार किजिए वरना मैं मर जाऊंगी। अर्जुन ने धर्म समझकर उलूपी की इच्छा पूर्ण की रातभर वही रहे। दूसरे दिन वहां से चले। चलते समय उलूपी ने उन्हे वर दिया कि तुम्हे किसी भी जलचर प्राणी से कभी कोई भय नहीं रहेगा।
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क्या हुआ, जब अर्जुन ने भंग किया...

पाण्डव द्रोपदी के पास नियमानुसार रहते। एक दिन की बात है लुटेरो ने किसी ब्राहा्रण की गाय लुट ली और उन्हे लेकर भागने लगे। ब्राहा्रण पाण्डवों के पास आया और अपना करूण रूदन करने लगा।ब्राहा्ण ने कहा कि पाण्डव तुम्हारे राज्य में मेरी गाय छीन ली गई है। अगर तुम अपनी प्रजा की रक्षा का प्रबंध नहीं कर सकते तो तुम नि:संदेह पापी हो। लेकिन उनके सामने अड़चन यह थी कि जिस कमरे में राजा युधिष्ठिर द्रोपदी के साथ बैठे हुए थे।उसी कमरे में उनके अस्त्र-शस्त्र थे। एक ओर कौटुम्बिक नियम और दुसरी तरफ ब्राहा्रण की करूण पुकार। तब अर्जुन ने प्रण किया की मुझे इस ब्राहा्रण की रक्षा करना है। चाहे फिर मुझे इसका प्रायश्चित क्यों ना करना पड़े? उसके बाद अर्जुन राजा युधिष्ठिर के घर में नि:संकोच चले गए। राजा से अनुमति लेकर धनुष उठाया और आकर ब्राहा्ण से बोले ब्राहा्रण देवता थोड़ी देर रूकिए में अभी आपकी गायों को आपको लौटादेता हूं। अर्जुन ने बाणों की बौछार से लुटेरों को मारकर गोएं ब्राहा्ण को सौंप दी। उसके बाद अर्जुन ने आकर युधिष्ठिर से कहा। मैंने एकांत ग्रह में अकार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी इसलिए मुझे वनवास पर जाने की आज्ञा दें। युधिष्ठिर ने कहा तुम  मुझ से छोटे हो और छोटे भाई यदि अपनी स्त्री के साथ एकांत में बैठा हो तो बड़े भाई के द्वारा उनका एकांत भंग करना अपराध है। लेकिन जब छोटा भाई यदि बड़े भाई का एकांत भंग करे तो वह क्षमा का पात्र है। अर्जुन ने कहा आप ही कहते हैं धर्म पालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिए। उसके बाद अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वनवास को चल पड़े। 

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द्रोपदी के साथ एकांत में एक भाई दूसरे को देख ले...

इन्द्रप्रस्थ में राज्य पाने के बाद पांडव जब वहां सुख से रहने लगे। उसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर अपनी पत्नी द्रोपदी के साथ इन्द्रप्रस्थ में सुखपूर्वक रहकर भाईयों के साथ प्रजा का पालन करने लगे। सारे शत्रु उनके वश में हो गये। एक दिन की बात है। सभी पाण्डव राज्यसभा में बहुमुल्य आसनों पर बैठकर काम कर रहे थे। उसी समय नारद वहां पहुंचे नारद की विधिपूर्वक पूजा की। द्रोपदी भी आई और नारद मुनि का आर्शीवाद लेकर उनकी आज्ञा से रानिवास चली गई। नारद ने पाण्डवों से कहा पाण्डवों आप पांच भाइयों के बीच मात्र एक पत्नी है, इसलिए तुम लोगों को ऐसा नियम बना लेना चाहिए ताकि आपस में कोई झगड़ा ना हो।

