विश्वामित्र नन्दिनी को ले जाने लगे तो...
गंधर्वराज चित्ररथ के मुख से महर्षि की महिमा सुनकर अर्जुन ने कहा गंर्धवराज महर्षि वशिष्ठ कौन थे? कृपया उनका चरित्र सुनाइये। गंधर्वराज कहने लगे हे अर्जुन महर्षि वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र है। उनकी पत्नी का नाम अरूंधती है। उन्होने अपनी तपस्या के बल से देवताओं पर विजय और अपनी इन्द्रियों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। इसलिए उनका नाम वशिष्ठ हुआ। विश्वामित्र के बहुत अपराध करने पर भी उन्होने अपने मन में क्रोध नहीं आने दिया और उन्हे क्षमा कर दिया। यहां तक कि विश्वामित्र ने उनके पूरे सौ पुत्रों का नाश कर दिया। वशिष्ठ में बदला लेने की पूरी शक्ति थी। लेकिन फिर भी उन्होने कोई प्रतिकार नहीं किया। अर्जुन ने पूछा गंधर्व राज विशिष्ठ और विश्वामित्र तो आश्रमवासी थे, उनकी दुश्मनी का क्या कारण हैं? गंधर्व ने कहा: बहुत प्राचीन और विश्वविश्रुति है। मैं तुम्हे सुनाता हूं।
एक बार राजा कुशिक के पुत्र विश्वामित्र अपने मन्त्री के साथ मरुधन्व देश में शिकार खेलते-खेलते थककर वशिष्ठ के आश्रम पर आये। विशिष्ठ ने विधिपूर्वक उनका स्वागत सत्कार किया। अपनी कामधेनु नन्दिनी से उनकी खुब सेवा की। इस सेवा से विश्वामित्र बहुत खुश हुए। उन्होने वसिष्ठ से कहा कि आप मुझ से एक अर्बुद गौएं या मेरा राज्य ले लिजिए। अपनी कामधेनु नन्दिनी मुझे दे दीजिये। वशिष्ठ बोले मैंने यह दुधार गाय देवता, अतिथि पितर और यक्षो के लिए रख छोड़ी है। विश्वामित्र बोले आप ब्राम्हण हैं और मैं क्षत्रीय हूं। अगर आप मुझे नन्दिनी नहीं देगें तो मैं उसे बलपूर्वक प्राप्त कर ले जाऊंगा। वशिष्ठ जी ने बोला आप तो बलवान क्षत्रीय है जो चाहे तुरंत कर सकते हैं।
जब विश्वामित्र बलपूर्वक नन्दिनी को ले जाने लगे तब वह विलाप करती हुई कहने लगी हे भगवन्! ये सब मुझे डंडों से पीट रहे हैं मैं अनाथों की तरह मार खा रही हूं। आप मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? विशिष्ठ उसका करूण कुंदन सुनकर भी न क्षुब्ध हुए न धैर्य से विचलित। वे बोले क्षत्रीयों का बल हैं तेज और ब्राम्हणों का क्षमा। मेरा प्रधान बल क्षमा मेरे पास है। तुम्हारी मौज हो तो जाओ।
तुझमें शक्ति हो तो रह जा देख, तेरे बच्चे ये लोग मजबुत रस्सी से बाधकर लिए जा रहे हैं। वशिष्ठ की बात सुनकर नन्दिनी का सिर ऊपर उठ गया। आंखें लाल हो गई और उसका रोद्र स्वरूप को देखकर विश्वामित्र के सारे सैनिक भाग गए।
---------------------------------
राजा संवरण ने तपती को देखा तो..