प्राचीन समय की बात है। सुन्द और उपसुन्द दो असुर भाई थे। दोनों के बारे में ऐसा कहा जाता है दोनों दो जिस्म एक जान हैं। उन्होंने त्रिलोक जीतने की इच्छा से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करके तपस्या प्रारंभ की। कठोर तप के बाद ब्रहा्र जी प्रकट हुए। दोनों भाईयों ने अमर होने का वर मांगा। तब ब्रहा्र कहा वह अधिकार तो सिर्फ देवताओं को है। तुम कुछ और मांग लो। तब दोनों ने कहा कि हम दोनों को ऐसा वर दें कि हम सिर्फ एक- दुसरे के द्वारा मारे जाने पर ही मरें। ब्रह्रा जी ने दोनों को वरदान दे दिया। दोनों भाईयों ने वरदान पाने के बाद तीनों लोको में कोहराम मचा दिया। सभी देवता परेशान होकर ब्रहा्र की शरण में गए। तब ब्रहा्र जी ने विश्वकर्मा से एक ऐसी सुन्दर स्त्री बनाने के लिए कहा जिसे देखकर हर प्राणी मोहित हो जाए। उसके बाद एक दिन दोनों भाई एक पर्वत पर आमोद-प्रमोद कर रहे थे। तभी वहां तिलोतमा (विश्वकर्मा की सुन्दर रचना) कनेर के फूल तोडऩे लगी। दोनों भाई उस पर मोहित हो गए। दोनों में उसके कारण युद्ध हुआ। सुन्द और उपसुन्द दोनों मारे गए। 
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तब पांडव लौट गए हस्तिनापुर...

दुर्योधन का पाण्डवों के लिए षडयंत्र करना महात्मा विदुर रथ पर सवार होकर पाण्डवों के पास राजा द्रुपद की राजधानी में गये। वे पहले नियमानुसार राजा द्रुपद से मिले। विदुर जी द्रुपद, द्रोपदी, पाण्डव आदि के लिए कई उपहार अपने साथ लेकर गये। राजा द्रुपद ने विदुर का खूब आदर सत्कार किया। विदुर उसके बाद श्री कृष्ण और बलराम से मिले। उन्होंने विदुर की बहुत आवभगत की।

विदुर जी ने कृष्ण और पाण्डवों से उचित अवसर देखकर कहा। महाराज धृतराष्ट्र  ने आप लोगों के कुशल-मंगल पूछा है। आपके साथ विवाह संबंध होने से उन्हे बहुत प्रसन्नता हुई। पितामाह भीष्म और द्रोणाचार्य ने भी आपकी कुशलता का समाचार पूछा है। इस अवसर पर वे चाहते हैं कि अब आप पाण्डवों को हस्तिनापुर भेज दें। सभी कुरूवंश के लोग पाण्डवों को देखने के लिए लालायित हैं। पाण्डवों को अपने देश से चले बहुत दिन हो गये हैं।

अब आप इन लोगों को आज्ञा दें। आपकी आज्ञा होते ही मैं वहां संदेश भेज दूंगा।राजा द्रुपद ने कहा आपका कहना ठीक है। कुरूवंशियों से सम्बंध करके मुझे भी कम प्रसन्नता नहीं हुई है। लेकिन मैं अपनी जुबान से यह बात नहीं कह सकता। युधिष्ठिर ने कहा हम लोग आज्ञा होने पर ही यहां से जाएंगे। इस प्रकार सलाह करने के बाद पाण्डव विदा हो गए। पाण्डव हस्तिनापुर पहुंचे। सभी श्रेष्ठजन वहां उनकी अगवानी के लिए  पहुंचे। 

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किस्मत का लिखा कोई नहीं बदल सकता

जब भाग्य साथ होता है या कहे भगवान साथ होता है तो कोई कितना ही षडयंत्र कर ले। आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है क्योंकि जाको राखे साइया मार सके ना कोए। जो आपकी किस्मत में लिखा है उसे परमात्मा के अलावा कोई नहीं बदल सकता है। लाक्ष्यग्रह में कौरवों के पूरे षडयंत्र के बाद भी पांडवों का जीवित रहना इस ही बात का इशारा करता है सभी राजाओं को अपने गुप्तचरों से मालूम हो गया कि द्रोपदी का विवाह पांडवों के साथ हुआ है। लक्ष्य वेदन करने वाला और कोई नही बल्कि अर्जुन है। 