गन्धर्व ने चाक्षुषी विद्या देने के बाद उसने अर्जुन को तपतीनन्दन कहकर संबोधित किया। तब अर्जुन ने गंधर्व से पूछा कि है गन्धर्व मैं तो कुन्ती का पुत्र हूं आपने मुझे तपतीनन्दन कहकर क्यों संबोधित किया। गंधर्व ने कहा हे! अर्जुन भगवान सूर्य की पुत्री तपती के नाम से विख्यात थी। वह आपकी ही माता की तरह ज्योतिषमती थी। वह सावित्री की छोटी बहन थी।
वह अपनी तपस्या के कारण तीनों लोकों में विख्यात थी। उन दिनों उसके समान कोई योग्य पुरुष भी नहीं था। जो उससे विवाह करें। उन्ही दिनों पुरूवंश में राजा ऋक्ष के पुत्र संवरण बड़े ही बलवान और धार्मिक थे। सूर्य के मन में भी यह बात आने लगी कि ये मेरी पुत्री के योग्य पति होंगे। एक दिन की बात है संवरण जंगल में शिकार खेल रहे थे। भुख प्यास से बेहाल होकर उनका घोड़ा मर गया तो वे पैदल ही चलने लगे।
उस समय जंगल में खड़ी एक अकेली लड़की पर पड़ी। उन्होने उस लड़की से पूछा कौन हो तुम? किसकी पुत्री हो? तुम्हे देखकर लगता है तीनों लोक में तुम्हारे जैसी कोई और सुन्दरी नहीं होगी। राजा की बात सुनकर वह कुछ नहीं बोली और अंर्तध्यान हो गई।राजा बेहोश होकर गिर पड़े। उन्हें धरती पर पड़ा देखकर तपती फिर आयी और बोली राजन् उठिए। राजा को चेतना आई और उन्होने कहा सुन्दरी मेरे प्राण तुम्हारे हाथ है। तुम मुझ से गंधर्व विवाह स्वीकार करों। उसने कहा मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं है। आप मेरे पिता को प्रसन्न करके मुझे मांग लिजिए।
यह सुनकर वे भगवान सूर्य की आराधना करने लगे। उन्होने मन ही मन अपने पुरोहित महर्षि वशिष्ठ का ध्यान किया। उन्होने राजा के मन का हाल जानकर उन्हे आश्वासन दिया और भगवान सूर्य से मिलने निकल पड़े। महर्षि वशिष्ठ ने भगवान सूर्य के पास पहुंचकर प्रार्थना की। भगवान ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ओर उन्ही के साथ तपती को भेज दिया। उसके बाद विधि पूर्वक पाणी-ग्रहण संस्कार के बाद उसके साथ वे उसी पर्वत पर सुख पूर्वक रखने लगे। बारह वर्ष वहां रहने के बाद प्रजा में होने वाली अव्यवस्था को देखते हुए वे तपती को लेकर अपनी राजधानी ले आये। इन्ही तपती के गर्भ से राजा कुरू का जन्म हुआ जिनसे कुरू वंश चला
--------------------------------------
अर्जुन ने मशाल से ही हरा दिया गंधर्व को
पांडवों ने अपनी माता को आगे कर पांचाल देश की यात्रा शुरू की। वे लोग उत्तर की तरफ बढऩे लगे। एक दिन रात यात्रा करने के बाद वे गंगा के किनारे सोमनाथ तीर्थ पर पहुंचे। उस समय उनके आगे-आगे अर्जुन मशाल लेकर चल रहे थे। उस समय गंगा में एक अंगार्पण नामक गंधर्व स्त्रियों के साथ विहार कर रहा था। उसने उन लोगों की पैरों की आहट सुनकर वह क्रोधित हुआ। उसने अपने धनुष की आवाज करते हुए पांडवों को कहा: दिन के अन्त से ललिमामय संध्या होती है। उसके बाद अस्सी लव के अलावा सारा समय गंधर्व और राक्षसों के लिए होता है।
जो मनुष्य अपने लालच के कारण इस समय यहां आते हैं राक्षस उन्हें कैद कर लेते हैं। इसलिए रात के समय जल में प्रवेश करना मना है दूर रहो।
अर्जुन ने उसकी बात सुनकर कहा अरे मुर्ख समुद्र, हिमालय की तराई और गंगा नदी ये स्थान किसके लिए सुरक्षित है? यहां आने के समय का कोई नियम नहीं है। गंगा माई का द्वार हर समय उसके हर भक्त के लिए खुला था। यदि हम मान भी लें की तुम्हारी बात ठीक है तो हम शक्ति सम्पन्न हैं नपुसंक नहीं हैं जो डरकर गंगा जल को स्पर्श ना करें। गंधर्व ने धनुष से जहरीले बाण छोडऩे प्रारंभ किए।अर्जुन ने अपनी मशाल से ही उसके सारे बाण व्यर्थ कर दिए। उसने कहा: अरे गंधर्व वीरों के सामने धमकी से काम नहीं चलता है। ले मैं तुझसे माया युद्ध नहीं करता द्विव्य अस्त्र चलाता हूं। यह अस्त्र मुझे मेरे गुरू द्रोणाचार्य ने दिया है। वह अस्त्र के तेज से इतना चकरा गया कि रथ से कुदकर मुंह के बल लुढ़कने लगा। यह देखकर उसकी पत्नी कुंभीनसी युधिठिर के समक्ष प्रार्थना करने लगी। युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर अर्जुन ने उसे छोड़ दिया।
गंधर्व ने कहा युद्ध हारने के कारण आज से में अपना नाम अंगार्पण त्यागता हूं। उसके बाद उसने पांडवों को विश्वावसुको से प्राप्त एक ऐसा विद्या चाक्षुषी दी। उसके बल के द्वारा कोई भी सुक्ष्म से सुक्ष्म वस्तु देखी जा सकती है। जो भी छ: महिने तक एक पैर से खड़ा होकर तपस्या करे वह इसका अधिकारी है लेकिन आपसे युद्ध हारने के कारण मैं आपसे अनुनय करता हूं कि इसे स्वीकार करें।
------------------------
द्रौपदी कौन थी पूर्व जन्म में?
द्रौपदी के जन्म की कथा और स्वयंवर का समाचार सुनकर पाण्डवों का मन भी वहां जाने को हुआ। उनके मन की बात जानकर कुंती ने भी पांचालदेश जाने की हामी भर दी। सभी पांचाल देश जाने की तैयारी करने लगे। उसी समय एकचक्रा नगरी में महर्षि वेदव्यास पाण्डवों से मिलने आ गए। सभी ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया। पांचाल देश जाने की बात सुनकर उन्होंने पाण्डवों को द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा सुनाई।
महर्षि वेदव्यास ने बताया कि द्रौपदी पूर्व जन्म में एक बड़े महात्मा ऋषि की सुंदर व गुणवती कन्या थी। इसके बाद भी पूर्व जन्मों के बुरे कर्मों के कारण किसी ने उसे पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया। इससे दु:खी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और उसे दर्शन दिए तथा वर मांगने को भी कहा। भगवान के दर्शन पाकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हो गई और उसने अधीरतावश भगवान शंकर से प्रार्थना की कि मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। ऐसा उसने पांच बार कहा। तब भगवान ने उसे वरदान दिया कि तुने मुझसे पांच बार प्रार्थना की है इसलिए तुझे पांच भरतवंशी पति प्राप्त होंगे। ऐसा कहकर भगवान शंकर अपने लोक को चले गए।
वही ब्राह्मण कन्या इस जन्म में अग्निकुंड से द्रौपदी के रूप में जन्मी है। तुम लोगों के लिए विधि-विधान के अनुसार वहीं सर्वांगसुंदरी निश्चित है। उस पाकर तुम सुखी रहोगे। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास अन्यत्र चले गए।
------------------------------
कैसे हुआ धृष्टद्युम्न व द्रौपदी का जन्म?