जब दुर्योधन को यह समाचार मिला तो उसे बड़ा दुख हुआ। दुर्योधन से धीमे स्वर में दु:शासन बोला भाई जी अब मुझे समझ आ गया है कि भाग्य ही बलवान है। उनके हस्तिनापुर पहुंचने पर वहां का सब समाचार सुनकर विदुरजी को बड़ी प्रसन्नता हुई।वे उसी समय धृतराष्ट्र के पास जाकर बोले महाराज धन्य है धन्य। कुरूवंश की वृद्धि हो रही है। यह सुनकर धृतराष्ट्र को लगा कि द्रोपदी मेरे पुत्र दुर्योधन को मिल गई। विदुर ने उन्हे बताया कि उसका विवाह पांडवों से हुआ है। तब धृतराष्ट्र ने कहा पाण्डवों को तो मैं अपने पुत्रों से अधिक स्नेह करता हूं। उनका विवाह हो गया इससे अधिक प्रसन्नता का विषय मेरे लिए क्या हो सकता है।

जब विदुर वहां से चले गये तब दुर्योधन और कर्ण ने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा विदुर के सामने हम आप से कुछ भी नहीं कह सकते हैं। आप उन शत्रुओं की विजय पर हर्ष कैसे जता सकते हैं। दुर्योधन ने कहा पिताजी मेरा विचार है कि कुछ विश्वासी गुप्तचर और ब्राह्मणों को भेजकर पाण्डव पुत्रों में फूट डलवा दी जाए। हमें द्रुपद को भी अपने साथ मिला लेना चाहिए। कर्ण ने कहा दुर्योधन तुम्हारी क्या राय है कर्ण ने कहा मुझे तो तुम्हारे द्वारा बतलाए गए उपायों से पाण्डवों  का वश में होना सम्भव नहीं लगता। 

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तब पांचों पाण्डवों से हुआ द्रोपदी का विवाह

वेदव्यास जी ने द्रुपद के साथ युधिष्ठिर के पास जाकर कहा आज ही विवाह के लिए शुभ दिन व शुभ मुहूर्त है। आज चन्द्रमा पुष्यनक्षत्र पर है। इसलिए आज तुम द्रोपदी के साथ पाणिग्रहण करो। यह निर्णय होते ही द्रोपदी ने आवश्यक सामग्री जुटाई। द्रोपदी को श्रृंगारित कर मंडप में लाया गया। उस समय विवाह मण्डप का सौन्दर्य अवर्णीय था। पांचों पांडव भी सजधजकर मंडप में पहुंचे। 

पांचों ने एक-एक दिन द्रोपदी से पाणिग्रहण किया।इस अवसर पर सबसे विलक्षण बात यह हुई कि देवर्षि नारद के कथानुसार द्रोपदी प्रतिदिन कन्या भाव को प्राप्त हो जाया करती थी। विवाह में राजा द्रुपद ने दहेज में बहुत से रत्न, धन, और गहनों के साथ ही हाथी, घोड़े भी दिए। इस प्रकार पांडव अपार सम्पति और स्त्री रत्न आदि प्राप्त कर पाण्डव वहां सुख से रहने लगे। द्रुपद की रानियों ने कुन्ती के पास आकर उनके पैरों पर सिर रखकर प्रणाम किया। कुन्ती ने द्रोपदी को आर्शीवाद दिया। भगवान श्री कृष्ण ने भी पांडवों का विवाह हो जाने पर भेंट के रूप में अनेक उपहार दिए। 

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द्रोपदी को क्यों मिले पांच पति?

धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर द्रुपद प्रसन्न हो गए। उसके बाद द्रुपद ज्यो त्यों करके अपने आप को सम्भाला फिर युधिष्ठिर से वरणावत नगर से लाक्ष्या भवन तक की कहानी सुनने के बाद द्रुपद ने युधिष्ठिर से कहा अब आप अर्जुन को पाणिग्रहण की आज्ञा दें। द्रुपद से युधिष्ठिर ने कहा राजन विवाह तो मुझे भी करना ही है। द्रुपद बोले यह तो अच्छी बात है। आप द्रोपदी से विवाह कर लें। युधिष्ठिर ने कहा राजन राजकुमारी द्रोपदी हम सभी की पटरानी होगी।