महात्मा याज ने जब राजा द्रुपद का यज्ञ करवाया तो यज्ञ के अग्निकुण्ड में से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। उसके सिर पर मुकुट, शरीर पर कवच था तथा हाथों में धनुष-बाण थे। यह देख सभी पांचालवासी हर्षित हो गए। तभी आकाशवाणी हुई कि इस पुत्र के जन्म से द्रुपद का सारा शोक मिट जाएगा। यह कुमार द्रोणाचार्य को मारने के लिए ही पैदा हुआ है।
इसके बाद उस अग्निकुंड में से एक दिव्य कन्या भी प्रकट हुई। वह अत्यंत ही सुंदर थी। उसके नीले-नीले घुंघराले बाल, लाल-लाल ऊंचे नख तथा उसकी आंखें कमल के समान थी। तभी आकाशवाणी हुई कि यह रमणीरत्न कृष्णा है। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए क्षत्रियों के विनाश के उद्देश्य से इसका जन्म हुआ है। इसके कारण कौरवों को बड़ा भय होगा। दिव्य कुमार व कुमारी को देखकर द्रुपदराज की रानी महात्मा याज के पास आई और प्रार्थना की कि ये दोनों मेरे अतिरिक्त और किसी को अपनी मां न जानें। महात्मा याज ने कहा- ऐसा ही होगा।
ब्राह्मणों ने उन दोनों का नामकरण किया। वे बोले- यह कुमार बड़ा धृष्ट(ढीट) और असहिष्णु है। इसकी उत्पत्ति अग्निकुंड की द्युति से हुई है, इसलिए इसका धृष्टद्युम्न होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है इसलिए इसका नाम कृष्णा होगा। द्रुपद की पुत्री होने के कारण कृष्णा ही द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई।
यज्ञ समाप्त होने पर द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न को अपने साथ ले आए और उसे अस्त्र-शस्त्र की विशिष्ट शिक्षा दी। द्रोणाचार्य यह जानते थे कि प्रारब्धानुसार जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। इसलिए उन्होंने पूरी लग्न के साथ धृष्टद्युम्न को अस्त्र शिक्षा दी, जिसके हाथों उनका मरना निश्चित था।
---------------------------------
द्रोणाचार्य को मारने के लिए क्या किया द्रुपद ने?
बकासुर का वध करने के बाद पाण्डव वेदाध्ययन करते हुए उसी ब्राह्मण के घर में रहने लगे। कुछ दिनों बाद उसी ब्राह्मण के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण आए। पाण्डवों ने उनका बड़ा सत्कार किया। उस ब्राह्मण ने बात ही बात में राजाओं को वर्णन करते हुए राजा द्रुपद की बात छेड़ दी और द्रोपदी के स्वयंवर की बात भी कही।
उन्होंने बताया कि जब से द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के द्वारा द्रुपद को पराजित किया है तब से द्रुपद बदले की भावना में जल रहा है। वे द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिए श्रेष्ठ संतान की चाह से कई विद्वान संतों के पास गए। लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की। फिर एक दिन द्रुपद घुमते-घुमते कल्माषी नगर गए। वहां ब्राह्मण बस्ती में कश्यप गोत्र के दो ब्राह्मण याज व उपयाज रहते थे।
द्रुपद सबसे पहले महात्मा उपयाज के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि आप कोई ऐसा यज्ञ कराईए जिससे मुझे द्रोणाचार्य को मारने वाली संतान प्राप्त हो। लेकिन उपयाज ने मना कर दिया। इसके बाद भी द्रुपद ने एक वर्ष तक उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा की। तब उन्होंने बताया कि उनके बड़े भाई याज यह यज्ञ करवा सकते हैं।
तब द्रुपद महात्मा याज के पास पहुंचे और उनको पूरी बात बताई। यह भी कहा कि यज्ञ करवाने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गाए भी दूंगा। महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया।
--------------
बकासुर का वध क्यों किया भीम ने?
कुंती के कहने पर भीम बकासुर के लिए भोजन लेकर वन में गए और उसका नाम लेकर पुकारने लगे। लेकिन बहुत देर तक जब वह राक्षस नहीं आया तो उसके लिए लाया भोजन स्वयं ही खाने लगे। थोड़ी देर बाद जब बकासुर आया तो उसने देखा कि भीमसेन उसका भोजन खा रहे हैं। यह देखकर वह बहुत क्रोधित हुआ और भीमसेन को मारने के लिए दौड़ा। भीमसेन ने उसकी और देखा और उसका तिरस्कार करते हुए भोजन करते रहे। इससे बकासुर और भी क्रोधित हो गया और वृक्ष उखाड़कर भीम की और दौड़ा।
तब तक भीम सारा खाना खा चुके थे। बकासुर को वृक्ष लेकर आता देख भीमसेन ने भी वृक्ष उखाड़ लिया। इस प्रकार दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। बहुत देर तक लडऩे पर जब बकासुर थक गया तो भीमसेन ने उसे जमीन पर पटक दिया और गला दबा कर उसका वध कर दिया। भीम बकासुर की लाश लेकर नगर के द्वार पर आए और वहां उसे पटककर चुपचाप चले गए। सुबह जब नगरवासियों ने बकासुर के शव को देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्होंने समझा कि यह उसी ब्राह्मण का काम है जिसे कल भोजन लेकर बकासुर के पास जाना जाना था। सभी लोग एकत्रित होकर उस ब्राह्ण के घर आए और उसकी प्रशंसा करने लगे। तब उस ब्राह्ण ने सत्य छुपाते हुए नगरवासियों से कह दिया कि मेरे स्थान पर एक सिद्ध ब्राह्मण राक्षस का भोजन लेकर गए थे। उन्होंने ही बकासुर का वध किया होगा। यह सुनकर सभी लोग खुश हो गए और नगर में उत्सव मनाने लगे।
----------
कौन था बकासुर राक्षस?