राजा द्रुपद बोले कुरूवंश भूषण आप यह कैसी बात कर रहे हैं। एक राजा के बहुत सी रानियां तो हो सकती है परन्तु एक स्त्री के बहुत से पति हो ऐसा सुनने में नहीं आया है। युधिष्ठिर आप तो धार्मिक और पवित्र विचारों वाले हैं। तुम्हे तो धर्म के विपरित बात सोचनी भी नहीं चाहिए।युधिष्ठिर के साथ द्रुपद इस बात पर विचार कर ही रहे थे। तभी वहां वेदव्यास जी आए उन्होंने राजा द्रुपद को एकांत में ले जाकर समझाया। 

व्यास जी द्रुपद को द्रोपदी के पूर्व जन्म की कथा सुनाने लगे। उन्होंने यह बतलाया कि द्रोपदी ने पिछले जन्म में बहुत सुन्दर युवती थी। सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण उसे योग्य वर नहीं मिल रहा था। इसलिए उसने शंकर जी की तपस्या की और जब भगवान शंकर प्रकट हुए। उस समय द्रोपदी ने हड़बडाहट में पांच बार वर मांगे। इसलिए उसे शिव जी के वरदान के कारण इस जन्म में पांच पति प्राप्त होंगे। साथ ही वेदव्यास जी ने उन्हे पाण्डवों के पिछले जन्म के द्विव्य रूप के दर्शन भी करवाए। यह सब देखकर द्रुपद व्यास जी से बोले जब तक मैंने द्रोपदी के पूर्व जन्म की कथा नहीं सुनी थी। तब तक मुझे आपकी बात धर्मानुकूल नहीं लग रही थी। भगवान शंकर ने जैसा वर दिया था वैसा ही होना चाहिए। फिर चाहे वह धर्म हो या अधर्म अब उसमें मेरा कोई अपराध नहीं समझा जाएगा।

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रूप बदलने से नहीं बदलता स्वभाव

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा कहते हैं इंसान कितने ही आवरण पहन ले लेकिन उसकी मूल प्रवृति कभी नहीं बदलती है। मतलब इंसान का जो मूल स्वभाव है वह उसके अंदर हमेशा रहता है चाहे वह बाहर से कितने ही आवरण ओड़ ले। इसलिए यही अच्छा है कि जो आप है वही रहें।

ध्रष्टद्युम्र के द्वारा पांडवों का पीछा करना और वहा हुई घटनाओं को आकर द्रुपद को सुनाना अब आगे... धृष्टद्युम्र की बात सुनकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होने उनका परिचय प्राप्त करने के लिए अपने पुरोहित के पास भेज दिया। युधिष्ठिर की आज्ञा से भीम ने उनके पुरोहित का बड़ा आदर सत्कार किया। युधिष्ठिर ने कहा पुरोहित से कहा द्रुपद से कहिएगा कि उन्हे पछताने की आवश्कता नहीं है। इस विवाह के द्वारा उनकी चिरकालीन अभिलाषा पूर्ण हो सकती है। जिस समय युधिष्ठिर यह कह रहे थे। तभी उन्हे दरबार से बुलावा आया। राजा द्रुपद ने पांडवों की परिक्षा लेने के उद्देश्य से उनको महल बुलवाया।उन्होंने तीन अलग-अलग कमरों को भिन्न प्रकार की वस्तुओं से सजवाया। उन्होंने पहले पांडवों को अच्छे से भोजन करवाया उनकी खुब अच्छे से आवभगत की। 

उन्हें यथोचित सम्मान दिया। उसके बाद द्रुपद उन्हें महल दिखाने ले गये। उन्होनें जो तीन कमरें सजवाए थे। उसमें पहला कमरा रत्न और आभुषणों से सजा था। दूसरा कमरा फल, फूल व रस्सियों से सजा था। तीसरा कमरा हथियारों से सजाया गया था। तीनों कमरों में से पाण्डवों ने सबसे पहले शस्त्रों से सजे कमरे में प्रवेश किया और वहां रखे हथियारों को देखने लगे। यह देख द्रुपद समझ गए कि ये लोग वैश्य या शुद्र नहीं बल्कि क्षत्रीय हैं।जब उन्हे मन में यह विश्वास हो गया तो उन्होने युधिष्ठिर को अलग बुलाकर कहा कहीं आप लोग देवता तो नहीं जो मेरी पुत्री से विवाह करने के लिए आए हैं। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा आपकी अभिलाषा पूर्ण हुई राजेन्द्र में पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर हूं और वे चारों मेरे भाई हैं।

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द्रोपदी के भाई ने पाण्डवों का पीछा किया और...

ध्रष्टद्युम्र पाण्डवों का पीछा करते हुए कुम्हार के घर पहुंचता है। वह पांडवों के घर के निकट एक ऐसे स्थान पर बैठा था जहां से वह पांडवों की बातें तो सुन ही रहा था और द्रोपदी को देख भी रहा था। उसने पांडवों के हर काम को बड़े गौर से देखा। चारों भाइयों ने भिक्षा लाकर बड़े भाई युधिष्ठिर के सामने रख दी। कुन्ती ने द्रोपदी से कहा पहले तुम भिक्षा में से देवताओं, आश्रितो का भाग निकालो, ब्राम्हणों को भिक्षा दो। बचे अन्न का आधा हिस्सा भीम को और शेष भाग के छ: हिस्से करके हम लोग खा लें। वहां कि सारी बातें देख सुनकर द्रुपद के पास पहुंचा। 

द्रुपद उस समय चिंतित हो रहे थे।उन्होने अपने पुत्र यानी द्रोपदी के भाई से पूछा बेटा द्रोपदी कहा है? उसे ले जाने वाला कौन है? कितना अच्छा होता यदि मेरी पुत्री का विवाह अर्जुन से हुआ होता।ध्रष्टद्युम्र ने कहा जिस युवक ने लक्ष्य भेदन किया द्रोपदी को ले जाते समय उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। उसका कोईं भी राजा बाल तक बांका नहीं कर पाया। उनके साथ जो पुरुष था। उसने वृक्ष उखाड़ दिया था। वे दोनों मेरी बहन को कुम्हार के घर लेकर गए थे। वहां एक तेजस्वी स्त्री बैठी थी। 

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द्रोपदी को बिना देखे कुंती ने कहा पांचों भाई आपस...

अर्जुन को धनुष चढ़ाने के लिए तैयार देखकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए। सभी ब्राह्मण अर्जुन को देखकर अनेक तरह की बातें करने लगी। अभी लोगों की आंखें अर्जुन पर ठीक से टीक भी नहीं पाई थी कि उन्होने धनुष को आसानी से उठाकर पांच बण उठाकर उनमें से एक लक्ष्य पर चलाया और वह यंत्र के छिद्र में हो गर जमीन पर गिर पड़ा। चारों तरफ शोर होने लगा पुष्पवर्षा होने लगी। द्रुपद की प्रसन्नता की सीमा ना रही। द्रोपदी प्रसन्नता के साथ अर्जुन के पास गई और उसके गले में वरमाला डाल दी। 

जब राजाओं ने देखा कि द्रुपद अपनी कन्या का विवाह एक ब्राह्मण के साथ करना चाहते हैं तो वे क्रोधित हुए। राजाओं ने अपने शस्त्र उठा लिए और द्रुपद को मारने के लिए दौड़े। राजाओं को आक्रमण करते देख भीम और अर्जुन बीच में आ गए। अर्जुन और कर्ण का आमना-सामना हुआ। अर्जुन ने उनकी वीरता देखकर कहा आप ब्राह्मण पुत्र होकर भी इतने वीर हैं। दोनों आपस में युद्ध करने लगे। श्री कृष्ण पहचान चुके थे कि ये तो पांडव है इसलिए उन्होंने सभी राजाओं को समझाया उसके बाद सब कुछ शांत हो गया धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी। भिक्षा लेकर लौटने का समय बीच चुका था। माता कुंती पुत्रों का इंतजार करते हुए चिंतित थी। इतने में अर्जुन ने कुम्हार के घर में प्रवेश करते हुए कहा मां हम भिक्षा लाएं है यह सुनकर माता कुंती ने कहा बेटा पांचों भाई बांट लो।
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तब युधिष्ठिर ने कहा द्रोपदी पांचो भाइयों की...