जब पाण्डव ब्राह्मणों का वेष बनाकर एकचक्रा नगरी में रहने लगे तब एक दिन किसी कारणवश भीमसेन भिक्षा मांगने नहीं गए और घर पर ही रुक गए। उस दिन उस ब्राह्मण के घर में जहां पाण्डव रहते थे अचानक चीख-पुकार मच गई। तब कुंती इस विलाप का कारण जानने के लिए ब्राह्मण के पास गई। कुंती ने वहां देखा कि ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा पुत्री तीनों स्वयं का बलिदान देने की बात कर रहे हैं और विलाप कर रहे हैं।
यह देखकर कुंती ने इसका कारण पूछा तो ब्राह्मण ने बताया कि नगर के बाहर बकासुर नामक एक राक्षस रहता है। उसके भोजन के लिए एक गाड़ी अन्न और दौ भैंसे रोज दिए जाते हैं और जो मनुष्य यह सब लेकर जाता है राक्षस उसे भी खा जाता है। प्रतिदिन नगर के किसी एक घर से किसी एक प्राणी को जाना पड़ता है। आज राक्षस के लिए भोजन हमारे परिवार में से किसी को लेकर जाना है इसलिए यह विलाप हो रहा है।
पूरी बात सुनकर कुंती ने ब्राह्मण को सांत्वना दी और कहा कि आज आपके परिवार के बदले मेरा पुत्र राक्षस के लिए भोजन लेकर जाएगा। तब कुंती ने भीम को यह सारी बात बताई। कुंती के कहने पर भीम राक्षस के लिए भोजन ले जाने के लिए तैयार हो गए।
--------------------
एकचक्रा नगरी में क्यों आए पाण्डव?
घटोत्कच के जन्म के बाद पाण्डव वन में विचरने लगे। भीम भी उनके साथ ही रहते थे। पाण्डवों ने सिर पर जटाएं रख ली और वृक्षों की छाल तथा मृगचर्म पहन लिए। एक बार जब पाण्डव शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे तभी वहां महर्षि वेदव्यास आए गए। पाण्डवों ने उन्हें ससम्मान आसन पर बैठाया। तब वेदव्यासजी ने कहा कि तुम्हें मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षाभवन बनवाया था। यह बात मैं जान चुका हूं। मैं तुम लोगों का हित करने के लिए ही यहां आया हूं।
यहां से पास ही एक बड़ा सुंदर नगर है जिसका नाम एकचक्रा है। तुम वहां जाकर रहो। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास स्वयं पाण्डवों व कुंती को साथ लेकर एकचक्रा नगरी तक आए। वहां पहुंचकर उन्होंने कुंती से कहा कि यह सब तुम्हारे हित के लिए ही हो रहा है इसलिए तुम दु:खी मत होओ। तुम्हारा पुत्र युधिष्ठिर एक दिन संपूर्ण पृथ्वी पर राज्य करेगा।
व्यासजी ने पाण्डवों तथा कुंती को एक ब्राह्मण के घर में ठहरा दिया और जाते-जाते कहा कि एक महीने तक मेरी बाट जोहना, मैं फिर आऊंगा। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास वहां से चले गए और पाण्डव माता कुंती के साथ एकचक्रा नगरी में रहने लगे। वे भिक्षावृत्ति से अपना जीवन-निर्वाह करने लगे। वे सायंकाल होने पर दिनभर की भिक्षा लाकर माता के सामने रख देते। माता की अनुमति से आधा भीमसेन खाते और आधे में शेष पाण्डव व कुंती। इस प्रकार बहुत दिन बीत गए।
---------------------------------------
कैसे हुआ घटोत्कच का जन्म?
युधिष्ठिर की आज्ञा मानकर भीम हिडिम्बा के साथ चले गए। हिडिम्बा भीम को आकाशमार्ग से लेकर उड़ गई। तब हिडिम्बा ने सुंदर स्त्री का रूप धारण कर लिया और तरह-तरह से वह भीम को रिझाने लगी। हिडिम्बा भीमसेन से मीठी-मीठी बातें करते हुए पहाड़ों की चोटियों पर, जंगलों में, गुफाओं आदि में विहार करने लगी। समय आने पर हिडिम्बा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका मुख विशाल, नुकीले दांत, तीखी दाढ़ें और विशाल शरीर था।
राक्षसों की माया से वह तुरंत ही जवान हो गया। उसके सिर पर बाल नहीं थे। भीम तथा हिडिम्बा ने उसके घट अर्थात सिर को उत्कच यानि केशहीन देखकर उसका नाम घटोत्कच रख दिया।
घटोत्कच पाण्डवों के प्रति बड़ी श्रद्धा और प्रेम रखता था तथा पाण्डव भी उस पर स्नेह रखते थे। इस प्रकार भीम की प्रतिज्ञा पूरी होने पर हिडिम्बा ने पाण्डवों को जाने के लिए हामी भर दी। तब घटोत्कच ने कुंती व पाण्डवों को नमस्कार कर पूछा कि मैं किस प्रकार आपकी सेवा कर सकता हूं।
घटोत्कच की बात सुनकर कुंती ने घटोत्कच से प्रेमपूर्वक कहा कि तू कुरुवंश में पैदा हुआ है और पाण्डवों का सबसे बड़ा पुत्र है। इसलिए समय आने पर इनकी सहायता करना। तब घटोत्कच ने कहा कि जब भी आप मेरा स्मरण करेंगे मैं तुरंत आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। ऐसा कहकर वह उत्तर दिशा की ओर चला गया।
-----------------------------------
कैसे हुआ भीम व हिडिम्बा का विवाह?
जब भीमसेन ने हिडिम्बासुर का वध किया और सभी पाण्डव माता कुंती के साथ वन से जाने लगे तो हिडिम्बा भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। हिडिम्बा को पीछे आता देख भीम ने उससे जाने के लिए कहा तथा उस पर क्रोधित भी हुए। तब युधिष्ठिर ने भीम को रोक लिया।
हिडिम्बा ने कुंती व युधिष्ठिर से कहा कि इन अतिबलशाली भीमसेन को मैं अपना पति मान चुकी हूं। इस स्थिति में अब ये जहां भी रहेंगे मैं भी इनके साथ ही रहूंगी। आपकी आज्ञा मिलने पर मैं इन्हें अपन साथ लेकर जाऊंगी और थोड़े ही दिनों में लौट आऊंगी। आप लोगों पर जब भी कोई परेशानी आएगी उस समय मैं तुरंत आपकी सहायता के लिए आ जाऊंगी। हिडिम्बा की बात सुनकर युधिष्ठिर ने भीमसेन को समझाया कि हिडिम्बा ने तुम्हें अपना पति माना है इसलिए तुम भी इसके साथ पत्नी जैसा ही व्यवहार करो। यह धर्मानुकूल है। भीमसेन न युधिष्ठिर की बात मान ली।
इस प्रकार भीम व हिडिम्बा का गंर्धव विवाह हो गया। तब युधिष्टिर ने हिडिम्बा से कहा कि तुम प्रतिदिन सूर्यास्त के पूर्व तक पवित्र होकर भीमसेन की सेवा में रह सकती हो। भीमसेन दिनभर तुम्हारे साथ रहेंगे और शाम होते ही मेरे पास आ जाएंगे। तब भीम ने कहा कि ऐसा सिर्फ तब तक ही होगा जब तक हिडिम्बा को पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी।
हिडिम्बा ने भी स्वीकृति दे दी। इस प्रकार भीम हिडिम्बा के साथ चले गए।
----------------------------
राक्षस हिडिम्बासुर का वध क्यों किया भीम ने?