जब कुन्ती ने देखा कि यह तो साधारण भिक्षा नहीं, राजकुमारी द्रोपदी है तब तो उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे हाथ पकड़कर युधिष्ठिर के पास ले गई और बोलीं- बेटा मैने आज तक कोई बात झूठ नहीं कही है। अब तुम कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे द्रोपदी को तो अधर्म ना हो और मेरी बात झूठी भी ना हो। युधिष्ठिर ने कुछ देर विचार किया और अर्जुन को कहा भाई तुमने मर्यादा के अनुसार द्रोपदी को प्राप्त किया है। अब तुम विधि पूर्वक अग्रि प्रज्वलित करके उसका पाणिग्रहण करो।अर्जुन ने कहा आप मुझे अधर्म का भागी मत बनाइये। सत्पुरूषों ने कभी ऐसा आचरण नहीं किया। पहले आप, तब भीमसेन फिर मैं और फिर नकुल व सहदेव विवाह करें। इसलिए इस राजकुमारी का विवाह तो आप ही के साथ होना चाहिए।सभी पाण्डव अर्जुन का वचन सुनकर द्रोपदी की तरफ देखने लगे। उस समय द्रोपदी भी उन्ही लोगों की ओर देख रही थी। द्रोपदी के सौन्दर्य, माधुर्य और सौशील्य से मुग्ध होकर पांचो भाई एक-दूसरे को देखने लगे। तब युधिष्ठिर ने सभी भाइयों के मन भाव जानकर और महर्षि व्यास के वचनों को स्मरण कर कहा द्रोपदी हम सभी भाइयों की पत्नी होगी।उसके बाद श्री कृष्ण और बलराम उनके निवास स्थान पर पहुंचे। धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों को स्पर्श किया अपने नाम बताये। उसके बाद पांडवों ने उनका बड़े अच्छे से स्वागत सत्कार किया। उसके बाद थोड़ी देर बाद उन्होने कहा अब हमें चलना चाहिए नहीं तो लोगों को पता चला जाएगा। 

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द्रोपदी ने कर्ण को देखा तो बोल पड़ी...

गंधर्व से कल्माषपद की और वशिष्ठ की महिमा सुनने के बाद सभी पांडवों ने धौम्य ऋषि को अपना पुरोहित बनाया और अपनी माता को लेकर द्रुपद श्रेष्ठ के देश उनके पुत्री द्रोपदी के विवाह को देखने चल पड़े। पांडव द्रुपद देश की ओर चलने लगे। रास्ते में उन्होने वेद व्यास के दर्शन किए। जब पाण्डवों ने देखा कि द्रुपद नगर निकट आ गया है तो उन्होने एक कुम्हार के घर डेरा डाल दिया और ब्राम्हा्रणों के समान भिक्षावृति करके अपना जीवन बिताने लगे। राजा द्रुपद के मन में भी इस बात की बड़ी लालसा था कि वे अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन से किया। इसलिए अर्जुन को पहचानने के लिए उन्होंने एक ऐसा धनुष बनवाया जो कोई ओर ना तोड़ पाए। इसके अलावा उन्होंने एक ऐसा यंत्र टंगवा दिया जो चक्कर काटता रहे। द्रुपद ने यह घोषणा कर दी कि जो धनुष पर डोरी चढ़ाकर लक्ष्य का भेदन करेगा, वही मेरी पुत्री को प्राप्त करेगा। 

युधिष्ठिर आदि राजा द्रुपद आदि उनका वैभव देखते हुए वहां आए और उन्हीं के पास बैठ गए।