लाक्षाभवन से निकलकर जब पाण्डव दक्षिण दिशा की ओर चले तो रास्ते में एक वन आया। सभी ने उसी वन में रात बिताई। उस वन में हिडिम्बासुर नाम का एक राक्षस रहता था। जब उसने मनुष्यों की गंध सूंघी तो उसने अपनी बहन हिडिम्बा से कहा कि वन में से मनुष्यों की गंध आ रही है तुम उन्हें मारकर ले आओ ताकि हम उन्हें अपना भोजन बना सकें। भाई की आज्ञा मानकर जब हिडिम्बा पाण्डवों को मारने के लिए गई तो सबसे पहले भीम को देखा जो पहरेदारी कर रहे थे।
भीम को देखकर हिडिम्बा उस पर मोहित हो गई। तब हिडिम्बा स्त्री का रूप बदलकर भीम के पास पहुंची और अपना परिचय देकर प्रणय निवेदन किया। उसने हिडिम्बासुर के बारे में भी भीम को बताया। लेकिन भीमसेन जरा भी विचलित नहीं हुए। उधर जब काफी देर तक हिडिम्बा नहीं पहुंची तो हिडिम्बासुर स्वयं वहां आ पहुंचा। हिडिम्बा को भीम पर मोहित हुआ देख वह बहुत क्रोधित हुआ और उसे मारने के लिए दौड़ा। इतने में ही भीमसेन बीच में आ गए और दोनों के बीच भयंकर युद्ध होने लगा।
आवाजें सुनकर पाण्डवों की नींद भी खुल गई। कुंती ने जब हिडिम्बा को वहां देखा तो उसका परिचय पूछा। हिडिम्बा ने पूरी बात कुंती को सच-सच बता दी। इधर भीम को राक्षस के साथ युद्ध करता देख अर्जुन उनकी मदद के लिए आए लेकिन भीम ने उन्हें मना कर दिया और अपने बाहुबल से हिडिम्बासुर का वध कर दिया। जब पाण्डव वहां से जाने लगे तो हिडिम्बा भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी।
----------------------------------
लाक्षाभवन से निकलने के बाद पाण्डवों ने क्या किया?
लाक्षाभवन से निकलने के बाद पाण्डव गंगा नदी के तट पर पहुंच गए। तभी वहां विदुरजी द्वारा भेजा हुआ सेवक भी आ गया । उसने नौका से पाण्डवों को गंगा के पार पहुंचा दिया। पाण्डव बड़ी शीघ्रता से आगे बढऩे लगे। सुबह जब वारणावतवासियों ने जले हुए महल को देखा तो उन्हें पता चल गया कि महल लाख का बना हुआ था। वे तुरंत समझ गए कि यह सब दुर्योधन की ही चाल थी जिसके कारण पाण्डव इस महल में जल कर मर गए। आग बुझने पर जब महल की राख को हटाया तो उसमें से भीलनी तथा उसके पांच पुत्रों के साथ ही पुरोचन का भी शव निकला। लोगों ने समझा कि यह माता कुंती तथा पाण्डवों के ही शव हैं। तब सभी दुर्योधन को धिककारने लगे।
यह खबर जब धृतराष्ट्र को लगी तो झूठ-मूठ का विलाप करने लगा। उन्होंने कौरवों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही वारणावत जाओ और पाण्डवों का अंत्येष्टि संस्कार करो। इस प्रकार सभी लोग यह समझने लगे की पाण्डव सचमुच मर चुके हैं। विदुर सब कुछ जानते हुए भी अनजाने बने रहे।
इधर पाण्डव तेजी से दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे। माता कुंती तथा पाण्डव काफी थक चुके थे। इसलिए वे चलने में असमर्थ थे तब भीम ने माता कुंती को कंधे पर, नकुल व सहदेव को गोद में तथा युधिष्ठिर तथा अर्जुन को अपने दोनों हाथों पर बैठा लिया और तेजी से चलने लगे। थोड़ी देर बाद कुंती को प्यास लगी तो भीम ने सभी को नीचे उतार दिया और स्वयं पानी लेने के लिए चले गए। जब भीम वापस लौटे तो माता कुंती व भाइयों को इस अवस्था में देख बहुत दु:खी हुए। वह रात पाण्डवों ने वहीं वन में बिताई।
-------------------------------
लाक्षा भवन की आग से कैसे बचे पाण्डव ?