धृष्टद्युम्र ने द्रोपदी के पास खड़े होकर मधुर वाणी में कहा यह धनुष है, यह और आप लोगों के सामने लक्ष्य है। आप लोग घूमते हुए यन्त्र में अधिक से अधिक पांच बाणों में  जो भी लक्ष्य भेदन  कर देगा द्रोपदी का विवाह उसी से होगा। ध्रष्टद्युम्र की बात सुनकर दुर्योधन, शाल्व, शल्य राजा और राजकुमारों ने अपने बल के अनुसार धनुष चढ़ाने की कोशिश की लेकिन ऐसा झटका लगा कि वे बेहोश हो गए और इसके कारण उनका उत्साह टूट गया। इन सभी को निराश देखकर धर्नुधर शिरोमणी कर्ण उठा। 

उसने धनुष को उठाया और देखते ही देखते डोरी चढ़ा दी। उसे लक्ष्य वेधन करता देख द्रोपदी जोर से बोली मैं सुत पुत्र से विवाह नहीं करूंगी। कर्ण ने ईष्र्या भरी हंसी के साथ सूर्य को देखा और धनुष को नीचे रख दिया।उसके बाद शिशुपाल ने भी यही प्रयत्न और जरासन्ध ने  भी प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाए। उसी समय अर्जुन ने चित्त में संकल्प उठा कि मैं लक्ष्यवेधन करूं ।
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क्षमा करना सीखें वसिष्ठ से

महाभारत के इस दृष्टांत से हमें सीख मिलती है कि क्षमा करने वाला हमेशा श्रेष्ठ होता है इसलिए क्षमा करना और कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य रखने की सीख महर्षि वसिष्ठ से मिलती है।मुनि वसिष्ठ की नंदिनी से विश्वामित्र के संघर्ष के बाद अब गंधर्वराज अर्जुन से कहते हैं हे!अर्जुन राजा इक्ष्वाकु के कुल में एक कल्माषपाद नाम का एक राजा हुआ। राजा एक दिन शिकार खेलने वन में गया। वापस आते समय वह एक ऐसे रास्ते से लौट रहा था। जिस रास्ते पर से एक समय में केवल एक ही आदमी गुजर सकता था। उसी रास्ते पर मुनि वसिष्ठ के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शक्तिमुनि उसे आते दिखाई दिये। राजा ने कहा तुम हट जाओ मेरा रास्ता छोड़ दो तो कल्माषपाद ने कहा आप मेरे लिए मार्ग छोड़े दोनों में विवाद हुआ तो शक्तिमुनि ने इसे राजा का अन्याय समझकर उसे राक्षस बनने का शाप दे दिया। उसने कहा तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है ऐसा कहकर वह शक्तिमुनि को ही खा जाता है।

शक्ति और वशिष्ठ मुनि के और पुत्रों के भक्षण का कारण भी उसकी राक्षसीवृति ही थी। इसके अलावा विश्वामित्र ने किंकर नाम के राक्षस को भी कल्माषपाद में प्रवेश करने की आज्ञा दी। जिसके कारण वह ऐसे नीच कर्म करने लगा। लेकिन इतना होने पर भी महर्षि वसिष्ठ उसे क्षमा करते रहे। एक बार महषि वसिष्ठ अपने आश्रम लौट रहे थे तो उन्हे लगा कि मानो कोई उनके पीछे वेद पाठ करता चल रहा है।

वसिष्ठ बोले कौन है तो आवाज आई मैं आपकह पुत्र-वधु शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ती हूं। आपका पौत्र मेरे गर्भ में है वह बारह वर्षो से गर्भ में वेदपाठ कर रहा है वे यह सुनकर सोचने लगे कि अच्छी बात है मेरे वंश की परम्परा नहीं टूटी। तभी वन में उनकी भेट कल्माषपाद से हुई वह वसिष्ठ मुनि को खाने के लिए दौड़ा। उन्होने अपनी पुत्रवधु से कहा बेटी डरो मत यह राक्षस नहीं यह कल्माषपाद है। इतना कहकर हाथ मे जल लेकर अभिमंत्रित कर उन्होने उस पर छिड़क दिया और कल्माषपाद शाप से मुक्त हो गया। वसिष्ठ ने उसे आज्ञा दी की तुम अब कभी किसी ब्राम्हण का अपमान मत करना। महर्षि वसिष्ठ राजा के साथ अयोध्या आए और उसे पुत्रवान बनाया।
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