धृतराष्ट्र के कहने पर जब पांडव वारणावत पहुंचे तो वहां के नागरिकों में बड़े उत्साह से उनका स्वागत किया। दुर्योधन के मंत्री पुरोचन ने पांडवों के रहने व भोजन का उचित प्रबंध किया। दस दिन बीत जाने के बाद पुरोचन ने पांडवों को लाक्षा भवन के बारे में बताया तब माता कुंती के साथ लाक्षा भवन में रहने चले गए। युधिष्ठिर ने जब भवन को देखा तो उन्हें दुर्योधन की चाल तुरंत समझ में आ गई। यह बात युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी बताई। तब सभी ने यह निर्णय लिया कि यहां चतुराई पूर्वक रहना ही उचित होगा।
तभी वहां विदुरजी द्वारा भेजा गया सेवक आया जो सुरंग खोदने में माहिर था। युधिष्ठिर के कहने पर उसने भवन के बीच एक बड़ी सुरंग बनाई। और उसे इस प्रकार ढ़क दिया कि किसी को उस सुरंग के बारे में पता न चले। पांडव अपने साथ शस्त्र रखकर बड़ी सावधानी से रात बिताते थे। दिनभर शिकार खेलने के बहाने जंगलों के गुप्त रास्ते पता किया करते थे। पुरोचन को लगभग एक वर्ष बाद यह विश्वास हो गया कि पांडवों को दुर्योधन की चाल का बिल्कुल ध्यान नहीं हैं। तब युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा कि अब वह समय आ गया है जब पुरोचन का वध कर यहां से भाग निकलना चाहिए।
कुंती ने एक दिन दान देने के लिए ब्राह्मण भोज कराया। जब सब खा पीकर चले गए। एक भील की स्त्री अपने पांच पुत्रों के साथ खाना मांगने आईं। वे सब शराब पीकर लाक्षा भवन में ही सो गए। उसी रात भीमसेन ने पुरोचन के कक्ष में आग लगा दी तथा जब आग बहुत भयानक हो गई तब पांचों भाई माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते नगर के बाहर निकल गए। वारणावत के लोगों ने जब लाक्षा भवन जलता दिखा तो उन्हें लगा कि पांडव भी जल गए हैं, यह सोचकर वे रातभर विलाप करते रहे।
--------------------------------
विदुरजी ने युधिष्ठिर को क्या गुप्त बात कही?
जब राजा धृतराष्ट्र के कहने पर पाण्डव वारणावत जाने लगे तो विदुरजी ने युधिष्ठिर को सांकेतिक भाषा में कहा कि नीतिज्ञ पुरुष को शत्रु का मनोभाव समझकर उससे अपनी अपनी रक्षा करनी चाहिए। एक ऐसा अस्त्र है जो लोहे का तो नहीं है परंतु शरीर को नष्ट कर सकता है (अर्थात शत्रुओं ने तुम्हारे लिए एक ऐसा भवन तैयार किया है जो आग से तुरंत भड़क उठने वाले पदार्थों से बना है।)
आग घास-फूस और जीव सारे जंगल को जला डालती है परंतु बिल में रहने वाले जीव उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं। यही जीवित रहन का उपाय है (अर्थात उससे बचने के लिए तुम एक सुरंग तैयार करा लेना।)
अंधे को रास्ता और दिशा का ज्ञान नहीं होता। बिना धैर्य के समझदारी नहीं आती। (अर्थात दिशा आदि का ज्ञान पहले से ही तैयार कर लेना ताकि रात मे भटकना न पड़े।)
शत्रुओं के दिए हुए बिना लोहे के हथियार को जो स्वीकार करता है वह स्याही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है। (अर्थात उस सुरंग से यदि तुम बाहर निकल जाओगे तो उस भवन की आग में जलने से बच जाओगे।)
जिसकी पांचों इंद्रियां वश में है, शत्रु उसकी कुछ भी हानि नहीं कर सकता (अर्थात यदि तुम पांचों भाई एकमत रहोगो तो शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।
विदुरजी की सारी बात युधिष्ठिर ने अच्छी तरह से समझ ली। तब विदुरजी हस्तिनापुर लौट गए। यह घटना फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र की है।
-----------------------------